Wednesday, 30 May 2018

Day - 5 with Prince

Last Day

आज पूरे पंद्रह दिन बाद मैं प्रिंस से मिला। निजी व्यस्तताओं के कारण मैं उससे मिल नहीं पा रहा था। बीच में एक दिन समय मिला भी था तो यही सोच के टाल दिया कि दो घंटे तो मेरे ऐसे ही चले जाएंगे। तो आज हुआ यूं कि प्रिंस मुझे देखते ही मुझसे लिपट गया वो भी 40'c की इस भीषण गर्मी में। कहने लगा - कहां थे भैया, नहीं आते हो, फिर वो मेरा हाथ पकड़कर मुझे खींचते हुए अपने किसी डांस क्लास वाली मैडम से मिलवाने ले गया। उसके बाद वह झूला झूलने में मस्त हो गया। प्रिंस की‌ मम्मी यानि दीदी ने बताया कि इस बीच जब मैं गार्डन नहीं आता था तो प्रिंस रोज कुछ समय तक गार्डन में खेलकर वापस चला जाता और जब मम्मी घर वापस आती तो हर रोज मम्मी से यह पूछता कि आज भैया गार्डन आए थे कि नहीं। दीदी ने और बताया कि एक दिन तो ऐसा हुआ कि एक कोई भैया उसे बड़े प्रेमभाव खेलने के लिए अपने पास बुला रहे थे, प्रिंस ठहरा अपनी मर्जी का‌ मालिक, कहां किसी के पास जाने वाला ठहरा, नहीं गया।

मैं - प्रिंस मैं कल जा रहा उत्तराखण्ड। अब और नहीं आऊंगा गार्डन।
प्रिंस - झूठ बोलते हो भैया।
मैं - सच कह रहा हूं।
प्रिंस - फिर मुझे भी ले चलो।
मैं - अगली बार ले चलूंगा फिर।
प्रिंस - नहीं। छुपा के ले जाओ चलो मुझे।
मैं - अभी नहीं अगली बार।

रात के 9 बज चुके थे। गार्डन बंद होने वाला था, अब वह हमेशा की तरह गार्डन से मुझे अपने घर को ले गया। प्रिंस की‌ मम्मी और मैं बैठकर यही चर्चा कर रहे थे कि प्रिंस को आखिर मुझसे इतना लगाव कैसे हो गया। अब जब धीरे-धीरे उस चार साल के बच्चे प्रिंस को ये अहसास होने लगा कि मैं सच में जा रहा हूं, और अब मैं उससे मिलने नहीं आ पाऊंगा तो उसने मेरा हाथ जोर से पकड़ लिया, और फिर छोड़ने का नाम नहीं। वह अकेला नीचे तक मुझे छोड़ने आ गया। मैंने कहा चलो मैं चलता हूं अब मुझे जाने दो। वो बार बार नहीं नहीं नहीं, बस यही बोलता रहा। कभी धीरे बोलता कभी जोर से चिल्लाता, लेकिन मेरा हाथ न‌ छोड़ता। फिर जब मैंने उससे अपना हाथ छुड़ाया, और अपनी बाइक के पास गया, बाइक आॅन कर जब मैं जाने लगा तो वो वह दौड़कर मेरे पास आ गया और बाइक में चढ़ने लग गया। लेकिन मैंने उसे ऐसा करने से रोक लिया तब वो मेरे पास आकर बड़े भोलेपन से कहने लगा, चलो न भैया हम दोनों साथ में कुछ खाएंगे। मैं उसकी बात सुनकर सोचने में मजबूर हो गया। 9:30 बज चुके थे, मैंने कहा, चलो मैं चलता हूं, फिए आऊंगा ठीक है। पता नहीं वो क्या सोच रहा था। एकदम भरी हुई आवाज में उसने मुझसे कहा - "अब आप आओगे तो भी मैं नहीं मिलूंगा देखना" ऐसा कुछ कुछ कहने लगा और फिर फूट-फूटकर रोने लग गया। इतने बुरी तरीके से रोया कि उसकी जुल्फें उसके चेहरे पर चिपकने लगी थी। लगभग 15-20 मिनट तक उसने आंसू बहाया होगा, मैं आराध्या उसकी मम्मी उसे मनाने लग गये, लेकिन उसका रोना बंद ही नहीं हो रहा था, मुझे लगा कि इसका रोना अगर कोई शांत करा सकता है तो वो मैं ही करा सकता हूं, तो जैसे ही मैंने इस जिम्मेदारी को समझा, मुझे एक बढ़िया तरकीब सूझी और उसके बाद वह मान गया और उसका रोना शांत हो गया। और उसने हंसते हुए मुझसे वादा किया कि वह और नहीं रोएगा।

