Saturday, 7 November 2020

सद्गुरू बाबा -

सद्गुरू जैसे बाबाओं पर जैसे ही आप सवाल खड़ा करते हैं, स्वत: ही आप गलत नकारात्मक हो जाते हैं। इन जैसे बाबाओं ने ऐसा आभामण्डल बनाया होता है कि आप इनकी कोई गलती पकड़ ही नहीं सकते, ये बहुत ही ज्यादा स्मार्ट होते हैं। विद्वता के नाम पर इनके पास सिर्फ लच्छेदार तर्क होते हैं, उन्हीं तर्कों को तमाम तरह की उलझनों में जकड़ा हुआ भारतीय समाज विद्वता के डोस के रूप में ग्रहण करता जाता है और उनके मोहपाश में बँधता चला जाता है। सद्गुरू जैसे बाबा इसलिए भी बाकी फर्जी बाबाओं से खतरनाक हैं क्योंकि ये कोई गलती नहीं करते हैं, आपने कभी नहीं सुना होगा कि सद्गुरू से चूक हुई, गलत बयान दिया, बेबाक राय रखी, कुछ नहीं, कुछ भी ऐसा सुनने नहीं मिलेगा। असल में इनका चरित्र दीमक की तरह होता है, ये समाज को अपनी चिकनी चुपड़ी बातों से काट काट के पीछे धकेल रहे होते हैं और समाज को पता भी नहीं चलने देते हैं। इनकी बातें इनके समाधान पानी के बुलबुले की तरह होता है और लोग हैं कि उस बुलबुले को ही बहता हुआ पानी समझ लेते हैं।

Friday, 6 November 2020

हत्या या आत्महत्या?

एक हमारे मित्र रहे। उम्र में बड़े थे, शादी हो चुकी थी, दो छोटे बच्चे (एक लड़का एक लड़की) भी थे। लेकिन रिश्तों के बीच खटास कुछ ऐसी आई कि पत्नी झगड़ के अपने मायके चली गई। साल भर का समय बीत गया, लड़का घर में अकेला रहा। लड़के की माता की पहले ही मृत्यु हो चुकी थी तो अब घर में सिर्फ दो ही लोग रह गये थे, एक लड़का और उसके पिता, और दोनों में बनती भी नहीं थी, दोनों में बातें भी नहीं होती थी, पिता ने कभी लड़की और उसके घर वालों से बात कर मामला सुलझाकर बहू को लाने का प्रयास भी नहीं किया। लड़का आए दिन परेशान रहने लगा, आए दिन पत्नी से वापस लौटने की मिन्नतें करने लगा, पूरे लाॅकडाउन भर हमारे घर आता रहा, वह बहुत अकेला पड़ चुका था, इस उम्मीद से मेरे पिता के पास आता कि वे कम से कम एक अभिभावक की तरह उसकी पत्नी को वापस घर लौटाने में कुछ मदद करें, पिछले कुछ महीनों में मेरे पिताजी ही उसके लिए पिता की तरह हो गये थे, एक मित्र की तरह उसको सबल देते रहे। लेकिन कल सुबह उस लड़के ने सुसाइड कर लिया। उसकी लाश देखने के लिए बच्चों समेत उस लड़की का परिवार देखने आ गया। लड़के के पिता ने बेटे की मौत पर यह तक कह दिया कि जो होना था हो गया, छोड़ो हटाओ। जब से घरवालों ने यह खबर दी है मुझे पता नहीं क्यों बहुत गुस्सा आ रहा है - इस मूढ़ समाज पर, जो ऐसे अपने ही समाज के लोगों को हाशिए में मरने के लिए छोड़ देता है, और ये एक उदाहरण नहीं है। खैर, मेरी नजर में तो समाज परिवार पहले ही उन्हें किश्तों में मार ही रहा था, वो बात अलग है कि उन्होंने सुसाइड करके समाज का सारा आरोप खुद पर ले लिया।

Facebook Feeds - October 2020

ड्रीम11 से लाख गुना बेहतर ताश वाला जुआ है, उसमें समय की खपत कम होती है।

मिर्जापुर-2 में ईशा तलवार का ड्रेसिंग सेंस शानदार है, इतनी सुंदर साड़ियाँ शायद ही पिछले कुछ सालों में किसी फिल्म या वेब सीरीज में दिखी हो।

