Monday, 25 September 2017

रफ कॅापी Part - 2

महीने भर बाद अनिरुद्ध फिर एक दूसरे नंबर से शालिनी से बात करने का प्रयास करता है। तीन चार बार मनाने बुझाने के बाद शालिनी उसकी बात सुनने को राजी हो जाती है।

अनिरुद्ध - तुम मेरे लिए इतना समर्पित हो। मैं तुम्हारी भावनाओं का सम्मान करता हूं। पर अभी कहीं से भी मैं इसको संभालने की स्थिति में नहीं हूं ये तुम भी समझती हो। मेरे ऐसे समय में तुम्हारा बेमन से मुझसे बातें करना मुझे ठीक नहीं लगता। तुम इतना गुस्सा क्यों करने लग जाती हो। फिर जब मैं बात नहीं करुंगा  तो फिर दुखियारी की तरह आंगन में बैठे मुझे याद करने लगोगी। क्यों बेवजह इतनी तपस्या करती हो। खुशी-खुशी बात कर लिया करो।

शालिनी - आपने इस बीच मेरी खामोशी नहीं समझी है तो फिर बात करने का फायदा ही क्या है। आप किस तरह से मुझसे बात कर रहे हैं आप देख लीजिए। कहीं से भी नहीं लगता कि आप मेरे हालात को समझ भी पा रहे हैं। मेरे मन में जो आपके प्रति भावना बस चुकी है वो अब सांस छीनते तक जायेगी नहीं, आप फैसला कर लीजिए आप मेरा ये प्रेम संभाल पायेंगे या नहीं। मानती हूं आप पर बड़ी जिम्मेवारियां हैं, लेकिन आप ये भी तो देखिए कि आप बड़े-बड़े फैसले ले लिया करते हैं और यूं चुटकियों में सब ठीक भी कर लेते हैं, लेकिन जैसे ही मेरी बात आती है पता नहीं आपको क्या हो जाता है। आप मुझे लेकर इतने ढीले क्यों पड़ जाते हैं मुझे समझ नहीं आता।

अनिरुद्ध - मैं ढीला नहीं पड़ा हूं। पहाड़ का खून आज भी मेरे रगों में उतना ही बहता है जितना पहले था। रूंजू-चंचल की प्रेम कहानी की तरह मैं भी जीवन के उतार-चढ़ाव, सारे बहाव झेल लूंगा। पर समय के खेल को मैं समझ नहीं पाता इसलिए कहता हूं कि तुम किसी को हां कर अपना जीवन बसा लो यानि और कितना इंतजार। तुम्हारा ऐसे खामोशी से इंतजार करना मुझे डराया है। कितनी यातनाओं से, लड़ाईयों से, घटनाओं से मैं आये रोज गुजरता रहता हूं, कितनी अनिश्चितताओं से भरा ये मेरा जीवन हो चला है, तुम इस बात को खूब समझती हो। और शालिनी तुमने जो ये जिद पकड़ ली है कि मैं कितने भी साल इंतजार कर लूंगी ये आज के समय में कहीं से भी मुझे ठीक नहीं लगता और ये रफ कापी को हटा दो हमारे बीच से। बचकानी हरकत के सिवा और कुछ नहीं लगता मुझे ये। ऐसी छिछली भावनाओं से तुम्हें सिवाय तकलीफ के और कुछ नहीं मिलेगा।

शालिनी - मेरी मर्जी मैं जो भी करुं उस रफ कापी के साथ। आप कौन होते हैं मुझे नीति सिखाने वाले। आप सिर्फ बातें बना रहे हैं और मुझे पता है आप मेरे शहर को कभी नहीं लौटेंगे, हां अब तो मैं ऐसे ही कहूंगी, इसे ही आज से आखिरी सच मान कर चलूंगी।
और ये रफ कापी इससे आपको क्या दुश्मनी है। यही तो आपकी एकमात्र निशानी है इसे अगर मैंने अपनी खुशी के लिए रखा हुआ है तो आपको क्या तकलीफ है।सुनिए, अब आप मेरे शहर को लौटेंगे तो भी मैं न मिलूंगी, क्योंकि मैं भी अपना शहर छोड़ चुकी हूं,मर जाऊंगी पर अपना सही पता नहीं बताऊंगी। देख लीजिएगा आप ढूंढते रह जाएंगे फिर भी न मिलूंगी।

अनिरूध्द - मैं क्यों ढूंढने लगा तुम्हें? और तुम्हें अगर उस कापी में मेरी झलक मिलती है तो अकेले संभालो, इससे ज्यादा और कुछ नहीं।

