Sunday, 25 September 2022

कुली नंबर वन -

फिल्में वही दिखाती हैं जो समाज में घटित हो रहा होता है। साल 1995 में फिल्म आई थी - कुली नंबर 1. जिसे फिल्म की कहानी के बारे में नहीं पता उन्हें बताता चलूं कि एक करोड़पति बाप होता है, उसकी दो बेटियाँ रहती है, उस करोड़पति बाप की इच्छा रहती है कि अच्छे लड़कों से उन बेटियों की शादी हो जाए। फिल्म का किरदार राजू यानि गोविंदा जो कि कुली रहता है, फर्जी तरीके से करोड़पति के भेष में शादी रचा लेता है। उसके लिए तो चाँदी ही चाँदी हो जाती है, दामाद बनकर रातों रात करोड़पति जो हो जाता है, इसलिए अपनी साख बनाए रखने के लिए जमकर अपनी बीवी और अपने ससुर की तारीफ करता है। लेकिन अपनी असल हकीकत छुपाने के लिए वह लगातार प्रयासरत रहता है। मामला खराब न हो इसके लिए जुड़वा भाई की कहानी भी रचता है। खूब सारे तीन तिकड़म करता है, जमकर फील्डिंग बिछाता है। उस शादी को बचाए रखने के लिए तमाम तरह के झूठ प्रपंच गढ़ता है, लेकिन धीरे-धीरे वो और फंसता जाता है और एक दिन उसका पर्दाफा़श हो जाता है।

ये तो रही फिल्म की कहानी जिसमें दर्शक दीर्घा की माँग को ध्यान में रखते हुए हमेशा न्याय दिखाया जाता है और एक सुखद अंत हमारे सामने होता है। लेकिन वास्तविक जीवन में जो राजू सरीखे लोग होते हैं वे आजीवन पकड़ में नहीं आते हैं।

अपने आसपास हम देखें तो पता चलता है कि हममें से हर किसी ने अपने जीवन में राजू जैसे कुछ किरदारों को देखा ही होता है, जो बीवी और बीवी के खानदान की चौबीसों घंटे तारीफ करने के मोड में लगे रहते हैं, ऐसे लोग एक इंसान के रूप में कभी सही होते ही नहीं हैं। इसमें भी जो बहुत बड़े वाले होते है, वो तो जितने जोश में बीवी के खानदान की तारीफ करते हैं, उतने ही जोश में अपने खानदान की ऐसी तैसी भी करते हैं। अंत में यही कि जैसे ही कोई बीवी के घर वालों का गुणगान करे, कुली नंबर 1 फिल्म को याद कर लीजिएगा।

Saturday, 24 September 2022

मानव बम - 3

41. पब्लिक डोमेन में कभी कोई आर्थिक सामाजिक रूप से मजबूत व्यक्ति इनको खुलकर तवज्जो नहीं देता है, वो बात अलग है कि ये लोग उनके नाम का डंका जरूर पीटते हैं ताकि दुनिया के सामने अपना सीना चौड़ा कर सकें।

42. विडम्बना देखिए कि इनके लिए प्रेम बरसाने वाले हमेशा दबे कुचले या इनसे नीचे के लोग ही होते हैं।

43. ये जिस जीवन मूल्य को अपने जीवन का आधार मानते हैं, उस जीवन मूल्य के बारे में हमेशा बातें करते रहते हैं, आप देखिएगा कि उसी जीवन मूल्य के प्रति ये सबसे ज्यादा गैर-जिम्मेदार होते हैं। 

44. इतनी बड़ी साख वाले ये महान आदमी। जाहिर है उस महानता वाली शख्सियत की अपनी व्यस्तता भी होगी। लेकिन फिर भी अपने चेले चपाटों को ज्ञान देने के लिए इनके पास भरपूर समय होता है।

45. मुख्यधारा के समाज में इन्हें कोई उस तरह से नहीं जानता, इनकी पहचान एक तरह से जीरो ही होती है, लेकिन जिन रसूख/पाॅवर वालों को ये टार्गेट किए होते हैं, उनके साथ अपनी पहचान गिनाकर खुद को महान बताते हैं। 

46. चूंकि भारी भरकम रसूख वालों के साथ अपने संपर्क को गिनाते हैं तो भारत का अदना सा व्यक्ति कभी इनसे सीधे कुछ पूछने या आराम से बात करने लायक स्पेस नहीं बना पाता है। इन्होंने पहले ही खुद सारा स्पेस ब्लाक करके रखा होता है।

47. जैसे एक चपरासी एक अधिकारी को उनके पद अनुरूप उसका सम्मान करता है, इनके साथ आम लोगों के रिश्ते कुछ वैसे ही होते हैं। वे डर के मारे कभी सामान्य सी बात भी नहीं कह पाते हैं क्योंकि ये इतनी मजबूत आभा बनकर चलते हैं।

