शाम के छः बज चुके हैं..ठंडियों की शाम है तो दिन ढल चुका है, गाड़ियों की लाइटें जल चुकी है। सब अपना काम निपटाकर घर को लौट रहे हैं, इन सब लोगों की तरह वो भी घर को लौटने वाली है, बस स्टापेज से उतरकर वो रोड के दूसरी तरफ अपने घर की ओर जाने वाले रास्ते में स्कार्फ बांधे हुए खड़ी है ,जहां उसका भाई उसे लेने आता है।
भाई को तो लेने आने के लिए उसने पहले से फोन लगा दिया था, लेकिन अभी तक वो लेने नहीं पहुंचा है। तो इस बीच चौराहे में खड़े-खड़े उसे थोड़ी बोरियत होती है तो अपना फोन निकालकर स्क्राल करने लग जाती है। तभी वो असहजता महसूस करती है, लगातार गुजरती गाड़ियों की रोशनी जो उसके आंखों में पड़ रही थी, इस बीच एक छाया अड़चन बन कर आ रही है जो उसके सामने बेफिजूल मंडरा रही होती है, असल में दो लोग जो उसके आसपास हैं, एक किसी से फोन में बात कर रहा होता है, और एक जो ऐसे ही हाथ मलते हुए टहल रहा होता है, वे दोनों बार बार उसके नजदीक से होकर गुजरते हैं, लड़की भी जो फोन में नजर गड़ाये हुए है, हल्के कदमों से ही सही अपनी जगह बदल रही होती है, वे दोनों आदमी कभी उसके आगे से होकर जाते हैं तो कभी उसके ठीक पीछे से..कभी एक निश्चित दूरी बनाकर तो कभी कुछ इंच दूर से।
लड़की अपनी असहजता दूर करने के लिए किसी को फोन लगाती है और कहती है, कहां है, इतना टाइम लगता है क्या आने में? जल्दी आ।
लड़की ने कुछ देर पहले ही तो भाई को फोन किया था, वो एक बार और फोन आखिर क्यों लगाती है?
शायद अब उसे इंतजार करना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा है।
इस बीच वो दोनों आदमी चले जाते हैं। लड़की का मन थोड़ा हल्का हो जाता है।
ये सब कुछ मिनट भर में हो जाता है।
लड़की को अच्छे से पता है कि चौराहा है, थोड़ा भीड़भाड़ इलाका है तो ये लोग चाह के भी मुझसे बात करने की कोशिश नहीं कर सकते न ही किसी तरीके से परेशान करेंगे। हां ह्रदयगति को थोड़ा छिन्न-भिन्न जरूर कर सकते हैं और ये तो नैचुरली है, नजर अंदाज करना पड़ेगा।
उन दो आदमियों को भी अच्छे से पता है कि लड़की से उनका किसी प्रकार का कोई जुड़ाव हो नहीं सकता ना ही कोई बातचीत हो सकती है उनको ये भी पता है कि वो safe game खेल रहे हैं, उन्हें ये भी पता है कि इस भीड़ में उन्हें कोई नोटिस कर ही नहीं पायेगा न ही कोई कुछ बोल पायेगा। फिर भी "If you cant connect with her, atleast make her nervous" इस मनोवृति के सहारे वो उस लड़की के इर्द-गिर्द घूम लेते हैं और मिनट भर में चले जाते हैं।
कुछ देर के बाद लड़की का भाई आ जाता है, लड़की अपने भाई की पीठ पर हल्के हाथ से मारती है और कहती है..पागल, कहां था, कोई इतना लेट लगाता है, अब से इतना लेट लगाएगा तो तुझे लेने आने के लिए कभी नहीं बुलाऊंगी मैं,समझा।
शायद इस छोटी से घटना ने उसके हाथ को अपने भाई की पीठ तक पहुंचा दिया, ये हल्की सी मार इस बात की गवाह है कि अभी लड़की के मनोविज्ञान में वे दोनों लोग, उनके द्वारा की गई ये छोटी सी ओछी हरकत कहीं न कहीं थोड़ी मात्रा में बची हुई है।
लड़की फिर अपने भाई के साथ घर चली जाती है, वो किसी को नहीं बताती कि मिनट भर में ऐसा कुछ हुआ, उसे लगता है कि भला ये भी कोई बताने की बात है।
अगले दिन फिर सुबह आफिस और कुछ इस तरह वो एक मिनट की असहजता मानो उसके रक्त कणों में घुलकर कहीं लुप्त हो जाती है।
Thursday, 24 November 2016
~ एक मिनट ~
Sunday, 20 November 2016
- आयुषी -
मेहुल वैसे तो 28 साल का था लेकिन उसके चेहरे में इतना प्रकाश था कि वो लोगों को 20,22 का ही लगता...उम्र बढ़ने के साथ सब कुछ अच्छे से हुआ...नियमितता के साथ पढ़ाई हुई, एक अच्छी सरकारी नौकरी भी लग चुकी थी, जिम्मेदारियां निभाना भी बखूबी सीख चुका था.. लेकिन उसके चेहरे के सुनहरे रंग जस के तस बने रहे..वही चमक वही लालिमा बरकरार थी जो एक बीस साल के लड़के में होती है।
आयुषी का घर मेहुल के घर के पास ही है। आयुषी अभी 7th क्लास में है। मेहुल ने तो आयुषी को बचपन में जमीन पर रेंगते भी देखा था, एक दो बार हाथ पकड़कर उसे चलना भी सिखाया था। मेहुल का आयुषी के साथ इतना तो लगाव था कि वह बच्ची उसे दिख जाती तो कभी-कभार वह कुछ क्षण रूक के सोच लेता कि यह तो वही बच्ची है जिसे मैंने बचपन में हाथ पकड़कर चलना सिखाया देखो आज कितनी बड़ी हो चली है।
एक दिन जब मेहुल आफिस से लौट रहा था तो उसने आयुषी के हाव-भाव देखे...वो चौंक गया कि ये इस बच्ची को क्या हो गया। आखिर ये ऐसा बर्ताव क्यों कर रही है। असल में कुछ ऐसा हुआ कि आयुषी जब गली से गुजर रही थी तो वहां रास्ते में कुछ लड़के खड़े थे, उम्र लगभग 18,20 वे अपनी कुछ बातें कर रहे थे, आयुषी ने वहां से गुजरते हुए उन लड़कों को हल्का सा देखकर कुछ ऐसे नजर फेरा जैसे कि कोई 18 या 20 साल की लड़की चंचलतावश करती है।
मेहुल नजरों के इस फेर से भलीभांति वाकिफ था उसने जब ये घटना कई बार होते देख लिया तो वह मन ही मन सोचने लग गया कि ये लड़की भला अभी से इतनी बड़ी होने की कोशिश क्यों कर रही है, क्यों आयुषी किसी अनजान से खतरे को न्यौता देना चाहती है, कुछ इस तरह अनबुझे सवाल करते करते वह शांत हो गया।
मेहुल जो इतने दिन से उस बच्ची को उसके नाम से बुलाता था अब उसने उसे नाम से बुलाना छोड़ दिया। अब वो आयुषी को बेटा कहना शुरू कर दिया, जब भी मौका मिलता वो हर संभव कोशिश करता कि उसे बेटा बुलाया जाए और उम्र को देखते हुए उसके छोटेपन से उसको रुबरु कराया जाये।
एक दिन मेहुल के घर में पूजा हो रही थी तो ठीक उसके एक दिन पहले दिन बुलावे के लिए वो आयुषी के घर को गया,
आयुषी बाहर ही मिल गई तो उसने आयुषी को कहा-
बेटा कल पूजा है, मम्मी को बता देना, कल दस बजे घर आना है ठीक है।
आयुषी- ठीक है भैया।
मेहुल- और बेटा पढ़ाई कैसी चल रही है।
आयुषी- मस्त।
मेहुल- ज्यादा मटरगश्ती तो नहीं हो रही?
आयुषी- नहीं तो।
मेहुल- अच्छा बेटा, ठीक है मैं चलता हूं..कल आना घर।
आयुषी- ठीक है।
मेहुल हमेशा यही कोशिश करता कि उसे ज्यादा से ज्यादा बेटा पुकारे और उसे उसके बढ़ती उम्र के इस बेतरतीब लचीलेपन से लड़ना भी सीखा दे।
अगले दिन मेहुल के घर पर पूजा हुई..सारे मेहमान आ चुके थे..आयुषी भी आई थी। पूजा पाठ जब खत्म हुई तो सबको पंचामृत का वितरण किया गया और हवन के पास माथा टेकने के बाद सभी लोग अपने से बड़ों को पांव छूकर प्रणाम कर रहे थे। आयुषी भी सबको प्रणाम कर रही थी, इतने में उसने हंसते,मुस्कराते अपने मेहुल भैया के भी पांव छूए। मेहुल ने उसे कहा- बेटा इधर बैठ, कुछ बात करनी है तुझसे।
आयुषी- ओके रुको बस एक मिनट में आ रही।
जब आयुषी आ गई तो मेहुल ने चुटकी लेते हुए कहा- बेटा, तुझे तो पांव छूना भी नहीं आता।
आयुषी- अच्छा फिर से करके दिखाऊं क्या आपको।
मेहुल- ओये! रहने दे तू, कुछ नहीं आता तुझे, बस दिन भर घूमते रह तू।
आयुषी- हां तो क्या हुआ।
मेहुल- नहीं अच्छा है लेकिन पढ़ भी लिया कर।
आयुषी- पढ़ती तो हूं।
अब मेहुल को समझ नहीं आया कि वो उसके अंतर्मन तक कैसे पहुंचे, उस फूल सी लड़की को उसके अस्तित्व का बोध कैसे कराए।
कुछ देर ऐसी इधर-उधर की बात करने के बाद उसने सोचा कि बोलने/बतियाने से कहीं ज्यादा अच्छा ये होगा कि इसे पुकारा जाए, पुकार लगाना थोड़ा मुश्किल काम हो सकता है लेकिन है बोलने से कहीं बेहतर।
एक दफा बोल नजरअंदाज हो सकते हैं लेकिन पुकार हमेशा दिल में उतारी जाती है।
और मेहुल ने फिर आयुषी को एक कहानी सुनाई।
मेहुल - पता है तू उस समय एक या दो साल की थी। हम लोग जब 12th में थे न तो एक लड़की थी, बहुत ही खूबसूरत। यहीं अपने ही कालोनी में रहती थी, अभी तो उसकी शादी हो चुकी है। तो उस समय न वो 9th में थी और हम 12th वालों को देख के कभी कभी मुस्कुराती थी। एक बार मेरे क्लास के एक लड़के ने उसे एक लेटर लिख दिया।
पता है उस लड़के ने लेटर में क्या लिखा था-
तेरी नजर जो है ना वो अच्छी है या बुरी ये नहीं पता लेकिन अभी ये किसी काम की नहीं। तू जब ग्रुप में खड़े हम लड़कों को ऐसे छुपे नजर देखती है, तो मन करता है भगवान से प्रार्थना करूं और तेरी नजर दूसरी ओर मोड़ दूं, तू थोड़ी बड़ी हो जा न प्लीज, उसके बाद तू सिर्फ मुझे ही देखना, ठीक है।
और पता है उसने लेटर के पीछे एक मुस्कुराता चेहरा भी बना दिया था।
पूरी कहानी सुनने के ठीक पश्चात् आयुषी के मुख पर ऐसे भाव प्रस्फुटित हुए मानो वो हंसी और मुस्कुराहट का मिला जुला रूप था जो आंखों तक पहुंच गया था। यानि इंसान कुछ सेंकेंड हंसकर मिनट भर मुस्कुराना चाहता हो..ठीक कुछ ऐसी ही स्थिति थी।
आयुषी का घर मेहुल के घर के पास ही है। आयुषी अभी 7th क्लास में है। मेहुल ने तो आयुषी को बचपन में जमीन पर रेंगते भी देखा था, एक दो बार हाथ पकड़कर उसे चलना भी सिखाया था। मेहुल का आयुषी के साथ इतना तो लगाव था कि वह बच्ची उसे दिख जाती तो कभी-कभार वह कुछ क्षण रूक के सोच लेता कि यह तो वही बच्ची है जिसे मैंने बचपन में हाथ पकड़कर चलना सिखाया देखो आज कितनी बड़ी हो चली है।
एक दिन जब मेहुल आफिस से लौट रहा था तो उसने आयुषी के हाव-भाव देखे...वो चौंक गया कि ये इस बच्ची को क्या हो गया। आखिर ये ऐसा बर्ताव क्यों कर रही है। असल में कुछ ऐसा हुआ कि आयुषी जब गली से गुजर रही थी तो वहां रास्ते में कुछ लड़के खड़े थे, उम्र लगभग 18,20 वे अपनी कुछ बातें कर रहे थे, आयुषी ने वहां से गुजरते हुए उन लड़कों को हल्का सा देखकर कुछ ऐसे नजर फेरा जैसे कि कोई 18 या 20 साल की लड़की चंचलतावश करती है।
मेहुल नजरों के इस फेर से भलीभांति वाकिफ था उसने जब ये घटना कई बार होते देख लिया तो वह मन ही मन सोचने लग गया कि ये लड़की भला अभी से इतनी बड़ी होने की कोशिश क्यों कर रही है, क्यों आयुषी किसी अनजान से खतरे को न्यौता देना चाहती है, कुछ इस तरह अनबुझे सवाल करते करते वह शांत हो गया।
मेहुल जो इतने दिन से उस बच्ची को उसके नाम से बुलाता था अब उसने उसे नाम से बुलाना छोड़ दिया। अब वो आयुषी को बेटा कहना शुरू कर दिया, जब भी मौका मिलता वो हर संभव कोशिश करता कि उसे बेटा बुलाया जाए और उम्र को देखते हुए उसके छोटेपन से उसको रुबरु कराया जाये।
एक दिन मेहुल के घर में पूजा हो रही थी तो ठीक उसके एक दिन पहले दिन बुलावे के लिए वो आयुषी के घर को गया,
आयुषी बाहर ही मिल गई तो उसने आयुषी को कहा-
बेटा कल पूजा है, मम्मी को बता देना, कल दस बजे घर आना है ठीक है।
आयुषी- ठीक है भैया।
मेहुल- और बेटा पढ़ाई कैसी चल रही है।
आयुषी- मस्त।
मेहुल- ज्यादा मटरगश्ती तो नहीं हो रही?
