Monday, 15 August 2016

~ जुबान का फर्क ~

एक आदमी अपनी बीवी के साथ गुपचुप खाने आया..मैं बस वहां से जा ही रहा था।
वो आदमी पहला गुपचुप खाया ही था कि अचानक उसने गुपचुपवाले को भद्दा सा मुंह बनाते हुए कहा- क्या रद्दी गुपचुप बनाये हो यार।
गुपचुपवाला भी सयाना निकला, उसने कहा- अरे भैया आपको नहीं खाना है मत खाओ,रहने दो।
इतने में ही मुझे पीकू भैया याद आ गए।
पीकू भैया मेरे दोस्त के बाजू कमरे में रहते हैं।
वैसे तो उनका असल नाम कुछ और है लेकिन उन्हें पीकू पुकारा जाने लगा।
इस नामकरण के पीछे एक बड़ी वजह ये है कि साल भर उनकी थोड़ी तबियत खराब रहती है..कुछ-कुछ पीकू फिल्म के अमिताभ बच्चन की तरह। कभी पेट गड़बड़ तो कभी कफ की शिकायत तो कभी कुछ और।
एक बार पीकू भैया किसी से फोन पर ऊंची आवाज में बात कर रहे थे..गुस्सा तो मानो हर एक शब्द में चाशनी की तरह। मैंने अपने दोस्त से पूछा तो उसने बताया कि अरे इनका रोज का है घर परिवार का कुछ लफड़ा है परेशान रहते हैं थोड़ा।
आगे मेरे दोस्त ने बताया कि ये रोज खाने को गाली देते हैं कभी तो कोई सब्जी इनको पसंद आता..टिफिन आते ही सब्जी वगैरह देखा, फिर नुस्ख निकालना शुरू।
अब मुझे समझ आ गया कि पीकू भैया की इन छुटपुट बीमारियों के पीछे तो पूरा का पूरा मनोविज्ञान है। यानी जो व्यक्ति खाने का सम्मान न करे, उसके साथ ये समस्या होना लाजमी है।

इसे समझने के लिए एक परिप्रेक्ष्य में चलते हैं। आज देश का जन्मदिन है और साथ ही मेरे पापा का भी। जब मैं छोटा था तो बाल कटवाने और सुई लगावने के अलावा किसी चीज से बहुत घबराता था तो वो था भाजी खाना। जब भी घर में भाजी बनती।खाना खाते वक्त पापा फूड इंस्पेक्टर की तरह सामने बैठ जाते और पापा का खौफ इतना कि भाजी खाना ही पड़ जाता और एक जरूरी बात ये कि थाली से चावल का एक भी दाना जमीन में गिरा फिर तो उस दिन सबकी पेशी हो जाती। खैर अभी मुझे भाजी बहुत पसंद है।
बचपन में कई बार जब मेरे पसंद की सब्जी नहीं बनती तो मैं झुंझलाकर कहता -छी! क्या बेकार सब्जी बना है। उस समय पापा बस इतना ही कहते - "खाने-पीने की चीजों को कभी छी नहीं बोला करते।"
धीरे-धीरे मैंने वो बात दिमाग में बैठा ली।
और तुर्रा भी यही है कि हमारी बचपन की यही छोटी-छोटी आदतें आगे चलकर हमारे संस्कार का निर्माण करती है।

अब भैया के पास लौटते हैं। पीकू भैया हालीवुड की इतनी फिल्में देखते हैं उन्हें Fast and Furious एक बार और ध्यान से देखना चाहिए, उस विध्वंसकारी फिल्म में एक सीन खाने के टेबल का भी है जहां खाने के प्रति सम्मान को बड़े अच्छे से दिखाया है। मेरे ख्याल में पीकू भैया की समस्या जुबान की है। अगर वो धीरे से थोड़ी सी सकारात्मकता ला लें तो मैं वादे के साथ कह सकता हूं कि उनमें बदलाव आयेगा ही।

सनद रहे कि यही वो सकारात्मकता है जिसकी वजह से मंदिर,मस्जिद,चर्च एवं गुरूद्वारों के आसपास के पेड़-पौधे हमेशा फलते-फूलते हैं।

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