वांडरलस्टियों, गोप्रो एक्शन कैमरा लटकाकर डामर और सीसी रोड की वीडियो बनाना बंद करो यार।

ग्रेजुएशन खत्म होते तक सुसाइड वाले, आत्मदाह वाले, सल्फाश पोटाश खाने वाले, मच्छर मारने वाला लिक्विड पीकर जाने देने की कोशिश करने वाले, इस तरह के दर्जनों केस देखे, अधिकतर मामले ऐसे परिवारों से थे जो संपन्न थे, प्रतिष्ठित थे। कुल मिलाकर बात ये कि सारी सामाजिक समस्याओं का मूल हमारा परिवार होता है। जब तक परिवार में ये समस्याएँ रहेंगी तब तक मानसिक रोगियों की संख्या में बढ़ोत्तरी होती रहेगी और सद्गुरू जैसे बाबाओं की दुकान चलती रहेगी।

गाड़ी खरीदने के बाद सबसे ज्यादा पूजा भारत में, फिर भी सड़क दुर्घटनाओं और उससे हो रही मृत्यु के मामलों में हम पूरी दुनिया में नंबर वन है।

जिन समाजों में "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता" जैसे ढकोसले नहीं होते, ऐसे समाजों में ही स्त्रियाँ सबसे अधिक सम्मानित और सुरक्षित हैं।

Roadies के इंटरव्यू का स्तर सिविल सेवा परीक्षाओं के इंटरव्यू से कहीं बेहतर होता है।

KBC जैसे शो अश्लीलता के मामले में Big Boss से भी कहीं आगे की चीज है।

रिया के लिए मारो मारो चिल्लाने वाली सारी आवाजें फिलहाल रेपिस्टों की तरफ शिफ्ट हो गई है।

Facebook Feeds - September 2020

आरोग्य सेतु एप्प का क्या हुआ? कोई खबर?

जो कोरोना पिछले छह महीनों से नहीं रूका,वो एक हफ्ते के लाॅकडाउन से क्या रूकेगा#Raipur

हमारे यहाँ माता-पिता इतने महान हुआ करते हैं कि जब वे अपने बच्चों की पिटाई करते हैं तो उस पिटाई के बीच कहीं बच्चा पलटवार ना कर दे इसलिए सुरक्षा के लिए कहानी ऐसी गढ़ दी गई, संस्कार ऐसे ठूंस दिए गए कि बच्चे मार तो खा सकते हैं लेकिन माता-पिता पर हाथ नहीं उठा सकते और न ही उन्हें रोक सकते हैं। अगर किसी बच्चे ने गलती से माता-पिता पर हाथ उठा दिया या उन्हें मारने से रोकने‌ की कोशिश की तो पाप लगता है, और यही पाप आगे चलकर बुढ़ापे में हाथ कांपना, लकवा मारना आदि बीमारियों के रूप में परिलक्षित होता है, इस बात को अगर सच मान लिया जाए तो फिर यही लाॅजिक उन माता-पिता पर भी लागू हो जो आजीवन अपने बच्चों के ऊपर मानसिक शारीरिक हिंसा करते हैं।

लोगों का पूरा ध्यान खाली बन्दर (डाॅक्टर) पर है।असली मदारी (नेता,अधिकारी) मजे में हैं।


सचमुच लोकतंत्र होता, सचमुच सरकार संवेदनशील होती तो जनगणना की तर्ज पर अभी तक घर-घर जाकर टेस्टिंग का काम शुरू हो जाना चाहिए था। 

यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें लोक है ही नहीं, अगर है भी तो उसे हर छोटी सी बात में लाइन में लगवा दिया जाता है। हमें अपनी जान भी बचानी है, लाइन लगाकर भीड़ भी हम बढ़ाएं और दूसरों की जान भी खतरे में डालें। छल क्यों नहीं लग जाता ऐसे लोकतंत्र को।