Monday, 21 May 2018

नवरात्र पूजा, भराड़ी मंदिर, मुनस्यारी

नवरात्र की पूजा के लिए हम भराड़ी मंदिर गये थे, यह मंदिर मुनस्यारी से लगभग दस से बारह किलोमीटर की दूरी पर है। यहाँ तक जाने के लिए कोई सड़क नहीं है। आधी दूरी तक यानि पापड़ी-पैकुती गांव तक जाने के लिए गाड़ी से जा सकते हैं, यह सड़क कुछ बहुत अच्छी नहीं है, काफी पथरीली सड़क है। यहाँ से आधे घंटे पैदल चलकर भराड़ी मंदिर तक पहुंचा जा सकता है।
दोपहर को बलि प्रथा शुरू हुई। भराड़ी मंदिर में आंखों के सामने बीस पच्चीस सुंदर सुंदर बकरियों की बलि देखने के बाद मन मसोस कर रह गया था‌, सही गलत कुछ समझ नहीं आ रहा था। इस बारे में कुछ ज्यादा लिखने की इच्छा भी नहीं हो रही है, असमंजस में हूं।
शाम के पांच बज चुके थे। पूजा समाप्त हो चुकी थी। मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ भराड़ी मंदिर से खड़ी चढ़ाई चढ़ते हुए मुनस्यारी की ओर लौट रहा था। यह रास्ता ठीक नंदा देवी मंदिर, डानाधार के पास जाकर खत्म होता है। हमें ये खड़ी चढ़ाई पूरा करने में दो घंटे से अधिक का समय लग गया। मुनस्यारी पहुंचते तक अंधेरा होना शुरू हो गया था, मेरे दोस्त चढ़ाई चढ़ते मुझसे कुछ आगे निकल गये, इस बीच रास्ते में मुझे एक दीदी मिली,
उन्होंने खुद आगे से मुझसे पूछा - भैया आप यहाँ घूमने आए हो?
मैंने कहा - नहीं बस ऐसे ही कुछ महीनों के लिए आया हूं।
दीदी - आप कहां से हो?
मैं - जी मैं छत्तीसगढ़ से हूं।
दीदी - ये कहां हुआ भैया।
मैं - काफी दूर हुआ। तीन दिन लग जाता है यहाँ से जाने में।
दीदी - यहाँ कैसे?
मैं - बस ऐसे ही पहुंच गया। एक कमरा यहाँ किराए पे ले रखा है। समय समय पर बच्चों को पढ़ाता भी हूं। बाकी समय आसपास के गाँवों की सैर करने चला जाता हूं।
दीदी - चलो ठीक ही हुआ। हमको तो अभी जाकर बच्चों के लिए खाना भी बनाना है। घर में दोनों को छोड़कर आई हूं।
मैं - अच्छा, दीदी आपके पति बाहर रहते होंगे फिर?
दीदी - हां दिल्ली रहते हैं, वहीं प्राइवेट में काम करना हुआ। साल में कभी-कभी आ जाते हैं।
मैं - अच्छा‌।
दीदी - आपका बढ़िया हुआ भैया, आप तो जाकर खाना खा के सो जाएंगे‌। हमको तो अभी बच्चों को देखना भी हुआ।
मैं - आप ऐसा क्यों कहती हैं।
दीदी - यहाँ पहाड़ों में तो ऐसा ही हुआ।
मैं - चलिए दीदी जी आप मुझे अपने घर ले चलिए, आपको एतराज न हो तो मैं आप लोगों के लिए खाना बनाना चाहता हूं।
दीदी - नहीं भैया, ऐसी कोई बात नहीं है, मैंने ऐसे ही बता दिया।
मैं - आपने मुझ अनजान को अपना समझकर अपने मन की बात की‌। आपके लिए थोड़ी मेहनत कर लूंगा तो कौन सा थक जाऊंगा।
दीदी - आपने इतना कह दिया भैया। मैं इसे याद रख लूंगी।
मैं - चलिए ठीक है।

