उन शांत वीरान पहाड़ों में अकेले खाली हाथ ही चला गया था। भले यकीन न हो लेकिन मेरे महीने का खर्च दो से तीन हजार रूपए ही रहा।
न जाने कितनी तकलीफें आई, लेकिन उफ्फ नहीं किया, एक दिन भी घर की याद नहीं आई, क्योंकि वहाँ हमेशा कुछ लोग थे जो मेरे लिए परिवार जैसे हो गये थे। वे लोग एक नादान बच्चे की तरह सुबह से शाम मेरे खाने पीने से लेकर हर चीज की खबर लिया करते। कभी-कभी उनका अपनापन देखकर अकेले में रो भी लिया करता। एक पल के लिए महसूस नहीं होता था कि घर से दूर हूं, महसूस होने ही नहीं देते थे, जबकि चंद बच्चों को फ्री में पढ़ाने के अलावा मैंने उनके लिए कुछ खास नहीं किया। जब एक साल बाद मैं वहाँ पहुंचा, तो उस दिन तीन अलग-अलग घरों में मेरे लिए खाना बन रहा था, शायद यही मेरी असली कमाई थी।
न जाने कितनी तकलीफें आई, लेकिन उफ्फ नहीं किया, एक दिन भी घर की याद नहीं आई, क्योंकि वहाँ हमेशा कुछ लोग थे जो मेरे लिए परिवार जैसे हो गये थे। वे लोग एक नादान बच्चे की तरह सुबह से शाम मेरे खाने पीने से लेकर हर चीज की खबर लिया करते। कभी-कभी उनका अपनापन देखकर अकेले में रो भी लिया करता। एक पल के लिए महसूस नहीं होता था कि घर से दूर हूं, महसूस होने ही नहीं देते थे, जबकि चंद बच्चों को फ्री में पढ़ाने के अलावा मैंने उनके लिए कुछ खास नहीं किया। जब एक साल बाद मैं वहाँ पहुंचा, तो उस दिन तीन अलग-अलग घरों में मेरे लिए खाना बन रहा था, शायद यही मेरी असली कमाई थी।
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