शालिनी - तो फिर आज के बाद कभी मत पूछिएगा कि मैंने वो कापी रखा है या नहीं। ये सोच लीजिएगा कि मैंने वो कापी जला दी है।
अब रखिए फोन, मत कीजिएगा मुझसे बात। मैं नंबर ब्लाक करते-करते थक चुकी हूं।
और फोन फिर से कट जाता है।
और शालिनी के ब्लाक लिस्ट में फिर से एक नया नंबर आ जाता है।

Sunday, 24 September 2017

- दिखाई ना देने वाले रेप -

                   भारत में आये दिन रेप होते हैं। कभी हिंसा की मात्रा अत्यधिक होने पर, कभी कुछ नये तरीके से इस घटना के घटित होने पर या अन्य किसी कारण से जब रेप होता है तो हम देखते हैं कि मामला जन-जन तक अपनी पहुंच बना लेता है। हमें खबरें मिलती है, हम अपने-अपने तरीके से संवेदना जाहिर करते हैं और रेप के कारणों को बिना समझे सख्त कानून की मांग करने लग जाते हैं। जबकि हमने कभी इस समस्या को जड़ से समझने का साहसिक प्रयास नहीं किया होता।

सामान्य समझ के आधार पर हम देखें तो रेप का मतलब हमारे लिए ये होता है कि जैसे--
- एक व्यक्ति ने किसी महिला को अकेले पाकर उसकी अनुमति के बिना, शारीरिक बल या हिंसा के माध्यम से उसकी अस्मत लूटी और भाग निकला,या फिर एक और पहलू ये कि जैसे लोगों की भीड़ ने नशे या आवेश में आकर अपने क्षणिक सुख के लिए किसी महिला को जबरन घेरा और जानवरों की तरह नोच डाला। इस तरह की जो भी घटनाएँ हमारे आसपास घटती है उसे हम रेप कहते हैं। और फिर अमुक व्यक्ति को सजा-ए-मौत दिलाने की मांग करने लग जाते हैं।

लेकिन ये सजा की माँग करने वाले लोग हैं कौन?
आप और हम।
हां आप और हम जिसने कभी ऐसी समस्याओं को जड़ से समझने का न तो कोई भगीरथ प्रयास किया और न ही इसके समाधान की ओर कभी ध्यान दिया। हमारे लिए रेप के मायने सिर्फ उतने ही हैं जितना ऊपर अभी लिखा हुआ है। असल में रेप की जड़ यहाँ ऐसे किसी एक घटना से जुड़े कारणों में है ही नहीं। रेप का जड़ हमारे आसपास गली मोहल्लों में होता है, आपके हमारे घर में इसका बीज तैयार होता है।
हम खुद आए दिन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी न किसी का रेप कर देते हैं इसलिए हमें इसका समाधान दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता या यूं कहें कि असंभव सा लगता है।

अब सवाल ये आता है कि भई हमने तो किसी के साथ जोर जबदस्ती की नहीं तो फिर हमसे कैसे रेप हो गया।
हां तो सुनिए ---

- रेप तब भी होता है जब एक लड़की को उसके मनमौजी अंदाज से, श्रृंगार के तरीकों से, लड़कों के साथ घूमने से, ज्यादा बोलने या कम बोलने से और ऐसे अन्य कई कारणों से संदेह किया जाता है, सवाल किया जाता है या तमाम तरह की अटकलें लगाई जाती है।

- रेप तब भी होता है जब रोड पर खड़ी हुई लड़की को एक इंसान के दर्जे से हटाते हुए हम आंखों से ही उसे खा जाते हैं और उसे इतना असहज कर देते हैं कि वह नजरें छिपाकर भागने लगती है।

- रेप तब भी होता है जब कोई महिला किसी एक अन्य महिला के शारीरिक बनावट को लेकर चर्चा करती है, उसके चाल चरित्र और पहनावे को लेकर विमर्श करती है। और ये महिलाएँ कौन होती हैं?
उत्तर बहुत ही स्पष्ट है- आपकी हमारी माताएँ, बहनें।
पुरुष निर्वस्त्र कर रेप करते हैं और महिलाएँ चरित्र की परतें छीलकर।

- रेप तब भी होता है जब महिलाएँ अपनी आत्मश्लाघा(अहं) और असुरक्षा के तुष्टीकरण के लिए बातों से ही लड़कियों की इज्जत लूट लेती हैं। इन महिलाओं पर दैवीय कृपा बरसती होगी तभी तो ये महिलाएँ इतनी दिमागदार होती हैं कि किसी लड़की या अन्य किसी महिला को बिना देखे भी उसका चरित्र का निर्धारण कर लेती हैं।

