Friday, 18 October 2019

Memoirs of Childhood

मैं जब छोटा था, तब अपने गली मोहल्ले के सारे बच्चों के साथ मारपीट किया करता था, लड़का लड़की कोई भी हो, अपने से छोटा-बड़ा सबको जमकर धोया, मेरी भी धुलाई हुई। लेकिन‌ मैं अपनी चीजों के लिए लड़ जाता था। जैसे कोई अगर मुझसे मार खाने से बच भी जाता तो उसे याद करके जबरदस्ती ही एक थप्पड़ मार देता, बाल‌ नोच लेता, क्योंकि वो मेरे हाथ से मार नहीं खाया है। डर खौफ चीज क्या होती है मुझे पता ही नहीं था। सबको तंग कर लेता था।
मुझे लगता है किसी न किसी रूप में मेरा बचपन आज भी मुझमें कहीं बचा हुआ है। बस लोगों को‌ तंग करने का तरीका बदल गया है।
अब मैंने मारपीट करना छोड़ दिया है, अब ये सब काम‌ मेरे लिखे हुए शब्द करते हैं।

Memoirs of Munsyari

उन शांत वीरान पहाड़ों में अकेले खाली हाथ ही चला गया था। भले यकीन न हो लेकिन मेरे महीने का खर्च दो से तीन हजार रूपए ही रहा।
न‌ जाने कितनी तकलीफें आई, लेकिन उफ्फ नहीं किया, एक दिन भी घर की याद नहीं आई, क्योंकि वहाँ हमेशा कुछ लोग थे जो मेरे लिए परिवार जैसे हो गये थे। वे लोग एक‌ नादान बच्चे की तरह सुबह से शाम मेरे खाने पीने से लेकर हर चीज की खबर लिया करते। कभी-कभी उनका अपनापन देखकर अकेले‌ में रो भी लिया करता। एक पल के लिए महसूस नहीं होता था कि घर से दूर हूं, महसूस होने ही नहीं देते थे, जबकि चंद बच्चों को फ्री में पढ़ाने के अलावा मैंने उनके लिए कुछ खास नहीं किया। जब एक साल बाद मैं वहाँ पहुंचा, तो उस दिन तीन अलग-अलग घरों में मेरे लिए खाना बन रहा था, शायद यही मेरी असली कमाई थी।

Instead of working for others start working for Yourself

मेरे भाई,
मैं तो कहता हूं अगर तुम्हें सचमुच कुछ नया सीखना है,
जानना है, जीवन में कुछ करना है,
अगर सच में जमीनी हकीकत समझनी है,
तो भूल से भी किसी की शरण में मत जाना,
इसके बदले अपना झोला पकड़ निकल जाना किसी अनजान रास्ते में।
अपनी पहचान, अपना इगो घर में छोड़कर निकल पड़ना किसी एक अनजान गाँव में,
महीनों उन्हीं की तरह रखना, खाना और जीने की कोशिश करना,
और उनके बीच तुम ऐसे रहना कि वे तुम्हें अपने जैसा ही मानने लग जाएं,
तब जाकर वे तुमसे सच्चे मन से अपनी बात कहेंगे,
वहाँ तुम्हें लाइफ का कुछ अनुभव जैसा मिलेगा,
तुम सचमुच खुद से कहोगे कि तुमने अपने दम पर कुछ नया सीखा है।
तब तुम्हें किसी संस्थान की जरूरत महसूस होगी,
आहिस्ते से तुम खुद ही एक चलती फिरती संस्थान बन जाओगे।

क्योंकि किसी और के लिए 8 घंटे काम करने से लाख गुना बेहतर है कि अपने लिए 16 घंटे काम किया जाए।





Wednesday, 16 October 2019

Brain Drain

सारे पढ़े-लिखे समझदार लोगों ने,
अनपढ़, मूर्ख, जाहिल, देहाती जनमानस का नेतृत्व संभाला,
सुबह से शाम मानवता की बातें करते इन लोगों ने,
पैसों के प्रति इनकी भूख ने, हवस ने,
जंगलें को साफ किया, नदी झील तालाब सूखा दिए,
और उन्होंने बसा दी वहाँ गगनचुंबी ईमारतें,
और इसको उन्होंने शहर का नाम दे दिया,
इसमें उन्होंने सड़कों तक को नहीं छोड़ा,
वहाँ भी गाड़ियों की लड़ी बिछा दी,
इस पूरी प्रक्रिया में वे हद तक खोखले होते गये,
ये इस कदर बेहोश और नशे में चूर थे,
कि उन्होंने अपनी दिमाग की नसें, अपनी बुध्दि तक सुखा ली।