48. जिस डर/भय के तत्व को किसी धर्म या विचारधारा से जुड़ा व्यक्ति अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करता है। ये भी उसी तलवार का प्रयोग कहीं अधिक हिंसा से अपने हित साधने के लिए करते हैं।

49. राम रहीम दवा के मदद से भक्तों को नपुंसक बनाता था, ऐसे लोग अपनी बातों से मानसिक रूप से नपुंसक बनाते हैं।

50. कोई साफ मन से भलाई सोचकर भी कुछ कहे वह गलत नियत वाला हो जाता है। लेकिन चूंकि इन लोगों के पास नियत को नापने की भी मशीन होती है तो ये अपनी नियत को सही नियत का तमगा देकर आपको जलील भी कर सकते हैं, अपशब्द भी कह सकते हैं, आपका जीवन भी बर्बाद कर सकते हैं।

51. इनके जीवन का आधार-स्तंभ ही विरोधाभास होता है। इनका विरोधाभाषी चरित्र इनके लहू के एक एक कतरे में आजीवन बहता रहता है। अहिंसा की बात करते हैं और जमकर हर तरह की शाब्दिक वैचारिक हिंसा करते हैं, न्याय की बात करते हैं और जमकर धोखेबाजी करते हैं, प्रेम की बात करते हैं और खूब नफरत को जीते हैं, वस्तुनिष्ठता की बात कर जमकर व्यक्तिगत होते हैं, योग्यता मेधा की बात करते हैं और धूर्त लोगों की टोली के सरदार बने फिरते हैं, एक ओर मानवीय संबंधों रिश्तों की महत्ता गिनाते हैं वहीं दूसरी ओर अपने ही करीबी लोगों को मानसिक चोट पहुंचाते रहते हैं, बात-बात पर विनम्रता की दुहाई तो देते हैं लेकिन जब मौका पड़ा जमकर गुंडई दिखाते हैं, नियत को आधार बनाते हैं और नियतखोरी का पहाड़ खड़ा कर देते हैं, सामाजिकता की बात करते हैं जबकि खुद भयानक असामाजिक प्रवृति के होते हैं।

52. मुख्यधारा का आम आदमी इन जैसे लोगों से संपर्क को सोशल कैपिटल मानता है। और अपनी उस कैपिटल को चोट नहीं पहुंचाता है। कहीं गलती से आर्थिक वाला मामला सेट हो जाए तो ऐसी कैपिटल का भ्रम भी खत्म होता जाता है। मानव बम का असल रूप कभी नहीं दिख पाता।

अब कितना ही लिखा जाए , अब चूंकि हम महान नहीं हैं, सामान्य मनुष्य हैं तो अपनी भूख नींद और बाकी रूटिन की चीजें भी ये सब से प्रभावित होती ही है, (बारूद के ढेर में सफाई के लिए इंसान उतरे तो कपड़ों पर बारूद की परत लगती ही है, झाड़ने से काम नहीं चलता है, बार-बार कपड़े गंदे होते हैं, शरीर गंदा होता है तो बार-बार नहाना पड़ता है यही स्थिति है) क्या है इंसान की अपनी दैनिक दिनचर्या के काम भी होते हैं, परिवार होता है, जिम्मेदारियाँ होती है। और जिनका खुद का जीवन हर प्रकार से सुरक्षित हो जाए तो ऐसे मानव बम रूपी लोग किसी भी प्रकार की क्रांतिकारिता गढ़ सकते हैं।

Friday, 23 September 2022

मानव बम - 2

"मानव बम" रूपी चरित्र के बारे में लिखते हुए 50 प्वाइंट हो चुके हैं, ( मानव बम असल में पिछली पोस्ट का शीर्षक ही है) सोच रहा हूं कि आखिर कितनी व्याख्या कर पाया, अपनी बात के साथ कितना न्याय कर पाया। लगातार खुद का आंकलन भी करता चल रहा हूं कि कहीं हिंसा, प्रतिशोध जैसे भाव तो नहीं उमड़ रहे और क्या ऐसे भाव मेरे भीतर के मूल स्वभाव पर हावी तो नहीं हो रहे। जब हम ऐसे पड़ताल करते हैं बहुत अधिक सावधानी बरतनी पड़ती है क्योंकि बहुत से आयाम होते हैं, आप इनके फैलाए रायते के पीछे पड़ताल करते रह जाएंगे लेकिन कभी खत्म नहीं होगा। यह भी ध्यान रखना पड़ रहा है कि मैं अपने लिखे के प्रति कितना सहज हूं। कहीं मेरे लिखे किसी एक वाक्य में भी महानता का तत्व तो नहीं है। जितना समय इस पूरी पड़ताल में लग रहा है, उससे दुगुना समय खुद के लिए भी दे रहा हूं और पूरी कठोरता के साथ खुद का आंकलन करता चल रहा हूं कि इस पूरी प्रक्रिया में मेरे भीतर कैसे भाव उमड़ रहे हैं। बाकी एक बात तो पूरे अधिकार से कहना चाहता हूं कि अपने लिखे एक-एक वाक्य को लेकर हद से ज्यादा स्पष्ट हूं, हिमालय सा अडिग हूं। मुझे अपने बारे में कोई भी संदेह नहीं है। 