                    ऐसे रेप आए रोज होते रहते हैं लेकिन ये सब हमें कभी दिखाई नहीं देता क्योंकि हमने इसे कभी रेप, रेप छोड़िए हमने इन चीजों को कभी एक समस्या के तौर पर देखा ही नहीं। यानि जब कोई पेड़ जहरीले फल देता है तो हमें फल या डालियों को काटने में समय जाया न करते हुए क्यों नहीं सीधे जड़ उखाड़ने का प्रयास करना चाहिए। हां जड़ उखाड़ने में समय लग सकता है लेकिन अगर इससे हमें इस सामाजिक विद्रूपता से निजात मिलती है तो क्यों नहीं हमें इस ओर कदम बढ़ाना चाहिए।

Thursday, 21 September 2017

बड़े भाई को पत्र -

प्रणाम दा,
आशा है घर पर सब ठीक होंगे। अब तो भतीजा आयुष यहाँ से वहाँ दौड़ रहा होगा। भाभी दीदी भी अच्छे होंगे। और शायद आपके कंधे का फ्रेक्चर भी अब ठीक हो गया होगा। तारा, सुरेश, मनोज, भुप्पी, कैलाशदा, जीत्तूदा, हरीशदा, मामू, लालाजी  और आप सभी को नवरात्रि की शुभकामनाएं।

                      मैं बहुत समय से सोच रहा था कि आपको कुछ लिखूं लेकिन मुहूर्त नहीं बन पा रहा था। कल जब आपने अपने दुकान में हुई चोरी के बारे में बताया तो आंखें चौंधिया गई। मैं रात भर खुद से सवाल करता रहा कि
-क्या सच में ये वही मुनस्यारी है?

वो तो अच्छा हुआ कि आपने बदलते समय की मांग को देखते हुए अपने दुकान में कुछ महीने पहले ही सीसीटीवी लगा लिया और आपको आपका सामान वापस मिल गया। खैर इसमें चोरी करने वाले को मैं उतना दोष नहीं देता, मामला सांस्कृतिक हमले का है, चोरी करने वाला अगर मुनस्यारी का होगा भी तो भी मैं उसे मुन्सयारी का नहीं मानता। यानि जिसके रग-रग में मुनस्यारी का खून होगा और जो यहां की संस्कृति में पला बढ़ा है, उसके मन में ऐसे काम करने का ख्याल आ ही नहीं सकता, असंभव है। चोरी करने वाले को तुरंत समझाइश देकर पहाड़ से दूर मैदानों में भेज देना चाहिए, ऐसे लोग पहाड़ में रहने लायक नहीं हैं। इस एक मामले में कोई रहम, कोई दया नहीं ऐसा मुझे लगता है।
               दा, साल 2015 में जब मैं पहली बार मुनस्यारी आया, मैं किसी को जानता तक नहीं था। आपसे भी पहली बार मिला। शायद सप्ताह भर आप लोगों के साथ रहा फिर वापस दिल्ली आ गया था। मुझे आज भी याद है मैं रात को मुन्सयारी पहुंचा था। अगले दिन सुबह जब हम आपके कमरे से फ्रेश होकर शाॅप की ओर निकलने लगे तो मैंने आपसे पूछा कि लाक नहीं लगाओगे क्या, अरे सिटकनी तो लगा लो कम से कम। आपने उस समय कहा था कि " अखिलेश ये मुनस्यारी है "।

दूसरे ही दिन आपकी दुकान पर बैठा था, आपने मुझे काउंटर में बैठा दिया और शायद कुछ काम से चले गये, पैसे रखने वाली तिजोरी भी जस की तस खुली थी। एक मैं अनजान जिसे आपसे मिले सिर्फ एक दिन हुआ है उसे आप काउंटर संभालने के लिए बोलकर घंटे भर के लिए निकल जाते हैं। मुझे उस समय ऐसा लग रहा था कि मैं सपना देख रहा हूं। फिर मैंने देखा आपके चार पांच दोस्त हैं जो बराबर आपका काउंटर संभालते हैं और पैसे के हेरफेर की कोई चिंता ही नहीं। मैं धीरे-धीरे जब चीजों को और ध्यान से देखने लगा तो समझ आया कि यही तो मुनस्यारी की संस्कृति है। इन सब चीजों से मैं इतना प्रभावित हुआ कि दुनिया की सारी चकाचौंध वाली चीजें मुझे मुनस्यारी की इस संस्कृति के सामने फीकी लगने लगी, और मैंने हाथ पांव ढीले कर लिए और एक तपस्वी मन से मुनस्यारी की इस संस्कृति को आत्मसात कर लिया।