देशभक्ति की परिभाषा बदल दो -


हमें देशभक्ति की बदलनी होगी परिभाषा,
हमें बताना होगा उस आने वाली पीढ़ी को,
कि बस 52 सेकेंड खड़े होना देशभक्ति नहीं होती,
न ही सिर्फ सीमा पर तैनात आर्मी के लिए घर बैठे हुंकार भरते रहना देशभक्ति होती है,
देशभक्ति उसमें भी है कि हम अपने शहर की ऐसी-तैसी करने में कितना कम योगदान देते हैं,
ऐसे मृत होते शहर जहाँ माचिस की डिबिया जैसी ईमारतें हैं,
बिना आँगन के, पेड़-पौधों के, बंकर रूपी घरों में रहने के बजाय,
उस शहर के बोझ का हिस्सा ना बनना भी देश सेवा से कम नहीं है।
हमें पैदा करनी होगी अपने जलस्त्रोतों, जंगलों आदि को नष्ट होने से बचाने की देशभक्ति,
हमें ठूंसना होगा ऐसी देशभक्ति को संविधान के उन मूल कर्तव्यों में, जीवन मूल्यों में, लोगों के खून में।

Monday, 14 October 2019

The Making of Buddha

तथागत बुध्द - इसी प्रकार एक आचार्य से दूसरे आचार्य के पास, एक साधना-पध्दति से दूसरी का अवलंबन करते दीर्घकाल तक भटकता रहा। कई बार ऐसा हुआ आनंद, कि जिन साधनाओं की अवहेलना कर आया था उनका भी परीक्षण करने को बाध्य हुआ। सोचता, संभव है उसमें कोई सार हो। यदि वे असार भी हैं तो उन्हें करके जानो। परिणाम से जानो इसलिए मेरी साधना गति दीर्घकाल तक चक्रगति से चलती रही।
एक मुनि के कहा - " बाहर से अपने को समग्रत: मोड़ लो। शब्द और दृष्टि से भी निवृति पा लो तब तुम्हें अंतर का आलोक दिखेगा। सत्य का स्वरूप प्रकट होगा, अंतरात्मा का स्वर सुनाई देगा।" तो मौन का सेवन करने लगा।
एक किसी ने कहा - "स्थूल को क्षीण करो, इंद्रियों को दुर्बल करो, तब तुम्हारी इंद्रियाँ और चेतना अपने विषयों से निवृत होंगी। तब तुम्हें सूक्ष्म का, सत का साक्षात् होगा।" तो उसी के अनुसार उपासना आरंभ कर दी।
मैंने अल्पाहार का भी आश्रय लिया। एक टुकड़ा तिल मेरा आहार था। घोर तपश्चर्या की मैंने, आनंद। दाँतों को भींचकर, जिव्हा को तालु से सटाकर, मन को मन से पकड़ने, दबाने, तपाने से, काँख से पसीना निकलने लगता। कठिन जाड़े की रात में पसीने से नहा उठता। मेरा उत्साह बढ़ता था, जागरूकता बढ़ती थी, परंतु शरीर अशांत हो उठता।

और फिर मैंने नाक से सांस लेना भी छोड़ दिया। कान से वायु ग्रहण करता। ऐसी स्थिति में श्वास-प्रश्वास लेते छोड़ते मुझे तीव्र वेदना होती, वायु-शूल से पीड़ित होने लगा मैं।
शरीर कृष होकर अस्थि शेष रह गया था। मेरे सिर के और शरीर के बाल भी झड़ने लगे थे। दृष्टि मंद होने लगी। चेतना शिथिल होने लगी। शरीर की ग्रंथियाँ बाहर को निकली दिखाई देती। लगता किसी भी क्षण अस्थियाँ तिनके की भाँति बिखरकर अलग हो जाएंगी। उठने-बैठने में भी कष्ट होता। ऊँट के पैर जैसा मेरा कूल्हा हो गया था‌। पेट के काँठों को पकड़ता तो पीठ का मेरूदंड हाथ में आ जाता और पीठ की ओर से मेरूदंड पकड़ता तो पेट की खाल‌ पकड़ में आ जाती थी। शरीर में नित्य कर्मों के लिए भी शक्ति नहीं रह गई थी, ऐसी स्थिति हो जाती कि कभी-कभी वहीं लुढ़क जाता था।