एक ओवरहाइप्ड अभिनेत्री के आफिस ध्वस्त होने की खबर का राष्ट्रीय मुद्दा बन जाना और उस पर चर्चा करना उतना ही वीभत्स है जितना वो हथिनी के मरने की खबर या अमिताभ के अस्पताल का फुटेज या फिर सुशांत वाला मामला। हर नई खबर जो कि वास्तव में खबर ही नहीं, पहले से कहीं अधिक हाई वोल्टेज ड्रामे के साथ पेश की जाती है ताकि आमजन उसी के ईर्द-गिर्द भुलभुलैया में चक्कर लगाता रहे और असल मुद्दे पीछे छूटते रहें।

मैं अगर उस अभिनेत्री के जगह मैं होता तो क्या पता बिना दोषसिध्दि के इतना अपमान झेलकर कहीं केरोसिन डाल के खुद को जला न लेता। मीडिया चैनल आदि को हटाकर देखा जाए तो सबसे तकलीफदेह इन सबमें यह है कि महिलाएँ ही सबसे अधिक उस लड़की के‌ लिए हिंसा दिखा रही हैं, इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि हम कितने ह्रदयहीन, कितने असंवेदनशील समाज के रूप में आगे बढ़ते जा रहे हैं।

रिया को जेल भेजना स्वागत योग्य कदम है, अभी के समय में उनके लिए सबसे महफूज जगह वही है।

माना जाता है कि जिन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी लगातार शोषण झेला हो, उनके डीएनए में गुलामी शोषण का तत्व रह जाता है, ठीक उसी तरह प्रिविलेज क्लास के पास भी उस प्रिविलेज से आई भाषा, कला, वाणी, वाकपटुता, भाषायी चातुर्य, रटंत विद्या, राज-नीति आदि आदि विरासत के रूप में ही डीएनए से मिलती रहती है।

काढ़ा, एंटीबायोटिक आदि से बचें, कोरोना सिर्फ और सिर्फ इच्छाशक्ति से ही मरेगा।

कल से लोग कह रहे कि जीडीपी फलां परसेंट नीचे चला गया, इस बात से घोर असहमति है, मुझे तो उल्टे ग्रोथ दिखाई देता है। जिनको खरीददारी करनी है, कर ही रहे हैं, रूपए का प्रवाह बना हुआ है, लोग बाइक, कार, घर, सोना सब जमकर खरीद रहे, पिज्जा बर्गर दारू सब ऑनलाइन मंगवा रहे तो कैसे जीडीपी नीचे जाएगा भाई। ये सब वर्तमान सरकार को नीचा दिखाने की साजिश है। अब लोग तर्क देंगे कि मजदूर, किसानों, निम्न वर्ग आदि की हालत बद से बदतर हो चुकी, कितनों का धंधा बैठ गया, कितनों की नौकरी छीन गई, तो भाई आपको पता होना चाहिए कि ये सब जीडीपी में काउंट नहीं होता है।

Facebook feeds - August 2020

सड़क 2 फिल्म का ट्रेलर वीडियो डिसलाइक करने में और मन की बात का वीडियो डिसलाइक में एक समानता है वो यह कि दोनों घटनाएँ आजाद भारत में एक विशिष्ट तरह की क्रांति लेकर आई हैं, अब वनटच से घर बैठे सब कुछ हो जाएगा। जैसे उस फिल्म की वीडियो डिसलाइक करने से नेपोटिज्म खत्म हो गया, ठीक वैसे ही मन की बात की वीडियो डिसलाइक करने से रातों रात ही राष्ट्रीय चेतना अनुप्राणित हो गई, युवाशक्ति जागृत हो गई।

दस बजे तक जब होटल खुल सकते हैं तो परीक्षा भी हो सकती है और बस ट्रेन भी चल सकती है।

नासा से बहुत पहले हमारे दादाओं ने UFO देखा हुआ था, बस वे उसे सफेद भूत कहा करते थे।

पत्थरों को हटाकर चूल्हा बना रखा है, शहर में थोड़ा सा गाँव बचा रखा है।

एंटी डिप्रेशन कैंपेन चलाने वाला समाज ही आज उसकी जीवित प्रेमिका को मारने पर उतारू है।

बच्चा भ्रष्टाचार वहीं से सीख जाता है जब उसे होमवर्क के एवज में चाॅकलेट दिया जाता है।

पूरा देश सरकारी कंट्रोल में है, एक फेसबुक के कंट्रोल कर देने पर कैसा आश्चर्य....!