आयुषी- नहीं तो।
मेहुल- अच्छा बेटा, ठीक है मैं चलता हूं..कल आना घर।
आयुषी- ठीक है।
मेहुल हमेशा यही कोशिश करता कि उसे ज्यादा से ज्यादा बेटा पुकारे और उसे उसके बढ़ती उम्र के इस बेतरतीब लचीलेपन से लड़ना भी सीखा दे।
अगले दिन मेहुल के घर पर पूजा हुई..सारे मेहमान आ चुके थे..आयुषी भी आई थी। पूजा पाठ जब खत्म हुई तो सबको पंचामृत का वितरण किया गया और हवन के पास माथा टेकने के बाद सभी लोग अपने से बड़ों को पांव छूकर प्रणाम कर रहे थे। आयुषी भी सबको प्रणाम कर रही थी, इतने में उसने हंसते,मुस्कराते अपने मेहुल भैया के भी पांव छूए। मेहुल ने उसे कहा- बेटा इधर बैठ, कुछ बात करनी है तुझसे।
आयुषी- ओके रुको बस एक मिनट में आ रही।
जब आयुषी आ गई तो मेहुल ने चुटकी लेते हुए कहा- बेटा, तुझे तो पांव छूना भी नहीं आता।
आयुषी- अच्छा फिर से करके दिखाऊं क्या आपको।
मेहुल- ओये! रहने दे तू, कुछ नहीं आता तुझे, बस दिन भर घूमते रह तू।
आयुषी- हां तो क्या हुआ।
मेहुल- नहीं अच्छा है लेकिन पढ़ भी लिया कर।
आयुषी- पढ़ती तो हूं।
अब मेहुल को समझ नहीं आया कि वो उसके अंतर्मन तक कैसे पहुंचे, उस फूल सी लड़की को उसके अस्तित्व का बोध कैसे कराए।
कुछ देर ऐसी इधर-उधर की बात करने के बाद उसने सोचा कि बोलने/बतियाने से कहीं ज्यादा अच्छा ये होगा कि इसे पुकारा जाए, पुकार लगाना थोड़ा मुश्किल काम हो सकता है लेकिन है बोलने से कहीं बेहतर।
एक दफा बोल नजरअंदाज हो सकते हैं लेकिन पुकार हमेशा दिल में उतारी जाती है।
और मेहुल ने फिर आयुषी को एक कहानी सुनाई।
मेहुल - पता है तू उस समय एक या दो साल की थी। हम लोग जब 12th में थे न तो एक लड़की थी, बहुत ही खूबसूरत। यहीं अपने ही कालोनी में रहती थी, अभी तो उसकी शादी हो चुकी है। तो उस समय न वो 9th में थी और हम 12th वालों को देख के कभी कभी मुस्कुराती थी। एक बार मेरे क्लास के एक लड़के ने उसे एक लेटर लिख दिया।
पता है उस लड़के ने लेटर में क्या लिखा था-
तेरी नजर जो है ना वो अच्छी है या बुरी ये नहीं पता लेकिन अभी ये किसी काम की नहीं। तू जब ग्रुप में खड़े हम लड़कों को ऐसे छुपे नजर देखती है, तो मन करता है भगवान से प्रार्थना करूं और तेरी नजर दूसरी ओर मोड़ दूं, तू थोड़ी बड़ी हो जा न प्लीज, उसके बाद तू सिर्फ मुझे ही देखना, ठीक है।
और पता है उसने लेटर के पीछे एक मुस्कुराता चेहरा भी बना दिया था।
पूरी कहानी सुनने के ठीक पश्चात् आयुषी के मुख पर ऐसे भाव प्रस्फुटित हुए मानो वो हंसी और मुस्कुराहट का मिला जुला रूप था जो आंखों तक पहुंच गया था। यानि इंसान कुछ सेंकेंड हंसकर मिनट भर मुस्कुराना चाहता हो..ठीक कुछ ऐसी ही स्थिति थी।
Friday, 18 November 2016
Dekalog-1
पावेल दस साल के हैं,उनके पापा एक प्रोग्रामर हैं..पावेल की माता गुजर चुकी हैं..पावेल अपने पापा के साथ ही रहते हैं।पावेल की चहेती उसकी एरिना मासी है।जो आये रोज पावेल से मिलते रहती हैं।
एक दिन पावेल और उसके पिता सुबह नाश्ते की टेबल में बैठे रहते हैं..पावेल नाश्ता कर रहे होते हैं और उसके पिता पेपर पढ़ रहे होते हैं..
पावेल पेपर को इधर-उधर से झांकते हैं और पापा को पूछते हैं..
पावेल- पापा दूसरे देश के लोगों की मौत की खबर भी छपती है क्या?
पापा- हां कभी-कभी।
पावेल- लोग मरते क्यों है?
पापा- ह्रदयगति रूक जाने से,कैंसर से, कभी किसी दुर्घटना से।
पावेल- मेरा मतलब मौत क्या है?
पापा- खून पंप होना बंद हो जाता है तो सिर तक नहीं पहुंच पाता, सब कुछ रूक जाता है..खत्म हो जाता है और मृत्यु हो जाती है।
पावेल- फिर बचता क्या है?
पापा- जो भी हमने जीते जी किया है। एक इंसान के रूप में वो सारी याद जो हमने लोगों को दी है।
पावेल गहरी सोच से घिरे हुए दिखते हैं तो फिर उसके पापा कहते हैं-
पावेल,ये सब अभी ठीक नहीं, अभी इसे रहने देते हैं।
पावेल कुछ देर के लिए चुप हो जाते हैं और फिर कहते हैं- किसी के मरने के बाद लोग शोक यात्राएं करते हैं, आत्मा के लिए प्रार्थना करते हैं। लेकिन आपने आत्मा के बारे में कुछ नहीं बताया।
पापा- वो बस एक विदाई समारोह होता है..आत्मा नाम की कोई चीज नहीं।
पावेल- एरिना मासी कहती हैं कि आत्मा होती है।
पापा- हां कुछ लोग इस एक बात पर भरोसा करते हैं, ऐसा करने से जिंदगी आसान हो जाती है।
पावेल- आप करते हैं भरोसा?
पापा- मुझे सच में नहीं पता।
पावेल तुम क्या सोच रहे हो?
क्या कोई बात हुई है?
पावेल पापा की ये बात सुनकर रोने लगते हैं, आहें भरते हुए कहते हैं- मैं आज सुबह बहुत खुश था..जब वो गणित मैंने सही सही बनाया।फिर जब मैं शापिंग के लिए बाहर गया तो मैंने वहां एक कुत्ते को मरा हुआ पाया। मैंने खुद से पूछा- इसमें क्या अच्छा हुआ..इसके मरने की जानकारी क्या किसी को चाहिए?
इसको दफनाने में कितना समय लगेगा?
क्या इन सब बातों का कोई मतलब है?
पावेल फिर कहते हैं कि वो कुत्ता किसी अच्छी जगह पर होगा ना?
एक दिन एरिना मासी पावेल से मिलने आती है..वो पावेल के लिए एक गुरू की तस्वीरें लेकर आती हैं।
पावेल तस्वीरों को देखकर कहते हैं - क्या ये दयालु हैं?
मासी -हां।
पावेल- और क्या बुध्दिमान भी हैं?
मासी - हां।
पावेल- क्या उनको पता है कि लोग किसलिए जीते हैं?
मासी - शायद हां।
पावेल- मासी! पापा मुझे कह रहे थे कि हम इसलिए जीते हैं कि हम अपनी जिंदगी आसान बना सकें..और अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए भी इसे आसान बना सकें। पर हम कई बार सफल नहीं हो पाते।
मासी- हां उन्होंने सही कहा है। हम कई बार सफल नहीं हो पाते, पर जिंदगी का मकसद ये है कि हमने दूसरों की कितनी मदद की। अगर हम किसी की सहायता करते हैं चाहे वो छोटी हो या बड़ी, हमें महसूस होता है कि उन्हें हमारी जरूरत है और फिर हमारी जिंदगी आसान हो जाती है।
जैसे तुम्हें आज मैंने ये तस्वीरें दिखाई और तुम्हें खुशी हुई।
ये बात सुनके पावेल धीमी सी मुस्कान फेर लेते हैं, एक असीम आनंद से भर जाते हैं।
मासी आगे कहती है - ये जिंदगी एक तोहफा है।
पावेल - मासी लेकिन पापा लेकिन बहुत अलग सोचते हैं।
मासी - तुम्हारे पापा एक तर्कपूर्ण जिंदगी जीते हैं..उनको भी कभी शंकाएँ होती हैं..लेकिन वे मानने को तैयार नहीं होते।
पावेल यह सुनकर फिर मुस्कुराने लगते हैं,
मासी आगे कहती है-तुम्हारी पापा की जिंदगी अपने जगह सही है लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि भगवान नहीं है।
समझ आया?
