By - Vivek Umrao
जब कोई बड़ा जन-आंदोलन होता है तो उसमें गर्म व नर्म दोनों तरह के लोग होते हैं। भारत की आजादी आंदोलन में भी गर्म व नर्म दल थे। चल रहे किसान जन-आंदोलन में भी गर्म व नर्म दल हैं।
नर्म दल बैरीकेडिंग देखकर रुक जाते हैं। लाठी-चार्ज व आंसू गैस इत्यादि रूपी पुलिसिया आत्याचार का विरोध नहीं करते हैं। पुलिस यदि आम आदमी या आंदोलनकारियों की संपत्ति को नुकसान पहुंचाती है, तब भी नर्म दल वाले कुछ नहीं कहते हैं।
गर्म दल बैरीकेडिंग को हटाते हुए आगे बढ़ते हैं। लाठी चार्ज व आंसू गैस को झेलते हुए तथा इनको रोकते हुए आगे बढ़ते हैं। पुलिस यदि आम आदमी या आंदोलनकारियों की संपत्ति को नुकसान पहुंचाती है तो गर्म दल वाले जवाब देते हैं, पुलिस को ऐसा करने से रोकने का प्रयास करते हैं।
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ऐसा ही चल रहे किसान आंदोलन में भी हो रहा है। लेकिन यदि लोकतांत्रिक जनांदोलनों के मूल्यों के आधार पर देखा जाए तो गर्म दलों की कुछ गतिविधियों के बावजूद अभी तक किसान जनांदोलन अहिंसक ही कहा जाएगा।
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**चलते-चलते**
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किसान जनांदोलन की आज की गतिविधि के संदर्भ में पुलिस व प्रशासन ने गलतियां की हैं, बड़ी गलतियां की हैं। यूं लगता है कि इन लोगों को बड़े जनांदोलनों से व्यवहार करने के संदर्भ में धेला भर भी समझ नहीं है।
दरअसल किताबों को रटने, रटी-रटाई ट्रेनिंग व रूटीन तरीकों से ऐतिहासिक क्षणों व गतिविधियों व क्रियाओं से नहीं समझा व निपटा जा सकता है।
यह किसान जनांदोलन ऐतिहासिक है। इससे निपटने के लिए पुलिस व प्रशासन को चले आ रहे ढर्रों से बाहर आकर समझदारी दिखाते हुए व्यवहार करने की जरूरत थी और है। लेकिन जिस तत्व की ट्रेनिंग ही नहीं है, समझ ही नहीं है, दृष्टि ही नहीं है। उसकी अपेक्षा नहीं की जा सकती है।
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जनांदोलन व आंदोलनकारी दुश्मन नहीं होते हैं, ना ही जानवर या कीड़े मकोड़े होते हैं जो उनसे दुश्मनों या जानवरों या कीड़े मकोड़ों की तरह व्यवहार किया जाना चाहिए। फिर भारत में किसानों का बहुत बड़ा योगदान है, उसमें में जो किसान आंदोलनरत हैं उनका तो अधिक ही योगदान रहा है।
जनांदोलनों से सत्ता की हिंसक शक्ति के साथ व्यवहार नहीं किया जाता है। लोकतंत्र में सत्ता किसी भी स्थिति परिस्थिति में आम लोगों पर हिंसा करने के लिए नहीं होती है।
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दो महीनों से किसान धैर्य व शांति से आंदोलन कर रहा है। यदि आज वह देश की राजधानी में किसान परेड निकालना चाहता था तो पुलिस व सरकार द्वारा टकराव करने की बजाय किसानों की इच्छा का सम्मान करना चाहिए था। यह सरकार का बड़प्पन ही होता। पुलिस की समझदारी ही होती।
समझदारी की अपेक्षा केवल किसान से ही क्यों। पुलिस व सरकार भी तो समझदारी दिखा सकती है या यह मान लिया जाए कि सरकार व पुलिस समझदार हो ही नहीं सकती।
अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। आशा है कि किसान जनांदोलन में नर्म व गर्म दोनों प्रकार के दलों के बावजूद किसान आंदोलन अहिंसक ही रहेगा जैसे कि अभी तक अहिंसक है।
जब तक किसान आम लोगों की संपत्तियों की लूटपाट नहीं करता है, आम लोगों के साथ मारपीट नहीं करता है तब तक किसान जनांदोलन अहिंसक है, अनुशाषित है। मुझे विश्वास है कि किसान जनांदोलन अहिंसक ही रहेगा भले ही मुख्यधारा की मीडिया अपनी हेडलाइनों में हिंसा भड़काने या हिंसा साबित करने के लिए पूरा जोर लगाती रहे।
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आशा है कि किसान जनांदोलन अहिंसक बना रहेगा। देश को ऐसे आंदोलन की महती जरूरत है। हर ईमानदार व सच्चे देश भक्त का यह दायित्व है कि वह इस आंदोलन से सीखे समझे व संभाले।
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सामाजिक यायावर
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By - Rajneesh Santosh
~~~ स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा अहिंसक आंदोलन ~~~
जैसा भारतीय समाज है, जिस चरित्र का है और जिस तरह की कंडीशनिंग लेकर हम बड़े होते हैं उसके मद्देनज़र मैं आश्चर्यचकित हूँ कि इतना शांतिपूर्ण और संयमित लेकिन दृढ़ आंदोलन कैसे चल रहा है ..
