Tuesday, 31 January 2023

The Journey that matters -

First Blog, 2015 -

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2016 - 

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2017 -

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2018 -

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2019 -

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2020 -

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Thursday, 26 January 2023

बाल झड़ना

अभी कुछ दिन पहले एक भाई का फोन आता है, मैं कहता हूं कि थोड़ा व्यस्त हूं बाद में लगाता हूं अगर कुछ जरूरी ना हो तो, उधर से जवाब आता है कि जरूरी ही है। पूछने पर पता चलता है कि वह बाल झड़ने को लेकर बहुत परेशान है, गंजा होने की कगार पर है। समाधान के तौर पर मैं भी कुछ जवाब नहीं दे पाता हूं। मैं उससे पहले यही पूछता हूं कि रोजमर्रा के जीवन में बहुत अधिक तनाव तो नहीं है उधर से जवाब आता है कि कोई तनाव नहीं है, मैं यह सवाल बार-बार पूछता हूं, उधर से नहीं में ही जवाब आता है। बाल झड़ने के बहुत से संभावित कारण हो सकते हैं जिसकी मुझे विस्तृत जानकारी नहीं है। लेकिन अपने हम उम्र लोगों में मैंने यह खूब देखा है की 25, 30 की उम्र में ही उनके सिर के बाल गायब होने लगते हैं, इसमें आनुवांशिक कारण भी होते हैं लेकिन कुछ एक लोगों में मैंने देखा कि भयानक तनावग्रस्त माहौल में लंबे समय तक रहने की वजह से या व्यक्तिगत जीवन में बहुत अधिक तनाव लेने के कारण बाल झड़ने लगते हैं या सफेद होने लगते हैं या वे उम्र से पहले ही बड़े दिखने लगते हैं। अभी कुछ समय पहले का ही उदाहरण है, महीने भर पहले मैंने कुछ एक चीजों को लेकर खूब तनाव लिया, समय पर नींद और भोजन प्रभावित हुआ, फलस्वरूप कुछ एक दिनों के भीतर ही मेरे सिर के 2-4 बाल पक गए। असल में शरीर जल्दी ही प्रतिक्रिया दे देता है, सूचित कर देता है, हमें ही देखना होता है।

Tuesday, 24 January 2023

हिंसा के प्रतिगामी -

कठोर संघर्ष से उठे हुए व्यक्ति के भीतर अगर प्रेम खत्म हो जाए तो वह बहुत अधिक हिंसक हो जाता है। जिसने बचपन से अपने दैनिक जीवन में भयानक शोषण, गरीबी, अपमान और ऐसी तमाम तरह की आर्थिक सामाजिक विद्रूपताएं झेली होती हैं, जो जीवन के पग-पग पर समझौता करते ही जीवन बिताकर आया होता है, ऐसा व्यक्ति जब ऊपर उठकर कहीं पहुंचता है, जब आराम और सुविधाएँ उसके हिस्से आती है, तो ऐसी स्थिति में अमूमन दो तरह की चीजें होती हैं। पहला तो यह कि वह व्यक्ति जीवन के प्रति सहज हो जाता है, कृतज्ञता से भर जाता है, प्रेम उसके भीतर बहने लगता है, ऐसा व्यक्ति जीवन की कठोरताओं को अपने भीतर हावी नहीं होने देता है। दूसरे जो लोग होते हैं वे जीवन की इन परीक्षाओं से लड़ते-जूझते कहीं खो से जाते हैं, भीतर से बहुत अधिक कठोर हो जाते हैं, प्रेम इनके भीतर मर जाता है, कुशल कूटनीतिज्ञ बन जाते हैं, घाघपना इनके खून में बहता है, येन-केन-प्रकारेण हर तरह का वर्चस्व हासिल कर लेना ही इनके जीवन का अंतिम लक्ष्य बन जाता है चाहे उसके लिए कोई भी रास्ता क्यों न चुनना पड़े, अमूमन ऐसे लोगों को न प्रेम का ताप छू पाता है न ही कोई तूफान इन्हें हिला पाता है, अपनी कठोरता को ओढ़े ये अडिग अविचल सतत अपने अदृश्य हिंसा रूपी पथ पर अनवरत बने रहते हैं, ऐसे लोग समाज में भयानक अंतर्विरोध पैदा करते हैं। 