पावेल- पता नहीं, मुझे समझ नहीं आया?
मासी- बेटा भगवान है। ये बहुत ही आसान है अगर तुम विश्वास करना चाहो तो।
पावेल- आप भगवान पर विश्वास करती हैं?
मासी- हां।
पावेल(निराशा के भाव से) - कौन हैं वो?
मासी आगे आती है और पावेल को गले से लगा लेती है।
और कहती है- कुछ महसूस हुआ।
पावेल- हां,
मासी- हां यही तो भगवान है।
एक दिन पावेल और उसके पिता सुबह नाश्ते की टेबल में बैठे रहते हैं..पावेल नाश्ता कर रहे होते हैं और उसके पिता पेपर पढ़ रहे होते हैं..
पावेल पेपर को इधर-उधर से झांकते हैं और पापा को पूछते हैं..
पावेल- पापा दूसरे देश के लोगों की मौत की खबर भी छपती है क्या?
पापा- हां कभी-कभी।
पावेल- लोग मरते क्यों है?
पापा- ह्रदयगति रूक जाने से,कैंसर से, कभी किसी दुर्घटना से।
पावेल- मेरा मतलब मौत क्या है?
पापा- खून पंप होना बंद हो जाता है तो सिर तक नहीं पहुंच पाता, सब कुछ रूक जाता है..खत्म हो जाता है और मृत्यु हो जाती है।
पावेल- फिर बचता क्या है?
पापा- जो भी हमने जीते जी किया है। एक इंसान के रूप में वो सारी याद जो हमने लोगों को दी है।
पावेल गहरी सोच से घिरे हुए दिखते हैं तो फिर उसके पापा कहते हैं-
पावेल,ये सब अभी ठीक नहीं, अभी इसे रहने देते हैं।
पावेल कुछ देर के लिए चुप हो जाते हैं और फिर कहते हैं- किसी के मरने के बाद लोग शोक यात्राएं करते हैं, आत्मा के लिए प्रार्थना करते हैं। लेकिन आपने आत्मा के बारे में कुछ नहीं बताया।
पापा- वो बस एक विदाई समारोह होता है..आत्मा नाम की कोई चीज नहीं।
पावेल- एरिना मासी कहती हैं कि आत्मा होती है।
पापा- हां कुछ लोग इस एक बात पर भरोसा करते हैं, ऐसा करने से जिंदगी आसान हो जाती है।
पावेल- आप करते हैं भरोसा?
पापा- मुझे सच में नहीं पता।
पावेल तुम क्या सोच रहे हो?
क्या कोई बात हुई है?
पावेल पापा की ये बात सुनकर रोने लगते हैं, आहें भरते हुए कहते हैं- मैं आज सुबह बहुत खुश था..जब वो गणित मैंने सही सही बनाया।फिर जब मैं शापिंग के लिए बाहर गया तो मैंने वहां एक कुत्ते को मरा हुआ पाया। मैंने खुद से पूछा- इसमें क्या अच्छा हुआ..इसके मरने की जानकारी क्या किसी को चाहिए?
इसको दफनाने में कितना समय लगेगा?
क्या इन सब बातों का कोई मतलब है?
पावेल फिर कहते हैं कि वो कुत्ता किसी अच्छी जगह पर होगा ना?
एक दिन एरिना मासी पावेल से मिलने आती है..वो पावेल के लिए एक गुरू की तस्वीरें लेकर आती हैं।
पावेल तस्वीरों को देखकर कहते हैं - क्या ये दयालु हैं?
मासी -हां।
पावेल- और क्या बुध्दिमान भी हैं?
मासी - हां।
पावेल- क्या उनको पता है कि लोग किसलिए जीते हैं?
मासी - शायद हां।
पावेल- मासी! पापा मुझे कह रहे थे कि हम इसलिए जीते हैं कि हम अपनी जिंदगी आसान बना सकें..और अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए भी इसे आसान बना सकें। पर हम कई बार सफल नहीं हो पाते।
मासी- हां उन्होंने सही कहा है। हम कई बार सफल नहीं हो पाते, पर जिंदगी का मकसद ये है कि हमने दूसरों की कितनी मदद की। अगर हम किसी की सहायता करते हैं चाहे वो छोटी हो या बड़ी, हमें महसूस होता है कि उन्हें हमारी जरूरत है और फिर हमारी जिंदगी आसान हो जाती है।
जैसे तुम्हें आज मैंने ये तस्वीरें दिखाई और तुम्हें खुशी हुई।
ये बात सुनके पावेल धीमी सी मुस्कान फेर लेते हैं, एक असीम आनंद से भर जाते हैं।
मासी आगे कहती है - ये जिंदगी एक तोहफा है।
पावेल - मासी लेकिन पापा लेकिन बहुत अलग सोचते हैं।
मासी - तुम्हारे पापा एक तर्कपूर्ण जिंदगी जीते हैं..उनको भी कभी शंकाएँ होती हैं..लेकिन वे मानने को तैयार नहीं होते।
पावेल यह सुनकर फिर मुस्कुराने लगते हैं,
मासी आगे कहती है-तुम्हारी पापा की जिंदगी अपने जगह सही है लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि भगवान नहीं है।
समझ आया?
पावेल- पता नहीं, मुझे समझ नहीं आया?
मासी- बेटा भगवान है। ये बहुत ही आसान है अगर तुम विश्वास करना चाहो तो।
पावेल- आप भगवान पर विश्वास करती हैं?
मासी- हां।
पावेल(निराशा के भाव से) - कौन हैं वो?
मासी आगे आती है और पावेल को गले से लगा लेती है।
और कहती है- कुछ महसूस हुआ।
पावेल- हां,
मासी- हां यही तो भगवान है।
Sunday, 13 November 2016
~ बारह रूपये की तस्वीर ~
~ बारह रूपये की तस्वीर ~
जब स्कूल में थे तो किसी के भी घर पढ़ने या घूमने जाना होता तो पहली नजर घर की दीवारों में ही जाती..ढेर सारी फ्रेम की हुई तस्वीरें जो अतीत की कहानी बयां करती थी।
8th या 9th क्लास की बात होगी
एक बार एक दोस्त के यहां जाना हुआ।
उसके यहां कि मैंने दीवार देखी,ढेर सारी तस्वीरें, बढ़िया सुंदर तरीके से सजी हुई.
एक तस्वीर में मेरा दोस्त अपने मम्मी-पापा के साथ..तो कहीं किसी तस्वीर में बिस्तर में खिलौने से खेलता हुआ.किसी तस्वीर में दादा की गोद में।
और ऐसी कई तस्वीरें दीवार की शोभा बढ़ा रही थी।
कुछ तस्वीरें ब्लैक एंड व्हाइट थी और कुछ रंगीन।
कोई भी मेहमान उनके घर पहली बार आता तो तस्वीरों को देखकर ही वाद शुरू हो जाता,
कोई पूछता ये कौन है तो मेरे दोस्त की मम्मी कहती ये बदमाश जब पहली बार स्कूल जा रहा था तब की तस्वीर है,कितने नखरे दिखाया था एक फोटो खिचवाने के लिए।
ये देखो इस तस्वीर में पहचानों इसके पापा कहां हैं?और उंगलियां फेर फेर कर तस्वीरों के बारे में ढेर सारी बातें शुरू हो जाती।
घर लौटते वक्त थोड़ी सी टीस तो हो रही थी।
मैं घर आया और मां से कहा कि पुरानी फोटो कहां है घर के लोगों की..
मां - क्या करेगा।
मैंने कहा -ऐसी बस देखना है।
मां ने एक झोला निकाला और मेरे सामने रख दिया उसमें कुछ फ्रेम की हुई तस्वीरें थी,
एक में पापा के कालेज के दिनों की तस्वीर,किसी मे दादा चाचा और ऐसी दो चार पुरानी तस्वीरें।
लेकिन उनमें कहीं भी मैं नहीं था न ही मेरी माता।मम्मी पापा के साथ वाली भी मेरी कोई तस्वीर नहीं थी।
मैं रूठ चुका था कि बचपन की एक भी तस्वीर नहीं है।
जब दादा दादी चाचा पापा इनकी तस्वीर है अपने जमाने की, तो मेरी क्यों नहीं है।
शायद पापा ने इस ओर कभी ध्यान नहीं दिया होगा।
इतने में मुझे मेरी एक तस्वीर मिल गई..
ब्लैक एंड व्हाइट..शायद तीन या चार साल का रहा होऊंगा।कागज में लपेटकर रखी हुई थी।
मैंने घरवालों से पूछा कि क्या इसके अलावा और कोई मेरी फोटो नहीं है बचपन की?
जवाब आया कि नहीं है।
इतने में पापा आये..उन्होंने मेरी बचपन की फोटो देखी और कुछ याद करने लगे और बोले कि उस फोटो को पकड़ ले और चल मेरे साथ।
और पापा मुझे उसी फोटो स्टूडियों में ले गये जहां ये तस्वीर खिंचाई थी।
उन्होंने स्टूडियो वाले को ये तस्वीर दिखाई और कहा कि ये बच्चे की फोटो हमने दस ग्यारह साल पहले खिंचवाई थी।इसका पैसा उधार था।
ये रख लो "बारह रुपए की तस्वीर" के पैसे।
ये सब सुनकर वो फोटोग्राफर आह्लादित हो उठा, मानो उसके सुने से दुकान में ऊर्जा का संचार हो गया था।उसने बहुत सहृदयता दिखाई कि रहने दो नहीं लगेगा पैसा ये वो।लेकिन पापा भी ठान के गये थे कि पैसा दे के आयेंगे और कहने लगे कि भैया ये पैसा तो तुम रखोगे ही और फिर पापा मीठी मुस्कान फेरते हुए बोले कि ब्याज चाहिए तो वो भी बोलो इसमें शर्माने की कोई बात नहीं।
वो झेंपते हुए बोला कि क्या साहब आप भी शर्मिंदा करते हैं मैं कोई साहूकार थोड़ी न हूं जो तस्वीरों के बदले सूद के पैसे लूंगा।एक तस्वीर के वास्ते ये पाप हमसे मत करवाओ।
और बात वहीं खत्म हुई।
आज इस बात को लेकर खुशी होती है कि बचपन की एक तस्वीर के अलावा मेरे पास और कोई भी निशानी नहीं है।
तस्वीरों का सहारा बिना लिए लिखने का मजा ही कुछ और है।
जब स्कूल में थे तो किसी के भी घर पढ़ने या घूमने जाना होता तो पहली नजर घर की दीवारों में ही जाती..ढेर सारी फ्रेम की हुई तस्वीरें जो अतीत की कहानी बयां करती थी।
8th या 9th क्लास की बात होगी
एक बार एक दोस्त के यहां जाना हुआ।
उसके यहां कि मैंने दीवार देखी,ढेर सारी तस्वीरें, बढ़िया सुंदर तरीके से सजी हुई.
एक तस्वीर में मेरा दोस्त अपने मम्मी-पापा के साथ..तो कहीं किसी तस्वीर में बिस्तर में खिलौने से खेलता हुआ.किसी तस्वीर में दादा की गोद में।
और ऐसी कई तस्वीरें दीवार की शोभा बढ़ा रही थी।
कुछ तस्वीरें ब्लैक एंड व्हाइट थी और कुछ रंगीन।
कोई भी मेहमान उनके घर पहली बार आता तो तस्वीरों को देखकर ही वाद शुरू हो जाता,
कोई पूछता ये कौन है तो मेरे दोस्त की मम्मी कहती ये बदमाश जब पहली बार स्कूल जा रहा था तब की तस्वीर है,कितने नखरे दिखाया था एक फोटो खिचवाने के लिए।
ये देखो इस तस्वीर में पहचानों इसके पापा कहां हैं?और उंगलियां फेर फेर कर तस्वीरों के बारे में ढेर सारी बातें शुरू हो जाती।
घर लौटते वक्त थोड़ी सी टीस तो हो रही थी।
मैं घर आया और मां से कहा कि पुरानी फोटो कहां है घर के लोगों की..