लगभग हमने सब ने अपनी ज़िंदगी में छोटे मोटे आंदोलन ज़रूर देखे होंगे, हिस्सा रहे होंगे। अगर हम ईमानदारी से विचार करें तो हम पाएँगे कि कुछ सौ या हज़ार की भीड़ कितनी हिंसात्मक हो जाती है और कैसा लूटपाट, छेड़छाड़ और तोड़फोड़ होती है, यहाँ लाखों की भीड़ थी कल और यह मत भूलिए कि वो सब महीनों से भयानक ठण्ड और सरकार की उपेक्षा के शिकार थे। इसके बावजूद कहीं कोई तोड़फोड़ नहीं हुई, कोई दूकान नहीं लूटी गयी, कहीं से छेड़छाड़ की शिकायत नहीं है किसी तरह se सार्वजनिक सम्पत्ति का नुक़सान नहीं हुआ, उल्टे सरकार ने हाईवे खुदवाने और बसों को बेरिकैडिंग बनाने से लेकर ट्रैक्टरों की हवा निकालने और कारों के शीशे तोड़ने जैसी टुच्ची हरकतें करके सार्वजनिक सम्पत्ति का नुक़सान किया है।
योगेन्द्र यादव जैसे लोग जो इस बात पर दुबले हुए जा रहे हैं कि एक दो प्रायोजित छुटपुट घटनाओं से आंदोलन बदनाम हो गया है उनकी समझ पर तरस खाइए और कल के आंदोलन पर गर्व कीजिए। दुनिया देख रही है और इतिहास में यह दर्ज हो चुका है कि इतनी बड़ी संख्या में लोग आए और सरकार द्वारा उकसाने के सारे हथकंडों के बावजूद उन्होंने अहिंसक आंदोलन किया ।
यह आंदोलन बहुत ऐतिहासिक है और कल की घटना ने मेरी इस समझ को और पुख़्ता किया है कि हम लोग एक ऐसे आंदोलन के साक्षी बन रहे हैं जो इस देश और इस समाज के चरित्र को बदल डालने की क्षमता रखता है।
कल की ट्रैक्टर परेड ने यह साबित किया है कि अब न तो सरकार के बूते में है इसे ख़त्म कर पाना और न मीडिया के बस में है इसे बदनाम कर पाना।
वक़्त के साथ यह आंदोलन और व्यापक होना चाहिए और ऐसा होने की सारी सम्भावनाएँ कल नज़र आयीं । जिन्हें कल की एकाध प्रायोजित घटनाओं पर शर्मिंदा होने का नाटक करना पड़ रहा है उन्हें उनकी शर्मिंदगी मुबारक।
#रजनीश
By - Nishant Rana
भारतीय मशीनरी मीडिया :-
किसी भी मीडिया चैनल की पिछले 10 सालों की कोई भी वीडियों सर्च कर लीजिए और बताइये कि कितनी बार इन्होंने किसानों को, मजदूरों को सही मूल्य या लाभ में न्याय पूर्ण हिस्सा देने की बात उठाई हो।
वह पल बता दीजिए जब इन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य, समानता, लैंगिक, जातीय, धार्मिक भेदभाव जैसे मुद्दों पर कोई सार्थक बहस आयोजित करी हो या सामाजिक, वैज्ञानिक चेतना को जागृत करते हुए कोई काम किया हो।
यह एलियन ने कौन सी गाय का दूध पिया,
कौन-सी सीढ़ी कौन से स्वर्ग को जाती है, कौन से नोट में कौन सी चिप लगी होती है, भारत-पाकिस्तान करने में जो समय लगाते है। करोड़ो का खर्च करते है, कई कई घण्टे प्रोग्राम करते है। वह सब किसलिए करते है?