और मुनस्यारी ने मुझे जो दिया वो शायद दुनिया की कोई ताकत मुझे नहीं दे सकती। जो प्यार और अपनापन मुझे मुनस्यारी में मिला वो कहीं और मिलना असंभव है। कभी किसी ने छोटे भाई की तरह अपना लिया तो किसी ने बड़े भाई की तरह, तो किसी ने घर के बेटे की तरह लाड़-प्यार दिया।  जब मैदानों में आता हूं तो बहुत कोशिश करता हूं इन सब चीजों को भुलाने की। लेकिन नहीं हो पाता यार दा क्या करें।

लोग मुझसे तरह-तरह के सवाल करते हैं, अटकलें लगाते हैं कि तुम्हें पहाड़ से कैसे इतना लगाव हो गया? मैं शांत हो जाता हूं, मुझे पता है मैं बोलूंगा तो भी वे मुझे पूरी तरह से नहीं समझ पाएंगे इसलिए मैं कुछ नहीं बोलता। लोग समझते हैं कि मुझे हिमालय और इन सुंदर वादियों से लगाव है अब उन्हें कैसे समझाया जाए कि जिस संस्कृति का स्वाद मैंने पाया है उसके सामने दुनिया जहां के रूतबे, अर्थबल, संख्याबल एवं सुविधाएं सब कुछ त्याज्य(त्यागने योग्य) हैं और इस बात को वही समझेगा जिसने पूरे समर्पण भाव से इस संस्कृति का रस चखा है।

दा, मुझे अभी फिर से आपकी बात याद रही है जो आपने आज से दो साल पहले कही थी कि " अखिलेश ये मुनस्यारी है"

- हां ये वही मुनस्यारी है जहां आज भी लोग सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने परिजनों के यहां ककड़ी और दूध की बोतलें पूरे विश्वास के साथ मैक्स की गाड़ियों के माध्यम से पहुंचाते हैं।

- हां ये वही मुनस्यारी है जहाँ दुनिया के सबसे खुश रहने वाले लोग रहते हैं।

- हां ये वही मुनस्यारी है जहां के स्कूली बच्चे कितने भी उदंड क्यों न हो, वे माथे में टीका लगाना और अपने से बड़ों को हाथ जोड़कर नमस्ते करना कभी नहीं भूलते।

- हां ये वही मुनस्यारी है जहां एक पत्थर तोड़ने वाले का भी समाज में उतना ही सम्मान है जितना कि एक किसी अधिकारी या नेता का।

- हां ये वही मुनस्यारी है जहां आपके पड़ोसी आपको सुबह दोपहर रात हर समय पूछते हैं कि खाना खाया कि नहीं और ऐसा करते हुए वे कभी नहीं थकते।

- हां ये वही मुनस्यारी है जहाँ का कौतिक (मेला) और देवी-देवता की पूजा आज भी लोगों के लिए किसी एक बड़े त्यार(त्यौहार) से कम नहीं।

- हां ये वही मुनस्यारी है जहाँ आज भी मनुष्यता अपने चरमोत्कर्ष पर है।

- हां ये वही मुनस्यारी है जिसे "सार संसार एक मुनस्यार " कहा जाता है और हमें मुनस्यारी की इस अद्वितीय संस्कृति पर गर्व है, बार-बार गर्व है।

Tuesday, 19 September 2017

- तेरे मेरे शहर की बारिश -



A - क्या तुम्हारे शहर में भी बारिश हो रही है?
B - हां।
A - क्या तुमने भी बारिश की बूंदे देखी आज?
B - हां मैंने देखी। पर जैसे ही मैं उन बूंदों में एक एक बूंद अलग से देखने लगती। मैंने देखा कि वो पत्तियों के ऊपर सड़कों पर गिरकर बिखरने लगे थे।
A - अच्छा जब वो जमीन पर आकर गिर रहे थे क्या तुमने उनकी आवाज सुनी?
B - हां मैंने सुनी न। कितनी अलग-अलग आवाजें हैं। कोई बूंद पत्तियों पर आकर गिरती है तो कोई किसी छतरी पर तो कोई किसी की टीन की छत पर।
A - शायद तुम भी मेरी तरह ये सारी आवाजें सुन रही हो। लेकिन क्या तुमने बालकनी में जाकर उन बूंदों को छुआ?
B - अभी तक तो नहीं। मैं  चाय की चुस्कियों में और मेरे कानों में पड़ती ये बारिश की इस धुन के साथ कहीं खो गई थी।
A - कहाँ खो गई थी। क्या वहीं जहां मैं खो गया हूं इन बूंदों को छूकर।
B - हां वहीं।
A - देखो न इन बूंदों के सहारे मेरी तुमसे आज फिर मुलाकात हो गई।
B - हां।
A - अब फिर मुलाकात कब होगी।
B - पता नहीं।
A - कहो न?
B - शायद अब कुछ महीने बाद जब बर्फबारी होगी तो गिरते हुए snowflakes को इकट्ठा कर आंखें बंद कर हम फिर से एक दूसरे से मिलेंगे।
A - मुझे उस दिन का इंतजार है।
B - मुझे भी।

To be continued .....