हम भारतीयों की पाचनशक्ति कमजोर होने की एक बड़ी वजह बार-बार थूकना और कुल्ला करना है।

कभी-कभी लगता है जैसे भारत युवाओं का देश बस सरकारी आँकड़ों में है। क्योंकि जैसी फुर्ती यूरोपियन और अन्य कुछ विकसित देशों के 40 पार के उम्र के लोगों की होती है, उतनी फुर्ती वाला जीवन भारत के 25 के उम्र के युवा भी न जीते होंगे। जैसे भारत में लोकतंत्र बस कागज में दिखाने के लिए है, ठीक वैसे ही युवाओं का देश भी बस संख्याबल दिखाने तक सीमित है।

बादशाह और प्रतीक कुहड़ सरीखे गायकों को सुनने वाले को ही Bandish Bandits जैसी फैंसी वेब सीरीज में शास्त्रीय संगीत नजर आ सकता है‌।

जब हम मुस्कुराते हैं, तो हमारी आँखें भी मुस्कुराती हैं।#मास्कमय_जीवन

न तुम्हें 4 करोड़ की स्काॅलरशिप मिलती, न तुम्हारी मौत पर इतना हंगामा होता।

सिविल सेवकों को हमेशा ये देश समाज के लिए ही कुछ करना क्यों होता है?

Facebook Feeds - July 2020

भारत में 700+ जिले, हर जिले में थोड़ा-थोड़ा कोरोना, डेटा मेनीपुलेशन भी गजब चीज है।

कुली फिल्म की शूटिंग के दौरान जो बच्चन साब को चोट लगी थी,आजकल उसे ClickBait कहते हैं।

माता-पिता अपनी हिंसा बच्चों को हस्तांतरित करने का एक मौका नहीं छोड़ते हैं, खुद जितने मशीनी होते हैं अपने बच्चों को भी वैसा ही बना डालते हैं, इसमें आधार बनता है परिवार, समाज, देश, संस्कृति आदि। इन्हीं टूल्स को काम में लगाकर बच्चे की बुध्दि को संकुचित करने का काम किया जाता है। और मजे की बात ये कि उन्हें अपनी इस गलती का इंच मात्र भी आभास नहीं हो पाता है, उन्हें लगता है बच्चा अगर उनकी तरह रोबोट नहीं बन पाया तो उसका जीवन नर्क हो जाएगा। उन्हें लगता है कि उन्होंने जिस ढर्रे पर पूरा जीवन जिया है, जीवन जीना उसे ही कहते हैं, उसके अलावा भी कोई जीवन होता है, इसकी न तो उन्हें समझ होती है, न ही ऐसी दृष्टि होती है, इसलिए ऐसी कल्पना भी नहीं कर पाते हैं। उन्हें लगता है वे अग्रगामी हैं, लेकिन असल में होते वे पश्चगामी ही हैं। ऐसी मानसिकता ही समाज को, देश को पीछे ढकेलती है। शिक्षा व्यवस्था, स्वास्थ्य, सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार यह सब बहुत बाद में आता है, इन सारी समस्याओं की जड़ हमारा अपना परिवार होता है, सब कुछ इसी का विस्तार तो है, हम जब तक इस सच्चाई को नहीं स्वीकारेंगे, तब तक उल्टी दिशा में गंगा बहती रहेगी।

हिन्दी पट्टी के व्यक्ति के मस्तिष्क में एक "राजनीतिक विश्लेषक" Inbuilt होता है।

विद्रूपताओं के दौर में जब-जब पहाड़ों की ओर देखा, इन पहाड़ों ने यही सिखाया कि दुनिया में एक रूपए भी बिना जी तोड़ मेहनत के या फिर बिना भ्रष्टाचार के हासिल नहीं हो सकता है।

जिस देश की महिलाओं को अंत्येष्टि में रोने के लिए प्याज और स्प्रे का सहारा लेना पड़ता हो उस देश के बच्चों का भविष्य कैसा होगा।

पहाड़ में पहाड़ जैसा मजबूत कुछ होता है तो वह है पूर्वजों की बनाई पगडंडियाँ।

हमारे यहाँ माता-पिता अपने बच्चों की तनख्वाह कुछ हजार रूपए बढ़ाकर ही बताते हैं।

जैसे हमारे यहाँ धार्मिक जड़ताएँ हैं, ठीक वैसी ही जड़ता खान-पान को लेकर भी है। सुधार के नाम पर हम ऊपरी काम ही करते हैं, आमूलचूल प्रयोगों से हमारी रसोई आज भी अछूती है।