बम तो बम होता है, बम महान होता है, बम की अपनी व्यापकता होती है। बहुत सोचने विचारने के बाद मानव बम शीर्षक देने का सोचा। मानव बम रूपी इंसान की भी अपनी खूबसूरती होती है, लेकिन एक बम को नकारने के लिए उसके एक विस्फोटक चरित्र का होना ही काफी होता है।

एक संदेश यह भी जाता होगा कि मैं मानव बमों से गहरे प्रभावित हुआ होऊंगा लेकिन पूरी तरह ऐसा नहीं है। कुछ लोग किनारे में बैठकर ऐसे मानव बमों के असर को लगातार देख रहे होते हैं। मैं बहुत हद तक किनारे में रहा, इसलिए भी लिख पा रहा हूं। मेरे मूल स्वभाव के प्रति मेरा भरोसा, थोड़ी बहुत ईमानदारी, अस्तित्व की शक्ति और मेरे शुभचिंतको ने मुझे हमेशा संभाला है। जो लोग मानव बमों से बहुत अधिक प्रभावित होते हैं, ऐसे लोग या तो गुमनाम हो जाते हैं या हिंसा के साथ प्रतिक्रिया देने लगते हैं, खुद को बचा नहीं पाते हैं। उनकी प्रतिक्रिया में भी हिंसा कम और जीवन के प्रति पैदा हो चुकी कठोरता अधिक होती है। वे संतुलित विनम्र होकर अपनी बात कहने की क्षमता खासकर ऐसे मामलों में खो चुके होते हैं। जो कुछ भी झेले होते हैं, उससे पैदा हो रही पीड़ा झटके में फूटकर उन्हें प्रभावित कर ही देती है। 
मोटा-मोटा फिलहाल के लिए यही समझ आया कि जितनी सूक्ष्मता से गहराई में जाकर एक-एक चीज को महसूस कर रहा हूं, शायद उसका आधा भी लिखकर बताना संभव नहीं है‌, शायद ही किसी को अच्छे से समझा पाऊं। इसलिए अभी के लिए थोड़ा विश्रामावस्था में जाना बेहतर समझ रहा हूं।

इति।।

Wednesday, 21 September 2022

मानव बम

अभी तक के जीवन में प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष तरीके से जितने भी सामाजिक कार्यकर्ता सेलिब्रिटी क्रांतिकारी सरीखे लोग मिले, आज उनको लेकर एक बात बड़ी विनम्रता से कहना चाहता हूं कि उनमें से सब के सब बहुत अधिक परेशान/कुण्ठित से लोग लगे। इनके साथ मैंने बहुत सी गंभीर समस्याएँ देखी हैं जिनका जिक्र करना जरूरी समझ रहा हूं -

