भारत में शादी के नाम पर उम्र और बायोलोजिकल जरूरतों को हमारे दिमाग में इतना हावी कर दिया जाता है, कि हम भी सोचने लगते हैं कि बिना शादी के जीना नामुमकिन है। सुन के अजीब लग सकता है लेकिन एक कड़वी हकीकत यह है कि हमारे यहाँ के अधिकतर लोग शारीरिक संबंधों को भी ढंग से नहीं जी पाते क्योंकि उसके लिए भी तो पहले मन विचार ये मिलना जरूरी होता है, हमारे यहाँ लोग संबंध और बच्चे पैदा करने इसको बस एक ड्यूटी की तरह करते चले जाते हैं और जो इन सब प्रोसेस में नहीं आया होता उसको खींच के लाते हैं कि शादी बहुत जरूरी है।
एक सच ये कि नेचर की अपनी काॅलिंग होती है, हार्मोन कहते हैं कि तुम्हें साथ की जरूरत है, इस सच्चाई को ईमानदारी से स्वीकार लेना चाहिए। लेकिन मिलने वाला साथ जीवन में सुकून लाने के बजाए इतना दिमागी उथल पुथल मचा देता है, इंसान को इतना अधिक खोखला कर देता है कि हार्मोनल बैलेंस ही बिगड़ जाता है, इससे बेहतर तो यही है कि इंसान अकेला ईमानदारी से जिए, कुछ ही लोग ऐसी हिम्मत दिखा पाते हैं जो अपने लिए भीतर से बहुत ही ज्यादा ईमानदार होते हैं। ऐसे लोग हर दिन तलवार की नोक पर चल रहे होते हैं, समाज, समाज का ढाँचा कहाँ चैन से जीने देता है।
मन और शरीर कुछ अलग नहीं है, दोनों जुड़ा हुआ है, मन सही नहीं है ऐसे में इंसान कितने भी लोगों के साथ संबंधों को जी ले, खुश नहीं रह सकता। मजे की बात ये कि जिनका मन सही नहीं रहता अमूमन वही लोग ये काम जमकर करते हैं।
कई कई लोग शादी नहीं करते तो समाज मुँह पर पूछ लेता है कि तुम्हारे शरीर को जरूरत महसूस नहीं होती क्या। समाज हमेशा मन शरीर को अलग-अलग देखता है लेकिन दोनों गहरे से जुड़े हुए हैं, अब जब अलग-अलग पूछ रहे हैं तो काश कोई यह भी पूछ लेता कि तुम्हारे मन को जरूरत महसूस नहीं होती क्या।
अब किसी का मन शरीर रियेक्ट नहीं करता तो नहीं करता, मैं तो कहता हूं ऐसे सामाजिक ढांचे में क्या ही मन करेगा, जिसकी दिमागी हालत ठीक ठाक है उसका तो मन नहीं करने वाला, करेगा भी तो वो बहुत फूंक फूंक के कदम रखेगा क्योंकि सब तरफ बीमारी फैली हुई है, दिखेगी नहीं, लेकिन गहरे तक फैली हुई है। सच कहूं तो ये किसी बहुत बीमार से गले मिलने संबंध बनाने जैसा है, जो आपको भी लंबे समय के लिए बीमारी दे देता है। कुछ समय तक ठीक लगेगा फिर बीमारी का पता चलेगा। लोग मन से बहुत ज्यादा परेशान हैं, बीमार हैं और इसकी वजह हमारा पारिवारिक ढांचा है, हमारा समाज है। क्रीम पाउडर खूशबू वाली चीजें लगा के गले मिलके छू के खुश हो लोगे, लेकिन मन वाली चीजों को जिसके सहारे जीवन बीतेगा, उनको गले मिलाने के लिए पूरा भीतर तक वैचारिक सफाई करना पड़ेगा, इसकी खुशबू पर कौन काम करेगा ये सोचने वाली बात है।
एक सच ये कि नेचर की अपनी काॅलिंग होती है, हार्मोन कहते हैं कि तुम्हें साथ की जरूरत है, इस सच्चाई को ईमानदारी से स्वीकार लेना चाहिए। लेकिन मिलने वाला साथ जीवन में सुकून लाने के बजाए इतना दिमागी उथल पुथल मचा देता है, इंसान को इतना अधिक खोखला कर देता है कि हार्मोनल बैलेंस ही बिगड़ जाता है, इससे बेहतर तो यही है कि इंसान अकेला ईमानदारी से जिए, कुछ ही लोग ऐसी हिम्मत दिखा पाते हैं जो अपने लिए भीतर से बहुत ही ज्यादा ईमानदार होते हैं। ऐसे लोग हर दिन तलवार की नोक पर चल रहे होते हैं, समाज, समाज का ढाँचा कहाँ चैन से जीने देता है।
मन और शरीर कुछ अलग नहीं है, दोनों जुड़ा हुआ है, मन सही नहीं है ऐसे में इंसान कितने भी लोगों के साथ संबंधों को जी ले, खुश नहीं रह सकता। मजे की बात ये कि जिनका मन सही नहीं रहता अमूमन वही लोग ये काम जमकर करते हैं।
कई कई लोग शादी नहीं करते तो समाज मुँह पर पूछ लेता है कि तुम्हारे शरीर को जरूरत महसूस नहीं होती क्या। समाज हमेशा मन शरीर को अलग-अलग देखता है लेकिन दोनों गहरे से जुड़े हुए हैं, अब जब अलग-अलग पूछ रहे हैं तो काश कोई यह भी पूछ लेता कि तुम्हारे मन को जरूरत महसूस नहीं होती क्या।
अब किसी का मन शरीर रियेक्ट नहीं करता तो नहीं करता, मैं तो कहता हूं ऐसे सामाजिक ढांचे में क्या ही मन करेगा, जिसकी दिमागी हालत ठीक ठाक है उसका तो मन नहीं करने वाला, करेगा भी तो वो बहुत फूंक फूंक के कदम रखेगा क्योंकि सब तरफ बीमारी फैली हुई है, दिखेगी नहीं, लेकिन गहरे तक फैली हुई है। सच कहूं तो ये किसी बहुत बीमार से गले मिलने संबंध बनाने जैसा है, जो आपको भी लंबे समय के लिए बीमारी दे देता है। कुछ समय तक ठीक लगेगा फिर बीमारी का पता चलेगा। लोग मन से बहुत ज्यादा परेशान हैं, बीमार हैं और इसकी वजह हमारा पारिवारिक ढांचा है, हमारा समाज है। क्रीम पाउडर खूशबू वाली चीजें लगा के गले मिलके छू के खुश हो लोगे, लेकिन मन वाली चीजों को जिसके सहारे जीवन बीतेगा, उनको गले मिलाने के लिए पूरा भीतर तक वैचारिक सफाई करना पड़ेगा, इसकी खुशबू पर कौन काम करेगा ये सोचने वाली बात है।
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