और फिर ढाई घंटे की चलाई के बाद हम मुनस्यारी पहुंच चुके थे।





Tuesday, 15 May 2018

A Poem by Kriti Bhargav

ज़ख्म कितने जमाने ने इस दिल को‌ दिए,
आज कोई देखे तो दिखा दूं उसको।

जिंदगी ने करवटें कितनी बदली,
आज कोई पूछे तो बता दूं उसको।

पथरीली राहों पर ठोकरें खाना कोई शिकस्त नहीं,
कोई हारता कहे तो समझा दूं उसको।

मेरे गम की नींद न चुरा पाए,
कोई ग़र है जगा तो बता मैं सुला दूं उसको।

हर शख्स कुछ खोजता है और खो जाता है,
न खोजता कोई मिले तो मैं खुदा दूं उसको।

तपती जमीं को सावन ने महका दिया मगर,
सावन से कोई जले तो मैं टूटा अरमान दूं उसको।

सुनाए जब दर्द कोई, दामन छीन लेने का अपने,
मैं कफन न देने वाले का शुक्र सीखा दूं उसको।

गिरते गिरते उठ पाने का, साहस खो चुका जब कोई,
थाम बांह उसकी, दे मेरे हाथ मैं, किसी का साथ दूं उसको।

एक तू ही नहीं, खफा और भी हैं जमाने से,
जो दे दर्द तुझे, तू न दे आंसुओं के समंदर उसको।

Sunday, 13 May 2018

Day - 4 with prince


प्रिंस - ऐ! मोटा भाई मैं खाना खा खा के बर्बाद हो गया।
मैं - बागबान‌ देख के आए हो क्या प्रिंस? और ये खाना खाकर कैसे बर्बाद होते हैं?
प्रिंस ( एक्सरसाइज के दौरान हंस हंस के अपना पेट दिखाते हुए) - ये देखो ये, मोटा हो गया मैं, आपके जैसे फिट नहीं हूं, मेरे पापा भी आपकी तरह फिट नहीं है। पापा तो पानी पी पी के बर्बाद हो गए , मोटे हो गए। हाहाहा।
ये सब सुनकर बाजू में खड़े एक अंकल अपनी हंसी‌ नहीं रोक पाए। आज ये लड़का कुछ भी कुछ कहे जा रहा था।

अब गार्डन से वापस घर जाने का समय हो गया था।
प्रिंस कहता है - भैया आप चले जाते हो, फिर मैं आपके बारे में ही सोचते रहता हूं, नींद नहीं आती।
मैं - चल झूट्ठे।
प्रिंस - सच में नींद नहीं आती‌।
मैं - क्यों नहीं आती।
प्रिंस - आप साथ में रहते हो तो अच्छा लगता है न इसीलिए।


In Picture - Left to Right (Me, Prince, Aradhya, Ananya)