NCERT ने धर्मनिरपेक्षता, योजना आयोग, पंचवर्षीय योजना, लोकतांत्रिक अधिकार, फूड सिक्योरिटी, नागरिकता, संघवाद, राष्ट्रवाद, भारत के आर्थिक विकास का बदलता स्वरूप, पड़ोसी देशों से संबंध, लिंग, जाति, धर्म, लोकतंत्र की चुनौतियाँ इन सब टाॅपिक को छात्रों के सिलेबस का बोझ कम‌ करने के मकसद से हटा दिया है।

एक बात समझ नहीं आ रही कि लोग आखिर इस अभूतपूर्व फैसले का विरोध क्यों कर रहे हैं?

सामाजिक पिछड़ेपन का बीजारोपण, संग्रहण एवं विस्तारण पिछड़े समाजों द्वारा संभव ही नहीं।

भारत में अनगिनत प्रेम कहानियों की मौत सरकारी नौकरी न मिलने की वजह से हो जाती है।

गाँव में काम करने के शौकीन युवाओं को शाम ढलते तक शहर लौटना ही होता है।

मैं एक दि‌न अपनी सारी RTI, PIL अपने साथ ले जाऊंगा, जो इन कवियों पर मुझे लगानी थी।

कुछ युवा घर की जिम्मेदारियों का वहन इसलिए भी करते हैं ताकि आगे चलकर अपनी बदमाशियों को जस्टिफाई कर सकें।


My thoughts on Gopro Action Cam -

सबसे पहली बात - गो प्रो एक्शन कैमरा है, एक्शन कैमरा है, एक्शन कैमरा है। गोप्रो का कैमरा जब लाँच होता है तो उसके साथ जो विज्ञापन वाली वीडियो आती है उसमें कोई पैराग्लाडिंग कर होता है, कोई स्केटिंग कर रहा होता है, कोई ऊंचाई से छलांग रहा होता है, स्कूबा डाइविंग, सर्फिंग आदि आदि। यानि इन सब फुटेज के माध्यम से अच्छे से समझा दिया जाता है कि एक्शन कैमरे किस काम में लाए जाते हैं, और दूसरे देशों के लोग एक्शन कैमरे का सदुपयोग भी करते हैं, हमेशा उससे कुछ अनूठा काम कर जाते हैं, जो शायद हमारे बस का भी नहीं। इसलिए भी हम भारतीय गोप्रो जैसे कैमरों की खूब फजीहत करते हैं, उससे रोड की वीडियो बनाते हैं, अरे भाई रोड की वीडियो बनाने में कौन सी क्रिएटिविटी होती है यार, मुझे तो आजतक समझ नहीं आया, वैसे ये काम कुछ हद तक दूसरे देशों के लोग भी करते हैं लेकिन वहाँ उनके इस काम‌ में सचमुच एक्शन दिखता है, मेहनत दिखती है, क्रिएटिविटी दिखती है। 

मैंने अपने सोलो राइड में एक्शन कैमरा नहीं लटकाया है, बस कुछ ठंड के कपड़े साथ हैं, यहाँ तक कि DSLR वगैरह भी साथ नहीं है, क्योंकि जितना कम सामान रहेगा, उतना सफर आसान रहेगा। असल मकसद घूमना है, लोगों से मिलना है, लेकिन लेकिन, जिस उम्मीद से कुछ दोस्त डिमांड कर रहे कि वीडियो बनाओ तो सोच रहा कैमरा लटका लूं, अब लोगों को डामर और सीसी रोड देखनी है तो वही सही, लेकिन अब जब वीडियो बनानी ही है तो कुछ उससे रचनात्मक कर जाने की एक जिम्मेदारी बढ़ जाएगी, खुद को भी तो भीतर से लगना चाहिए न कि कुछ ढंग का हो रहा, बाकी लाखों करोड़ों व्यू पाने का क्या है वो तो टिकटाॅक यूट्यूब के काॅमिक वीडियो को भी मिल जाते हैं।