जो समृध्द है, सुविधाओं से लैस है, वह सवाल उठा रहा है कि ये रिपोर्ट गलत है, देश की छवि खराब करने वाली बात है। कोई कह रहा है कि हम नाखुश नहीं है, असल में हमारा देश एक बड़ा बाजार है, इसलिए पश्चिमी देश अपने उत्पादों को बेचने के लिए जान बूझकर ऐसे आंकड़े पेश करता है ताकि हम अधिक से अधिक खरीददारी करें, ऐसे महानुभावों से पूछने का मन करता है कि 136 करोड़ भारतीय में से कितने लोग ऐसे आंकड़ों को पढ़ते हैं और इससे प्रभावित होते हैं। कोई यह भी कह रहे कि युध्द के मुहाने पर खड़े यूक्रेन, या अन्य ऐसे देश जहाँ गरीबी, युध्दोन्माद, दिवालियापन चरम पर है, वे कैसे हमसे ज्यादा खुश हो सकते हैं। मुझे लगता है कि या तो ये जबरन इतने मासूम बने फिर रहे हैं या इन्हें भारतीय समाज की रत्ती भर समझ नहीं है। मनोरोग अकेला अपने आप में हैप्पीनेस इंडेक्स खराब करने के लिए काफी होता है। वैश्विक स्तर पर बनाए जाने वाले तमाम रिपोर्ट जिनमें किसी देश का चहुंमुखी विकास दिखाई देता है उनमें खासकर भारत के लिए सबसे जरूरी रिपोर्ट मुझे यही लगता है। विकास का क्या है, चलता रहता है, अधोसंरचनाएं थोक के भाव तैयार होती रहती है, जहाँ के बाशिदों ने कभी सड़क रेल फ्लैट माँगा ही नहीं, वहाँ भी जिद करके पहुंच जाता है विकास। विकास की यही खासियत है कि वह बिना इजाजत के कहीं भी पहुंच जाने की क्षमता रखता है और आंकड़े तैयार हो जाते हैं। लेकिन इस रिपोर्ट के साथ ऐसा नहीं है।
जिन देशों में गरीबी, युध्द, दिवालियापन वाली स्थिति है उन देशों में भी लोग हमसे ज्यादा खुश क्यों हैं इसका कारण जानने के लिए हमें उनके समाज को उनके सामाजिक ढांचे को देखना समझना होगा, जो कि हम कर नहीं सकते। इसलिए हमें चाहिए कि हम अपने ही सामाजिक ढांचे को ईमानदारीपूर्वक देख लें। किताबी बातों से इतर वास्तविक जमीनी हकीकत को देख लें कि एक इंसान के रूप में हम कैसा जीवन जीते हैं, अपने दैनिक जीवन में किस मानसिकता का पोषण करते हैं। यह भी देखें कि सबसे ज्यादा अमीरी और सबसे ज्यादा गरीबी दोनों चीजें हमारे यहाँ क्यों है, आय की असमानता में चोटी और खाई का अंतर आखिर क्यों है। आखिर कैसे, कैसे हमने इस मुकाम को हासिल किया है। हमारे आसपास समाज में इतनी टूट-फूट, इतना प्रतिरोध, इतना बिखराव, इतनी घुटन, इतनी अस्थिरता आखिर क्यों है। सबसे मजेदार जो कोई नहीं समझ पाता है वो यह है कि इस मनोरोग से हर कोई पीड़ित है, जो सुविधाओं से लैस है वह भी उतना ही दु:खी है जितना कि एक दूसरा व्यक्ति जो हाशिए पर है, विपदा के मारे है। एक को मुद्रा, बाजार और गलाकाट प्रतियोगिता ने जकड़ा हुआ है, तो दूसरे को पहले वाले की हरकतों से पैदा हुए निर्वात ने दबोच रखा है। आपने कितनी भी समृध्दि हासिल कर ली, माने लें आपने अपना घर कितना भी अच्छा बना लिया, आपके घर के बाहर नाली साफ करने