Tuesday, 8 November 2016

- आदमी की निगाह में औरत -

         एक घर में एक लड़का पैदा होता है, ठीक उसी तरह किसी दूसरे घर में एक लड़की पैदा होती है।उनके जन्म से लेकर बुढ़ापे तक एक चीज जो उनके साथ हमेशा रहती है वो है उनका शरीर।बचपन से उन्हें सबसे पहले उनके शरीर के बारे में बताया जाता है।उन्हें सचेत किया जाता है।उस शरीर के बारे बताया जाता है जो उनका है ही नहीं।असल मायनों में ये एक बहुत बड़ी गलतफहमी है कि हम समझने लगते हैं कि ये देह जो हमें मिला है हम इसके पूरे हकदार हैं।नहीं ऐसा नहीं है ये तो इस कुदरत ने हमें एक तोहफे के रूप में दिया है जिसके अपने दायित्व हैं, कर्तव्यबोध हैं और अनिश्चितता से युक्त जिसकी अपनी एक समय सीमा है, इस तय समय में हम इसे कितना सहेजते,संवारते हैं ये हम पर निर्भर करता है।
           बचपन से ही हमारे शरीर को लेकर या शारीरिक अंगों को लेकर चर्चाएँ शुरू हो जाती है कि हमारा वजन कितना है,रंग रूप कैसा है, चेहरा कैसा है, कौन सा भाग अत्यधिक सुंदर है,किस पर गया है आदि आदि।
यहां तक तो सब ठीक रहता है लेकिन जब लड़का और लड़की थोड़े बड़े होने लगते हैं तो ये शारीरिक अंगों की चर्चाएँ लड़कों के संदर्भ में लगभग शून्य होती जाती है और लड़कियों के संदर्भ में उतनी ही बढ़ जाती है।चाहे वो लड़की कितनी भी काबिल या कितनी भी सुगम क्यों न हो, उसे एक आदमी प्रथम दृष्टया शारीरिक रूप में ही आलोकित करता है तद्पश्चात उसके गुणों एवं सत्कार्यों की चर्चा होती है।
           झुग्गी झोपड़ियों से लेकर बहुमंजिला इमारतों के आफिस तक, खेत से होकर पार्लियामेंट तक हर जगह एक चीज जो समान रूप से विद्यमान है वो है औरतों के लिए निगाह..एक ऐसी निगाह जिसकी पहली प्राथमिकता शारीरिक आकर्षण भर है।यह प्राथमिकता कुछ सेकेंड या कुछ मिनट के लिए हो सकती है पर पहले स्थान पर यही होता है।जब ये पहली प्राथमिकता समाप्त होती है उसके पश्चात् बाकी प्राथमिकताओं की बारी आती है।फिर जाकर व्यक्तित्व के स्तर पर बातें शुरू होती है, अमुक स्त्री की प्रतिभा का जिक्र होता है।
            एक स्त्री जो किसी क्षेत्र विशेष में बहुत अच्छा काम कर रही है..जो एक पूरे समाज के लिए सम्मान का हेतु है।उसके पीछे भी पुरूषों की एक चुटकी भर की निगाह तो होती ही है जो उसके स्त्रीत्व को अल्प मात्रा में ही सही, कचोटती जरूर है।
             एक आदमी के रूप में या यूं कहे कि एक लड़के की नजर से जब मैं इस परिस्थिति से रुबरु होता हूं तो लगता है कि स्त्रियां अब इस निगाह की आदी हो चुकी हैं उन्हें इस प्रचलित आचरण को नजरअंदाज करना ही पड़ता है, शायद इसी परिस्थिति को पितृसत्तात्मक समाज की संज्ञा दिया जाता है और बस संज्ञा देकर भुला दिया जाता है, पुरूषों के द्वारा तो भुलाया जाता ही है साथ ही महिलाएं भी यदा-कदा भुला ही देती हैं।
इस समस्या के गहरे तक कोई उतरना नहीं चाहता।
              एक ओर जो सर्वत्र हैं, आदरणीय हैं, जो स्त्रियों के अधिकारों की बात करते है, न्याय और मान सम्मान की बात करते हैं,नयी स्थापनाएं करते हैं वे भी इस नजरिए को नहीं समझ पाते।
              अगर वर्गीकरण के रास्ते से इस नजरिए को ठीक होना होता तो कबका हो भी जाता।लेकिन ये मामला वर्गीकरण से परे है।इस मामले में वर्गीकरण को किनारे रख सहयोगिता(सहभागिता) को अपनाना होगा, वैसे भी जहां कहीं स्त्री-पुरूष की सहभागिता अपने उच्चतम स्तर पर है वहां वहां निगाहरूपी  ये समस्याएं गौण हो जाती है।
              {स्त्री-पुरूष}यहां स्त्री और पुरुष के बीच में जो योजक चिन्ह लगा हुआ है।इस योजक चिन्ह को ताक में रखकर कभी किसी का भला नहीं हो सकता।कोई भी विचार या विमर्श इसे ध्यान में रखकर ही करना चाहिए क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वो चाहे वैरागी ही क्यों न हो जाये उसे इसी समाज में रहना है।जहां ये स्त्री-पुरूष का बंध टूटा तो निश्चय ही बिखराव होगा, इसलिए स्त्री-पुरूष की ये सह-संयोजकता हमेशा बनी रही चाहिए।
               ऐसा भी नहीं है कि एक स्त्री को पुरूष के छाया तले ही पलना है और उसका स्त्रीत्व पुरूष के साथ ही फलित होना है..अगर वो किसी पुरूष को अपना सहभागी नहीं भी चुनती तो भी उसके स्त्रीत्व के लिए एक पुरूष की संयोजकता जरूरी होती ही है जो उसके सुख-दुख में उसका भागी हो..जो उसकी जिजीविषा बनाये रखे...अब ये उसका पिता,भाई या कोई भी हो सकता है, इस तरह वो स्त्री पूर्ण तो कहलायेगी लेकिन संपूर्ण नहीं।और इस एक संयोजकता से एक स्त्री का स्त्रीत्व घटने के बजाय और अधिक पल्लवित होता है।

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