1. अपने प्रति और जीवन के प्रति सहज नहीं होते हैं।
2. इनके भीतर आपको न्यूनतम स्तर की विनम्रता भी देखने को नहीं मिलती है। 
3. चिढ़चिढ़े स्वभाव के होकर अपने उस स्वभाव को श्रेष्ठताबोध की तरह पेश करते हैं।
4. बहुत ही सामान्य सी बात को, समाधान के उपायों को ये आपके लिए जटिल और पहाड़ सा कठिन बनाकर पेश करते हैं।
5. आप गहराई में जाकर देखेंगे तो पाएंगे कि ये जीवन की छोटी-छोटी चीजों में बहुत अधिक अपरिपक्व अव्यवहारिक होते हैं।
6. मुख्यधारा के समाज, देश, काल, परिस्थिति के प्रति बहुत अधिक नफरत, कुंठा और हीनभावना से ग्रस्त होते हैं या ऐसा पेश करते हैं।
7. इन्हें सबको एक ही चश्मे से देखने और तौलने की गंभीर बीमारी होती है।
8. परिस्थिति अनुसार सलेक्टिव होना इन्हें बखूबी आता है, जहाँ इन्हें अपना स्वार्थ दीखता है, वहाँ ये बिना शर्म के लोट जाते हैं।
9. ये सामाजिकता और क्रांतिकारिता को आधार बनाकर आपका मनचाहे अपमान करने का विशेषाधिकार हासिल कर लेते हैं।
10. आत्मश्लाघा/आत्ममुग्धता/महानता से ग्रसित होते हैं और इसकी पूर्ति के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं।
11. ये सिर से लेकर पाँव तक महान होते हैं, इनकी सोच से लेकर दैनिक दिनचर्या की हर चीज महान होती है, बाकि पूरी दुनिया मूर्ख होती है। 
12. ये अपने अनुगामियों के समक्ष माहौल ऐसा बना देते हैं कि इनकी महानता के कसीदे पढ़ते हुए वे उम्मीद रख लें, फिर ये उन उम्मीदों को झटके में कुचल देते हैं। 
13. अपनी छोटी सी भी चूक/गलती/नासमझी के प्रति इनमें थोड़ा भी स्वीकार्यता का भाव नहीं होता है, क्योंकि ये स्वघोषित महान लोग होते हैं।
14. चूंकि ये महान और हर विधा के विशेषज्ञ होते हैं, इसलिए इनको जैसे कुछ नहीं भी आता है, उस विषय में भी ये सलाह दे जाते हैं, भले ही उस दी गई सलाह से सामने वाले का धीरे-धीरे जीवन बर्बाद हो जाए, तब भी चलेगा‌।
15. अपनी हर गलती को, निर्दयता और कुण्ठा से जड़ित अपनी अभिव्यक्ति को तर्क से साधकर सही सिध्द करने की कला में ये निपुण होते हैं।
16. खुद हर तरह के प्रिविलेज को जीते हुए दूसरों को खाली पेट सोने की सलाह देने जैसी क्रांतिकारिता कराने में इन्होंने मास्टरी की होती है।
17. किसी समस्या को या अपने साथ हुए शोषण या दुर्गति को एक महान उपलब्धि की तरह पेश करना असल‌ में इनका Modus Operandi होता है।
18. ये भयंकर प्रतिक्रियावादी होते हैं। बहस, वाद-विवाद करना इनका प्रिय शगल होता है क्योंकि इसी तरीके से ही जीवन का सार बाँटते फिरते हैं। 
19. क्रांति के नाम पर ये लोगों को जमकर उचकौना देते हैं, और उनको बहुत ही भयानक तरीके से दिग्भ्रमित कर देते हैं। 
20. युवापीढ़ी को अपने तथाकथित ज्ञान रूपी डंडे से अपनी कुण्ठा शांत करने के लिए खूब हांकते हैं और अंतत: उनका जीवन बर्बाद कर देते हैं।
21. भाई-भतीजावाद इनके रग-रग में होता है। खुद खूब मलाई खाएं कोई समस्या नहीं। लेकिन कोई सामान्य लड़का हो तो उस पर पूरी क्रांतिवादिता थोप देते हैं। जीवन मूल्यों से उसकी पूरी घेरेबंदी करने लगते हैं।
22. दूसरों के लिए जिन जीवन मूल्यों की ये घेरेबंदी करेंगे उनमें खुद को तो पूरी तरह फ्लेक्सिबल रखते हैं, लेकिन चाहेंगे कि सामने वाला पूरी तरह उन्हें जिए।
23. एक ओर हर तरह के भोग ऐश्वर्य को जीना और वहीं दूसरी ओर खुद को गरीब बेसहारा की तरह दिखाना इन्हें बखूबी आता है। 
24. आजीवन खुद को गरीब बेसहारा इसलिए भी दिखाते फिरते हैं ताकि इनका मलाई लूटने वाला हिंसक चरित्र खुल के सामने न दिखे।
25. दूसरों के जीवन की दिशा दशा बदलने का स्वांग पालने वाले ये लोग खुद के जीवन की हर चीज को महान और दूसरों को लगातार कमतर बताते रहते हैं।
26. कुछ लोग होते हैं, आपको सामने खराब कहते हैं, तुरंत पता चल जाता है।‌ लेकिन ये महान लोग जिस विचारशीलता की चासनी में आपको डुबोते हैं, उसका असली रंग लंबे समय बाद दिखता है। 
27. इनकी कपोल कल्पनाएं और इनके आसमानी विचार किसी स्वस्थ व्यक्ति के लिए आत्मघाती वायरस से कम नहीं होते हैं। 
28. ऐसे लोगों की संगति में जागरूकता के नाम पर आपकी मानसिक/वैचारिक क्षति होने की भरपूर गारंटी होती है।
29. इनके तथाकथित ज्ञानपेलू चरित्र और गुरू चेला बनाने वाली मानसिकता की वजह से इनके द्वारा युवापीढ़ी को सर्वाधिक मानसिक क्षति पहुंचती है।
30. अपने हितों को साधने के लिए ये जमकर आँकड़ों की बाजीगरी करते हैं, आपने कहीं गलती से स्त्रोत पूछ लिया, ये व्यक्तिगत होने लगते हैं।
31. ऐसे लोग हमेशा प्रिविलेज क्लास से ही आते हैं और अपनी प्रिविलेज का जमकर दुरूपयोग करते हैं।
32. हमेशा लोकतंत्र की बात करने वाले ये लोग अपने मूल चरित्र में भयानक अलोकतांत्रिक होते हैं।
33. विडम्बना देखिएगा कि नाना प्रकार के धूर्त बदमाश और तमाम ढीले लोग इनके गहरे करीबी मित्र ही होते हैं।
34. ईमानदारी इनके‌ लिए महज एक टूल होता है। जिस टूल की सहायता से ये अपने अहंकार को पोषित करते रहते हैं।
35. इनसे संपर्क और रिश्ते बनाए रखना बोर्डिंग स्कूल में भर्ती लेने जैसा होता है, आसानी से एंट्री होती नहीं और एंट्री के बाद बाहर आने में मुश्किलें आती हैं।
36. ये आपको मुख्यधारा के समाज से अलग करते हैं, आपके भीतर उनके प्रति विषवमन कराने के भाव की प्रविष्टि कर अंत में आपको हाशिए पर ढकेल देते हैं। 
37. आपको हमेशा इस भाव के साथ चिपकाकर रखते हैं कि मैं अपनी महानता से प्राणी जगत का उध्दार कर दूंगा और हमेशा पल्टी मार जाते हैं। क्योंकि वास्तव में इनमें ढेला भर की रचनाशीलता नहीं होती है। यह सब कुछ इनका गढ़ा गया पीआर ही होता है।
38. मुख्यधारा के आदमी को बेवजह की डाँट-डपट और कुढ़े हुए स्वभाव से नवाजते रहते हैं क्योंकि वह इनके गढ़े गए आभामण्डल का सम्मान करते हुए कभी इनके स्तर पर जाकर पलट के जवाब नहीं देता है। 
39. इनके जीवन का एक सूत्री कार्यक्रम या पीआर ही दूसरों को मानसिक क्षति पहुंचाकर मुद्रा और वर्चस्व हासिल करना होता है। 
40. ये इतने धूर्त होते हैं कि इनके चरित्र को उजागर करने में लिखते-लिखते ऐसे चालीस प्वाइंट बन जाएंगे लेकिन ये कभी आपके हाथ नहीं आएंगे।

