गाँधीजी की मृत्यु वैसे तो 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोड़से नामक एक सिरफिरे के द्वारा हुई थी। लेकिन अगर गहराई में जाकर देखा जाए तो गाँधी को मारने वाला कोई एक नहीं था। बहुत पहले से ही एक पूरी सोच ने, लोगों के हुजूम ने मिलकर उन्हें खत्म किया। गोड़से द्वारा बंदूक चलाकर गाँधीजी की जीवनलीला समाप्त करना बहुत छोटी घटना मालूम होती है, जब पता चलता है कि गाँधी की मृत्यु तो बहुत पहले ही हो चुकी थी। हमने उस व्यक्ति को टुकड़ों में धीरे-धीरे मृत्यु तक पहुंचाया, एक संस्थागत तरीके से, जबकि वे आजीवन हमारे आपके भलाई की बात करते रहे।
ये कितना चौंका देने वाला सच है कि जिस गाँधी ने अंग्रेजों को चैन से साँस लेने नहीं दिया, हर जगह जाकर परेशान किया, ये सब किसलिए उन्होंने किया, हम भारतीयों की भलाई के लिए। लेकिन उस गाँधी को अंग्रेजों ने नहीं बल्कि हम भारतीयों ने मारा। यह एक ऐसा दाग है, ऐसा लांछन है जो इतिहास में दर्ज हो चुका है और जिससे हम कभी पिंड नहीं छुड़ा सकते।
जीवन के अंतिम दिनों में वे कितने असहाय कितने अकेले रहे होंगे, शायद इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। वैसे तो गाँधीजी की मृत्यु के बहुत से असफल प्रयास हुए, लेकिन सबसे पहले उनकी मृत्यु का तत्व वहाँ से पैदा होता है जब उन्होंने 1934 में काँग्रेस से खुद को अलग कर लिया। क्योंकि गाँधीजी को अच्छे से पता था कि काँग्रेस जिस काम के लिए बनाई गई थी, वह काम अब हो चुका, इससे ज्यादा अब कांग्रेस की कोई खास उपयोगिता नहीं, बेहतर यही हो देश की जनता की भलाई के लिए इसे समूल समाप्त कर दिया जाए। लेकिन कौन है जो बनी बनाई राष्ट्रीय विरासत को यूं झटके में खत्म कर आगे बढ़ने की सोच रखे। सबमें गाँधीजी जैसी साध्य और साधन वाली ईमानदारी थोड़े ही न थी। आज समझ में आता है कि आखिर क्यों गाँधी नीतियों से कहीं अधिक मूल्यों पर ध्यान देते थे। गाँधीजी इस बात को बखूबी समझते थे कि अगर किसी एक पार्टी ने देश चलाया तो वही राजतंत्र की तरह देश आगे बढ़ेगा, लोकतंत्र बस हल्का फुल्का अहसास देने भर के लिए रह जाएगा, एक बड़ी आबादी अपनी छोटी-छोटी चीजों के लिए गुलामी से भी बदतर जीवन जीने को मजबूर हो जाएगी। गाँधी इस बात को लेकर बहुत ज्यादा स्पष्ट थे कि एक पार्टी अगर लोकतंत्र को अपना आधार बनाकर कितना भी अच्छे प्रयास करे, लेकिन इन उधार लिए गये कानूनों से कभी भी सही मायनों में लोकतंत्र निर्मित नहीं हो पाएगा, बस सतही तौर पर कागजी अहसास भर रहेगा।