Saturday, 12 May 2018

Day- 3 with Prince



मैं - चलता हूं, पानी का क्या है, कभी भी पी लूंगा।
प्रिंस - आप कल भी ऐसे ही बोले थे‌ और चले गये थे, आज तो चलो।
मैं - अच्छा मैं यहीं नीचे हूं, जाओ ऊपर से मेरे लिए पानी लेकर आओ।
प्रिंस - गिलास यहाँ नहीं आएगा चलकर, उसके लिए ऊपर जाना पड़ेगा।
ठीक कुछ ऐसा ही उसने कहा और फिर मैं और उसकी मम्मी हंसने लग गये। दीदी ने भी कहा कि चलो आओ पानी पी लेना फिर जाना। और इसके बाद प्रिंस मेरे पेंट की जेब पकड़ कर मुझे खींचते हुए अपने घर ले गया। और उनके घर के बाहर बालकनी में जैसे ही मैं बैठा, वो अपनी मम्मी को चिल्लाकर आॅर्डर देने लगा कि भैया के लिए पानी लाओ। अब वो मेरी दी हुई डेरी मिल्क चाकलेट जो गर्मी की वजह से पिघल चुकी थी, उसे वह उतने ही समय खाने लग गया। ऊंगलियों में सानकर, चेहरे में यहाँ-वहां लेपते हुए वह बुरी तरीके से चाकलेट खाने लगा। मैं, आराध्या और उसकी मम्मी हम सबने मिलकर बारी बारी से उसका खूब मजाक बनाया कि अभी गार्डन से आया है तू, हाथ नहीं धोया है गंदे, रेत का फ्लेवर खा रहा, घास का फ्लेवर खा रहा, धूल मिट्टी का फ्लेवर खा रहा आदि आदि। प्रिंस हंसने लग जाता, और बेफिक्र होकर फिर से ऊंगली चाट चाटकर खाने लग जाता। चाकलेट खाने के बाद जब वो घर के अंदर हाथ धोने गया तो उसने अपनी मम्मी को कहा- मम्मी मैं अभी आया, भैया का ख्याल रखना। जाना मत भैया, अभी आया। ये सब सुनकर आराध्या ने झुंझलाते हुए कहा - भैया, ये मुझसे इतना प्यार क्यों नहीं करता, मेरे से तो बस लड़ता रहता है हमेशा।
फिर मैंने आज प्रिंस को कहा - मैं कुछ दिन बाद चला जाऊंगा, मेरी ट्रेन है, तुम फिर कैसे करोगे।
प्रिंस - मैं भी आपके साथ उस ट्रेन में जाऊंगा।
मैं - उस ट्रेन में बच्चों को नहीं ले जाते।
प्रिंस - फिर मैं मम्मी पापा को साथ ले जाऊंगा न।
मैं - इसकी हाजिरजवाबी देखकर तो मैं पहले दिन से ही हैरान हूं। फिर मैंने उसे कहा कि ये जो तुम्हारे लंबे घुंघरालु बाल हैं ना, इसके कारण तुम्हें नहीं जाने देंगे।
प्रिंस - सच में नहीं जाने देंगे।
मैं - हां सच में‌।
प्रिंस - तो फिर मैं बाल कटवा लूंगा।
ऐसा बोलते ही वो खिलखिलाकर हंसने लग गया। 