Sunday, 17 September 2017

- गुरू माँ को पत्र -

गुरू माँ,
मत दिया कीजिए मुझे सपने,
या कुछ ऐसा उपाय कर दीजिए कि मुझे किसी का सपना ही ना आए,
इतना सारा सच संभालना मुश्किल होता है,
अपने ही आसपास, अपने से ही जुड़े लोगों का आने वाला कल देख लेना,
और फिर कुछ दिन बाद उसी सपने को पूरा होते देखना और उन्हीं के द्वारा सुनना,
ये कहीं से भी सुखद तो नहीं कहा जा सकता,
कितना तकलीफदेह है ये।
हां ये प्रायोजित सच मैं और नहीं देख सकता,
अब और नहीं देखना चाहता सुख-दु:ख, मौत, दुर्घटनाएँ,यात्राएँ, अन्य कोई गतिविधि या इन सब से जुड़ा भविष्य,
छीन लीजिए मुझसे किसी और का प्रारब्ध देख लेने की ये कला,
आपको क्या लगता हूं कि मैं खुद को व्यस्त नहीं रखता हूं, मैं दिन भर अपने काम में व्यस्त रहता हूं लेकिन ये सपने हैं कि फिर भी मेरा पीछा नहीं छोड़ते,
पता है बहुत मुश्किल होता है टूट कर फिर से जुड़ना, ये बार-बार खुद को विखंडित कर संलयित होने का भार मुझ पर ही क्यूं?
आखिर मैं ही क्यों?
आप कहती हैं कि ये पूर्णतया प्राकृतिक है कुछ ही लोगों के साथ ऐसा होता है,
लेकिन इससे न तो मैं अपना भला कर पा रहा हूं न ही किसी और का,
इसलिए मुझे इन सबसे निजात पाना है,
फिलहाल मुझे इसकी कोई जरूरत नहीं है,
जीना है एक सामान्य सी जिन्दगी,
हो सके तो मुझे वो कहीं से लौटा दीजिए,
मुझसे ये सपनों का बोझ नहीं संभाला जाता।

Maa nanda devi mandir, Martoli Village, Munsyari (UK)

