तथागत बुध्द - इसी प्रकार एक आचार्य से दूसरे आचार्य के पास, एक साधना-पध्दति से दूसरी का अवलंबन करते दीर्घकाल तक भटकता रहा। कई बार ऐसा हुआ आनंद, कि जिन साधनाओं की अवहेलना कर आया था उनका भी परीक्षण करने को बाध्य हुआ। सोचता, संभव है उसमें कोई सार हो। यदि वे असार भी हैं तो उन्हें करके जानो। परिणाम से जानो इसलिए मेरी साधना गति दीर्घकाल तक चक्रगति से चलती रही।
एक मुनि के कहा - " बाहर से अपने को समग्रत: मोड़ लो। शब्द और दृष्टि से भी निवृति पा लो तब तुम्हें अंतर का आलोक दिखेगा। सत्य का स्वरूप प्रकट होगा, अंतरात्मा का स्वर सुनाई देगा।" तो मौन का सेवन करने लगा।
एक किसी ने कहा - "स्थूल को क्षीण करो, इंद्रियों को दुर्बल करो, तब तुम्हारी इंद्रियाँ और चेतना अपने विषयों से निवृत होंगी। तब तुम्हें सूक्ष्म का, सत का साक्षात् होगा।" तो उसी के अनुसार उपासना आरंभ कर दी।
मैंने अल्पाहार का भी आश्रय लिया। एक टुकड़ा तिल मेरा आहार था। घोर तपश्चर्या की मैंने, आनंद। दाँतों को भींचकर, जिव्हा को तालु से सटाकर, मन को मन से पकड़ने, दबाने, तपाने से, काँख से पसीना निकलने लगता। कठिन जाड़े की रात में पसीने से नहा उठता। मेरा उत्साह बढ़ता था, जागरूकता बढ़ती थी, परंतु शरीर अशांत हो उठता।
और फिर मैंने नाक से सांस लेना भी छोड़ दिया। कान से वायु ग्रहण करता। ऐसी स्थिति में श्वास-प्रश्वास लेते छोड़ते मुझे तीव्र वेदना होती, वायु-शूल से पीड़ित होने लगा मैं।
शरीर कृष होकर अस्थि शेष रह गया था। मेरे सिर के और शरीर के बाल भी झड़ने लगे थे। दृष्टि मंद होने लगी। चेतना शिथिल होने लगी। शरीर की ग्रंथियाँ बाहर को निकली दिखाई देती। लगता किसी भी क्षण अस्थियाँ तिनके की भाँति बिखरकर अलग हो जाएंगी। उठने-बैठने में भी कष्ट होता। ऊँट के पैर जैसा मेरा कूल्हा हो गया था। पेट के काँठों को पकड़ता तो पीठ का मेरूदंड हाथ में आ जाता और पीठ की ओर से मेरूदंड पकड़ता तो पेट की खाल पकड़ में आ जाती थी। शरीर में नित्य कर्मों के लिए भी शक्ति नहीं रह गई थी, ऐसी स्थिति हो जाती कि कभी-कभी वहीं लुढ़क जाता था।
लोग मुझे देखकर डरने लगे थे। मुझे खुद अपने आप से डर लगने लगा था। एक बार तो कुछ लोगों ने समझ लिया कि मैं मर गया। "श्रवण गौतम मर गया"
कोई कहता और कोई कहता " गौतम मरा नहीं है। मरेगा भी नहीं वह। "अर्हत हो गया है गौतम" ऐसा वे कहते। कोई कहता " गौतम विक्षिप्त हो गया है, ध्यानलीन है, " परमहंस गति को प्राप्त है" ऐसा भी कोई कहता।
ऐसा करते हुए इस अवस्था में विचरते हुए मुझे एक बार लगा कि आज तक किसी भी मनुष्य ने जितनी भी कठिन तपस्या की होगी उतनी मैंने कर ली। आजतक किसी ने भी जितनी यातना सही होगी उतनी यातना मैंने सह ली। यदि इससे पूर्व किसी ने खुद को तपाया होगा तो इतना ही तपाया होगा इससे अधिक नहीं। भविष्य में कोई तप सकता है तो इतना ही इससे अधिक नहीं। आज भी कोई खुद को तपा रहा होगा तो इतने पर्यंत ही इससे अधिक नहीं।
और तब मैंने सोचा, इस समस्त वेदना का, आत्मपीड़न का, आत्म दर्शन का उपयोग क्या है! क्या मैं तप के नाम पर अपने अहं की ही उपासना नहीं करता रहा!
आनंद, मुझे वही स्वर अपने भीतर फिर से सुनाई देने लगे जो माता को याद करते हुए तीव्र पीड़ा में जामुन के पेड़ की छाया में सुन पड़ा था। जिस प्रकार सुख की उपासना होती है सुख की आसक्ति होती है, उसी प्रकार दुःख भी उपासना होती है, आसक्ति होती है। अपने को पीड़ित करने वाला अपने वृतियों को स्थिर नहीं करता, अपने मन पर विजय प्राप्त नहीं करता, अपने मल का प्रच्छालन नहीं करता। वह तो मल को ही उपलब्धि मान उसकी उपासना करने लगता है। वह अपनी यातना का भी रस लेता है। यह भी लोभ से प्रेरित होकर करता है वह। भोग चाहे वह सुख का हो या पीड़न का, आत्मतुष्टि का हो या आत्मनिषेध का, वह अपने आप में ही हमारा इष्ट बन जाता है। वह हमारी चेतना पर, हमारी दृष्टि पर, हमारे संज्ञान पर एक पट की तरह छा जाता है। आत्मपीड़न आत्महनन का ही दीर्घ और विस्तृत क्रम है। दोनों हिंसा है। आत्महनन मृत्यु है मुक्ति नहीं। असल में कठोर तप साधना हमारी इंद्रियों को कुंठित कर देती हैं, अशक्त बना देती हैं और हमारे मन में भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि हम अपने आप पर, अपने मन पर और अपने अहंकार पर विजय प्राप्त कर रहे हैं, पर यह विजय नहीं होती, यह आत्म-सम्मोहन होता है। यह ज्ञान की उपासना नहीं हैं, जड़ता की उपासना हैं।
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