अंत में यही कि जिस गाँधी के नाम पर ये अपनी दुकान चलाते हैं, काम तो उनके बिलकुल उलट करते हैं। जिस उम्र में गाँधी ने सब कुछ छोड़ के देश समाज के लिए खुद को झोंक दिया, उस उम्र तक ये लोग अपना सब कुछ सेट कर गाँधी के विचारों के नाम पर दुकान डाल चुके होते हैं। इनका सब कुछ गाँधी के विपरित ही होता है। गाँधी बाबा सच बोलते-बोलते दुनिया से चले गये, आज यह कहना गलत न होगा कि गोडसे से ज्यादा हत्या गांधी कि इन झूठे फरेबियों ने की है, लगातार कर रहे हैं। आज अगर गाँधी होते तो अपनी अहिंसा को एक दिन के लिए किनारे कर इनको सीधा कर देते...खैर। अपनी विनम्रता को ध्यान में रखते हुए अपनी बात को यहीं विराम देता हूं।
युवाहित में जारी

Tuesday, 20 September 2022

चाह नहीं मैं सूरबाला की...

हर माता-पिता की चाह होती है कि उनका बेटा/बेटी एक बेहतर जीवन जीने के रास्ते बढ़े। दुनिया के कोई भी माता-पिता यह नहीं चाहते कि उनके बच्चों को जीवन की मूलभूत जरूरतों के लिए परेशान होना पड़े। उनकी यही चाह रहती है कि भले वे कैसा भी जीवन जीते आए हों लेकिन उनके बच्चे स्वस्थ तनावमुक्त और एक बेहतर जीवनशैली की ओर अग्रसर हों। जैसा तनाव जैसा संघर्ष वे झेलकर आए होते हैं वे चाहते हैं कि उसका 1% भी आने वाली पीढ़ी न झेले, उस एक वजह से चीजों को माइनस से प्लस में लाते हुए अगली पीढ़ी को सौंपने की कोशिश में लगे रहते हैं। इसीलिए हमारे यहाँ अधिकांश माता-पिता यही चाहते हैं कि बच्चा सबसे पहले आर्थिक मजबूती की ओर अग्रसर हो। क्योंकि भारत जैसे तीसरी दुनिया श्रेणी के देश में जहाँ की अर्थव्यवस्था का प्रतिमान ही अस्थिरता है, वहाँ आर्थिक रूप से सशक्त हो जाना, उस एक पहलू को साधते हुए स्थिरता हासिल करने की ओर बढ़ना सौ दुःखों की एक दवा की तरह हो जाती है। उसमें भी अधिकतर माता-पिता की यह चाह रहती है खासकर कि जिनके यहाँ आर्थिक स्तर पर जोखिम उठाने के उतने विकल्प नहीं होते या वैसी सामाजिक मजबूती नहीं होती वे बच्चों को सरकारी नौकरी की ओर ही जाने को कहते हैं और यही होना भी चाहिए। जब इस देश में कोरोना जैसी विकराल महामारी में जहाँ पूरा देश पटरी पर था, लाखों लोगों का रोजगार झटके में छिन गया, इतना कुछ गड्ड मड्ड हो गया, लेकिन क्या सरकारी नौकरी करने वालों पर थोड़ी भी आंच आई, बिलकुल नहीं। कुछ इक्का दुक्का विभागों को छोड़ दिया जाए तो चीजें उनके साथ बेहतर ही हुई। तो कोई क्यों न चाहे सरकारी नौकरी?