मां - क्या करेगा।
मैंने कहा -ऐसी बस देखना है।
मां ने एक झोला निकाला और मेरे सामने रख दिया उसमें कुछ फ्रेम की हुई तस्वीरें थी,
एक में पापा के कालेज के दिनों की तस्वीर,किसी मे दादा चाचा और ऐसी दो चार पुरानी तस्वीरें।
लेकिन उनमें कहीं भी मैं नहीं था न ही मेरी माता।मम्मी पापा के साथ वाली भी मेरी कोई तस्वीर नहीं थी।
मैं रूठ चुका था कि बचपन की एक भी तस्वीर नहीं है।
जब दादा दादी चाचा पापा इनकी तस्वीर है अपने जमाने की, तो मेरी क्यों नहीं है।
शायद पापा ने इस ओर कभी ध्यान नहीं दिया होगा।
इतने में मुझे मेरी एक तस्वीर मिल गई..
ब्लैक एंड व्हाइट..शायद तीन या चार साल का रहा होऊंगा।कागज में लपेटकर रखी हुई थी।
मैंने घरवालों से पूछा कि क्या इसके अलावा और कोई मेरी फोटो नहीं है बचपन की?
जवाब आया कि नहीं है।
इतने में पापा आये..उन्होंने मेरी बचपन की फोटो देखी और कुछ याद करने लगे और बोले कि उस फोटो को पकड़ ले और चल मेरे साथ।
और पापा मुझे उसी फोटो स्टूडियों में ले गये जहां ये तस्वीर खिंचाई थी।
उन्होंने स्टूडियो वाले को ये तस्वीर दिखाई और कहा कि ये बच्चे की फोटो हमने दस ग्यारह साल पहले खिंचवाई थी।इसका पैसा उधार था।
ये रख लो "बारह रुपए की तस्वीर" के पैसे।
ये सब सुनकर वो फोटोग्राफर आह्लादित हो उठा, मानो उसके सुने से दुकान में ऊर्जा का संचार हो गया था।उसने बहुत सहृदयता दिखाई कि रहने दो नहीं लगेगा पैसा ये वो।लेकिन पापा भी ठान के गये थे कि पैसा दे के आयेंगे और कहने लगे कि भैया ये पैसा तो तुम रखोगे ही और फिर पापा मीठी मुस्कान फेरते हुए बोले कि ब्याज चाहिए तो वो भी बोलो इसमें शर्माने की कोई बात नहीं।
वो झेंपते हुए बोला कि क्या साहब आप भी शर्मिंदा करते हैं मैं कोई साहूकार थोड़ी न हूं जो तस्वीरों के बदले सूद के पैसे लूंगा।एक तस्वीर के वास्ते ये पाप हमसे मत करवाओ।
और बात वहीं खत्म हुई।
आज इस बात को लेकर खुशी होती है कि बचपन की एक तस्वीर के अलावा मेरे पास और कोई भी निशानी नहीं है।
तस्वीरों का सहारा बिना लिए लिखने का मजा ही कुछ और है।
Friday, 11 November 2016
- तुलसी पूजा -
सविता गर्मियों की छुट्टियां मनाने अपने मामा घर जा रही थी।और जब जा रही थी तो उसे अपने तुलसी के पौधे की चिंता खाये जा रही थी, ये वही तुलसी का पौधा है जिसे वो रोज सुबह छत पर जाकर पानी डालती है। अब शहरों में जगह कम होने की वजह से सारे गमले और तुलसी के पौधे सब छत में ही होते हैं।
सविता घर से जाते हुए यही सोच रही थी कि इसे कौन पालेगा, ये तो इस गर्मी में मर न जाये...घर का और कोई दूसरा सदस्य तो पानी भी नहीं डालता..एक मैं ही हूं जो रोज इनकी देखभाल कर रही हूं पता नहीं क्या होगा अब इनका।
सविता की चिंता तो ठीक वैसी ही थी जैसे एक मां की होती है, मां जब कुछ दिन के लिए अपने मायके जाती है तो बच्चों को पहले आधे घंटे तक समझाती है कि यहां पर चावल है, दालें इस डब्बे में रखी हुई हैं, मसाले यहां रखे हैं साथ ही और भी तरह तरह की जानकारी जो हमें पता भी नहीं होती। आगे मां कहती जाती है कि पानी रोज टाइम पर भर लेना, कहीं भी जाओ तो सारे खिड़की दरवाजे अच्छे से बंद करना, सब तरफ ठीक से ताले लगाकर सोना..साफ सफाई रखना वगैरह वगैरह।
और घर से जब निकल रही होती है तो फिर एक बार अपनी सारी बातें जल्दी-जल्दी दोहराने लगती है।
सविता को समझ न आया कि वो किसे बोले, घर के सारे लोग तो अपने-अपने काम में सुबह निकल ही जाते हैं, मम्मी-पापा अपने आफिस चले जाते हैं और छोटा भाई तो सुबह से स्कूल चला जाता है।कोई ऐसा नहीं दिखा जो इन पौधों की सुधी ले सके या जिसे वो बोल सके इसलिए उसने अपनी ये छोटी सी चिंता अपने तक ही रखी, किसी ने जिक्र न किया।सोचती रही कि ये पौधे पिछले गर्मियों की तरह फिर से मुरझा जायेंगे।
जून का महीना, सविता मामा घर से वापस अपने घर लौट आई थी। घर में कदम रखा ही न था कि तुरंत अपना बैग ज्यों का त्यों वहीं टेबल पर रखकर दौड़ते छत में गई। जैसे ही वो छत पर पहुंची..देखते ही उसने एक हाथ से अपना मुंह ढंक लिया, एक अद्भुत आश्चर्य जिसने उसके चेहरे पर एक नया रंग बिखेर दिया था। दो फूलों के गमले और एक तुलसी का पौधा सब लहलहा रहे थे। वो ये सब देखकर खुशी से झूम उठी।नीचे उतरकर अपनी मां से कहा- मम्मी क्या बात है आजकल पूजा हो रही है क्या तुलसी के पौधे की।मम्मी ने कहा- नहीं तो, तेरे जाने के बाद तो इस एक महीने में छत भी नहीं गई, ये कमर का दर्द जो मुझे खाये जा रहा है अब तो कपड़े यहीं बरामदे में ही सुखा लेती हूं।
सविता को आश्चर्य हुआ कि ये कैसे हो सकता है। उसने तो तुलसी के पौधे के पास जाकर देखा था, मिट्टी गीली भी था, मतलब साफ था कि कोई तो है जो मेरे पौधों पर रोज पानी डाल रहा है। उसने मम्मी से पूछ लिया था..पापा तो कभी ये सब चीजों में ध्यान देते नहीं इसलिए उसने पापा से इसका जिक्र भी न किया..अब रह गया छोटा भाई, उसने छोटे भाई को इशारों में पूछा तो उसने भी मना कर दिया।
अब सविता उलझन में पड़ गई। अब जब भी वो सुबह पानी डालने जाती तो एक बार जरूर सोचती कि किसने मेरे पौधे की देखभाल की। वो इसलिए भी सोचती क्योंकि एक दो बार सुबह उसके पूजा करने और पौधों में पानी डालने से पहले ही कोई उन पौधों में पानी डालता था।चूंकि उसके पापा बड़े सबेरे उठकर चलने जाते थे तो उसे लगा कि शायद पापा भी हो सकते हैं इसमें कोई बड़ी बात तो है नहीं और धीरे-धीरे उसने इस बात पर ध्यान देना छोड़ दिया।
अचानक एक दिन उसे याद आया कि पहली मंजिल में तो उन्होंने कालेज के दो लड़कों को कमरे किराए पर दिये हैं। उसे शक हुआ कि कहीं इन भैया लोगों ने तो पानी नहीं डाला। उसका शक उस दिन यकीन में बदल गया जब वो छत जा रही थी तो उसने देखा कि उन दोनों लड़कों में से एक लड़का लोटे से गमले पर पानी डाल रहा था, सविता छुपकर ये सब देख रही थी और फिर वह तुरंत नीचे चली गई। उसकी उलझन दूर हो चुकी थी, अब वो निश्चिंत हो गई कि इस भैया ने इतने दिन तक पानी डाला होगा मेरे पौधों पर। लेकिन वो गलत थी जिस लड़के को उसने देखा वो तो पहली बार पौधे पर प्लास्टिक के मग से पानी डाल रहा था वो भी इसलिए कि उस मग में पानी भरा पड़ा हुआ था।
फिर एक दिन जब वो छत पर जा रही थी तो जो दूसरा लड़का था वो उसी समय उतर रहा था और साथ ही उसके हाथ में एक पीतल का लोटा था। सविता का इस बात पर ध्यान ही नहीं गया शायद इसलिए भी नहीं गया क्योंकि वो तो प्रथम दृष्टया देखकर पहले ही अपने निष्कर्ष पर पहुंच चुकी थी, एक ऐसा निष्कर्ष जो सिवाय एक गलतफहमी के और कुछ भी नहीं था। कुछ इस तरह महीनों बीत गए।
दीवाली की छुट्टियाँ खत्म हो चुकी थी, किराए में रहने वाले वे दोनों लड़के भी घर से वापस आ चुके थे। तुलसी पूजा का दिन आ गया था।सविता और उसकी माता ने छत पर गन्ने सजा लिए, गन्ने के पौधे के बीच तुलसी का पौधा विराजमान हो चुका था..रंगोली बन चुकी थी..साथ ही सविता ने अरिपन(चावल के आटे से बनी कलाकृति)भी तैयार कर लिया था..पूजा की सारी तैयारी लगभग पूरी हो गई। सविता की मां ने अपने बेटे को कहा कि जा वो दोनों भैया लोग को भी बुला ले। जो लड़का सही में इतने महीनों से पानी डाल रहा था उसने पूजा में शामिल होने से मना कर दिया..कुछ बहाना बनाकर बाहर घूमने चला गया ताकि किसी को बुरा भी न लगे..और जिस लड़के ने कभी पानी नहीं डाला था..वो तुलसी पूजा में सविता के परिवार के साथ था। और सविता की अपनी गलतफहमी और दृढ़ हो गई कि जिस भैया ने मेरे तुलसी पौधे को इतने दिन सहेजा, वो आज तुलसी पूजा में साथ हैं।
सविता घर से जाते हुए यही सोच रही थी कि इसे कौन पालेगा, ये तो इस गर्मी में मर न जाये...घर का और कोई दूसरा सदस्य तो पानी भी नहीं डालता..एक मैं ही हूं जो रोज इनकी देखभाल कर रही हूं पता नहीं क्या होगा अब इनका।
सविता की चिंता तो ठीक वैसी ही थी जैसे एक मां की होती है, मां जब कुछ दिन के लिए अपने मायके जाती है तो बच्चों को पहले आधे घंटे तक समझाती है कि यहां पर चावल है, दालें इस डब्बे में रखी हुई हैं, मसाले यहां रखे हैं साथ ही और भी तरह तरह की जानकारी जो हमें पता भी नहीं होती। आगे मां कहती जाती है कि पानी रोज टाइम पर भर लेना, कहीं भी जाओ तो सारे खिड़की दरवाजे अच्छे से बंद करना, सब तरफ ठीक से ताले लगाकर सोना..साफ सफाई रखना वगैरह वगैरह।