Sunday, 22 January 2023

नैतिकता की सीमाएं -

एक स्तर होता है,
कहीं पहुंच जाने का।
नेता हो, पत्रकार हो या बाबा हो,
उन्हें लांघनी होती है, 
नैतिकता की एक सीमा।
जिन्हें पहुंचना होता है,
झटके में सबसे ऊपर,
वह भरता है,
सबसे तेज हुंकार।
वह लांघता है,
सबसे अधिक सीमाएं।
देश दुनिया में यही चल रहा है,
सीमाएं लांघी जा रही है नैतिकता की।

Wednesday, 18 January 2023

Sleep Quality

नींद को लेकर लोगों में तरह-तरह की भ्रांतियाँ हैं। खासकर कम सोने को लेकर एक से एक ज्ञान देने वाले आपको मिल जाएंगे। हमारे यहाँ बाबा योगी ब्रम्हचारी इनको आधार बनाकर बहुत गलत तरीके से कम सोने को लेकर प्रचार किया जाता है। असल में सबके शरीर का अपना अलग-अलग सिस्टम होता है, कोई कम तो कोई थोड़ा ज्यादा सोता है। लेकिन उसके बावजूद भी अगर कोई 5-6 घंटे से कम की नींद ले रहा है इसका सीधा सा अर्थ यही है कि वह स्वस्थ नहीं है, एकदम अपवादों में से अपवाद कोई कठोर साधना करने वाले बाबा वगैरह की बात नहीं कर रहा, उनका तो दिन रात का काम ही यही सब रहता है तो उनके लिए ठीक है, आम साधारण लोगों की अपनी जीवनशैली अलग रहती है, उसमें ये बाबा साधकों वाले लाॅजिक को बीच में नहीं ठूंसना चाहिए। इसमें मुझे एलन मस्क की कही हुई बात सटीक मालूम होती है। वे कहते हैं कि पहले वे 5-6 घंटे सोते थे, लेकिन अब वे 6-7 घंटा सोते हैं, इससे वे पहले से कहीं ज्यादा ऊर्जावान महसूस करने लगे हैं। अपनी बात कहूं तो मेरा भी यही हाल है, 5-6 से अधिक की नींद हो ही नहीं पाती, स्कूल के दिनों में 6-7 घंटे की नींद होती थी, अब तो यह निरा स्वप्न सा हो गया है, हाँ भारत घूमने के दौरान कई बार 6-7 घंटे की बहुत बढ़िया नींद नसीब हुई, शरीर में अलग ही ऊर्जा महसूस होती थी। बीच में एक बार दिल्ली से रायपुर लगभग 1300 किलोमीटर लगातार 22 घंटे में बाइक चलाकर आया था, लेकिन मैं उस दिन सुबह 7 बजे निकला था, और उस रात भरपूर 7 घंटे की नींद हुई थी, शरीर में बढ़िया एनर्जी थी तब जाकर ही ऐसा कर पाया। उसके बाद जब अगले  दिन सुबह घर पहुंचा तो सब धुंधला सा नजर आ रहा था, दोपहर को 3-4 घंटे की नींद ली, फिर रात को भी 6-7 घंटे की बढ़िया नींद ली तब जाकर बैलेंस हुआ। सबको अपने शरीर का हिसाब किताब खुद देखना चाहिए। अब ऐसे सफर के बाद मैं किसी बाबा की बात सुनके साधना रुपी 4 घंटे नींद की पालना करने लगूं तो मुझसे बड़ा मूर्ख कोई नहीं है। मुझे तो यही समझ आया कि कड़ाके की ठंड में 22 घंटे लगातार बाइक चलाना बड़ी साधना है, कोई 3-4 घंटे नींद लेने वाला बाबा ये करके दिखाए तो मानूं, खैर। 2023 की कोशिश तो यही है कि ज्यादा से ज्यादा गुणवत्तापूर्ण नींद हासिल की जाए। आप भी अच्छे से सोएं, तनावमुक्त होकर सोने के लिए जाएं और उतना जरूर सोएं जितने की जरूरत शरीर को है। और अगर कोई 2-4 घंटे सोने का ढोंग करता है, ऐसे बागड़बिल्लों का सही से हिसाब कीजिए। 

