मेहुल वैसे तो 28 साल का था लेकिन उसके चेहरे में इतना प्रकाश था कि वो लोगों को 20,22 का ही लगता...उम्र बढ़ने के साथ सब कुछ अच्छे से हुआ...नियमितता के साथ पढ़ाई हुई, एक अच्छी सरकारी नौकरी भी लग चुकी थी, जिम्मेदारियां निभाना भी बखूबी सीख चुका था.. लेकिन उसके चेहरे के सुनहरे रंग जस के तस बने रहे..वही चमक वही लालिमा बरकरार थी जो एक बीस साल के लड़के में होती है।
आयुषी का घर मेहुल के घर के पास ही है। आयुषी अभी 7th क्लास में है। मेहुल ने तो आयुषी को बचपन में जमीन पर रेंगते भी देखा था, एक दो बार हाथ पकड़कर उसे चलना भी सिखाया था। मेहुल का आयुषी के साथ इतना तो लगाव था कि वह बच्ची उसे दिख जाती तो कभी-कभार वह कुछ क्षण रूक के सोच लेता कि यह तो वही बच्ची है जिसे मैंने बचपन में हाथ पकड़कर चलना सिखाया देखो आज कितनी बड़ी हो चली है।
एक दिन जब मेहुल आफिस से लौट रहा था तो उसने आयुषी के हाव-भाव देखे...वो चौंक गया कि ये इस बच्ची को क्या हो गया। आखिर ये ऐसा बर्ताव क्यों कर रही है। असल में कुछ ऐसा हुआ कि आयुषी जब गली से गुजर रही थी तो वहां रास्ते में कुछ लड़के खड़े थे, उम्र लगभग 18,20 वे अपनी कुछ बातें कर रहे थे, आयुषी ने वहां से गुजरते हुए उन लड़कों को हल्का सा देखकर कुछ ऐसे नजर फेरा जैसे कि कोई 18 या 20 साल की लड़की चंचलतावश करती है।
मेहुल नजरों के इस फेर से भलीभांति वाकिफ था उसने जब ये घटना कई बार होते देख लिया तो वह मन ही मन सोचने लग गया कि ये लड़की भला अभी से इतनी बड़ी होने की कोशिश क्यों कर रही है, क्यों आयुषी किसी अनजान से खतरे को न्यौता देना चाहती है, कुछ इस तरह अनबुझे सवाल करते करते वह शांत हो गया।
मेहुल जो इतने दिन से उस बच्ची को उसके नाम से बुलाता था अब उसने उसे नाम से बुलाना छोड़ दिया। अब वो आयुषी को बेटा कहना शुरू कर दिया, जब भी मौका मिलता वो हर संभव कोशिश करता कि उसे बेटा बुलाया जाए और उम्र को देखते हुए उसके छोटेपन से उसको रुबरु कराया जाये।
एक दिन मेहुल के घर में पूजा हो रही थी तो ठीक उसके एक दिन पहले दिन बुलावे के लिए वो आयुषी के घर को गया,
आयुषी बाहर ही मिल गई तो उसने आयुषी को कहा-
बेटा कल पूजा है, मम्मी को बता देना, कल दस बजे घर आना है ठीक है।
आयुषी- ठीक है भैया।
मेहुल- और बेटा पढ़ाई कैसी चल रही है।
आयुषी- मस्त।
मेहुल- ज्यादा मटरगश्ती तो नहीं हो रही?