Friday, 11 May 2018

Day -2 with prince



                                इसके घर का नाम प्रिंस है। ये आज फिर खींच के मुझे अपने घर ले जा रहा था। मैंने मना कर दिया। आज गार्डन में इसकी दादी नहीं आई थी लेकिन इसकी बड़ी बहन आराध्या साथ आई थी। आराध्या अभी 5th क्लास में है, बहुत ही तेज है। वो बोली कि भैया आपके बारे में न दादी मुझे बताई। जिस दिन आप दादी से, प्रिंस से, मम्मी से सब से मिले थे न उसी दिन घर में बात हुई। मैंने कहा अच्छा क्या बताई। दादी ने बताया कि एक भैया हैं कोई, यहाँ अभी कुछ दिन के लिए ही हैं, फिर चले जाएंगे। और आप अभी जहाँ रहते हो, पता नहीं क्या नाम बताई वहाँ गर्मी में भी कंबल ओढ़ना पड़ता है, बहुत ठंडा ठंडा होता है। और दादी बताई कि प्रिंस आपको अचानक ही देखकर आपके साथ खेलने लग गया था, और भी बहुत कुछ बता रही थी कि एक अच्छे अच्छे वाले ही भैया हुए आप, दादी वैसा ही कुछ कह रही थी पता नहीं, अभी आप मिले तो लग रहा जैसा दादी ने बताया बिल्कुल वैसे ही हो आप। आराध्या हंसते मुस्कुराते हुए एक कहानीकार की तरह ये बातें मेरे सामने मुझसे कह रही थी। मुझे ये जानकर बड़ा ताज्जुब हुआ कि उस दस साल की लड़की को दादी ने जो भी बताया होगा मेरे बारे में, वो सब कुछ उसे मुंह जुबानी याद था, मुझे देखते ही वो लगातार बोलने लग गई।

गार्डन में आधा घंटा खेलने के बाद जब हम लौटे तो फिर से प्रिंस गार्डन से अपने घर के गेट तक मुझे खींचते ले गया। फिर वही रट लगाने लगा, घर चलो, घर चलो।
मैंने उससे आज कहा - क्यों। वजह बताओ।
उसने बड़े सरल भाव से कहा - ऐसी बैठना थोड़ी देर हम लोग के साथ।
मैंने कहा - लेट हो रहा है, कल आता हूं।
प्रिंस ने कहा - पानी ही पी लेना साथ में एक गिलास।
मैंने कहा - चलो कल आता हूं, दो गिलास एक साथ पी लूंगा, ठीक है।
इसके बाद वो मान गया।
मैं गार्डन के पास अपनी गाड़ी लेने गया, तब तक वे ऊपर अपने घर को जा चुके थे। बाइक आॅन करके जब मैं उनके घर से गुजरा तो आराध्या प्रिंस और उनकी मम्मी तीनों बाल्कनी में खड़े होकर हाथ हिलाकर अलविदा कर रहे थे, हां चिल्ला कर बाॅय बोलने वाला एक ही था; "प्रिंस"।