Saturday, 16 September 2017

- हवा और पानी -

                                पिछले दो-तीन दशकों की अगर बात करें तो पर्यावरण को हानि पहुंचाने के आंकड़ों में जबर्दस्त इजाफा हुआ है। आपके-हमारे सामने ये साफ दिख भी रहा है। एक भी ऐसा शहर(छोटा, बड़ा कोई भी) नहीं बचा जहां का पानी बिना फिल्टर किए पिया जा सके। हवा दिन-पर-दिन खराब होती जा रही है। आखिर इंसान होने के नाते हमारे जीने के लिए सबसे बड़ी जरूरत क्या है, सबसे बड़ी चीज हवा, उसके बाद दूसरी सबसे महत्वपूर्ण चीज पानी। इन दो चीजों की प्रतिपूर्ति के बाद तीसरा है भोजन। तीसरे घटक की गुणवत्ता पहले और दूसरे घटक पर निर्भर करती है। इतनी सामान्य सी बात हम क्यों नहीं समझ पाते हैं। आज गाड़ी उल्टी चल रही है, आज मनुष्य का सबसे अधिक जोर भोजन और रहन-सहन रूपी घटकों पर दिखाई देता है। क्या ये चिंतायोग्य विषय नहीं है?
                                 हमारी पढ़ाई-लिखाई, उपाधियां, योग्यताएं सब धरी की धरी रह जाती हैं। कुछ भी तो काम नहीं आ रहा। बात करने के लिए हमारे पास ढेर सारा किताबी आदर्शवाद है। रटी-रटाई परिभाषाएं हैं। बुद्धि और चेतना के स्तर पर हम मनुष्यों को पशुओं से कहीं ज्यादा कुशल माना जाता है। लेकिन इस बात को कहने में किसी भी प्रकार का संकोच नहीं कि भोग और लिप्सा से युक्त आज मनुष्य पशुओं से भी बदतर हो चला है। उसकी लगभग हर एक दैनिक गतिविधि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली बन चुकी है। और जब मुख्यधारा में यही ट्रेंड चल रहा है तो सरकारें भी अधिकतर पर्यावरण विरोधी नीतियाँ बनाती चली जा रही है और हमें दिखाई भी नहीं दे रहा।
                                  आज फिल्म निर्देशक सामाजिक समस्याओं चोरी, डकैती, बलात्कार, मारकाट, अपहरण, भूखमरी, शिक्षा सुधार, भष्ट्राचार आदि तरह तरह के विषयों पर फिल्म बनाते हैं। पिछले दो दशकों से ऐसी फिल्में लगातार बन रही हैं, वाह! कितने संवेदनशील डायरेक्टर हैं, वे फिल्म बनाते हैं और हम उतने में ही सीमित,उतने में ही खुश। गाड़ियां ब्लास्ट होकर हवा में उड़ रही हैं, बंदूकें चल रही हैं, गोलाबारूद दागे जा रहे हैं।अपहरण, मारपीट और हत्या के नये-नये तरीके इजात कर लिए गए हैं। ऐसे न जाने कितने अद्भुत शौर्य प्रदर्शन। और हिंसा की मात्रा पहले से कहीं अधिक। ऐसी फिल्में चल रही हैं और हम सीना पीट-पीटकर देख रहे हैं। ऐसी चीज देखकर आज हमारे बच्चे बड़े हो रहे हैं। लोगों को अंदाजा भी नहीं है कि ऐसे हिंसक दृश्य हमारे मनोविज्ञान में कितने गहरे तक असर छोड़ जाते हैं।
                                   सिविक सेंस का भ्रूण ही मार दिया आपने और अब करवाइए आप ऐसे बड़े होते युवाओं से पर्यावरण संरक्षण, करिए रैलियाँ, लगवाइए लाखों पौधे। ये तो वही बात हुई न कि हमें तो बच्चे पैदा करना आता है लेकिन उन बच्चों का लालन-पालन और उनकी परवरिश कैसे करनी है इसका क,ख,ग भी हमें नहीं मालूम।
                                  ध्यान से देखा जाए तो पिछले दशक भर में एक भी ऐसी फिल्म बालीवुड, हालीवुड में, कहीं पर भी नहीं बनी जो इस मूल समस्या पर लोगों का ध्यान खींच सके। बने भी कैसे, ये विषय इतना बड़ा है कि खून पसीना एक कर धरातलीय प्रयास करना पड़ेगा तब जाकर ही कुछ होगा।
                                  हमारी सरकारें या हम(जनता)ये क्यों नहीं समझते कि जहां हवा और पानी का मामला ठीक हो जाए, वहां कृषि और स्वास्थ्य को लेकर कुछ करना ही नहीं पड़ेगा। आधा काम ऐसे ही हो जाएगा। कितने मुद्दे यूं एक झटके में स्वतः ठीक हो जाएंगे। लेकिन अब तो ये आदर्शवादी बातें भर हैं। क्योंकि हमने, हमारी भूख ने, नाशकारक होड़ ने कुछ ही दशकों में नदियां सूखा दी, तालाब पाट दिए, जंगल के जंगल खा गये हम। तो अब हम ऐसी नीतियाँ बनाएंगे कि लोगों की क्षणिक भूख शांत हो सके। हम जंगलों की कटाई-छंटाई कर लोगों के लिए पार्क, सफारी बनवाएंगे, उनके मनोरंजन के लिए जंगली जानवर इकट्ठे किए जाएंगे। चूंकि हम बहुत ही ज्यादा समझदार, सभ्य और बुध्दिमान हो चुके हैं तो हम नदियों तालाबों और भूमिगत जल के अन्य स्त्रोतों को किनारे कर वाटर पार्क बना देंगे। जगह-जगह फव्वारे लगाएंगे क्योंकि इससे हमारे शहर की रौनक बढ़ेगी, लोग बाहर से आएंगे, देखकर हमारी प्रशंसा करेंगे। भई वाह! क्या सभ्यता की निशानी दे रहे हम हमारी आने वाली पीढ़ी को। आने वाली पीढ़ी तो बस पांव धो-धोकर पीयेगी।
                                 अब क्या यह लिख कर बताना पड़ेगा कि जिन जगहों पर हवा और पानी साफ है वहां के लोगों को किसी प्रकार की कोई गंभीर बीमारी नहीं होती। वहां लोग ज्यादा खुशी से जीवन यापन करते हैं। इतनी छोटी सी बात को आगे बढ़ाने में हम कैसे चूक गये।
                                 अब चूंकि हम इतने महापंडित और ज्ञानी हैं कि हमने शहर बनाए, मेट्रो बनाए, आज डिजिटल कर दी लोगों की जिंदगी, तमाम सुविधाएं मुहैया करा रहे, स्मार्ट सिटी बना रहे। लेकिन क्या कोई ऐसी सरकार है जो ये बता सके कि क्या कोई ऐसा शहर बनाया जो अपने नागरिकों को मुफ्त में साफ पानी मुहैया कराता है, सांस लेने लायक साफ हवा दे पाता है। देखा जाए तो आज इन दो चीजों के अलावा सरकार हमें सब कुछ दे रही हैं, उठाइए हाथों-हाथ। धूम मचा दीजिए। जैसी हमारी भूख, वैसी सरकार की नीतियाँ। करते रहिए देश की ऐसी की तैसी। कौन रोक रहा है।