आयुषी- नहीं तो।
मेहुल- अच्छा बेटा, ठीक है मैं चलता हूं..कल आना घर।
आयुषी- ठीक है।
मेहुल हमेशा यही कोशिश करता कि उसे ज्यादा से ज्यादा बेटा पुकारे और उसे उसके बढ़ती उम्र के इस बेतरतीब लचीलेपन से लड़ना भी सीखा दे।
अगले दिन मेहुल के घर पर पूजा हुई..सारे मेहमान आ चुके थे..आयुषी भी आई थी। पूजा पाठ जब खत्म हुई तो सबको पंचामृत का वितरण किया गया और हवन के पास माथा टेकने के बाद सभी लोग अपने से बड़ों को पांव छूकर प्रणाम कर रहे थे। आयुषी भी सबको प्रणाम कर रही थी, इतने में उसने हंसते,मुस्कराते अपने मेहुल भैया के भी पांव छूए। मेहुल ने उसे कहा- बेटा इधर बैठ, कुछ बात करनी है तुझसे।
आयुषी- ओके रुको बस एक मिनट में आ रही।
जब आयुषी आ गई तो मेहुल ने चुटकी लेते हुए कहा- बेटा, तुझे तो पांव छूना भी नहीं आता।
आयुषी- अच्छा फिर से करके दिखाऊं क्या आपको।
मेहुल- ओये! रहने दे तू, कुछ नहीं आता तुझे, बस दिन भर घूमते रह तू।
आयुषी- हां तो क्या हुआ।
मेहुल- नहीं अच्छा है लेकिन पढ़ भी लिया कर।
आयुषी- पढ़ती तो हूं।
अब मेहुल को समझ नहीं आया कि वो उसके अंतर्मन तक कैसे पहुंचे, उस फूल सी लड़की को उसके अस्तित्व का बोध कैसे कराए।
कुछ देर ऐसी इधर-उधर की बात करने के बाद उसने सोचा कि बोलने/बतियाने से कहीं ज्यादा अच्छा ये होगा कि इसे पुकारा जाए, पुकार लगाना थोड़ा मुश्किल काम हो सकता है लेकिन है बोलने से कहीं बेहतर।
एक दफा बोल नजरअंदाज हो सकते हैं लेकिन पुकार हमेशा दिल में उतारी जाती है।
और मेहुल ने फिर आयुषी को एक कहानी सुनाई।
मेहुल - पता है तू उस समय एक या दो साल की थी। हम लोग जब 12th में थे न तो एक लड़की थी, बहुत ही खूबसूरत। यहीं अपने ही कालोनी में रहती थी, अभी तो उसकी शादी हो चुकी है। तो उस समय न वो 9th में थी और हम 12th वालों को देख के कभी कभी मुस्कुराती थी। एक बार मेरे क्लास के एक लड़के ने उसे एक लेटर लिख दिया।
पता है उस लड़के ने लेटर में क्या लिखा था-
तेरी नजर जो है ना वो अच्छी है या बुरी ये नहीं पता लेकिन अभी ये किसी काम की नहीं। तू जब ग्रुप में खड़े हम लड़कों को ऐसे छुपे नजर देखती है, तो मन करता है भगवान से प्रार्थना करूं और तेरी नजर दूसरी ओर मोड़ दूं, तू थोड़ी बड़ी हो जा न प्लीज, उसके बाद तू सिर्फ मुझे ही देखना, ठीक है।
और पता है उसने लेटर के पीछे एक मुस्कुराता चेहरा भी बना दिया था।
पूरी कहानी सुनने के ठीक पश्चात् आयुषी के मुख पर ऐसे भाव प्रस्फुटित हुए मानो वो हंसी और मुस्कुराहट का मिला जुला रूप था जो आंखों तक पहुंच गया था। यानि इंसान कुछ सेंकेंड हंसकर मिनट भर मुस्कुराना चाहता हो..ठीक कुछ ऐसी ही स्थिति थी।
आयुषी का घर मेहुल के घर के पास ही है। आयुषी अभी 7th क्लास में है। मेहुल ने तो आयुषी को बचपन में जमीन पर रेंगते भी देखा था, एक दो बार हाथ पकड़कर उसे चलना भी सिखाया था। मेहुल का आयुषी के साथ इतना तो लगाव था कि वह बच्ची उसे दिख जाती तो कभी-कभार वह कुछ क्षण रूक के सोच लेता कि यह तो वही बच्ची है जिसे मैंने बचपन में हाथ पकड़कर चलना सिखाया देखो आज कितनी बड़ी हो चली है।
एक दिन जब मेहुल आफिस से लौट रहा था तो उसने आयुषी के हाव-भाव देखे...वो चौंक गया कि ये इस बच्ची को क्या हो गया। आखिर ये ऐसा बर्ताव क्यों कर रही है। असल में कुछ ऐसा हुआ कि आयुषी जब गली से गुजर रही थी तो वहां रास्ते में कुछ लड़के खड़े थे, उम्र लगभग 18,20 वे अपनी कुछ बातें कर रहे थे, आयुषी ने वहां से गुजरते हुए उन लड़कों को हल्का सा देखकर कुछ ऐसे नजर फेरा जैसे कि कोई 18 या 20 साल की लड़की चंचलतावश करती है।
मेहुल नजरों के इस फेर से भलीभांति वाकिफ था उसने जब ये घटना कई बार होते देख लिया तो वह मन ही मन सोचने लग गया कि ये लड़की भला अभी से इतनी बड़ी होने की कोशिश क्यों कर रही है, क्यों आयुषी किसी अनजान से खतरे को न्यौता देना चाहती है, कुछ इस तरह अनबुझे सवाल करते करते वह शांत हो गया।
मेहुल जो इतने दिन से उस बच्ची को उसके नाम से बुलाता था अब उसने उसे नाम से बुलाना छोड़ दिया। अब वो आयुषी को बेटा कहना शुरू कर दिया, जब भी मौका मिलता वो हर संभव कोशिश करता कि उसे बेटा बुलाया जाए और उम्र को देखते हुए उसके छोटेपन से उसको रुबरु कराया जाये।
एक दिन मेहुल के घर में पूजा हो रही थी तो ठीक उसके एक दिन पहले दिन बुलावे के लिए वो आयुषी के घर को गया,
आयुषी बाहर ही मिल गई तो उसने आयुषी को कहा-
बेटा कल पूजा है, मम्मी को बता देना, कल दस बजे घर आना है ठीक है।
आयुषी- ठीक है भैया।
मेहुल- और बेटा पढ़ाई कैसी चल रही है।
आयुषी- मस्त।
मेहुल- ज्यादा मटरगश्ती तो नहीं हो रही?