वाला तो एक पीड़ित शोषित व्यक्ति है, उसके दुःखों का ताप आप तक चाहे अनचाहे पहुंचता ही रहेगा। किसी भौतिक वस्तु की तरह इसे आप रोक नहीं सकते, आप इससे खुद को अलग नहीं कर सकते हैं, जो ऐसा करते हैं, वे और दुःखी होते हैं, उनके भीतर हिंसा, कटुता, वैमनस्यता चरम पर होती है। और यही बड़ी मात्रा में हो भी रहा है तब कहीं जाकर सैकड़ा पार का यह 126 नंबर हमने हासिल किया है।
मूल बात यही है कि जहाँ एक किसी को अपने सुख के लिए, अपने आराम के लिए किसी दूसरे व्यक्ति को चोट पहुंचाना पड़ रहा है, वहाँ दु:ख अपने पूरे विस्तार के साथ विभाजित होकर कोनों-कोनों तक पहुंचता रहता है। भोलापन इतना हावी है कि लोगों को इसकी भनक तक नहीं लगती है कि उनके होने भर से, उनकी जीवनशैली से, उनकी गतिविधियों से, मानसिकता से, आचार-व्यवहार से, तौर-तरीकों से कितने लोगों को किस-किस तरह का नुकसान पहुंच रहा होता है। दुःखों का अनवरत विस्तारण करने वाले ये लोग असल में खुद सबसे अधिक दु:खी होते हैं, और समाज में भी इसी का प्रसार करते रहते हैं।
भोजन, आवास संबंधी सुविधाएं अर्जित करने से, मौद्रिक स्थिरता पा लेने से या सुंदर काया का धनी हो जाने से ही अगर खुशहाली आ जाती तो हर समृध्द व्यक्ति खुश होता, ऐसा क्यों है कि सबसे भयानक विद्रूपताएं उल्टे इन्हीं के जीवन में होती है। इनके जीवन में समस्याओं का उद्गार ज्वालामुखी के लावे की तरह निरंतर होता रहता है, जो निचले स्तर के हर व्यक्ति तक पहुंचता है। बहुत विरले ही होते हैं जो खुद को अप्रभावित रखते हुए बचा पाते हैं। खुशहाली कुछ अर्जित करने से नहीं आती बल्कि सहज होने से आती है। अगर कुछ अर्जित कर लेने से ही इंसान खुश हो लेता तो एक किसी बड़े नेता, सेलिब्रिटी या अधिकारी को कभी दुनिया जहाँ की शादियाँ या संबंधों में लिप्त न होना पड़ता, अपराध न करने पड़ते या अन्य इस तरह का कोई भी व्यभिचार या कुसंग न करना पड़ता। चाहे वह नेता हो, व्यापारी हो, अधिकारी हो, चपरासी हो या कोई आम इंसान अगर आप व्यक्तिगत जीवन में, अपने निजी रिश्ते में पारिवारिक जीवन में खुश नहीं है, कलह आपके जीवन पर हावी है, तो इसका असर आपके आसपास के लोगों तक पहुंचता ही है। किसी भी सरकारी, गैर-सरकारी आफिस में बैठा चपरासी से लेकर जिलाधीश, किसी दुकान के संचालक या बस कंडक्टर या कोई रेहड़ी चलाने वाला आम आदमी, इन सबमें एक चीज समान है कि ये सब मनुष्य हैं और एक मनुष्य होने के नाते सब उसी मात्रा में भोजन करते हैं, निवृत होते हैं, मानवीय रिश्तों को जीते हैं आदि आदि। इन सबके लिए एक ही नियम लागू होता है कि जिस व्यक्ति के जीवन में मानवीय रिश्तों में समस्याएँ चल रही है, वह अपने व्यवहार से दूसरों को बहुत अधिक मानसिक चोट पहुंचा रहा होता है, और यह उसे आजीवन पता नहीं चलता है, क्योंकि वह खुद बीमार है, मानसिक रूप से पीड़ित है। मानसिक विक्षिप्तता से ग्रसित लोग सिर्फ सड़कों पर नहीं घूमते; वे दफ्तरों, दुकानों, चौबारों में भी बैठते हैं, मंच का भी संचालन करते हैं।