गाँधीजी की सोच बहुत ही दूरदर्शी थी, वे इस बात को लेकर बहुत स्पष्ट थे कि जिस तरह का संविधान बनाया जा रहा है, जो आधे से ज्यादा उधार लिया हुआ है, खैर उधार लेने में कोई हर्ज नहीं, लेकिन ये उधार लिए गये कानून भारत जैसे देश के लिए कभी मर्ज का काम नहीं करेंगे इस बात को गाँधी जानते थे। गाँधी जानते थे कि ब्रिटिश शासन ने अपने गुलामी के दौर में जैसे कानून बना रखे थे, उसके भाव जस के तस बचे रहेंगे, भले ही हम कितनी भागा-दौड़ी मचा लें। इसकी एक बड़ी बानगी प्रशासनिक व्यवस्था को ही देख लें। जिसे लोकतंत्र का लौहस्तंभ कहा जाता रहा है। गाँधी जानते थे कि चुनाव कराकर एक संविधान की मदद से कितना भी बढ़िया लोकतंत्र हम बना लें, हम गुलामी की उन जंजीरों को जिसकी जड़ें ब्रिटिश काल से हैं, उन तरीकों से कभी खत्म नहीं कर पाएंगे, हम उलझ कर रह जाएंगे। और हुआ भी यही, नेहरू से लेकर जितने भी बड़े नेता रहे, वे प्रशासन के तरीकों को जो पूरी तरह से ब्रिटिश प्रणाली( जिसमें गुलामी का तत्व भरपूर समाया हुआ है) का अनुपालन करती है, उसे खत्म नहीं कर पाए। खत्म करना तो बड़ी बात हो गई, हिला भी नहीं पाए। नतीजा सामने है, आज भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक कुर्सी में बैठा अधिकारी बड़े गर्व से जनता को अपने पैरों की धूल समझता है।
जब उनकी मृत्यु होने वाली थी, उस समय के कुछ बड़े नेताओं को इस बात का अंदेशा हो चुका था कि गाँधीजी की मृत्यु होने वाली है, सबको भीतर से यह मालूम था, लेकिन सबने एक तरीके से मौन धारण कर लिया था। सबने गाँधीजी से खुद को किनारे कर लिया था। उनकी प्रार्थना प्रवचन में ऐसे कई वाक्य हैं जिससे पता चलता है कि अपने अंतिम दिनों में वे कितने अकेले और कितनी अधिक पीड़ा में थे।
गाँधीजी ने दिसंबर 1947 में एक अनाम पत्र में लिखा था - मुझे पता है आज मैं सबके लिए एक परेशानी बन चुका हूं और यह कैसे संभव है कि सिर्फ मैं ही हमेशा सही रहूं और बाकी सभी गलत हों। बस मुझे दुःख इस बात का है कि मेरे साथ विश्वासघात किया गया। उन्हें मुझे स्पष्ट कह देना चाहिए कि मैं बूढ़ा आदमी अब उनके किसी काम का नहीं और मैं उनसे हमेशा के लिए दूर हो जाऊं। अगर वे यह सब मुझे स्पष्ट कह देते तो मुझे तकलीफ कम होती।
गहराई में जाने पर पता चलता है कि जिन लोगों के लिए, जिस देश की जनता की भलाई के लिए गाँधी जी ने अपना जीवन खपा दिया, चाहे वे दलित हों, मुस्लिम हों, भारत की महिलाएं हों, वे हिन्दू भी जिनके वे नेता रहे और करोड़ों भारतीय जिनके लिए वे एक पथप्रदर्शक की तरह रहे, सबने एक समय के बाद गाँधी से खुद को अलग कर लिया, थोड़ी सी उस फर्जी आजादी का अहसास पाकर सबने पीठ पीछे कर लिया, गाँधीजी को सबने अकेला छोड़ दिया। कुछ इस तरह गाँधी की मृत्यु संस्थागत तरीके से सबने मिलकर की। यह बात अर्धसत्य है कि गाँधी को किसी एक व्यक्ति ने मारा, नहीं बिल्कुल नहीं, गाँधी को सबने मिलकर पहले ही मारना शुरू कर दिया था। गाँधीजी की मृत्यु एक अलग ही तरह की मृत्यु थी जिसमें अनगिनत लोगों की मौन सहमति पहले से तैयार खड़ी थी, अनुज्ञात्मक तरीके से आहिस्ते आहिस्ते गाँधी को खत्म कर दिया गया।
Is kalyug me koi bhi inke jaisa ni ban skta or na hi inke vicharo ko apna skta h.
ReplyDeleteबिल्कुल। लेकिन सीख ली जा सकती है, उतना तो करना ही चाहिए।
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