Monday, 16 January 2023

अथो MLM कथा -

वैसे तो MLM, नेटवर्क मार्केटिंग वाले लोग मेरे से दूर ही रहते हैं लेकिन एक बार एक दोस्त ने मुझे पकड़ लिया। कई सालों बाद उसने नंबर मांगा और बात की। तब तक मुझे इस प्रजाति के बारे में उतना नहीं था। हम दोनों के बीच जो चर्चा हुई उसे आपके सामने रख रहा हूं।

दोस्त - भाई तुझे नौकरी करनी है क्या, एक अच्छा काम है।
मैं - इतना अतिरिक्त समय नहीं है भाई।
दोस्त - घर बैठे हो जाएगा, इतना फायदा होगा, दिन का इतना घंटा देना होगा।
मैं - एक मिनट नहीं दे सकता, फायदा नहीं चाहिए भाई।
दोस्त - तू अपने लिए अच्छे पैसे नहीं कमाना चाहता।
मैं - नहीं भाई, ऐसे ही ठीक हूं। स्वस्थ हूं, खुश हूं, स्वास्थ्य से बड़ा धन कुछ है क्या।
दोस्त - ठीक है, लेकिन पैसा तो चाहिए न भाई।
मैं - तो है न भाई, बहुत पैसा है इधर।
दोस्त - हां, तो तू उन पैसों से अपने लिए मार्केट से चीजें खरीदता ही होगा।
मैं - नहीं भाई, मेरे शौक बहुत ही चुनिंदा/सीमित हैं, बहुत ज्यादा खरीददारी जैसा कुछ विशेष होता ही नहीं।
दोस्त - भाई तो डेली यूज के लिए टूथपेस्ट तो खरीदता होगा?
मैं - हाँ, पूरी दुनिया खरीदती है।
दोस्त - तो भाई, टूथपेस्ट मेरे से खरीदना, अच्छी गुणवत्ता का, साथ में साबुन आदि।
मैं - भाई मैं टूथपेस्ट वैसे भी कम करता हूं, कभी-कभी दातौन भी कर लेता हूं, मेरा तो वो 10 रूपए वाला पैकेट ही ठीक-ठाक चल जाता है।
दोस्त - भाई तो वो 10 रूपए वाला पैकेट भी अपने भाई से लेना, क्या दिक्कत है।
मैं - ठीक है, सोचता हूं। 

बस इसके बाद मैंने सरेंडर कर दिया, इतने सवाल जवाब के बाद मेरी सारी शक्तियाँ खत्म हो चुकी थी। उस दिन मैंने विद्या कसम खाते हुए स्वीकार कर लिया कि एक बार संयुक्त राष्ट्र संघ में जाकर डिबेट करने की क्षमता विकसित कर लूंगा लेकिन नेटवर्क मार्केटिंग वालों से चर्चा विमर्श करने लायक जो योग्यता चाहिए वह मुझमें नहीं है। 

Thursday, 12 January 2023

Days like these -

There will be days like these,

You would not notice the smiling faces
And not care for the cute kid around  
Trains keep passing by in a blur,  
Without making a single sound!     

When chocolates don’t work,  
When coffee does not heal  
When sunshine gets gloomy  
And breezes you can’t feel
     
All your strength just crumbles down to pieces;   
The slivers digging deep in your vein  
You don’t know whether to stay or to go,  
You feel the numbing of the pain     

But it’s not gone; it still is there, to hurt you   
Every time your feet touch the ground  
And every time blood gushes out of the wound,   
Every time you feel your heart pound.
     
It may heal soon, it may last long,  
But on days like these, 
you will have to be strong  
Because you my precious, is all you have  
And giving up on you would be so wrong!     

And for days like these we have tomorrows     
Tomorrow where the promises live,   
Where wounds get healed and hearts get whole  
For tomorrow has the answers to questions yet unasked  
For many hopes and dreams tomorrow holds!     
Hang on, even if by the thread if needed  
You need to make it through this day  
And past this day, you will win your battles,  
I promise, my precious, if I may!