कुछ समय पहले एक बस कंडक्टर मिला, एक मेरी दोस्त ने उस बस कंडक्टर की बहुत तारीफ की थी कि वह बहुत अच्छा व्यवहारिक लड़का है। बाकी कंडक्टर की तरह किसी को अपनी आंखों से असहज नहीं करता है, सबसे अच्छे से बात करता है, नाममात्र भी हिंसा नहीं है। मैंने अपने दोस्त को बस इतना ही कहा कि गरीबी अमीरी से इतर एक अच्छे तनावमुक्त पारिवारिक माहौल के साथ पला बढ़ा होगा, परिवार में बहुत अधिक समस्याएं होंगी भी तो दृष्टा भाव से झेलते हुए आगे बढ़ा होगा, सहनशक्ति और दुनिवायी समझ दोनों साथ-साथ विकसित हुई होगी। और सबसे जरूरी व्यक्तिगत रिश्तों में अगर वह शादीशुदा होगा तो एक पत्नीव्रता होगा। या शादीशुदा नहीं भी है तो अपने मंगेतर या प्रेमिका के साथ भी रिश्ते की इस खूबसूरती को जी रहा होगा। उसके जीवनसाथी में भी यही गुण होंगे, वह भी कुछ ऐसी ही जीवनयात्रा से होकर आई होगी। इन सब की वजह से उस कंडक्टर में किसी तीसरे व्यक्ति के लिए हमलावर होने की प्रवृति विकसित होने की जगह ही नहीं बचती होगी। अंतत: मेरा आंकलन सही निकला।
हिंसक होने का, व्यभिचारी हो जाने का आधार अगर दुःख या पीड़ा सहना है। तो इसमें बस यही कहना है कि आप कितना भी सह लें, बुध्द गांधी के इतना तो कभी नहीं सह पाएंगे। वे क्यों हिंसक नहीं हुए इस बात को समझने की आवश्यकता है, उन्होंने भी आजीवन तमाम तरह की अपवंचनाएं झेलीं, लेकिन इससे उन्होंने खुद को विकसित किया, समृध्द किया। दुःख को मृत्यु से भी बड़ा बताकर आजीवन उसके समाधान के लिए बुध्द ने जीवन खपा दिया। बुध्द तमाम पीड़ाएं झेलते सहते हुए आजीवन दुःखहर्ता की भूमिका में रहे। सहना कोई मामूली बात नहीं है। किसी ने सही कहा है - बहते झरने की कलकल आवाज रास्ते में रूकावट बन रहे पत्थरों के बिना संभव नहीं है। और जीवन जीने का यही एकमात्र तरीका होता है।
हमारे यहाँ एक भाई अपने दूसरे भाई का गला काटने के लिए तैयार रहता है। एक फुट जमीन के लिए मारकाट मच जाती है, कुछ रूपयों के लिए मौत के घाट उतार दिया जाता है। क्षणिक सुख के लिए सारी जीवनी ऊर्जा खत्म की जाती है। रिश्तों के नाम पर एक दूसरे को तमाम तरह की मानसिक शारीरिक क्षति पहुंचाई जाती है। मुद्रा को ही जीवन का अंतिम लक्ष्य मानकर तमाम तरह की हिंसाएं की जाती है। दिन रात प्रपंच, तीन तिकड़म ही जीवन का अंतिम लक्ष्य बन जाता है। इस विशाल सांस्कृतिक वैभव के कारण ही आज 137 देशों की सूची में हम 126 नंबर पर आए हैं। आइए निर्विकार भाव से हम सब इस सच को स्वीकारें और एक बेहतर इंसान हो जाने की हरसंभव कोशिश करते चलें। क्योंकि जीवन एक ही बार आता है।
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