आयुषी- नहीं तो।
मेहुल- अच्छा बेटा, ठीक है मैं चलता हूं..कल आना घर।
आयुषी- ठीक है।
मेहुल हमेशा यही कोशिश करता कि उसे ज्यादा से ज्यादा बेटा पुकारे और उसे उसके बढ़ती उम्र के इस बेतरतीब लचीलेपन से लड़ना भी सीखा दे।
अगले दिन मेहुल के घर पर पूजा हुई..सारे मेहमान आ चुके थे..आयुषी भी आई थी। पूजा पाठ जब खत्म हुई तो सबको पंचामृत का वितरण किया गया और हवन के पास माथा टेकने के बाद सभी लोग अपने से बड़ों को पांव छूकर प्रणाम कर रहे थे। आयुषी भी सबको प्रणाम कर रही थी, इतने में उसने हंसते,मुस्कराते अपने मेहुल भैया के भी पांव छूए। मेहुल ने उसे कहा- बेटा इधर बैठ, कुछ बात करनी है तुझसे।
आयुषी- ओके रुको बस एक मिनट में आ रही।
जब आयुषी आ गई तो मेहुल ने चुटकी लेते हुए कहा- बेटा, तुझे तो पांव छूना भी नहीं आता।
आयुषी- अच्छा फिर से करके दिखाऊं क्या आपको।
मेहुल- ओये! रहने दे तू, कुछ नहीं आता तुझे, बस दिन भर घूमते रह तू।
आयुषी- हां तो क्या हुआ।
मेहुल- नहीं अच्छा है लेकिन पढ़ भी लिया कर।
आयुषी- पढ़ती तो हूं।
अब मेहुल को समझ नहीं आया कि वो उसके अंतर्मन तक कैसे पहुंचे, उस फूल सी लड़की को उसके अस्तित्व का बोध कैसे कराए।
कुछ देर ऐसी इधर-उधर की बात करने के बाद उसने सोचा कि बोलने/बतियाने से कहीं ज्यादा अच्छा ये होगा कि इसे पुकारा जाए, पुकार लगाना थोड़ा मुश्किल काम हो सकता है लेकिन है बोलने से कहीं बेहतर।
एक दफा बोल नजरअंदाज हो सकते हैं लेकिन पुकार हमेशा दिल में उतारी जाती है।
और मेहुल ने फिर आयुषी को एक कहानी सुनाई।
मेहुल - पता है तू उस समय एक या दो साल की थी। हम लोग जब 12th में थे न तो एक लड़की थी, बहुत ही खूबसूरत। यहीं अपने ही कालोनी में रहती थी, अभी तो उसकी शादी हो चुकी है। तो उस समय न वो 9th में थी और हम 12th वालों को देख के कभी कभी मुस्कुराती थी। एक बार मेरे क्लास के एक लड़के ने उसे एक लेटर लिख दिया।
पता है उस लड़के ने लेटर में क्या लिखा था-
तेरी नजर जो है ना वो अच्छी है या बुरी ये नहीं पता लेकिन अभी ये किसी काम की नहीं। तू जब ग्रुप में खड़े हम लड़कों को ऐसे छुपे नजर देखती है, तो मन करता है भगवान से प्रार्थना करूं और तेरी नजर दूसरी ओर मोड़ दूं, तू थोड़ी बड़ी हो जा न प्लीज, उसके बाद तू सिर्फ मुझे ही देखना, ठीक है।
और पता है उसने लेटर के पीछे एक मुस्कुराता चेहरा भी बना दिया था।
पूरी कहानी सुनने के ठीक पश्चात् आयुषी के मुख पर ऐसे भाव प्रस्फुटित हुए मानो वो हंसी और मुस्कुराहट का मिला जुला रूप था जो आंखों तक पहुंच गया था। यानि इंसान कुछ सेंकेंड हंसकर मिनट भर मुस्कुराना चाहता हो..ठीक कुछ ऐसी ही स्थिति थी।
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