व्यवस्था है एक मासूम चिड़िया,
उसे जो जैसा चाहता है इस्तेमाल कर लेता है,
चाहे सरकारी व्यक्ति हो या गैर सरकारी,
कोई नेता हो या कोई पत्रकार,
हर कोई अपनी सुविधानुसार,
व्यवस्था रूपी चिड़िया के पंख नोच ले जाता है।
इसके ठीक उलट एक बड़ी आबादी,
उस व्यवस्था रूपी मासूम चिड़िया के,
पंखों पर लगातार मरहम करती रहती है।
एक तोड़ने का काम करता है,
तो एक जोड़ने का।
तोड़ने वाले इतना तोड़ जाते हैं,
कि पंखों को फलने ही नहीं देते।
तोड़ने वाला झटके में अपना काम कर जाता है,
जोड़ने वाले आजीवन लगे रहते हैं।
कुछ इस तरह व्यवस्था,
अपने होने का अहसास दिलाती है।
जब तक जोड़ने वाले रहेंगे,
जब तक पंखों को सहारा देने वाले रहेंगे,
व्यवस्था सारी पीड़ाएँ झेलते हुए,
सच्चिदानंद की भांति जीवित रहेगी।
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