लोग मुझे देखकर डरने लगे थे। मुझे खुद अपने आप से डर लगने लगा था। एक बार तो कुछ लोगों ने समझ लिया कि मैं मर गया। "श्रवण गौतम मर गया"
कोई कहता और कोई कहता " गौतम मरा नहीं है। मरेगा भी नहीं वह। "अर्हत हो गया है गौतम" ऐसा वे कहते। कोई कहता " गौतम विक्षिप्त हो गया है, ध्यानलीन है, " परमहंस गति को प्राप्त है" ऐसा भी कोई कहता।

ऐसा करते हुए इस अवस्था में विचरते हुए मुझे एक बार लगा कि आज तक किसी भी मनुष्य ने जितनी भी कठिन तपस्या की होगी उतनी मैंने कर ली। आजतक किसी ने भी जितनी यातना सही होगी उतनी यातना मैंने सह ली। यदि इससे पूर्व किसी ने खुद को तपाया होगा तो इतना ही तपाया होगा इससे अधिक नहीं। भविष्य में कोई तप सकता है तो इतना ही इससे अधिक नहीं। आज भी कोई खुद को तपा रहा होगा तो इतने पर्यंत ही इससे अधिक नहीं।

और तब मैंने सोचा, इस समस्त वेदना का, आत्मपीड़न का, आत्म दर्शन का उपयोग क्या है! क्या मैं तप के नाम पर अपने अहं की ही उपासना नहीं करता रहा!

आनंद, मुझे वही स्वर अपने भीतर फिर से सुनाई देने लगे जो माता को याद करते हुए तीव्र पीड़ा में जामुन के पेड़ की छाया में सुन पड़ा था। जिस प्रकार सुख की उपासना होती है सुख की आसक्ति होती है, उसी प्रकार दुःख भी उपासना होती है, आसक्ति होती है। अपने को पीड़ित करने वाला अपने वृतियों को स्थिर नहीं करता, अपने मन पर विजय प्राप्त नहीं करता, अपने मल का प्रच्छालन नहीं करता। वह तो मल को ही उपलब्धि मान उसकी उपासना करने लगता है। वह अपनी यातना का भी रस लेता है। यह भी लोभ से प्रेरित होकर करता है वह। भोग चाहे वह सुख का हो या पीड़न का, आत्मतुष्टि का हो या आत्मनिषेध का, वह अपने आप में ही हमारा इष्ट बन जाता है। वह हमारी चेतना पर, हमारी दृष्टि पर, हमारे संज्ञान पर एक पट की तरह छा जाता है। आत्मपीड़न आत्महनन का ही दीर्घ और विस्तृत क्रम है। दोनों हिंसा है। आत्महनन मृत्यु है मुक्ति नहीं। असल में कठोर तप साधना हमारी इंद्रियों को कुंठित कर देती हैं, अशक्त बना देती हैं और हमारे मन में भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि हम अपने आप पर, अपने मन पर और अपने अहंकार पर विजय प्राप्त कर रहे हैं, पर यह विजय नहीं होती, यह आत्म-सम्मोहन होता है। यह ज्ञान की उपासना नहीं हैं, जड़ता की उपासना हैं।

Wednesday, 9 October 2019

रावण किनका जले ?



रावण जले उन हुक्मरानों का भी जो बात तो देश समाज को बचाने की करते हैं और बातें करते करते ही मोटा माल खाने वाले पक्के शोहदे व्यवसायी बन जाते हैं।

रावण जले उन लोगों का भी जिन्हें कायदे से तो सलाखों के पीछे होना चाहिए लेकिन वे समाज के लिए मोटिवेशनल स्पीकर बन कर घूम रहे हैं या फिर प्रवचन‌ बाबा का रूप धारण किए हुए हैं।

रावण जले उन‌ लोगों का भी जो नदियों को, गांवों को, पर्यावरण को बचाने की बात सिर्फ इसलिए करते हैं क्योंकि ऐसा करते हुए वे अरबपति बन जाते हैं।

रावण जले उन‌ लोगों का भी जो मानवता की सेवा करने का ढोंग रचाते हैं, और ऐसा करते हुए मानवता को इस हद तक शर्मसार कर देते हैं कि मानवता इनके सामने आकर खुद ही भीख मांगने पर मजबूर हो जाती है।

रावण जले उन राम स्वरूप ढोंगी देव पुरूषों का भी जो अपने लिए हमेशा एक रावण प्रायोजित कर तैयार रखते हैं ताकि लगातार खुद को राम( दूध का धुला) घोषित करते रहें।