वहीं देश की जरूरी घटनाओं को सेकेंड दो सेकेंड का स्क्रीन टाइम देकर गायब कर दिया जाता है। और अगर गायब नहीं कर सकते तो तोड़ मरोड़ने कर बदनाम कर दीजिए।
मुट्ठी भर लोग निर्धारित कर देते है कि कौन-सा मुद्दा जरूरी मुद्दा है कौन सा गैर जरूरी। दरअसल इनके जरूरी मुद्दों में सबसे अहम एजेंडा यहीं होता है कि कैसे भारत के आम आदमी की सोच को और संकुचित किया जाये, भारतीय समाज को और ज्यादा अवैज्ञानिकता की ओर धकेला जाए। मीडिया का मतलब केवल प्रतिक्रिया और ज्वलनशील मोड में ही रहना होता है या फिर मीडिया के कुछ अलग मायने भी होते होंगे।
क्यों न इस पर भी बात की जाये कि मीडिया के इनके दफ्तरों में कौन सी जाति के लोगों का कब्जा है, जातीय प्रतिनिधित्व कितना है। इनके ऑफिसों में क्यों नहीं बात होती कि समान काम के लिए समान वेतन होना चाहिए। क्यों महिला पुरषों के वेतन में भारी अंतर किया जाता है।
जो लोग नौकरी जाने के डर से अपने ही शोषण के खिलाफ आवाज न उठा सकते हो, साथ वालो के शोषण पर आवाज न उठा सकते हो या शोषण करने में सहयोग करते हो उन लोगों से वाकई पत्रकारिता के मूल्यों की उनके काम में निभाने की अपेक्षा की जा सकती है क्या?
जो मीडिया कॉरपोरेट के विज्ञापनों से चलती हो, सरकारों के विज्ञापनों से चलती हो। जो कॉरपोरेट, सरकार और ब्यूरोक्रेसी किसान-मजदूरों की लूट से चल रहे होते है। वह क्यों न मीडिया का इस्तेमाल अपने लाभ के लिए न करेंगे।
जो मीडिया अपने लाभ के लिए इन सब पर निर्भर करता हो, जो लाभ के हिसाब से चलता हो। एंकरों पर उन्माद पैदा करने के लिए, सेफ्टी वॉल्व की तरह इस्तेमाल के लिए करोड़ो रुपये की सैलरी दी जाती हो। उस पर भी वह अपने आप को गरीब या समाज का चिंतक प्रस्तुत करते हो। उनसे किस प्रकार की सामाजिक ईमानदारी की उम्मीद की जा सकती है?
प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में यह मीडिया 142वें स्थान पर आती है। अंदाजा लगाइए यह समाज को भ्रमित करने, सामाजिक भाईचारा तोड़ने, साम्प्रदायिक, युद्ध उन्माद पैदा करने, लोगों को बाजारू गुलामी की तरफ धकेलने में यह किस स्थान पर आती होगी।
सोशल मीडिया का बड़ा धड़ा इन्हीं कॉरपरेट कंपनियों में काम करता है, देश मे आग लगाने वाले इस सिस्टम में सहयोग करता है और अपना फेयर शेयर भी लेता हो, सुविधाओं शक्तियों का आनंद लेता हो उससे आप उम्मीद कर सकते है वह स्वतंत्रता और लोकतंत्र जैसे तत्वों को समझता हो?