और घर से जब निकल रही होती है तो फिर एक बार अपनी सारी बातें जल्दी-जल्दी दोहराने लगती है।
सविता को समझ न आया कि वो किसे बोले, घर के सारे लोग तो अपने-अपने काम में सुबह निकल ही जाते हैं, मम्मी-पापा अपने आफिस चले जाते हैं और छोटा भाई तो सुबह से स्कूल चला जाता है।कोई ऐसा नहीं दिखा जो इन पौधों की सुधी ले सके या जिसे वो बोल सके इसलिए उसने अपनी ये छोटी सी चिंता अपने तक ही रखी, किसी ने जिक्र न किया।सोचती रही कि ये पौधे पिछले गर्मियों की तरह फिर से मुरझा जायेंगे।
जून का महीना, सविता मामा घर से वापस अपने घर लौट आई थी। घर में कदम रखा ही न था कि तुरंत अपना बैग ज्यों का त्यों वहीं टेबल पर रखकर दौड़ते छत में गई। जैसे ही वो छत पर पहुंची..देखते ही उसने एक हाथ से अपना मुंह ढंक लिया, एक अद्भुत आश्चर्य जिसने उसके चेहरे पर एक नया रंग बिखेर दिया था। दो फूलों के गमले और एक तुलसी का पौधा सब लहलहा रहे थे। वो ये सब देखकर खुशी से झूम उठी।नीचे उतरकर अपनी मां से कहा- मम्मी क्या बात है आजकल पूजा हो रही है क्या तुलसी के पौधे की।मम्मी ने कहा- नहीं तो, तेरे जाने के बाद तो इस एक महीने में छत भी नहीं गई, ये कमर का दर्द जो मुझे खाये जा रहा है अब तो कपड़े यहीं बरामदे में ही सुखा लेती हूं।
सविता को आश्चर्य हुआ कि ये कैसे हो सकता है। उसने तो तुलसी के पौधे के पास जाकर देखा था, मिट्टी गीली भी था, मतलब साफ था कि कोई तो है जो मेरे पौधों पर रोज पानी डाल रहा है। उसने मम्मी से पूछ लिया था..पापा तो कभी ये सब चीजों में ध्यान देते नहीं इसलिए उसने पापा से इसका जिक्र भी न किया..अब रह गया छोटा भाई, उसने छोटे भाई को इशारों में पूछा तो उसने भी मना कर दिया।
अब सविता उलझन में पड़ गई। अब जब भी वो सुबह पानी डालने जाती तो एक बार जरूर सोचती कि किसने मेरे पौधे की देखभाल की। वो इसलिए भी सोचती क्योंकि एक दो बार सुबह उसके पूजा करने और पौधों में पानी डालने से पहले ही कोई उन पौधों में पानी डालता था।चूंकि उसके पापा बड़े सबेरे उठकर चलने जाते थे तो उसे लगा कि शायद पापा भी हो सकते हैं इसमें कोई बड़ी बात तो है नहीं और धीरे-धीरे उसने इस बात पर ध्यान देना छोड़ दिया।
अचानक एक दिन उसे याद आया कि पहली मंजिल में तो उन्होंने कालेज के दो लड़कों को कमरे किराए पर दिये हैं। उसे शक हुआ कि कहीं इन भैया लोगों ने तो पानी नहीं डाला। उसका शक उस दिन यकीन में बदल गया जब वो छत जा रही थी तो उसने देखा कि उन दोनों लड़कों में से एक लड़का लोटे से गमले पर पानी डाल रहा था, सविता छुपकर ये सब देख रही थी और फिर वह तुरंत नीचे चली गई। उसकी उलझन दूर हो चुकी थी, अब वो निश्चिंत हो गई कि इस भैया ने इतने दिन तक पानी डाला होगा मेरे पौधों पर। लेकिन वो गलत थी जिस लड़के को उसने देखा वो तो पहली बार पौधे पर प्लास्टिक के मग से पानी डाल रहा था वो भी इसलिए कि उस मग में पानी भरा पड़ा हुआ था।
फिर एक दिन जब वो छत पर जा रही थी तो जो दूसरा लड़का था वो उसी समय उतर रहा था और साथ ही उसके हाथ में एक पीतल का लोटा था। सविता का इस बात पर ध्यान ही नहीं गया शायद इसलिए भी नहीं गया क्योंकि वो तो प्रथम दृष्टया देखकर पहले ही अपने निष्कर्ष पर पहुंच चुकी थी, एक ऐसा निष्कर्ष जो सिवाय एक गलतफहमी के और कुछ भी नहीं था। कुछ इस तरह महीनों बीत गए।
दीवाली की छुट्टियाँ खत्म हो चुकी थी, किराए में रहने वाले वे दोनों लड़के भी घर से वापस आ चुके थे। तुलसी पूजा का दिन आ गया था।सविता और उसकी माता ने छत पर गन्ने सजा लिए, गन्ने के पौधे के बीच तुलसी का पौधा विराजमान हो चुका था..रंगोली बन चुकी थी..साथ ही सविता ने अरिपन(चावल के आटे से बनी कलाकृति)भी तैयार कर लिया था..पूजा की सारी तैयारी लगभग पूरी हो गई। सविता की मां ने अपने बेटे को कहा कि जा वो दोनों भैया लोग को भी बुला ले। जो लड़का सही में इतने महीनों से पानी डाल रहा था उसने पूजा में शामिल होने से मना कर दिया..कुछ बहाना बनाकर बाहर घूमने चला गया ताकि किसी को बुरा भी न लगे..और जिस लड़के ने कभी पानी नहीं डाला था..वो तुलसी पूजा में सविता के परिवार के साथ था। और सविता की अपनी गलतफहमी और दृढ़ हो गई कि जिस भैया ने मेरे तुलसी पौधे को इतने दिन सहेजा, वो आज तुलसी पूजा में साथ हैं।
Tuesday, 8 November 2016
- आदमी की निगाह में औरत -
एक घर में एक लड़का पैदा होता है, ठीक उसी तरह किसी दूसरे घर में एक लड़की पैदा होती है।उनके जन्म से लेकर बुढ़ापे तक एक चीज जो उनके साथ हमेशा रहती है वो है उनका शरीर।बचपन से उन्हें सबसे पहले उनके शरीर के बारे में बताया जाता है।उन्हें सचेत किया जाता है।उस शरीर के बारे बताया जाता है जो उनका है ही नहीं।असल मायनों में ये एक बहुत बड़ी गलतफहमी है कि हम समझने लगते हैं कि ये देह जो हमें मिला है हम इसके पूरे हकदार हैं।नहीं ऐसा नहीं है ये तो इस कुदरत ने हमें एक तोहफे के रूप में दिया है जिसके अपने दायित्व हैं, कर्तव्यबोध हैं और अनिश्चितता से युक्त जिसकी अपनी एक समय सीमा है, इस तय समय में हम इसे कितना सहेजते,संवारते हैं ये हम पर निर्भर करता है।
बचपन से ही हमारे शरीर को लेकर या शारीरिक अंगों को लेकर चर्चाएँ शुरू हो जाती है कि हमारा वजन कितना है,रंग रूप कैसा है, चेहरा कैसा है, कौन सा भाग अत्यधिक सुंदर है,किस पर गया है आदि आदि।
यहां तक तो सब ठीक रहता है लेकिन जब लड़का और लड़की थोड़े बड़े होने लगते हैं तो ये शारीरिक अंगों की चर्चाएँ लड़कों के संदर्भ में लगभग शून्य होती जाती है और लड़कियों के संदर्भ में उतनी ही बढ़ जाती है।चाहे वो लड़की कितनी भी काबिल या कितनी भी सुगम क्यों न हो, उसे एक आदमी प्रथम दृष्टया शारीरिक रूप में ही आलोकित करता है तद्पश्चात उसके गुणों एवं सत्कार्यों की चर्चा होती है।
झुग्गी झोपड़ियों से लेकर बहुमंजिला इमारतों के आफिस तक, खेत से होकर पार्लियामेंट तक हर जगह एक चीज जो समान रूप से विद्यमान है वो है औरतों के लिए निगाह..एक ऐसी निगाह जिसकी पहली प्राथमिकता शारीरिक आकर्षण भर है।यह प्राथमिकता कुछ सेकेंड या कुछ मिनट के लिए हो सकती है पर पहले स्थान पर यही होता है।जब ये पहली प्राथमिकता समाप्त होती है उसके पश्चात् बाकी प्राथमिकताओं की बारी आती है।फिर जाकर व्यक्तित्व के स्तर पर बातें शुरू होती है, अमुक स्त्री की प्रतिभा का जिक्र होता है।
एक स्त्री जो किसी क्षेत्र विशेष में बहुत अच्छा काम कर रही है..जो एक पूरे समाज के लिए सम्मान का हेतु है।उसके पीछे भी पुरूषों की एक चुटकी भर की निगाह तो होती ही है जो उसके स्त्रीत्व को अल्प मात्रा में ही सही, कचोटती जरूर है।
एक आदमी के रूप में या यूं कहे कि एक लड़के की नजर से जब मैं इस परिस्थिति से रुबरु होता हूं तो लगता है कि स्त्रियां अब इस निगाह की आदी हो चुकी हैं उन्हें इस प्रचलित आचरण को नजरअंदाज करना ही पड़ता है, शायद इसी परिस्थिति को पितृसत्तात्मक समाज की संज्ञा दिया जाता है और बस संज्ञा देकर भुला दिया जाता है, पुरूषों के द्वारा तो भुलाया जाता ही है साथ ही महिलाएं भी यदा-कदा भुला ही देती हैं।
इस समस्या के गहरे तक कोई उतरना नहीं चाहता।
एक ओर जो सर्वत्र हैं, आदरणीय हैं, जो स्त्रियों के अधिकारों की बात करते है, न्याय और मान सम्मान की बात करते हैं,नयी स्थापनाएं करते हैं वे भी इस नजरिए को नहीं समझ पाते।
अगर वर्गीकरण के रास्ते से इस नजरिए को ठीक होना होता तो कबका हो भी जाता।लेकिन ये मामला वर्गीकरण से परे है।इस मामले में वर्गीकरण को किनारे रख सहयोगिता(सहभागिता) को अपनाना होगा, वैसे भी जहां कहीं स्त्री-पुरूष की सहभागिता अपने उच्चतम स्तर पर है वहां वहां निगाहरूपी ये समस्याएं गौण हो जाती है।
{स्त्री-पुरूष}यहां स्त्री और पुरुष के बीच में जो योजक चिन्ह लगा हुआ है।इस योजक चिन्ह को ताक में रखकर कभी किसी का भला नहीं हो सकता।कोई भी विचार या विमर्श इसे ध्यान में रखकर ही करना चाहिए क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वो चाहे वैरागी ही क्यों न हो जाये उसे इसी समाज में रहना है।जहां ये स्त्री-पुरूष का बंध टूटा तो निश्चय ही बिखराव होगा, इसलिए स्त्री-पुरूष की ये सह-संयोजकता हमेशा बनी रही चाहिए।
