Sunday, 13 November 2016

~ बारह रूपये की तस्वीर ~

~ बारह रूपये की तस्वीर ~

जब स्कूल में थे तो किसी के भी घर पढ़ने या घूमने जाना होता तो पहली नजर घर की दीवारों में ही जाती..ढेर सारी फ्रेम की हुई तस्वीरें जो अतीत की कहानी बयां करती थी।
8th या 9th क्लास की बात होगी
एक बार एक दोस्त के यहां जाना हुआ।
उसके यहां कि मैंने दीवार देखी,ढेर सारी तस्वीरें, बढ़िया सुंदर तरीके से सजी हुई.
एक तस्वीर में मेरा दोस्त अपने मम्मी-पापा के साथ..तो कहीं किसी तस्वीर में बिस्तर में खिलौने से खेलता हुआ.किसी तस्वीर में दादा की गोद में।
और ऐसी कई तस्वीरें दीवार की शोभा बढ़ा रही थी।
कुछ तस्वीरें ब्लैक एंड व्हाइट थी और कुछ रंगीन।
कोई भी मेहमान उनके घर पहली बार आता तो तस्वीरों को देखकर ही वाद शुरू हो जाता,
कोई पूछता ये कौन है तो मेरे दोस्त की मम्मी कहती ये बदमाश जब पहली बार स्कूल जा रहा था तब की तस्वीर है,कितने नखरे दिखाया था एक फोटो खिचवाने के लिए।
ये देखो इस तस्वीर में पहचानों इसके पापा कहां हैं?और उंगलियां फेर फेर कर तस्वीरों के बारे में ढेर सारी बातें शुरू हो जाती।
घर लौटते वक्त थोड़ी सी टीस तो हो रही थी।
मैं घर आया और मां से कहा कि पुरानी फोटो कहां है घर के लोगों की..
मां - क्या करेगा।
मैंने कहा -ऐसी बस देखना है।
मां ने एक झोला निकाला और मेरे सामने रख दिया उसमें कुछ फ्रेम की हुई तस्वीरें थी,
एक में पापा के कालेज के दिनों की तस्वीर,किसी मे दादा चाचा और ऐसी दो चार पुरानी तस्वीरें।
लेकिन उनमें कहीं भी मैं नहीं था न ही मेरी माता।मम्मी पापा के साथ वाली भी मेरी कोई तस्वीर नहीं थी।
मैं रूठ चुका था कि बचपन की एक भी तस्वीर नहीं है।
जब दादा दादी चाचा पापा इनकी तस्वीर है अपने जमाने की, तो मेरी क्यों नहीं है।
शायद पापा ने इस ओर कभी ध्यान नहीं दिया होगा।
इतने में मुझे मेरी एक तस्वीर मिल गई..
ब्लैक एंड व्हाइट..शायद तीन या चार साल का रहा होऊंगा।कागज में लपेटकर रखी हुई थी।
मैंने घरवालों से पूछा कि क्या इसके अलावा और कोई मेरी फोटो नहीं है बचपन की?
जवाब आया कि नहीं है।
इतने में पापा आये..उन्होंने मेरी बचपन की फोटो देखी और कुछ याद करने लगे और बोले कि उस फोटो को पकड़ ले और चल मेरे साथ।
और पापा मुझे उसी फोटो स्टूडियों में ले गये जहां ये तस्वीर खिंचाई थी।
उन्होंने स्टूडियो वाले को ये तस्वीर दिखाई और कहा कि ये बच्चे की फोटो हमने दस ग्यारह साल पहले खिंचवाई थी।इसका पैसा उधार था।
ये रख लो "बारह रुपए की तस्वीर" के पैसे।
ये सब सुनकर वो फोटोग्राफर आह्लादित हो उठा, मानो उसके सुने से दुकान में ऊर्जा का संचार हो गया था।उसने बहुत सहृदयता दिखाई कि रहने दो नहीं लगेगा पैसा ये वो।लेकिन पापा भी ठान के गये थे कि पैसा दे के आयेंगे और कहने लगे कि भैया ये पैसा तो तुम रखोगे ही और फिर पापा मीठी मुस्कान फेरते हुए बोले कि ब्याज चाहिए तो वो भी बोलो इसमें शर्माने की कोई बात नहीं।
वो झेंपते हुए बोला कि क्या साहब आप भी शर्मिंदा करते हैं मैं कोई साहूकार थोड़ी न हूं जो तस्वीरों के बदले सूद के पैसे लूंगा।एक तस्वीर के वास्ते ये पाप हमसे मत करवाओ।
और बात वहीं खत्म हुई।
आज इस बात को लेकर खुशी होती है कि बचपन की एक तस्वीर के अलावा मेरे पास और कोई भी निशानी नहीं  है।
तस्वीरों का सहारा बिना लिए लिखने का मजा ही कुछ और है।

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