Tuesday, 10 January 2023

Parasite ( परजीवी ) -

वे जीव जो किसी अन्य जीव पर आश्रित (भोजन तथा आवास) होते हैं, परजीवी जन्तु (parasite) कहलाते हैं जैसे: जोंक, फीताकृमि, जूं आदि। मोटे तौर पर यदि देखा जाए तो जन्तु समुदाय के सभी सदस्य किसी न किसी जन्तु या पौधे पर निर्वाह करने के कारण 'परजीवी' कहे जाने चाहिए।

परजीविता का यह गुण सिर्फ जन्तु या पादप तक सीमित न होकर मनुष्यों में भी है। मनुष्यों में भी अलग-अलग तरह के परजीवी होते हैं। सुभीते के लिए मनुष्यों में पाई जाने वाली परजीविता को मैं दो भागों में विभक्त कर रहा हूं -

1. सामान्य परजीवी - सामान्य परजीवी वे होते हैं जो अपने भोजन, आवास एवं अन्य दैनिक आवश्यकताओं के लिए स्वयं कोई कार्य जैसे : नौकरी, खेती, व्यापार आदि करते हैं और इसके अलावा अपनी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरे सामान्य परजीवियों से समन्वय स्थापित करते हैं। सामान्य परजीवियों में सहजीवन, उत्तरदायित्व, कर्तव्यबोध का गुण विद्यमान होता है। सामान्य परजीवी खुद को पहली प्राथमिकता देते हैं लेकिन दूसरों को जरा भी नुकसान नहीं पहुंचाते हैं, उन्हें भी साथ लेकर चलने का गुण इनमें होता है। एक स्वस्थ समाज के निर्माण में ये प्राथमिक घटक के रूप में होते हैं।

2. विलक्षण परजीवी - विलक्षण परजीवी वे होते हैं जो अपने भोजन, आवास एवं अन्य दैनिक आवश्यकताओं के लिए स्वयं कोई कार्य अलग से नहीं कर रहे होते हैं बल्कि आपात स्थिति में कार्य करने का दिखावा करते हैं। विलक्षण परजीवियों का योगदान समाज में शून्य होता है बावजूद इसके वे अपनी सारी जरूरतों के लिए सामान्य परजीवियों पर आश्रित होते हैं। विलक्षण परजीवियों में सहभोजिता भी बहुत अलग तरह की होती है, अमूमन जंतुओं में सहभोजिता का गुण ऐसा होता है कि एक जंतु दूसरे जंतु से लाभ लेगा लेकिन दूसरे जंतु को न लाभ होता है न हानि होती है लेकिन विलक्षण परजीवी अपने सामान्य परजीवी से लाभ भी लेता है और बदले में उसे नुकसान भी पहुंचाता है। इन्हीं सब गुणों की वजह से इन्हें विलक्षण परजीवी कहा जाता है। 
उदाहरण : पिताजी की बनाई बिल्डिंग से प्राप्त होने वाले किराए की वसूली कर जीवन यापन करने वाला बेटा, पोथी पुराण रटकर आमजन को मूर्ख बनाकर उनसे उगाही करने वाले बाबा, दिन रात ज्ञान देने वाले स्वयंभू विशेषज्ञ आदि। 

गृहकार्य : विलक्षण परजीवियों की सूची बनाइए और उनकी परजीविता को दर्शाने वाला एक गुण लीखिए।

Sunday, 8 January 2023

लड़कियों द्वारा छोटी उम्र में रिश्तों में आ जाना -

पिछले दस बारह साल के अनुभवों से, अपने स्तर पर की गई केस स्टडी से एक बहुत गंभीर बात कहने जा रहा हूं‌। ( खैर, फेसबुक में अब गंभीर बातें रखने लायक स्पेस नहीं रह गया है लेकिन और कोई विकल्प भी नहीं है )