हर उस युवा का अंतिम लक्ष्य यही होना भी चाहिए खासकर जिनके पास पर्याप्त जोखिम उठाने के साधन न हों, खुद की ठीक-ठाक जमीन न हो, महँगी तकनीकी पढ़ाई कर जाने लायक विकल्प न हों, अलग से कोई विलक्षण प्रतिभा न हो और उसे हल्का‌ फुल्का साधने लायक पहचान/जुगाड़ न हो या व्यवसाय करने लायक न्यूनतम कुशलता न हो। ऐसे लोगों को सीधे सरकारी मोड में ही जाने का प्रयास करना चाहिए। 
इति।।

Wednesday, 14 September 2022

किसान आंदोलन के तत्व जो भारत जोड़ो यात्रा में देखने को मिल रहे हैं -

1. मेनस्ट्रीम मीडिया में कुछ और ही रिपोर्टिंग होती है, ग्राउण्ड में हकीकत बिल्कुल अलग है।
2. आधिकारिक पेज पर दिन भर की गतिविधियों की रिपोर्टिंग हूबहू किसान आंदोलन की तर्ज पर ही हो रही है।
3. लोग नि:स्वार्थ भाव से, मन से इस पदयात्रा से जुड़ रहे हैं। 
4. तिरंगा हर तरफ किसान आंदोलन में देखने को मिला, यहां भी है।
5. किसान आंदोलन एक बहुत ही अधिक शांत और व्यवस्थित आंदोलन था, कोई चूक हो भी जाती थी, तो तुरंत व्यवस्था कायम हो जाती थी, यह तत्व यहाँ भी है।
6. किसान आंदोलन के खिलाफ जितने भी तरह के दुष्प्रचार हुए, सारे बैकफायर कर गए, यहाँ भी ऐसा देखने को मिल रहा है।
7. किसान आंदोलन की तरह इस यात्रा की अपनी एक अलग आबोहवा है, जो जाकर महसूस करेगा सिर्फ वही बेहतर तरीके से इसे समझ सकता है।
8. आंदोलन हमारे जिंदा होने के अहसास को और अधिक मजबूत करता है, वह अहसास इस पदयात्रा में भी है।

Friday, 9 September 2022

Basics of Graphic Designing -

- To use complimentary colors with the help of color wheel ( site -color.adobe.com )
- For Colour Grades ( site - uigradients.com )
- Image Background removal tool that convert the jpg to png file ( site - remove.bg)
- To check font design ( site - fonts.google.com )
- For copyright free images ( site - Pixabay )
- To see design templates ( site - pintrest, dribble )
- Photoshop app online ( site - photopea.com )
- To download copyright free images from shutterstock ( site - nohat.cc )

पंचायत वेब सीरीज ( सीजन 1 एवं 2 ) समीक्षा -

ग्रामीण परिवेश को करीने से रेखांकित करती पंचायत वेब सीरीज का पहला सीजन 2020 में आया था जिसे दर्शकों का भरपूर प्यार मिला, फिर उसका दूसरा सीजन मई 2022 में आया। यह परिवार के साथ देखे जा सकने वाली एक साफ सुथरी वेब सीरीज है, ओटीटी (OTT) प्लेटफाॅर्म और वेब सीरीज के इस दौर में जहाँ फिल्मों में मारकाट और फूहड़ता हावी है, ऐसे में पंचायत जैसी वेब सीरीज लीग से हटकर अपने को प्रस्तुत करती है। 

इस वेब सीरीज के माध्यम से गाँव की सभ्यता, संस्कृति एवं भाषा को बहुत ही सरलता से दिखाने का प्रयास किया गया है। जो कि पहले किसी भी वेब सीरीज में इतने सहज,सरल और इतने वास्तविक ढंग से नहीं दिखाया गया है। पंचायत वेब सीरीज गाँव की छवि को अपनी संपूर्णता में दिखाता है, इसमें स्थानीय ग्रामीण संस्कृति के सारे पहलू/आयाम देखने को मिल जाते हैं, लोगों के बीच अगर यह वेब सीरीज लोकप्रिय हुआ उसका बहुत बड़ा कारण यही रहा कि इसमें गाँव को बेहद सादगी और खूबसूरती से फिल्माया गया है। जहाँ गाँव का अपना सुकोमल हास्य विनोद और सहज अंदाज में एक दूसरे के साथ बरतने वाला ह्यूमर भी है, अपनेपन का पुट भी है, एक-दूसरे के साथ जीवन के हर उतार चढ़ाव में निभाई जाने वाली सामाजिकता भी है। 

