हमारे यहाँ स्त्री पुरुष के बीच रिश्ते बेहद संजीदगी वाले होते हैं, जिनमें तमाम तरह की अपनी जटिलताएं होती हैं। चाहे वह अल्पकालिक रिश्ता हो, लव मैरिज हो या फिर अरैंज मैरिज। रिश्तों में एक दूसरे की खोज करते हुए, एक दूसरे के सोच विचार को विस्तार देते हुए अपनेपन को जीना सबके बूते का नहीं है।
अधिकतर रिश्तों में यह देखने में आता है कि जहाँ जैसे एक पक्ष आर्थिक रूप से अधिक समृध्द हो, दिखने में ज्यादा अच्छा हो, सोच में मानसिकता में मेधा के स्तर पर एक व्यक्ति दूसरे से कहीं अधिक आगे हो। ऐसी स्थिति में एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के प्रति आजीवन उदारता का, दुःखहर्ता का, सहानुभूति का भाव रखता है, जीवनसाथी के रूप में बराबरी में सम्मान नहीं कर पाता है। ऐसे व्यक्ति को रिश्तों में अपनी ओर से बहुत अधिक जोर नहीं लगाना पड़ता है, लापरवाही चरम पर होती है। जैसे कभी बहस होती है तो दूसरे पक्ष को आर्थिक सामाजिक और दैहिक सुंदरता इन मामलों को सामने लाकर बुरा भला कहा जाता है, छोटा दिखाया जाता है। जो ईमानदार होता है वह भड़ास निकाल देता है, जो शातिर होता है, वह खामोश रहकर कुण्ठा परोसते हुए आजीवन दिमाग से खेलता है। ऐसे रिश्तों में वैचारिकी बिलकुल नहीं मिलती है, मिलने का दिखावा जरूर होता है, दुनिया के बेस्ट कपल वाले लतीफे छोड़ कर बस गाड़ी खींच रहे होते हैं, ऐसी स्थिति में दो लोगों के बीच सब कुछ होता है, बस रिश्ता नहीं होता है। एक बहुत बढ़िया पाॅलिश फिल्म है - "थ्री कलर्स व्हाइट", उसमें इस द्वंद को बहुत अच्छे से दिखाया गया है।
जिन रिश्तों में इंसान को अपने पार्टनर से एक माता-पिता, भाई,बहन या दुनिया में जितने भी रिश्ते हैं, हर तरह की भूमिका निभा जाने का अपनापन महसूस ना हो, इसका सीधा मतलब यही है कि रिश्ते में ढीलापन है, टिकाऊ नहीं है, चाहे वह अविवाहित लोग हों या शादी-शुदा जोड़े। जो लोग रिश्तों में एक दूसरे को पूरी तरह स्वीकारते हैं, समझते हैं, उनमें खासकर शादी के बाद गजब का बदलाव देखने को मिलता है। अलग दृष्टिकोण से जीवन पथ पर आगे बढ़ते हैं, तनावमुक्त हो जाते हैं, जीवन के प्रति पहले से कहीं अधिक सहज हो जाते हैं, क्योंकि उनको एक ऐसा इंसान मिल जाता है, जिससे वह अपने सारे सुख-दुःख साझा कर सकते हैं। हमारे यहाँ विरले ही ऐसी घटनाएँ होती है।
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