ऐसा भी नहीं है कि एक स्त्री को पुरूष के छाया तले ही पलना है और उसका स्त्रीत्व पुरूष के साथ ही फलित होना है..अगर वो किसी पुरूष को अपना सहभागी नहीं भी चुनती तो भी उसके स्त्रीत्व के लिए एक पुरूष की संयोजकता जरूरी होती ही है जो उसके सुख-दुख में उसका भागी हो..जो उसकी जिजीविषा बनाये रखे...अब ये उसका पिता,भाई या कोई भी हो सकता है, इस तरह वो स्त्री पूर्ण तो कहलायेगी लेकिन संपूर्ण नहीं।और इस एक संयोजकता से एक स्त्री का स्त्रीत्व घटने के बजाय और अधिक पल्लवित होता है।
बचपन से ही हमारे शरीर को लेकर या शारीरिक अंगों को लेकर चर्चाएँ शुरू हो जाती है कि हमारा वजन कितना है,रंग रूप कैसा है, चेहरा कैसा है, कौन सा भाग अत्यधिक सुंदर है,किस पर गया है आदि आदि।
यहां तक तो सब ठीक रहता है लेकिन जब लड़का और लड़की थोड़े बड़े होने लगते हैं तो ये शारीरिक अंगों की चर्चाएँ लड़कों के संदर्भ में लगभग शून्य होती जाती है और लड़कियों के संदर्भ में उतनी ही बढ़ जाती है।चाहे वो लड़की कितनी भी काबिल या कितनी भी सुगम क्यों न हो, उसे एक आदमी प्रथम दृष्टया शारीरिक रूप में ही आलोकित करता है तद्पश्चात उसके गुणों एवं सत्कार्यों की चर्चा होती है।
झुग्गी झोपड़ियों से लेकर बहुमंजिला इमारतों के आफिस तक, खेत से होकर पार्लियामेंट तक हर जगह एक चीज जो समान रूप से विद्यमान है वो है औरतों के लिए निगाह..एक ऐसी निगाह जिसकी पहली प्राथमिकता शारीरिक आकर्षण भर है।यह प्राथमिकता कुछ सेकेंड या कुछ मिनट के लिए हो सकती है पर पहले स्थान पर यही होता है।जब ये पहली प्राथमिकता समाप्त होती है उसके पश्चात् बाकी प्राथमिकताओं की बारी आती है।फिर जाकर व्यक्तित्व के स्तर पर बातें शुरू होती है, अमुक स्त्री की प्रतिभा का जिक्र होता है।
एक स्त्री जो किसी क्षेत्र विशेष में बहुत अच्छा काम कर रही है..जो एक पूरे समाज के लिए सम्मान का हेतु है।उसके पीछे भी पुरूषों की एक चुटकी भर की निगाह तो होती ही है जो उसके स्त्रीत्व को अल्प मात्रा में ही सही, कचोटती जरूर है।
एक आदमी के रूप में या यूं कहे कि एक लड़के की नजर से जब मैं इस परिस्थिति से रुबरु होता हूं तो लगता है कि स्त्रियां अब इस निगाह की आदी हो चुकी हैं उन्हें इस प्रचलित आचरण को नजरअंदाज करना ही पड़ता है, शायद इसी परिस्थिति को पितृसत्तात्मक समाज की संज्ञा दिया जाता है और बस संज्ञा देकर भुला दिया जाता है, पुरूषों के द्वारा तो भुलाया जाता ही है साथ ही महिलाएं भी यदा-कदा भुला ही देती हैं।
इस समस्या के गहरे तक कोई उतरना नहीं चाहता।
एक ओर जो सर्वत्र हैं, आदरणीय हैं, जो स्त्रियों के अधिकारों की बात करते है, न्याय और मान सम्मान की बात करते हैं,नयी स्थापनाएं करते हैं वे भी इस नजरिए को नहीं समझ पाते।
अगर वर्गीकरण के रास्ते से इस नजरिए को ठीक होना होता तो कबका हो भी जाता।लेकिन ये मामला वर्गीकरण से परे है।इस मामले में वर्गीकरण को किनारे रख सहयोगिता(सहभागिता) को अपनाना होगा, वैसे भी जहां कहीं स्त्री-पुरूष की सहभागिता अपने उच्चतम स्तर पर है वहां वहां निगाहरूपी ये समस्याएं गौण हो जाती है।
{स्त्री-पुरूष}यहां स्त्री और पुरुष के बीच में जो योजक चिन्ह लगा हुआ है।इस योजक चिन्ह को ताक में रखकर कभी किसी का भला नहीं हो सकता।कोई भी विचार या विमर्श इसे ध्यान में रखकर ही करना चाहिए क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वो चाहे वैरागी ही क्यों न हो जाये उसे इसी समाज में रहना है।जहां ये स्त्री-पुरूष का बंध टूटा तो निश्चय ही बिखराव होगा, इसलिए स्त्री-पुरूष की ये सह-संयोजकता हमेशा बनी रही चाहिए।
ऐसा भी नहीं है कि एक स्त्री को पुरूष के छाया तले ही पलना है और उसका स्त्रीत्व पुरूष के साथ ही फलित होना है..अगर वो किसी पुरूष को अपना सहभागी नहीं भी चुनती तो भी उसके स्त्रीत्व के लिए एक पुरूष की संयोजकता जरूरी होती ही है जो उसके सुख-दुख में उसका भागी हो..जो उसकी जिजीविषा बनाये रखे...अब ये उसका पिता,भाई या कोई भी हो सकता है, इस तरह वो स्त्री पूर्ण तो कहलायेगी लेकिन संपूर्ण नहीं।और इस एक संयोजकता से एक स्त्री का स्त्रीत्व घटने के बजाय और अधिक पल्लवित होता है।
Sunday, 6 November 2016
~ बीस रुपए ~
मोहित का अपना एक स्टडी टेबल है।
स्टडी टेबल के ठीक सामने उसने अपने दिनचर्या के हिसाब से एक टाइम टेबल चिपकाया है।मोहित का दिनचर्या कुछ ऐसा हो गया कि घर में बैठे-बैठे अब उसके गाल कद्दू जैसे हो गये हैं, गला भर आया है।वैसे हर नौजवान लड़के के जीवन में एक समय ऐसा आता है जब वो फूलने लगता है..मोहित भी इसी दौर से गुजर रहा था, स्वेज नहर इतनी तेजी से चौड़ा नहीं हो पा रहा है जितनी तेज गति से मोहित के कमर की चौड़ाई बढ़ रही है।
लेकिन आज कुछ बदला है,कुछ नया हुआ है, टाइम टेबल के ठीक बाजू में उसने एक और नया टाइम टेबल लगाया है, ये टाइम टेबल पढ़ाई का नहीं बल्कि किसी को देखने का है, एक ऐसा रिमांइडर जो मोहित के खुशी की वजह है।उसके घर के पड़ोस में रहने वाली आंटी जो उससे उम्र में लगभग दुगुनी होगी लेकिन जिसे वो रोज सुबह उठते ही देखना पसंद करता है।
तो अपनी इस खुशी को बांधे रखने के लिए उसने एक समय सारणी बना ली है..पहला समय सुबह 6:30 से लेकर 7:00 बजे का है..जब वो कचरा फेंकने बाहर जाती है और छत में कपड़े सुखाने आती है।दूसरा एक समय शाम का है जब वो आंटी अपने घर के चौपाल पर कुछ देर बैठती है।मोहित रोज पूरी तल्लीनता से सुबह और शाम उस आंटी को देखता..वो आंटी थी भी इतनी खूबसूरत...ये सिलसिला महीनों तक चलता रहा।इतने दिनों में उसकी चाह में न तो कोई बढ़ोत्तरी हुई न ही उसने कभी कोई कमी महसूस की।एक ऐसी प्रीति ने जन्म ले लिया था या एक ऐसा लगाव कह सकते हैं जो बदले में कुछ भी नहीं चाहता।कुछ इस तरह मोहित ने खुद को एक सीमितता में ढाल लिया था।सुबह और शाम के अपने तय समय के अलावा वो उनके घर पर या छत पर झांकना भी पसंद न करता।
इस बीच मोहित के साथ कुछ ऐसा घटा कि उसने कुछ दिन से उस आंटी को देखना ही बंद कर दिया..उसने वो टाइम टेबल भी फाड़कर फेंक दिया जो आंटी को देखने के लिए उसने लगाया था।
पूरी घटना ये है कि कुछ दिन पहले जब आंटी कचरा फेंकने गई तो जब कचरा फेंककर वापस आ रही थी उसी समय एक बूढ़ा वहां से गुजरा था, उसका बीस रूपये का नोट वहां गिर गया था..आंटी ने आव देखा न ताव, तुरंत वो बीस रुपए उठा लिया..और अपने घर के अंदर चली गई।कुछ मिनटों बाद जब वो बूढ़ा उस गली को वापस लौटा तो वो रास्ते भर देखता रहा कि कहीं मेरे पैसे यहां तो नहीं गिर गये...फिर वो बूढ़ा उस आंटी के घर पर झांकते हुए गुजरा..वो कुछ इस तरह से झांका मानो उसे इस बात का यकीन हो कि रूपया इसी घर की महिला ने उठा लिया हो।इतनी सुबह वैसे भी गली मोहल्ले में उतनी चहलकदमी न थी तो उस बूढ़े का शक करना भी जायज था।मोहित ये सब देखकर सन्न रह गया।जिस खूबसूरती को वो इतने अपनेपन से निहारता था..आज उसे वो देखना भी नहीं चाहता था।सच ही है कि हमारा जिससे भी जुड़ाव होता है, जो हमारे लिए खुशी की वजह है उसकी ऐसी छोटी-छोटी गलतियां हमें चोट तो पहुंचाती ही हैं।वैसे तो ये बीस रूपये की एक सामान्य सी चोरी थी लेकिन इस एक घटना ने मोहित को हिला कर रख दिया था।
इस घटना को हुए लगभग एक महीना हो चुका था।एक दिन मोहित के दिमाग में ख्याल आया।वो दोपहर को एक लंबा सा डंडा लेकर अपने छत में चला गया चूंकि आंटी का घर ठीक उसके घर से सटा हुआ था तो उसने आंटी के छत से सूखते कपड़ों में से एक कपड़ा डंडे से खींच लिया..या यूं कहे चुरा लिया।अब उस कपड़े को उसने अगले दिन वापस आंटी के छत पर फेंक दिया..साथ ही उसने उस कपड़े में सेलो टेप से एक कागज चिपका दिया जिसमें उसने लिखा था कि "चोरी करना पाप है।" छत पर सुखाये कपड़ों को लेने के लिए कभी उस आंटी की सास आ जाती तो कभी आंटी आ जाती तो कभी कोई और..।मोहित हर रोज ध्यान नहीं दे पाता कि कौन सुखे कपड़े लेने आ रहा है।इसलिए अब उसने ये काम जारी रखा वो हर कुछ दिन के अंतराल में डंडे से कपड़े खींचता..आप सोच रहे होंगे कि क्लिप लगाकर कपड़े सुखाते होंगे फिर मोहित कैसे कपड़े कैसे चुरा लेता था।अरे भई मोहित तो एक्सपर्ट था..इतनी हालीवुड फिल्में देखता था..डंडे में हुक फंसा के क्लिप हटाकर कपड़े चुरा लेना उसके लिए तो मानो बायें हाथ का खेल था।