अधिकांश लड़कियाँ जो बहुत छोटी उम्र में रिश्तों में आ जाती हैं, या भागकर शादी कर लेती हैं, जिन्हें समाज तरह-तरह के विशेषणों से नवाजता है। उनमें से अधिकतर लड़कियों ने परिवार में समाज में अपने करीबी लोगों से बैड टच/शारीरिक शोषण झेला ही होता है, सबकी अपनी परिस्थितियाँ भिन्न-भिन्न हो सकती है लेकिन अधिकतर यही होता है। परिवार में अगर जैसे तनाव भरा माहौल रहता है, तो बच्चियाँ महिलाएँ बहुत आसान शिकार बन जाती हैं, उनके चरित्र की बलि सबसे पहले लगती है। 

स्कूल काॅलेज में जाकर बहुत कम समय के लिए लड़कों से रिश्ते रखकर अपनापन खोजने वाली, फिर उसके बाद दुःखों के एक चैन को सतत जीने वाली अधिकतर लड़कियों ने बचपन में कम अधिक कुछ न कुछ ट्रामा झेला ही हुआ था। कुछ लोगों ने यह तक कहा कि जब परिवार का ही एक व्यक्ति मुझे मांस का टुकड़ा समझता है, जिसका विरोध कर खुद को सही साबित करना भी मुश्किल है, इससे बेहतर तो यही है कि इस मांस के टुकड़े को हमेशा के लिए किसी ऐसे व्यक्ति के सुपुर्द कर दूं जो बदले में मुझे इंसान समझ के सम्मान तो करेगा। घर से भाग जाने वाली अधिकांश लड़कियाँ चरित्रहीन नहीं होती हैं, अपने चरित्र की रक्षा हो सके इसलिए भाग जाती हैं। एक किसी ने कहा कि बचपन के ट्रामा ने भीतर इतना विषवमन कर दिया कि एक छोटी उम्र से हमेशा एक सपोर्ट सिस्टम की तरह किसी से बात करते रहना जरूरी विकल्प हो गया। लड़कियों को एक उम्र के बाद अपनी माताओं से ट्रेनिंग मिलती है कि विपरित लिंग के प्रति आकर्षण को समझा जाए, उसके प्रति सहज हुआ जाए, एक‌ निश्चित दूरी बना कर रखी जाए। कुछ लोग सौभाग्यशाली होते हैं, उन्हें सही माहौल मिल जाता है, हर तरह की सुरक्षा रहती है, एक इमोशनल सपोर्ट सिस्टम लगातार उनके पीछे काम‌ कर रहा होता है, उन्हें कोई चाइल्डहुड ट्राॅमा नहीं झेलना पड़ता है, परिस्थितियां उनके अनुकूल होती हैं (ऐसे लोग मैंने विरले ही देखे), लेकिन अधिकतर लोगों के भाग्य में ऐसा नहीं होता है। 

घायल व्यक्ति बहुत जल्दी खड़ा नहीं हो सकता है, वह कहाँ कितना भीतर से टूटा है, उसे खुद मालूम नहीं होता है, इस उहापोह में वह जल्द से जल्द ठीक होने की जद्दोजहद में सहारे की आस रखता ही है। जिन्होंने लगातार वास्तविक दु:ख/पीड़ा/ट्रामा झेला होता है, उन्हें आभासी क्षणिक सुख का अहसास ही वास्तविक चिरस्थायी प्रतीत होता है, और दुःखों की यह सीरीज अनवरत चलती रहती है। कई बार वास्तविक सुख भी मिल जाता है, लेकिन अपवाद स्वरूप ही ऐसी घटनाएँ होती हैं। 

प्रकृति का भी अपना एक साम्य होता है, समाज कितना भी डिजिटल हो जाए समाज उसी साम्यावस्था में ही चलता है, जैसा सदियों से चल रहा है। सोचिए एक छोटा सा बच्चा, जिसने अभी-अभी चलना शुरू किया, वह किसी चीज से नहीं डरता है क्योंकि उसमें सही गलत किसी भी चीज की समझ विकसित नहीं होती, उस उम्र के बच्चे को आप कितना भी नियम कानून गिनाइए, घूर लीजिए, उसे फर्क ही नहीं पड़ता है। फर्ज करें कि उस उम्र के बच्चे के, उस सोच को एक‌ युवा वाली ताकत मिल जाए तो क्या होगा, वह जैसे खिलौने बिखेरता है, उस स्तर का विध्वंस पूरे विश्व में हो जाएगा। यही प्रकृति का साम्य है, जैसे कोयल को कण्ठ मिला तो रूप छिन लिया, मनुष्य को भी कोई क्षमता मिली है तो उसकी अपनी सीमाएं भी साधी गई हैं ताकि प्रकृति का अपना साम्य बना रहे और उसी में जीवन का अपना सुख भी है। आप कोशिश कर लीजिए उस साम्य के खिलाफ जाने की, आप दुःख, तनाव से आजीवन घिरे रहेंगे, सब कुछ होकर भी कुछ नहीं होगा, धंसते चले जाएंगे। जब-जब व्यक्ति इस साम्यावस्था के खिलाफ जाता है, साम्यावस्था की इस कड़ी से टूटकर अलग होने लगता है, तब जाकर वह गलती करता है, तब जाकर ही तमाम‌ तरह के अपराध समाज में होते हैं।