Friday, 4 May 2018

~ दो अजनबी ~


अभी कुछ देर पहले एक गार्डन में टहलने गया था, गार्डन में बहुत से बच्चे थे, उस गार्डन के गेट में जैसे ही घुसा वहीं मुझे एक बच्चा मिल गया जो पता नहीं क्यों मुझे देखते ही खुद ही मेरा हाथ पकड़ कर टहलने लग गया, अपना नाम खुद ही बताने लग गया। अपनी मां और दादी के साथ आया था लेकिन उनको पीछे छोड़ मेरे साथ तेजी से चलने लग गया। वो बच्चा चार साल का था, उस अनजान बच्चे को और मुझे मिले अभी तीस सेकेंड भी नहीं हुए थे और वो मुझे ये कहने लगा कि बोलो आप क्या खाओगे, आपके लिए घर में क्या बनवाऊं, चलो आप चलना मेरे साथ घर, हम दोनों साथ में खाएंगे। उसकी बातें सुनके मैं तो सोच पड़ गया कि ये क्या हो रहा है। वो बच्चा मेरे साथ खेलने लग गया, मैं जैसा करता वो भी वैसे ही देखकर करने लग जाता। मेरे साथ पुश अप्स करने लगा, दौड़ने लगा, दंड बैठक करने लगा, योगासन करने लगा। एक बार तो उछल कूद करते जोर से गिर भी गया, हाथ पांव छिल गये, लेकिन जैसे ही मैं दौड़कर उसके पास गया और उसकी आंखों में देखकर मुस्कुराया तो वो जो फूट-फूट के बस रोने ही वाला था, अब हंसने लग गया और अपना सारा दर्द भूल गया और फिर से मेरे साथ खेलने लग गया, गार्डन में यहाँ से वहाँ पकड़ पकड़ के मुझे ले गया‌‌। उसकी मम्मी और दादी भी बस एकटक देखते ही रह गये कि कैसे एक अनजान के साथ इतना घुल मिल गया है, मुझे भी बराबर हैरानी हो रही थी। एक बार वो एक मशीन को पकड़ के एक्सरसाइज कर रहा था फिर उसी समय मेरा एक फोन आया तो मैं जैसे ही थोड़ी दूर चलकर गया, उतने में ही उसने चिल्लाकर कहा कि मैं जब तक ये कर रहा हूं आप यहीं रहना पास, जबकि उसकी दादी वहीं पास में थी।
पूरे एक घंटे तक मैं उसके साथ रहा, चाह के भी उससे खुद को अलग नहीं कर पाया, उसने ऐसा होने ही नहीं दिया, उसकी सारी हरकतें देखकर ऐसा लग रहा था कि शायद मैं भी तो बचपन में ऐसा ही रहा होऊंगा।
जब हम गार्डन से जा रहे थे तो उसने अपनी मम्मी का हाथ पकड़ने के बदले मेरा हाथ पकड़ लिया, मैंने कहा कि चलो अब मैं जाता हूं, फिर भी वो नहीं नहीं करने लग गया, आखिर में वो मुझे अपने घर लेकर ही माना। उन्होंने मुझे चाय के लिए पूछा, चाय पीता नहीं इसलिए मैंने मना कर दिया, फिर पानी पी लिया, और कुछ देर बातें हुई। एक कहानी की तरह ये सब कुछ अपने आप हो रहा था। उस चार साल के बच्चे के हिसाब से ही तो हो रहा था ये सब, शायद हम उसी के इशारों में नाच रहे थे।
अब उसकी मम्मी ने मुझसे कहा कि पता नहीं आजतक किसी अनजान से इतना घुला मिला नहीं है, आज ऐसा क्या हुआ है इसे पता नहीं आपमें ऐसा क्या देख लिया इसने कि घर तक खींच लाया। वो बच्चा वहीं था, मैंने भी उससे पूछा कि कैसे मैं ही क्यों दिखा तुमको गार्डन में, और भी तो लोग थे, मेरा ही हाथ क्यों पकड़ लिये, मैं तुम्हें नुकसान पहुंचा देता तो, तुम तो मुझे जानते भी नहीं हो न, पहली बार मिले हो, उसने प्रतिक्रिया में बड़ी गंभीर मुस्कुराहट फेर दी, जिसे सिर्फ मैं ही देख पा रहा था, समझ पा रहा था‌। फिर उसकी दादी ने कहा कि बोल भैया अच्छे हैं क्यों इसलिए? तो उस बच्चे ने सर हिलाते हुए हां किया।
फिर मैंने थोड़ी देर बाद वहां से विदा लिया।
हमेशा की तरह मैं उन सभी लोगों के बारे में कुछ भी नहीं पूछा, उस बच्चे की तस्वीर तक नहीं ली, बस उसने अपना जो नाम शुरूआत में बताया था सम्राट वही याद है। कई बार हालात ऐसे होते हैं कि आप उसमें ऐसे खो‌ जाते हैं कि फिर आपको ये ख्याल ही नहीं आता कि आपको तस्वीर भी लेनी थी।
खैर....