मोहित अधिकतर उन कपड़ों को चुराता जो छोटे आकार के होते या जो सबसे सुंदर होते..और फिर सेलो टेप से एक छोटा सा कागज उस पर बड़ी सावधानी से चिपकाता जिससे कपड़ों को भी नुकसान न पहुंचे।हमेशा कागज में कुछ वाक्य लिख देता जैसे कि :-
1)"सभी कर्मों का फल यहीं मिलना है, स्वर्ग नर्क की बातें फिजूल है।"
2)"ईश्वर से डरो,कुदरत बहुत बेदर्द है..किसी को नहीं बख्शती।"
3)"ऐसा कोई काम मत करो..जो आपका कुशलमंगल चाहने वालों को अप्रिय लगे।"
4)"एक स्त्री का व्यक्तित्व उसकी सुंदरता से भी बड़ा गहना है।"
कभी जब कुछ नहीं सूझता तो गूगल से चोरी न करने की सीख देने वाले कुछ वाक्य खोजकर लिख देता।और इस बीच कभी कभी आंटी को देख भी लेता कि उनमें कोई बदलाव आया या नहीं, उन्हें अपनी गलती महसूस हुई या नहीं..चेहरे में वही पुराने भाव, हर बार उसे निराशा हाथ लगती।
अब वो कुछ दिन के लिए शांत हो गया..न कोई कपड़े चुराए न ही कोई बात लिखी..अपनी पढ़ाई में लगा रहा। और हफ्ते भर के बाद उसने फैसला किया कि ये आखिरी बार है..अब इसके बाद न मैं मुड़कर उस आंटी को देखूंगा न ही अब कोई कपड़े चुराऊंगा।इस बार उसने छांटकर आंटी के सलवार सूट को ही चुराया...आज वो आंसुओं में था..वो एक मिनट के लिए भी उस कपड़े को अपने पास नहीं रखना चाहता था। उसने इस बार कोई कागज नहीं चिपकाया फिर भी इतना सेलो टेप इस्तेमाल किया कि किसी को भी मश्क्कत करनी पड़ जाये और आखिरकार उसने कपड़े में बीस रुपए का एक नोट चिपकाकर उसी दिन वापस फेंक दिया।
स्टडी टेबल के ठीक सामने उसने अपने दिनचर्या के हिसाब से एक टाइम टेबल चिपकाया है।मोहित का दिनचर्या कुछ ऐसा हो गया कि घर में बैठे-बैठे अब उसके गाल कद्दू जैसे हो गये हैं, गला भर आया है।वैसे हर नौजवान लड़के के जीवन में एक समय ऐसा आता है जब वो फूलने लगता है..मोहित भी इसी दौर से गुजर रहा था, स्वेज नहर इतनी तेजी से चौड़ा नहीं हो पा रहा है जितनी तेज गति से मोहित के कमर की चौड़ाई बढ़ रही है।
लेकिन आज कुछ बदला है,कुछ नया हुआ है, टाइम टेबल के ठीक बाजू में उसने एक और नया टाइम टेबल लगाया है, ये टाइम टेबल पढ़ाई का नहीं बल्कि किसी को देखने का है, एक ऐसा रिमांइडर जो मोहित के खुशी की वजह है।उसके घर के पड़ोस में रहने वाली आंटी जो उससे उम्र में लगभग दुगुनी होगी लेकिन जिसे वो रोज सुबह उठते ही देखना पसंद करता है।
तो अपनी इस खुशी को बांधे रखने के लिए उसने एक समय सारणी बना ली है..पहला समय सुबह 6:30 से लेकर 7:00 बजे का है..जब वो कचरा फेंकने बाहर जाती है और छत में कपड़े सुखाने आती है।दूसरा एक समय शाम का है जब वो आंटी अपने घर के चौपाल पर कुछ देर बैठती है।मोहित रोज पूरी तल्लीनता से सुबह और शाम उस आंटी को देखता..वो आंटी थी भी इतनी खूबसूरत...ये सिलसिला महीनों तक चलता रहा।इतने दिनों में उसकी चाह में न तो कोई बढ़ोत्तरी हुई न ही उसने कभी कोई कमी महसूस की।एक ऐसी प्रीति ने जन्म ले लिया था या एक ऐसा लगाव कह सकते हैं जो बदले में कुछ भी नहीं चाहता।कुछ इस तरह मोहित ने खुद को एक सीमितता में ढाल लिया था।सुबह और शाम के अपने तय समय के अलावा वो उनके घर पर या छत पर झांकना भी पसंद न करता।
इस बीच मोहित के साथ कुछ ऐसा घटा कि उसने कुछ दिन से उस आंटी को देखना ही बंद कर दिया..उसने वो टाइम टेबल भी फाड़कर फेंक दिया जो आंटी को देखने के लिए उसने लगाया था।
पूरी घटना ये है कि कुछ दिन पहले जब आंटी कचरा फेंकने गई तो जब कचरा फेंककर वापस आ रही थी उसी समय एक बूढ़ा वहां से गुजरा था, उसका बीस रूपये का नोट वहां गिर गया था..आंटी ने आव देखा न ताव, तुरंत वो बीस रुपए उठा लिया..और अपने घर के अंदर चली गई।कुछ मिनटों बाद जब वो बूढ़ा उस गली को वापस लौटा तो वो रास्ते भर देखता रहा कि कहीं मेरे पैसे यहां तो नहीं गिर गये...फिर वो बूढ़ा उस आंटी के घर पर झांकते हुए गुजरा..वो कुछ इस तरह से झांका मानो उसे इस बात का यकीन हो कि रूपया इसी घर की महिला ने उठा लिया हो।इतनी सुबह वैसे भी गली मोहल्ले में उतनी चहलकदमी न थी तो उस बूढ़े का शक करना भी जायज था।मोहित ये सब देखकर सन्न रह गया।जिस खूबसूरती को वो इतने अपनेपन से निहारता था..आज उसे वो देखना भी नहीं चाहता था।सच ही है कि हमारा जिससे भी जुड़ाव होता है, जो हमारे लिए खुशी की वजह है उसकी ऐसी छोटी-छोटी गलतियां हमें चोट तो पहुंचाती ही हैं।वैसे तो ये बीस रूपये की एक सामान्य सी चोरी थी लेकिन इस एक घटना ने मोहित को हिला कर रख दिया था।
इस घटना को हुए लगभग एक महीना हो चुका था।एक दिन मोहित के दिमाग में ख्याल आया।वो दोपहर को एक लंबा सा डंडा लेकर अपने छत में चला गया चूंकि आंटी का घर ठीक उसके घर से सटा हुआ था तो उसने आंटी के छत से सूखते कपड़ों में से एक कपड़ा डंडे से खींच लिया..या यूं कहे चुरा लिया।अब उस कपड़े को उसने अगले दिन वापस आंटी के छत पर फेंक दिया..साथ ही उसने उस कपड़े में सेलो टेप से एक कागज चिपका दिया जिसमें उसने लिखा था कि "चोरी करना पाप है।" छत पर सुखाये कपड़ों को लेने के लिए कभी उस आंटी की सास आ जाती तो कभी आंटी आ जाती तो कभी कोई और..।मोहित हर रोज ध्यान नहीं दे पाता कि कौन सुखे कपड़े लेने आ रहा है।इसलिए अब उसने ये काम जारी रखा वो हर कुछ दिन के अंतराल में डंडे से कपड़े खींचता..आप सोच रहे होंगे कि क्लिप लगाकर कपड़े सुखाते होंगे फिर मोहित कैसे कपड़े कैसे चुरा लेता था।अरे भई मोहित तो एक्सपर्ट था..इतनी हालीवुड फिल्में देखता था..डंडे में हुक फंसा के क्लिप हटाकर कपड़े चुरा लेना उसके लिए तो मानो बायें हाथ का खेल था।
मोहित अधिकतर उन कपड़ों को चुराता जो छोटे आकार के होते या जो सबसे सुंदर होते..और फिर सेलो टेप से एक छोटा सा कागज उस पर बड़ी सावधानी से चिपकाता जिससे कपड़ों को भी नुकसान न पहुंचे।हमेशा कागज में कुछ वाक्य लिख देता जैसे कि :-
1)"सभी कर्मों का फल यहीं मिलना है, स्वर्ग नर्क की बातें फिजूल है।"
2)"ईश्वर से डरो,कुदरत बहुत बेदर्द है..किसी को नहीं बख्शती।"
3)"ऐसा कोई काम मत करो..जो आपका कुशलमंगल चाहने वालों को अप्रिय लगे।"
4)"एक स्त्री का व्यक्तित्व उसकी सुंदरता से भी बड़ा गहना है।"
कभी जब कुछ नहीं सूझता तो गूगल से चोरी न करने की सीख देने वाले कुछ वाक्य खोजकर लिख देता।और इस बीच कभी कभी आंटी को देख भी लेता कि उनमें कोई बदलाव आया या नहीं, उन्हें अपनी गलती महसूस हुई या नहीं..चेहरे में वही पुराने भाव, हर बार उसे निराशा हाथ लगती।
अब वो कुछ दिन के लिए शांत हो गया..न कोई कपड़े चुराए न ही कोई बात लिखी..अपनी पढ़ाई में लगा रहा। और हफ्ते भर के बाद उसने फैसला किया कि ये आखिरी बार है..अब इसके बाद न मैं मुड़कर उस आंटी को देखूंगा न ही अब कोई कपड़े चुराऊंगा।इस बार उसने छांटकर आंटी के सलवार सूट को ही चुराया...आज वो आंसुओं में था..वो एक मिनट के लिए भी उस कपड़े को अपने पास नहीं रखना चाहता था। उसने इस बार कोई कागज नहीं चिपकाया फिर भी इतना सेलो टेप इस्तेमाल किया कि किसी को भी मश्क्कत करनी पड़ जाये और आखिरकार उसने कपड़े में बीस रुपए का एक नोट चिपकाकर उसी दिन वापस फेंक दिया।
Thursday, 3 November 2016
-Tigress in Pink Shoe-
लखनऊ से गरीब रथ ट्रेन में बैठा था..बीस घंटे का लंबा सफर..थर्ड एसी कोच में ये मेरा पहला सफर था।एसी का सफर वो भी मजबूरी में, क्योंकि इस ट्रेन का नाम तो गरीब रथ है लेकिन ट्रेन पूरी थर्ड एसी है।हां तो हमेशा की तरह मैं अपने अपर बर्थ में जाकर लेट गया।अपर बर्थ इसलिए भी अच्छा है कि नीचे सीट वालों की बहस से बेखबर चुपचाप अपना आराम करो।लंबे सफर में हमेशा चर्चा बहस करने वाले मिल ही जाते हैं, अधिकांशतः बहस का स्तर भी ऐसा होता है कि कान में इयरफोन लगा लेना ही समझदारी का काम है।
इस बार मुझे ऐसी चर्चा सुनने को मिली कि मैं अपना इयरफोन निकालकर सुनने लग गया।तो हुआ यूं कि नीचे वाली बर्थ में दो अंकल थे दोनों पचास की उम्र लांघ चुके होंगे..और वहीं एक लड़की भी बैठी थी, शायद वो अकेले सफर कर रही थी..हमउम्र सी वो लड़की,गुलाबी रंग का एक बेहतरीन शू रंग बिरंगे मोजे के साथ और एक सिम्पल इंडियन आउटफिट पहने हुए..ठीक एक कालेज पासआउट लड़की की तरह जिसकी अपनी एक परिपक्वता(maturity level)होती है..और एक सहजता लिए हुए जिसका अपना एक ड्रेसिंग सेंस होता है।
वो लड़की भी मेरी तरह इयरफोन लगाये फोन में टाइमपास कर रही थी।
दोनों अंकल बातें कर रहे थे..
