Saturday, 16 September 2017

- हवा और पानी -

                                पिछले दो-तीन दशकों की अगर बात करें तो पर्यावरण को हानि पहुंचाने के आंकड़ों में जबर्दस्त इजाफा हुआ है। आपके-हमारे सामने ये साफ दिख भी रहा है। एक भी ऐसा शहर(छोटा, बड़ा कोई भी) नहीं बचा जहां का पानी बिना फिल्टर किए पिया जा सके। हवा दिन-पर-दिन खराब होती जा रही है। आखिर इंसान होने के नाते हमारे जीने के लिए सबसे बड़ी जरूरत क्या है, सबसे बड़ी चीज हवा, उसके बाद दूसरी सबसे महत्वपूर्ण चीज पानी। इन दो चीजों की प्रतिपूर्ति के बाद तीसरा है भोजन। तीसरे घटक की गुणवत्ता पहले और दूसरे घटक पर निर्भर करती है। इतनी सामान्य सी बात हम क्यों नहीं समझ पाते हैं। आज गाड़ी उल्टी चल रही है, आज मनुष्य का सबसे अधिक जोर भोजन और रहन-सहन रूपी घटकों पर दिखाई देता है। क्या ये चिंतायोग्य विषय नहीं है?
                                 हमारी पढ़ाई-लिखाई, उपाधियां, योग्यताएं सब धरी की धरी रह जाती हैं। कुछ भी तो काम नहीं आ रहा। बात करने के लिए हमारे पास ढेर सारा किताबी आदर्शवाद है। रटी-रटाई परिभाषाएं हैं। बुद्धि और चेतना के स्तर पर हम मनुष्यों को पशुओं से कहीं ज्यादा कुशल माना जाता है। लेकिन इस बात को कहने में किसी भी प्रकार का संकोच नहीं कि भोग और लिप्सा से युक्त आज मनुष्य पशुओं से भी बदतर हो चला है। उसकी लगभग हर एक दैनिक गतिविधि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली बन चुकी है। और जब मुख्यधारा में यही ट्रेंड चल रहा है तो सरकारें भी अधिकतर पर्यावरण विरोधी नीतियाँ बनाती चली जा रही है और हमें दिखाई भी नहीं दे रहा।
                                  आज फिल्म निर्देशक सामाजिक समस्याओं चोरी, डकैती, बलात्कार, मारकाट, अपहरण, भूखमरी, शिक्षा सुधार, भष्ट्राचार आदि तरह तरह के विषयों पर फिल्म बनाते हैं। पिछले दो दशकों से ऐसी फिल्में लगातार बन रही हैं, वाह! कितने संवेदनशील डायरेक्टर हैं, वे फिल्म बनाते हैं और हम उतने में ही सीमित,उतने में ही खुश। गाड़ियां ब्लास्ट होकर हवा में उड़ रही हैं, बंदूकें चल रही हैं, गोलाबारूद दागे जा रहे हैं।अपहरण, मारपीट और हत्या के नये-नये तरीके इजात कर लिए गए हैं। ऐसे न जाने कितने अद्भुत शौर्य प्रदर्शन। और हिंसा की मात्रा पहले से कहीं अधिक। ऐसी फिल्में चल रही हैं और हम सीना पीट-पीटकर देख रहे हैं। ऐसी चीज देखकर आज हमारे बच्चे बड़े हो रहे हैं। लोगों को अंदाजा भी नहीं है कि ऐसे हिंसक दृश्य हमारे मनोविज्ञान में कितने गहरे तक असर छोड़ जाते हैं।
                                   सिविक सेंस का भ्रूण ही मार दिया आपने और अब करवाइए आप ऐसे बड़े होते युवाओं से पर्यावरण संरक्षण, करिए रैलियाँ, लगवाइए लाखों पौधे। ये तो वही बात हुई न कि हमें तो बच्चे पैदा करना आता है लेकिन उन बच्चों का लालन-पालन और उनकी परवरिश कैसे करनी है इसका क,ख,ग भी हमें नहीं मालूम।
                                  ध्यान से देखा जाए तो पिछले दशक भर में एक भी ऐसी फिल्म बालीवुड, हालीवुड में, कहीं पर भी नहीं बनी जो इस मूल समस्या पर लोगों का ध्यान खींच सके। बने भी कैसे, ये विषय इतना बड़ा है कि खून पसीना एक कर धरातलीय प्रयास करना पड़ेगा तब जाकर ही कुछ होगा।
                                  हमारी सरकारें या हम(जनता)ये क्यों नहीं समझते कि जहां हवा और पानी का मामला ठीक हो जाए, वहां कृषि और स्वास्थ्य को लेकर कुछ करना ही नहीं पड़ेगा। आधा काम ऐसे ही हो जाएगा। कितने मुद्दे यूं एक झटके में स्वतः ठीक हो जाएंगे। लेकिन अब तो ये आदर्शवादी बातें भर हैं। क्योंकि हमने, हमारी भूख ने, नाशकारक होड़ ने कुछ ही दशकों में नदियां सूखा दी, तालाब पाट दिए, जंगल के जंगल खा गये हम। तो अब हम ऐसी नीतियाँ बनाएंगे कि लोगों की क्षणिक भूख शांत हो सके। हम जंगलों की कटाई-छंटाई कर लोगों के लिए पार्क, सफारी बनवाएंगे, उनके मनोरंजन के लिए जंगली जानवर इकट्ठे किए जाएंगे। चूंकि हम बहुत ही ज्यादा समझदार, सभ्य और बुध्दिमान हो चुके हैं तो हम नदियों तालाबों और भूमिगत जल के अन्य स्त्रोतों को किनारे कर वाटर पार्क बना देंगे। जगह-जगह फव्वारे लगाएंगे क्योंकि इससे हमारे शहर की रौनक बढ़ेगी, लोग बाहर से आएंगे, देखकर हमारी प्रशंसा करेंगे। भई वाह! क्या सभ्यता की निशानी दे रहे हम हमारी आने वाली पीढ़ी को। आने वाली पीढ़ी तो बस पांव धो-धोकर पीयेगी।
                                 अब क्या यह लिख कर बताना पड़ेगा कि जिन जगहों पर हवा और पानी साफ है वहां के लोगों को किसी प्रकार की कोई गंभीर बीमारी नहीं होती। वहां लोग ज्यादा खुशी से जीवन यापन करते हैं। इतनी छोटी सी बात को आगे बढ़ाने में हम कैसे चूक गये।
                                 अब चूंकि हम इतने महापंडित और ज्ञानी हैं कि हमने शहर बनाए, मेट्रो बनाए, आज डिजिटल कर दी लोगों की जिंदगी, तमाम सुविधाएं मुहैया करा रहे, स्मार्ट सिटी बना रहे। लेकिन क्या कोई ऐसी सरकार है जो ये बता सके कि क्या कोई ऐसा शहर बनाया जो अपने नागरिकों को मुफ्त में साफ पानी मुहैया कराता है, सांस लेने लायक साफ हवा दे पाता है। देखा जाए तो आज इन दो चीजों के अलावा सरकार हमें सब कुछ दे रही हैं, उठाइए हाथों-हाथ। धूम मचा दीजिए। जैसी हमारी भूख, वैसी सरकार की नीतियाँ। करते रहिए देश की ऐसी की तैसी। कौन रोक रहा है।

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