इस सीरीज के पहले सीजन में यह दिखाया गया कि कैसे एक शहर का लड़का जो इंजीनियरिंग की पढ़ाई किया है, जिसके सपने कुछ और हैं, उसे आगे CAT की पढ़ाई करनी है, लेकिन उसकी नौकरी बतौर सचिव "फूलेरा" नामक गाँव में लगती है और वह उस गाँव में जाकर वहाँ जद्दोजहद करता है, शुरू में उसका मन नहीं लगता लेकिन धीरे-धीरे उस माहौल के हिसाब से खुद को ढालते हुए वहाँ रम‌ जाता है और धीरे-धीरे उसे वह नौकरी बढ़िया लगने लगती है। पहले सीरीज में फिल्म के मुख्य किरदार सचिव जी जिनका नाम इस सीरीज में अभिषेक है, वे अंत में सरपंच की बिटिया रिंकी से पानी टंकी में बैठकर आँखों आँखों में बात करते हैं, और सस्पेंस की तरह इनकी केमेस्ट्री को अगले सीजन के लिए छोड़ दिया जाता है‌।

दूसरे सीजन में यह दिखाया गया कि सचिव जी अब गाँव के हिसाब से ढलने लगे हैं, पहले सीजन में दिखाया गया कि कैसे शुरूआत में गाँव में वे छोटी-छोटी चीजों से परेशान हो जाते थे, चिढ़चिढ़ाते थे, दूसरे सीजन में वे सहज होते नजर आते हैं। इस सीजन में सचिव जी और रिंकी, इन दोनों की हल्की फुल्की बात होती है, एक बड़ा सवाल यह रह गया है कि इन दोनों की केमेस्ट्री कब आगे बढ़ेगी?

दूसरे सीजन में सबसे अधिक वायरल हुए किरदार "भूषण" जिसके स्वभाव की वजह से उसे गाँव के लोग बनराकस कहते हैं, जिसके द्वारा कहा गया वाक्य " देख रहा है बिनोद" पूरे देश में वायरल हुआ है। इसे लेकर सबसे बड़ी दिलचस्पी यह रहेगी कि इनका अभिनय इनकी क्रांति आने वाले सीजन में भी देखने को मिलेगी या नहीं। 

इस सीजन के आखिरी एपिसोड में दिखाया है कि गाँव के उप-प्रधान प्रहलाद का बेटा जो आर्मी में है वह जम्मू-कश्मीर में शहीद हो जाता है। इसके बाद प्रहलाद बिल्कुल अकेला हो जाता है, अपने बेटे की मौत के बाद वह बुरी तरह से टूट जाता है, और इस भावुक कर देने वाले दृश्य के साथ इस सीजन की समाप्ति होती है।


Thursday, 8 September 2022

हिंदी पखवाड़े पर हिंदी की दुर्दशा में हिंदी भाषियों का योगदान

भाषा एक ऐसा सशक्त माध्यम है जिसकी सहायता से हम सोचते हैं और अपने विचारों को व्यक्त करते हैं। किसी भी भाषा को उसकी संपूर्णता में आत्मसात करने के लिए साफ बोलने की प्रक्रिया होनी चाहिए, इसीलिए हमें छोटी उम्र से ही स्कूलों में पढ़कर बोलना सीखाया जाता है, जब तक हम साफ बोलेंगे नहीं, जब तक हम भाषा की स्वच्छता पर उसकी स्पष्टता पर ध्यान नहीं देंगे तब तक हम जो भी पढ़ेंगे उसका अस्पष्ट रूप ही हमारे दिमाग में आएगा और हम अस्पष्ट भाषा ही बोलते रह जाएंगे।

हिन्दी भाषा की उत्पत्ति मूल रूप से शौरसेनी अपभ्रंश से हुई है। अपनी आदि जननी संस्कृत से पैदा हुई हिन्दी को एक अपभ्रंश भाषा माना जाता है जिसमें अनेक भाषा बोलियों के शब्दों का समायोजन होता आया है। "हिन्दी" शब्द ही अपने आप में फारसी मूल‌ का शब्द है। सन् 1800 से 1950 तक का समय हिन्दी के बनने का समय है, इसी दौर में हिन्दी साहित्य पुष्ट हुई, एक भाषा के रूप में उसे मजबूती मिली। आजादी के बाद 14 सितम्बर सन् 1949 को हिन्दी को भारत की राजभाषा के रूप में स्वीकारा गया। हिन्दी हमारे देश में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। लेकिन इसके बावजूद एक भाषा के रूप में आज हिन्दी संघर्षरत है। आजादी के 75 साल पूरे होने को हैं लेकिन आज भी हिन्दी उस मुकाम को हासिल नहीं कर पाई है कि यह भाषा अपने दम पर रोजगार पैदा कर सके, प्रचार-प्रसार के नाम‌ पर साहित्यिक आयोजन कर दिए जाते हैं और उसी से खानापूर्ति कर दी जाती है। यत्र तत्र सर्वत्र हिन्दी के विभाग बने हुए हैं लेकिन इतने दशकों के बाद भी तकनीकी शिक्षा की बेसिक किताबें आज हिन्दी में उपलब्ध नहीं हैं, बहुत से अनेक देशों की क्लासिक किताबें जिनका लगभग विश्व की हर भाषा में अनुवाद होता है लेकिन हिन्दी में वह उपलब्ध नहीं है।