कभी सेल्फी खींचते लोगों को देखकर तरह तरह की बातें करते..तो कभी आजकल के लड़के लड़कियों के पहनावे को लेकर चर्चा करते।कभी लड़कों के किनारे से सफाचट किए बाल को लेकर कहते कि क्या हो गया है आजकल के बच्चों को..तो कभी लड़कियों के चमड़ी से चिपके ड्रेस को लेकर हताशा से भरी बातें करते।कभी कहते कि आजकल के बच्चों को कुछ नहीं आता..बड़ों का मान-सम्मान करना तो अब बीते जमाने की बातें हो गई।
तभी उस गुलाबी शू वाली लड़की ने इयरफोन निकालकर कहा - आप लोग आजकल के बच्चों का कितना सम्मान करते हैं अंकल?
दोनों अंकल भी घबरा गए कि ये क्या हुआ।
उन्होंने भी मुड़ के जवाब दिया..कि बेटा हम तो आज की पीढ़ी का सम्मान करते आ रहे हैं..पर आज की जनरेशन ही ऐसी है कि इन बच्चों से दो शब्द बात नहीं किया जा सकता..किसी की ये सुनना नहीं चाहते।
फिर शुरू हुई बहस..
लड़की ने कहा- अच्छा, आप आज की जनरेशन का कितना सम्मान करते हैं ये मैंने देख लिया..अभी आप लोगों से सुन भी लिया..
आपको तो लड़कों के बाल,दाढ़ी से लेकर लड़कियों के सेल्फी खींचने से भी प्राबल्म है, अंकल जी आप लोग सच में आजकल के बदलाव को एक्सेप्ट नहीं कर पाये हैं अगर कर लेते न तो ये ऐसी बातें नहीं करते।
और अंकल जी अब मैं बोलूं आपको, आप लोग भी तो चार इंच लंबी कली रखते थे..रोड में बाजा बजाने वाले बजनिया की तरह बाल रखते थे...आधा फुट लंबा कालर होता था आपके शर्ट का..आपके जमाने का पेंट एड़ी तक आते आते दो मुंही फ्राक बन जाता था...और तो और भद्दा सा गोदना गोदवाते थे हमने तो कभी इन सब चीजों पर कमेंट नहीं किया..पता है क्यों? क्योंकि हमको ये सब से मतलब ही नहीं है।
अंकल थोड़े देर चुप रहने के बाद बोले - ठीक है बेटा आप लोग का जमाना ही ज्यादा अच्छा है।हमारा जमाना तो पुराना बेकार था।
लड़की - मैं तो आपके जनरेशन को कुछ बोल ही नहीं रही..बस आपको बता रही हूं कि हर जनरेशन की अपनी कुछ कमी रहती है। और माफ करना अंकल पर आप लोगों को न बस आज की जनरेशन को कोसना आता है।इसके अलावा तो आपको कुछ दिखता ही नहीं..बोलिए तो हमारी जनरेशन में कुछ भी अच्छा नहीं है क्या? अगर कुछ अच्छा है भी तो भी वो आपको नहीं दिखेगा पता है क्यों..क्योंकि आप देखना ही नहीं चाहते।
लड़के की बातों ने मानो दोनों अंकल का मुंह सिल दिया हो।एक बार को तो मन किया कि अपर बर्थ से तुरंत नीचे उतर जाउं और बहस में थोड़ी हिस्सेदारी निभाऊं लेकिन फिर मैंने खुद को रोक लिया।उनकी बहस चल ही रही थी और लड़की की बातें सुनके मैंने अपना पूरा मन बना लिया था कि इसका आटोग्राफ तो मैं लेकर रहूंगा।
लड़की ने आगे कहा - आपके टाइम गोदना होता था..हमारे टाइम आजकल टैटू होता है..आपके गोदने से तो ये लाख गुना अच्छा है।और वैसे भी हमारी जनरेशन आपकी तरह अंधविश्वासों में नहीं पड़ती..न ही बेकार की बहस में उलझना पसंद करती है।और भी बहुत सी अच्छाइयाँ हैं हमारी जनरेशन में।कभी देखने की कोशिश कीजिएगा।
अंकल तो ज्यादा कुछ बोल ही नहीं पा रहे थे।उन्होंने पर्यावरण प्रदूषण और आज के टूटते समाज को लेकर लड़की को काउंटर करने की कोशिश की।पर लड़की भी सवाशेर..तुनककर फिर से जवाब दिया।
लड़की ने कहा- इसके पीछे भी आप ही लोग जिम्मेदार हैं..अगर आज की जनरेशन खराब है भी तो ये आपकी ही गलती है कि आपने इसको सही डायरेक्शन नहीं दिया।आपके पास इन सब को ठीक करने का कुछ आइडिया होगा तो वो बताइए..ये ऐसे ताना मारकर कुछ नहीं होने वाला ठीक है न।
अंकल- बेटा हम लोगों ने जितना डायरेक्शन दिया..अगर वो बातें आज के बच्चे मान लेते तो बात कुछ और होती।लेकिन आज की जनरेशन तो हाइटेक होने के साथ-साथ खोखली होती जा रही है।
लड़की- कुछ भी डायरेक्शन नहीं दिया आप लोगों ने..बस आपको अपना समय गोल्डन पीरियड लगता है...बाकी आगे आना वाला समय तो आपके लिए कलयुग,कबाड़युग और न जाने क्या क्या है।
और ट्रेन अपनी पटरी पर सरपट दौड़ती रही...बहस का न तो कोई आदि ना ही कोई अंत...बहस चलती रही...
इस बार मुझे ऐसी चर्चा सुनने को मिली कि मैं अपना इयरफोन निकालकर सुनने लग गया।तो हुआ यूं कि नीचे वाली बर्थ में दो अंकल थे दोनों पचास की उम्र लांघ चुके होंगे..और वहीं एक लड़की भी बैठी थी, शायद वो अकेले सफर कर रही थी..हमउम्र सी वो लड़की,गुलाबी रंग का एक बेहतरीन शू रंग बिरंगे मोजे के साथ और एक सिम्पल इंडियन आउटफिट पहने हुए..ठीक एक कालेज पासआउट लड़की की तरह जिसकी अपनी एक परिपक्वता(maturity level)होती है..और एक सहजता लिए हुए जिसका अपना एक ड्रेसिंग सेंस होता है।
वो लड़की भी मेरी तरह इयरफोन लगाये फोन में टाइमपास कर रही थी।
दोनों अंकल बातें कर रहे थे..
कभी सेल्फी खींचते लोगों को देखकर तरह तरह की बातें करते..तो कभी आजकल के लड़के लड़कियों के पहनावे को लेकर चर्चा करते।कभी लड़कों के किनारे से सफाचट किए बाल को लेकर कहते कि क्या हो गया है आजकल के बच्चों को..तो कभी लड़कियों के चमड़ी से चिपके ड्रेस को लेकर हताशा से भरी बातें करते।कभी कहते कि आजकल के बच्चों को कुछ नहीं आता..बड़ों का मान-सम्मान करना तो अब बीते जमाने की बातें हो गई।
तभी उस गुलाबी शू वाली लड़की ने इयरफोन निकालकर कहा - आप लोग आजकल के बच्चों का कितना सम्मान करते हैं अंकल?
दोनों अंकल भी घबरा गए कि ये क्या हुआ।
उन्होंने भी मुड़ के जवाब दिया..कि बेटा हम तो आज की पीढ़ी का सम्मान करते आ रहे हैं..पर आज की जनरेशन ही ऐसी है कि इन बच्चों से दो शब्द बात नहीं किया जा सकता..किसी की ये सुनना नहीं चाहते।
फिर शुरू हुई बहस..
लड़की ने कहा- अच्छा, आप आज की जनरेशन का कितना सम्मान करते हैं ये मैंने देख लिया..अभी आप लोगों से सुन भी लिया..
आपको तो लड़कों के बाल,दाढ़ी से लेकर लड़कियों के सेल्फी खींचने से भी प्राबल्म है, अंकल जी आप लोग सच में आजकल के बदलाव को एक्सेप्ट नहीं कर पाये हैं अगर कर लेते न तो ये ऐसी बातें नहीं करते।
और अंकल जी अब मैं बोलूं आपको, आप लोग भी तो चार इंच लंबी कली रखते थे..रोड में बाजा बजाने वाले बजनिया की तरह बाल रखते थे...आधा फुट लंबा कालर होता था आपके शर्ट का..आपके जमाने का पेंट एड़ी तक आते आते दो मुंही फ्राक बन जाता था...और तो और भद्दा सा गोदना गोदवाते थे हमने तो कभी इन सब चीजों पर कमेंट नहीं किया..पता है क्यों? क्योंकि हमको ये सब से मतलब ही नहीं है।
अंकल थोड़े देर चुप रहने के बाद बोले - ठीक है बेटा आप लोग का जमाना ही ज्यादा अच्छा है।हमारा जमाना तो पुराना बेकार था।
लड़की - मैं तो आपके जनरेशन को कुछ बोल ही नहीं रही..बस आपको बता रही हूं कि हर जनरेशन की अपनी कुछ कमी रहती है। और माफ करना अंकल पर आप लोगों को न बस आज की जनरेशन को कोसना आता है।इसके अलावा तो आपको कुछ दिखता ही नहीं..बोलिए तो हमारी जनरेशन में कुछ भी अच्छा नहीं है क्या? अगर कुछ अच्छा है भी तो भी वो आपको नहीं दिखेगा पता है क्यों..क्योंकि आप देखना ही नहीं चाहते।
लड़के की बातों ने मानो दोनों अंकल का मुंह सिल दिया हो।एक बार को तो मन किया कि अपर बर्थ से तुरंत नीचे उतर जाउं और बहस में थोड़ी हिस्सेदारी निभाऊं लेकिन फिर मैंने खुद को रोक लिया।उनकी बहस चल ही रही थी और लड़की की बातें सुनके मैंने अपना पूरा मन बना लिया था कि इसका आटोग्राफ तो मैं लेकर रहूंगा।
लड़की ने आगे कहा - आपके टाइम गोदना होता था..हमारे टाइम आजकल टैटू होता है..आपके गोदने से तो ये लाख गुना अच्छा है।और वैसे भी हमारी जनरेशन आपकी तरह अंधविश्वासों में नहीं पड़ती..न ही बेकार की बहस में उलझना पसंद करती है।और भी बहुत सी अच्छाइयाँ हैं हमारी जनरेशन में।कभी देखने की कोशिश कीजिएगा।
अंकल तो ज्यादा कुछ बोल ही नहीं पा रहे थे।उन्होंने पर्यावरण प्रदूषण और आज के टूटते समाज को लेकर लड़की को काउंटर करने की कोशिश की।पर लड़की भी सवाशेर..तुनककर फिर से जवाब दिया।
लड़की ने कहा- इसके पीछे भी आप ही लोग जिम्मेदार हैं..अगर आज की जनरेशन खराब है भी तो ये आपकी ही गलती है कि आपने इसको सही डायरेक्शन नहीं दिया।आपके पास इन सब को ठीक करने का कुछ आइडिया होगा तो वो बताइए..ये ऐसे ताना मारकर कुछ नहीं होने वाला ठीक है न।
अंकल- बेटा हम लोगों ने जितना डायरेक्शन दिया..अगर वो बातें आज के बच्चे मान लेते तो बात कुछ और होती।लेकिन आज की जनरेशन तो हाइटेक होने के साथ-साथ खोखली होती जा रही है।
लड़की- कुछ भी डायरेक्शन नहीं दिया आप लोगों ने..बस आपको अपना समय गोल्डन पीरियड लगता है...बाकी आगे आना वाला समय तो आपके लिए कलयुग,कबाड़युग और न जाने क्या क्या है।
और ट्रेन अपनी पटरी पर सरपट दौड़ती रही...बहस का न तो कोई आदि ना ही कोई अंत...बहस चलती रही...
Subscribe to:
Posts (Atom)