सुविधाओं के घेरे में रह कर, लूट में हिस्सा लेकर थोड़ा बहुत दान पुण्य कर लीजिए, थोड़ा बहुत सोशल मीडिया में सेंसेशन पैदा कर लीजिए हो गई क्रांति; महानता वाला फील भी ले लीजिए और क्या चाहिए समाज तो वैसे ही रहता है, लोग तो होते ही कीड़े मकोड़े है। कैरियर बनने चाहिए, अटेंशन मिलती रहनी चाहिए!
मीडिया अगर समाज को जागरूक करने की दिशा में नहीं है। मीडिया अगर लोगों के अधिकारों के साथ नहीं खड़ा है, मीडिया अगर किसान-मजदूरों की तकलीफों के साथ नहीं खड़ा है। वह सब मीडिया है ही नहीं भले ही उस मीडिया हाउस में कोई फन्ने खां काम करता हो।
**चलते-चलते**
भारत में आजादी के बाद ऐसा कोई आंदोलन आज तक नहीं हुआ है। मीडिया, शासन प्रशासन इस आंदोलन को अभी तक उसी तरह के आंदोलनो की तरह ले रहे है जो प्रायोजित होते रहे है। ढर्रे वाले रवैयों को अपनाया जा रहा है।
यह वह आंदोलन तो बिल्कुल नहीं है जिस पर मीडिया या सोशल मीडिया की चिल्ल पौ से फर्क पड़ने वाला हो या उसकी वजह से कोई गलत असर इस आंदोलन पर पड़ने वाला हो। उल्टा यह आंदोलन ऐसी बहुत चीजों को पचाने वाला है जो समाज में लोगों की आवाज को दबाने के लिए इस्तेमाल होती आई है। इस आंदोलन में किसान महिलाएं-पुरुष अपने बच्चों के साथ अपने घरों से दूर है। केवल इसी बात से अंदाजा लगा लीजिये की इस आंदोलन की तासीर क्या है, यह कितना गहरा और दूर तक है। सेंससेशन वाली कूद फांद से दूर रह सकते है तो कुछ समय रहने की कोशिश कीजिए।
सादर
धन्यवाद
जब कोई बड़ा जन-आंदोलन होता है तो उसमें गर्म व नर्म दोनों तरह के लोग होते हैं। भारत की आजादी आंदोलन में भी गर्म व नर्म दल थे। चल रहे किसान जन-आंदोलन में भी गर्म व नर्म दल हैं।
नर्म दल बैरीकेडिंग देखकर रुक जाते हैं। लाठी-चार्ज व आंसू गैस इत्यादि रूपी पुलिसिया आत्याचार का विरोध नहीं करते हैं। पुलिस यदि आम आदमी या आंदोलनकारियों की संपत्ति को नुकसान पहुंचाती है, तब भी नर्म दल वाले कुछ नहीं कहते हैं।
गर्म दल बैरीकेडिंग को हटाते हुए आगे बढ़ते हैं। लाठी चार्ज व आंसू गैस को झेलते हुए तथा इनको रोकते हुए आगे बढ़ते हैं। पुलिस यदि आम आदमी या आंदोलनकारियों की संपत्ति को नुकसान पहुंचाती है तो गर्म दल वाले जवाब देते हैं, पुलिस को ऐसा करने से रोकने का प्रयास करते हैं।
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ऐसा ही चल रहे किसान आंदोलन में भी हो रहा है। लेकिन यदि लोकतांत्रिक जनांदोलनों के मूल्यों के आधार पर देखा जाए तो गर्म दलों की कुछ गतिविधियों के बावजूद अभी तक किसान जनांदोलन अहिंसक ही कहा जाएगा।
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**चलते-चलते**
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किसान जनांदोलन की आज की गतिविधि के संदर्भ में पुलिस व प्रशासन ने गलतियां की हैं, बड़ी गलतियां की हैं। यूं लगता है कि इन लोगों को बड़े जनांदोलनों से व्यवहार करने के संदर्भ में धेला भर भी समझ नहीं है।