हिन्दी का प्रसार मोटा-मोटा इस आधार पर मान लिया जाता है कि हिन्दी भाषा में बनी फिल्मों और संगीत को देश दुनिया में खूब देखा जाता है, सुना जाता है, सराहा जाता है। ऐसे में तो हमारे देश में लाखों ऐसे लोग हैं जो दक्षिण भारतीय फिल्मों को खूब चाव से देखते हैं। इसका मतलब यह तो कतई नहीं कि इन लाखों लोगों को तमिल, तेलगू, कन्नड़, मलयालम भाषा का ज्ञान हो गया या ये लोग इन भाषाओं को सीखना चाहते हैं। भारत में ऐसे करोड़ों लोग हैं जो हालीवुड की फिल्में देखते हैं, विदेशी गायकों के गाने सुनते हैं जबकि उनको विदेशी भाषा धेला भर समझ नहीं आती। मैडोना का नाच देखने वाले बहुत हैं, माइकल जैक्सन के फैन बहुत मिल जाएंगे। जबकि अंग्रेजी की एबीसी भी न आती होगी। फिल्म, संगीत इत्यादि का आनंद बिना भाषा के भी लिया जा सकता है। भाषा का प्रसार भिन्न बात होती है।

हिन्दी के उलट हमारे देश में जो धारा प्रवाह अंग्रेजी बोलना जानता है उसे सिर आंखों पर बैठाया जाता है, जबकि हिन्दी बोलने वाले को तुच्छ नजरों से देखा जाता है। हिन्दी गर्व की भाषा न होकर हमारे लिए शर्म की भाषा बनती जा रही है। अपना वृहद शब्द कोष और सशक्त व्याकरण होने के बावजूद भी लोग बोलचाल में बीच-बीच में अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल करते नजर आते हैं। अखबार से लेकर न्यूज चैनल में हर जगह इसका उदाहरण देखने को मिल जाता है, शुध्द भाषा तो छोड़िए हिन्दी के शब्द होते हुए भी उन शब्दों के अंग्रेजी अर्थ को हिन्दी में लिख दिया जाता है। उदाहरण के लिए महाविद्यालय को काॅलेज, संस्था को कंपनी, अनुमति को परमिशन, आहार को डाइट आदि। इस सरलीकरण की वजह से भाषा की कृत्रिमता बढ़ी है। वर्तमान में हिन्दी को रोमन में लिखकर संदेश के माध्यम से बात करने का चलन बढ़ा है, यह भी एक कारण है कि एक भाषा के रूप में हिन्दी कमजोर हुई है। एक मशहूर अंग्रेजी के लेखक ने तो यह तक कह दिया था कि सुभीते के लिए हिन्दी को देवनागरी में न लिखकर रोमन में लिखा जाए। इससे ज्यादा हिन्दी की और दुर्दशा क्या होगी।

किसी भी भाषा की दुर्दशा को समझने के लिए हमें उस भाषा के वर्तमान साहित्य पर गौर करना चाहिए। भाषा जीवित हो अथवा मृत, उसका अध्ययन हम उस भाषा के साहित्य के आधार पर ही करते हैं। हिन्दी साहित्य की बात जब आती है तो यह देखने में आता है कि जहाँ दुनिया की बाक़ी भाषाओं में साहित्य रचा जाता है, वहाँ हिन्दी में सिर्फ गिरोहबंदी होती है। साहित्य के रूप में हिन्दी भाषा का विकास कुछ इस तरह हो‌ रहा है कि हिन्दीभाषी लोगों के देश में बड़े प्रकाशक बड़े हिन्दी लेखकों की छह सौ कॉपी के एडीशन निकालते हैं और साल भर में चार सौ कॉपी बिकने वाले को बेस्टसेलर कहा जाता है। हिन्दी साहित्य और उसके लेखक संसार का एक बहुत बड़ा हिस्सा भयानक तरीके से बेपढ़ा, मरगिल्ला, आत्मलिथड़ित, अमानवीय मूल्यों से पूरित और ह्यूमरविहीन है।

चालीस करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी भाषा में साहित्य हमेशा से मुफ्त में पढ़ने-पढ़ाने लायक चीज रहा है। ऐसे में आखिर एक भाषा कैसे खुद को संभाल पाएगी। और जब तक हम ऐसे दोयम दर्जे के साहित्य को गले लगाते रहेंगे, जब तक हम अखबार से लेकर टेलीविजन हर जगह खराब पढ़ते रहेंगे तब तक हम खराब ही लिखेंगे और एक भाषा के रूप में हिन्दी की अवनति होती रहेगी।