अधिकतर ऐसा हुआ है कि जब मैं कुछ परेशान सा रहता हूं। जब मन में तरह-तरह के सवाल घूमने लग जाते हैं कि अब समय के मुताबिक तुम्हें भी ढल जाना चाहिए। ढोंग, स्वार्थ, लिप्सा, बाजारवाद आदि आदि गुणों का समावेश कुछ मात्रा में ही सही, कर लेना चाहिए, नहीं तो जीना दूभर हो जाएगा। जब-जब टूटने को होता हूं ढेरो सवाल मन में चलते रहते हैं और तब तब पता नहीं क्यों उसी वक्त ऐसे वाकये अनायास ही होते जाते हैं। मैं समझ नहीं पाता कि ऐसा कैसे होता है, क्यों होता है, किसलिए होता है, और मेरे साथ ही अधिकतर ऐसा कैसे हो जाता है। वैसे ये सब होने के बाद एक अच्छी चीज ये होती है कि मैं काफी हल्का महसूस करता हूं। ऐसा लगता है कि किसी ने मेरे अंदर तक पहुंचकर मुझे शांत करने की कोशिश की हो।

Thursday, 3 May 2018

क्या स्वच्छता को जीवन में उतारना सचमुच इतना आसान है?


                          इस झोले में सिर्फ प्लास्टिक की थैलियाँ हैं, कितनी थैलियाँ होंगी क्या मालूम लेकिन आज अचानक उठाकर देखा तो पता चला कि वजन 5 किलो से भी अधिक होगा। ये थैलियां मेरे द्वारा पिछले लगभग दस महीने में इकट्ठी की गई है। मैंने ऐसे ही‌ एक दिन सोचा कि अब से एक भी प्लास्टिक की थैली कहीं बाहर नहीं फेकूंगा, न ही कूड़ेदान में डालूंगा। शुरूआती कुछ दिनों में तो बहुत आसान लगा, लेकिन धीरे-धीरे समझ आया कि स्वच्छता को जीवन में उतारना वाकई बड़ी सजगता का काम है। यानि आप दिन भर से थक कर घर लौट रहे हैं तो भी आपको प्लास्टिक की थैली को अपने जगह रखना है, आपका मन ठीक है, शरीर ठीक नहीं है, फिर भी आलसीपन में प्लास्टिक की थैली इधर-उधर नहीं कहीं भी नहीं फेंक देना है‌, चाहे कैसी भी परिस्थिति आए आपको हमेशा अपना ये एक काम छोटा सा काम करते रहना है। कभी-कभी तो ऐसा हुआ कि जैसे अमूमन कपड़े धोते वक्त लोगों की जेब से कोई कागज का टुकड़ा या नोट निकलता है, मेरी जेब से अधिकतर प्लास्टिक की थैलियां निकल ही जाती। मैं जहाँ जाता, प्लास्टिक की थैली अगर मेरे इस्तेमाल में आती तो उसे अपने जेब में ही रख लेता और इस वजह से मुझे हंसी का पात्र बनना पड़ता, ऐसा कई बार हुआ लेकिन प्लास्टिक की थैलियां इकट्ठी होती रही। उन प्लास्टिक थैलियों में जो बहुत साफ सुथरी और अच्छी स्थिति में थी, मैंने उन्हें फोल्ड करके कुछ एक सब्जी बेचने वालों को देना शुरू किया, लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि कुछ लोगों ने लेने से मना कर दिया, फिर कुछ लोगों ने भरोसा किया और ले लिया। महीनों गुजर गए, अब ये थैलियां इकट्ठा करना धीरे-धीरे मेरी दिनचर्या का हिस्सा बन गया या यूं कहें कि आदत में ही शामिल हो गया है। मेरी देखादेखी में मेरे आसपड़ोस के भाई दोस्त यार भी कुछ हद तक ये काम करने लगे। कुछ एक दोस्त लोग सप्ताह भर तक थैली इकट्ठा करने के बाद कहते कि इससे कौन सा क्या हो जाएगा, और इसको इकट्ठा करके क्या कर लेंगे। मेरे पास ऐसे सवालों का एक ही जवाब है कि हमें अपने हिस्से के काम को करने के लिए बहाने तलाशना छोड़ देना चाहिए। हर चीज में क्या क्यूं कैसे की आदत छोड़ कुछ ऐसे काम इसलिए भी कर देने चाहिए ताकि हमें अपने इंसान होने का बोध होता रहे।