Thursday, 14 September 2017

- रफ कॉपी - Part 1

                             ये लघु प्रेम कथा अनिरुद्ध और शालिनी की है...दोनों हिमाचल के किन्नौर में रहते हैं। किसी कारणवश दोनों अलग हो चुके हैं। या यूं कहें कि वे एक दूसरे से प्रत्यक्ष रूप से कभी मिले ही नहीं। लेकिन एक रफ कॉपी ने इनके मध्य एक रिश्ते को कायम कर दिया है।
...
एक दिन अनिरूध्द शालिनी से कहता है - सच बताना क्या तुमने अभी भी वो रफ कॉपी संभाल कर रखी है?
शालिनी - हां।

अनिरूध्द - पर क्यों?

शालिनी - मुझे पसंद है।

अनिरूध्द - अच्छा! मैंने तुम्हें कुछ दिन इतिहास पढ़ाया था उस कॉपी में, वो सब्जेक्ट भी ऐसा जिससे तुम्हें बिल्कुल भी लगाव न था फिर भी।

शालिनी - हां फिर भी। मुझे पसंद है तो है। मैं हमेशा अपने पास रखती हूं, अभी महीने भर के लिए मामा के घर गई थी तो भी अपने साथ लेकर गई थी। खैर,आप नहीं समझेंगे।

अनिरूध्द - समझाओ।

शालिनी - हर बात बोलकर कही नहीं जाती। ये रफ कॉपी मेरे लिए सिर्फ एक कॉपी नहीं है।

अनिरूध्द(नाराज होकर) - मेरे ख्याल से इस बात को एक साल हो चुके हैं, इस बीच कोई बातचीत नहीं, कोई पता नहीं, सब तरफ से तुमने मुझे ब्लाक कर रखा है। किसी नये नंबर से संपर्क करने की कोशिश करता हूं तो भी ब्लाक। और आज इस रफ कॉपी के सहारे इतनी भावनाएँ क्यों उमड़ रही है?

शालिनी - एक साल, इस एक साल में एक भी दिन ऐसा नहीं था कि मैंने इस कॉपी को अपने से अलग किया हो और आप मुझ पर शक कर रहे हैं। हां किया ब्लाक मेरी मर्जी, पर छुपकर किसी दूसरे की आईडी से हमेशा आपको देखा करती थी, और ये रफ कॉपी, ये साल भर से मेरे तकिए के पास ही रहता था, आज भी है। छोड़िए, मैं आपको कितनी बातें बताऊं, और बोलकर सब कुछ खराब नहीं करना चाहती। आप मुझे मेरे हाल पर छोड़ दें तो बेहतर होगा। मुझे और कोई बात नहीं करनी।

अनिरुद्ध - अच्छा ठीक है,पर मेरी एक बात सुन लो।
..
...
.....
और इससे पहले कि अनिरूध्द कुछ कहता, फोन कट जाता है।
स्वाभिमान से परिपूर्ण शालिनी के ब्लाक लिस्ट में आज फिर से एक नया नंबर आ चुका है।