दरअसल किताबों को रटने, रटी-रटाई ट्रेनिंग व रूटीन तरीकों से ऐतिहासिक क्षणों व गतिविधियों व क्रियाओं से नहीं समझा व निपटा जा सकता है।
यह किसान जनांदोलन ऐतिहासिक है। इससे निपटने के लिए पुलिस व प्रशासन को चले आ रहे ढर्रों से बाहर आकर समझदारी दिखाते हुए व्यवहार करने की जरूरत थी और है। लेकिन जिस तत्व की ट्रेनिंग ही नहीं है, समझ ही नहीं है, दृष्टि ही नहीं है। उसकी अपेक्षा नहीं की जा सकती है।
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जनांदोलन व आंदोलनकारी दुश्मन नहीं होते हैं, ना ही जानवर या कीड़े मकोड़े होते हैं जो उनसे दुश्मनों या जानवरों या कीड़े मकोड़ों की तरह व्यवहार किया जाना चाहिए। फिर भारत में किसानों का बहुत बड़ा योगदान है, उसमें में जो किसान आंदोलनरत हैं उनका तो अधिक ही योगदान रहा है।
जनांदोलनों से सत्ता की हिंसक शक्ति के साथ व्यवहार नहीं किया जाता है। लोकतंत्र में सत्ता किसी भी स्थिति परिस्थिति में आम लोगों पर हिंसा करने के लिए नहीं होती है।
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दो महीनों से किसान धैर्य व शांति से आंदोलन कर रहा है। यदि आज वह देश की राजधानी में किसान परेड निकालना चाहता था तो पुलिस व सरकार द्वारा टकराव करने की बजाय किसानों की इच्छा का सम्मान करना चाहिए था। यह सरकार का बड़प्पन ही होता। पुलिस की समझदारी ही होती।
समझदारी की अपेक्षा केवल किसान से ही क्यों। पुलिस व सरकार भी तो समझदारी दिखा सकती है या यह मान लिया जाए कि सरकार व पुलिस समझदार हो ही नहीं सकती।
अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। आशा है कि किसान जनांदोलन में नर्म व गर्म दोनों प्रकार के दलों के बावजूद किसान आंदोलन अहिंसक ही रहेगा जैसे कि अभी तक अहिंसक है।
जब तक किसान आम लोगों की संपत्तियों की लूटपाट नहीं करता है, आम लोगों के साथ मारपीट नहीं करता है तब तक किसान जनांदोलन अहिंसक है, अनुशाषित है। मुझे विश्वास है कि किसान जनांदोलन अहिंसक ही रहेगा भले ही मुख्यधारा की मीडिया अपनी हेडलाइनों में हिंसा भड़काने या हिंसा साबित करने के लिए पूरा जोर लगाती रहे।
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आशा है कि किसान जनांदोलन अहिंसक बना रहेगा। देश को ऐसे आंदोलन की महती जरूरत है। हर ईमानदार व सच्चे देश भक्त का यह दायित्व है कि वह इस आंदोलन से सीखे समझे व संभाले।
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सामाजिक यायावर
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By - Rajneesh Santosh
~~~ स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा अहिंसक आंदोलन ~~~
जैसा भारतीय समाज है, जिस चरित्र का है और जिस तरह की कंडीशनिंग लेकर हम बड़े होते हैं उसके मद्देनज़र मैं आश्चर्यचकित हूँ कि इतना शांतिपूर्ण और संयमित लेकिन दृढ़ आंदोलन कैसे चल रहा है ..