Monday, 2 January 2023

दुःख है

पिछले कुछ सालों में बाकी अन्य लोगों की तरह ही मैंने भी अनेक परिजनों को देखने, हाल-चाल जानने अस्पताल का चक्कर लगाया। अलग-अलग तरह की बीमारियों से लोगों को जूझते संघर्ष करते देखा, समझ नहीं पाया कि क्या छोटा क्या बड़ा है। सबके अपने दुःख, सबकी अपनी समस्याएँ। शारीरिक दुःख की बात करें तो दशक भर पहले एक व्यक्ति मिला था, सेमी प्राइवेट वार्ड में एक परिचित के साथ था, उसका दोनों पांव ट्रक के नीचे आ गया था, तो बुरी तरह से चकनाचूर हो गया था। उसके दोनों पांवों को मांसपेशियों के भराव के लिए जोड़ दिया गया था, जब भी उसके घांव की मरहम पट्टी की जाती, उसे इतना दर्द होता कि वह रो पड़ता। शारीरिक रूप से मजबूत लड़का था, एकदम जिंदादिल। जैसे ही उसका मिनट भर का दर्द जाता, वह फिर से जोक मारने लग जाता, एकदम खुश, एकदम स्वस्थ, कोई चिंता नहीं, कोई तनाव नहीं। एक और परिचित कीमोथेरेपी वाले थे, उनका शारीरिक दु:ख तो इससे भी अधिक असहनीय था, उस बारे में लिख कर बता पाना संभव नहीं है। हार्ट अटैक, किडनी डायलिसिस संबंधी मामले, तीन चार तरह के पैरालिसिस, इतने अलग-अलग तरह के रोगों से लोगों को जूझते देखने के बावजूद मैंने सबसे भयानक रोग मनोरोग को पाया। पता नहीं क्यों तनाव संबंधी बीमारी मुझे सबसे डरावनी लगती है। अपने आसपास कई ऐसे लोग देखे हैं जो आजीवन तनाव लेते-लेते ही मर खप जाते हैं लेकिन उनके अपने तनाव का कोई समाधान हो ही नहीं पाता है। उसी मानसिक तनाव की वजह से दुनिया जहाँ की गंभीर बीमारियों से उनका शरीर घिर जाता है। कोई एक शारीरिक बीमारी है, उससे एक ही व्यक्ति जूझ रहा होता है, बाकी परिवार जन उसकी सेवा सुश्रुषा में लगे रहते हैं लेकिन एक तनाव से पीड़ित व्यक्ति अपने अलावा असंख्य लोगों को मानसिक आघात पहुंचाने की क्षमता रखता है। यह अपने आप होता है, कुछ अलग से करने की आवश्यकता नहीं होती, सिंक (sync) हो जाता है। जैसे कोविड फैलता है, कुछ कुछ वैसा ही है, कोविड की तो ट्रेसिंग हो भी जाती है, यहाँ वह भी नहीं हो पाता है। दुःख है, दुःख का कारण है, लेकिन कारण का निवारण आजीवन हो ही नहीं पाता है, क्योंकि उस दुःख को देखने समझने वाला कोई नहीं होता है। तथागत बुध्द ने ऐसे ही दुःख को बार-बार परिभाषित नहीं किया होगा, तभी उन्होंने आजीवन मृत्यु से भी ज्यादा जोर दुःखों को परिभाषित करने पर दिया।