Friday, 1 September 2017

बुलेट चलाने वालों से निवेदन -

                     आजकल बुलेट का ट्रेंड चल रहा है। जिसको उतना नहीं भी पसंद वो भी भेड़चाल में बुलेट की सवारी कर रहा है, जिसका चालीस किलो वजन है जो ढंग से गाड़ी ढुला भी नहीं पाता वो भी बुलेट चला रहा है। खैर सबके अपने-अपने शौक है इसमें सही गलत या आलोचना करने का कोई तुक नहीं। वैसे भी भारत में बेवजह कुछ भी ट्रेंड हो जाता है। और हम प्रतिक्रिया देकर इस पूरी प्रक्रिया में रसपान करते रहते हैं। पागलपन, दिखावा, सनक और बेवकूफी से भरे सैकड़ों उदाहरण हमारे सामने आए रोज दिखते रहते हैं।
खैर बात बुलेट से होने वाले प्रभावों की होनी थी। तो ऐसा है कि बुलेट से, यानि इसकी आवाज से छोटे बच्चों को बहुत नुकसान होता है। अब आप सोच रहे होंगे कि शोर शराबा करने वाली और भी चीजें हैं, बुलेट पर ही सवालिया निशान क्यों?
                     अच्छा अभी कुछ दिन पहले की एक घटना बताता हूं। मैं एक इडली सेंटर में नाश्ता कर रहा था। वहाँ एक और कोई लड़का साथ में था जो मेरे से पहले आया था और उस के पास बुलेट थी। हम दोनों नाश्ता कर रहे थे तभी दो लोग और आए एक बाप अपनी छोटी बच्ची को लेकर आया था। बच्ची की उम्र एक साल रही होगी, उस बच्ची के पिता ने बच्ची को गाड़ी में ही बिठाया, और इडली पैक कराने आ गये। पिता ने अपनी बिटिया को दस मीटर दूर गाड़ी में अकेले छोड़ दिया है। अब चूंकि बच्चे बाइक के सामने का हैंडल मजबूती से पकड़ कर रखते हैं इसलिए शायद उसके पिता निश्चिंत हैं।
अब बुलेट वाला लड़का नाश्ता खत्म कर उठता है अपनी बुलेट में किक मारता है जोर से एक्सीलेटर देता है और निकल जाता है। सब कुछ पांच सेकेंड में ही हो जाता है।
                     अब ध्यान रहे कि वो एक साल की बच्ची वहीं पास में एक दूसरी बाइक में बैठी हुई है। अब जैसे ही बुलेट स्टार्ट होता है उसकी आवाज सुनकर वो रोने लगती है, और डर के मारे गाड़ी से गिरने ही वाली रहती है कि उसके पापा आकर उसे संभालते हैं। बुलेट वाला कुछ सेकेंड में ही निकल चुका है, और उसके कुछ सेकेंड बाद बच्चे रोने लगती है। इडली पैक कराने में व्यस्त उस बच्ची के पिता को भी समझ नहीं आता कि बच्ची के रोने की वजह आखिर क्या है। अब सोचिए उस छोटी बच्ची पर एक बुलेट की उस क्षणिक आवाज का कितना बुरा प्रभाव पड़ा होगा। वो अंदर से कितना डर गयी होगी, कितना सहम गयी होगी, इसका आप और हम अंदाजा भी नहीं लगा सकते।
                      एक और घटना ठीक कुछ ऐसी ही हुई थी,एक छोटा बच्चा था, लेकिन वो बुलेट की आवाज से बिल्कुल नहीं रोया। लेकिन फिर भी ये घटना ऊपर लिखी पहली घटना से ज्यादा भयावह है। वो ऐसे कि मैंने उस बच्चे का चेहरा देख लिया, उस मासूम से चेहरे पर खामोशी और खौफ के बादल मंडरा रहे थे, कितना डर बैठ गया था उस बच्चे में वो त्वरित आवाज सुनकर। वो इस डर को रोकर बाहर निकाल भी नहीं पाया। इस छोटी सी घटना ने उसके मनोविज्ञान को कितनी चोट पहुंचाई होगी इसकी कल्पना करना भी मुश्किल है। बहरहाल...
ऐसे कितने उदाहरण दे सकता हूं आपके सामने।

                        ये सब कुछ लिखने का मकसद ये है कि बच्चों के दिमाग में इन सब चीजों से अत्यधिक नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, एक बार बचपन में कोई बात हो गई या ऐसी छोटी छोटी चीजें, ये सब जीवनपर्यन्त उनके चेतन अचेतन में जमा होकर उन्हें प्रभावित करती रहती है और हमें फिर समझ नहीं आता कि सब ठीक तो चल रहा था ये अचानक बच्चे का व्यवहार ऐसा कैसे हो गया।
                         इसलिए बुलेट चलाने वालों से और जो नहीं चलाते उनसे भी निवेदन है कि इन छोटी-छोटी चीजों का ख्याल किया जाए। वैसे भी बच्चे सबको प्यारे होते हैं, जिन्हें बच्चों से उतना लगाव नहीं होता वे भी बच्चों के बीच जब रहते हैं तो प्रेमपूर्वक व्यवहार करते हैं।
                         मुझे तो लगता है एक 12th पास लड़के में भी इतनी समझ तो होती ही है कि बच्चों के सामने ज्यादा न चिल्लाया जाए, उनके सामने झगड़ा न किया जाए, यानि एक उम्र तक उन्हें हर प्रकार की हिंसा, शोर आदि से थोड़ा दूर रखा जाए। बच्चे हमारे कल के कर्ताधर्ता हैं, उनके व्यक्तित्व के निर्माण के इस चरण को लेकर हमारी इतनी न्यूनतम समझ तो होनी ही चाहिए कि हम इन छोटी-छोटी चीजों पर ध्यान दें, अगर किताबी ज्ञान ही सब कुछ है, और हम इन सब बातों पर ध्यान नहीं दे पाते तो हमें अपने आसपास किसी नदी के एनीकट में छलांग लगाकर मर जाना चाहिए।