लगभग हमने सब ने अपनी ज़िंदगी में छोटे मोटे आंदोलन ज़रूर देखे होंगे, हिस्सा रहे होंगे। अगर हम ईमानदारी से विचार करें तो हम पाएँगे कि कुछ सौ या हज़ार की भीड़ कितनी हिंसात्मक हो जाती है और कैसा लूटपाट, छेड़छाड़ और तोड़फोड़ होती है, यहाँ लाखों की भीड़ थी कल और यह मत भूलिए कि वो सब महीनों से भयानक ठण्ड और सरकार की उपेक्षा के शिकार थे। इसके बावजूद कहीं कोई तोड़फोड़ नहीं हुई, कोई दूकान नहीं लूटी गयी, कहीं से छेड़छाड़ की शिकायत नहीं है किसी तरह se सार्वजनिक सम्पत्ति का नुक़सान नहीं हुआ, उल्टे सरकार ने हाईवे खुदवाने और बसों को बेरिकैडिंग बनाने से लेकर ट्रैक्टरों की हवा निकालने और कारों के शीशे तोड़ने जैसी टुच्ची हरकतें करके सार्वजनिक सम्पत्ति का नुक़सान किया है।
योगेन्द्र यादव जैसे लोग जो इस बात पर दुबले हुए जा रहे हैं कि एक दो प्रायोजित छुटपुट घटनाओं से आंदोलन बदनाम हो गया है उनकी समझ पर तरस खाइए और कल के आंदोलन पर गर्व कीजिए। दुनिया देख रही है और इतिहास में यह दर्ज हो चुका है कि इतनी बड़ी संख्या में लोग आए और सरकार द्वारा उकसाने के सारे हथकंडों के बावजूद उन्होंने अहिंसक आंदोलन किया ।
यह आंदोलन बहुत ऐतिहासिक है और कल की घटना ने मेरी इस समझ को और पुख़्ता किया है कि हम लोग एक ऐसे आंदोलन के साक्षी बन रहे हैं जो इस देश और इस समाज के चरित्र को बदल डालने की क्षमता रखता है।
कल की ट्रैक्टर परेड ने यह साबित किया है कि अब न तो सरकार के बूते में है इसे ख़त्म कर पाना और न मीडिया के बस में है इसे बदनाम कर पाना।
वक़्त के साथ यह आंदोलन और व्यापक होना चाहिए और ऐसा होने की सारी सम्भावनाएँ कल नज़र आयीं । जिन्हें कल की एकाध प्रायोजित घटनाओं पर शर्मिंदा होने का नाटक करना पड़ रहा है उन्हें उनकी शर्मिंदगी मुबारक।
#रजनीश
By - Nishant Rana
भारतीय मशीनरी मीडिया :-
किसी भी मीडिया चैनल की पिछले 10 सालों की कोई भी वीडियों सर्च कर लीजिए और बताइये कि कितनी बार इन्होंने किसानों को, मजदूरों को सही मूल्य या लाभ में न्याय पूर्ण हिस्सा देने की बात उठाई हो।
वह पल बता दीजिए जब इन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य, समानता, लैंगिक, जातीय, धार्मिक भेदभाव जैसे मुद्दों पर कोई सार्थक बहस आयोजित करी हो या सामाजिक, वैज्ञानिक चेतना को जागृत करते हुए कोई काम किया हो।
यह एलियन ने कौन सी गाय का दूध पिया,
कौन-सी सीढ़ी कौन से स्वर्ग को जाती है, कौन से नोट में कौन सी चिप लगी होती है, भारत-पाकिस्तान करने में जो समय लगाते है। करोड़ो का खर्च करते है, कई कई घण्टे प्रोग्राम करते है। वह सब किसलिए करते है?
वहीं देश की जरूरी घटनाओं को सेकेंड दो सेकेंड का स्क्रीन टाइम देकर गायब कर दिया जाता है। और अगर गायब नहीं कर सकते तो तोड़ मरोड़ने कर बदनाम कर दीजिए।
मुट्ठी भर लोग निर्धारित कर देते है कि कौन-सा मुद्दा जरूरी मुद्दा है कौन सा गैर जरूरी। दरअसल इनके जरूरी मुद्दों में सबसे अहम एजेंडा यहीं होता है कि कैसे भारत के आम आदमी की सोच को और संकुचित किया जाये, भारतीय समाज को और ज्यादा अवैज्ञानिकता की ओर धकेला जाए। मीडिया का मतलब केवल प्रतिक्रिया और ज्वलनशील मोड में ही रहना होता है या फिर मीडिया के कुछ अलग मायने भी होते होंगे।
क्यों न इस पर भी बात की जाये कि मीडिया के इनके दफ्तरों में कौन सी जाति के लोगों का कब्जा है, जातीय प्रतिनिधित्व कितना है। इनके ऑफिसों में क्यों नहीं बात होती कि समान काम के लिए समान वेतन होना चाहिए। क्यों महिला पुरषों के वेतन में भारी अंतर किया जाता है।
जो लोग नौकरी जाने के डर से अपने ही शोषण के खिलाफ आवाज न उठा सकते हो, साथ वालो के शोषण पर आवाज न उठा सकते हो या शोषण करने में सहयोग करते हो उन लोगों से वाकई पत्रकारिता के मूल्यों की उनके काम में निभाने की अपेक्षा की जा सकती है क्या?
जो मीडिया कॉरपोरेट के विज्ञापनों से चलती हो, सरकारों के विज्ञापनों से चलती हो। जो कॉरपोरेट, सरकार और ब्यूरोक्रेसी किसान-मजदूरों की लूट से चल रहे होते है। वह क्यों न मीडिया का इस्तेमाल अपने लाभ के लिए न करेंगे।
जो मीडिया अपने लाभ के लिए इन सब पर निर्भर करता हो, जो लाभ के हिसाब से चलता हो। एंकरों पर उन्माद पैदा करने के लिए, सेफ्टी वॉल्व की तरह इस्तेमाल के लिए करोड़ो रुपये की सैलरी दी जाती हो। उस पर भी वह अपने आप को गरीब या समाज का चिंतक प्रस्तुत करते हो। उनसे किस प्रकार की सामाजिक ईमानदारी की उम्मीद की जा सकती है?
प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में यह मीडिया 142वें स्थान पर आती है। अंदाजा लगाइए यह समाज को भ्रमित करने, सामाजिक भाईचारा तोड़ने, साम्प्रदायिक, युद्ध उन्माद पैदा करने, लोगों को बाजारू गुलामी की तरफ धकेलने में यह किस स्थान पर आती होगी।
सोशल मीडिया का बड़ा धड़ा इन्हीं कॉरपरेट कंपनियों में काम करता है, देश मे आग लगाने वाले इस सिस्टम में सहयोग करता है और अपना फेयर शेयर भी लेता हो, सुविधाओं शक्तियों का आनंद लेता हो उससे आप उम्मीद कर सकते है वह स्वतंत्रता और लोकतंत्र जैसे तत्वों को समझता हो?
सुविधाओं के घेरे में रह कर, लूट में हिस्सा लेकर थोड़ा बहुत दान पुण्य कर लीजिए, थोड़ा बहुत सोशल मीडिया में सेंसेशन पैदा कर लीजिए हो गई क्रांति; महानता वाला फील भी ले लीजिए और क्या चाहिए समाज तो वैसे ही रहता है, लोग तो होते ही कीड़े मकोड़े है। कैरियर बनने चाहिए, अटेंशन मिलती रहनी चाहिए!
मीडिया अगर समाज को जागरूक करने की दिशा में नहीं है। मीडिया अगर लोगों के अधिकारों के साथ नहीं खड़ा है, मीडिया अगर किसान-मजदूरों की तकलीफों के साथ नहीं खड़ा है। वह सब मीडिया है ही नहीं भले ही उस मीडिया हाउस में कोई फन्ने खां काम करता हो।
**चलते-चलते**
भारत में आजादी के बाद ऐसा कोई आंदोलन आज तक नहीं हुआ है। मीडिया, शासन प्रशासन इस आंदोलन को अभी तक उसी तरह के आंदोलनो की तरह ले रहे है जो प्रायोजित होते रहे है। ढर्रे वाले रवैयों को अपनाया जा रहा है।
यह वह आंदोलन तो बिल्कुल नहीं है जिस पर मीडिया या सोशल मीडिया की चिल्ल पौ से फर्क पड़ने वाला हो या उसकी वजह से कोई गलत असर इस आंदोलन पर पड़ने वाला हो। उल्टा यह आंदोलन ऐसी बहुत चीजों को पचाने वाला है जो समाज में लोगों की आवाज को दबाने के लिए इस्तेमाल होती आई है। इस आंदोलन में किसान महिलाएं-पुरुष अपने बच्चों के साथ अपने घरों से दूर है। केवल इसी बात से अंदाजा लगा लीजिये की इस आंदोलन की तासीर क्या है, यह कितना गहरा और दूर तक है। सेंससेशन वाली कूद फांद से दूर रह सकते है तो कुछ समय रहने की कोशिश कीजिए।
सादर
धन्यवाद
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