Thursday, 27 November 2025

We, the Collective Wound -

The sky is tired of holding our jets—  

they fall like iron rain,  

wings folded in surrender.  

Below, the earth opens its mouth  

for buses that burn mid-prayer,  

for trains that forget their tracks  

and arrive uninvited into drawing rooms  

where families still pretend to watch the news.

where families still believe in tomorrow.


Our air is a slow acid that forgives no lung.  

A hundred of us die every week,  

quietly, routinely,  

the way one forgets a name.


Our diaspora carries the smell of shame across oceans;  

they are spat on in foreign queues  

for the sins we taught them to commit in our name.  

Our tourists photograph poverty and call it colour;  

they leave behind plastic Ganeshas  

and diarrhoea in five-star pools.


Our rupee collapses daily,  

a currency learning humility the hard way.  

Our films sell us a country that never existed.  

Our news sells us enemies we can no longer find.  

Our songs sell us rage in 120 beats per minute.  

Even our garbage has garbage now;  

no corner of the map is clean enough  

to win the game we play against ourselves.


Our sons brandish swords outside mosques  

on days meant for fasting and reflection.  

Our daughters gyrate for coins thrown by algorithms  

and the Prime Minister calls it employment.  

Our courts move like dying glaciers;  

justice arrives long after the crime has retired.


Our milk is not at all milk.

Our paneer is yesterday’s plastic melted with hope.  

Our medicines murder the children they swear to save.  

Our Roads Minister peddles sugarcane dreams  

while the highways swallow trucks whole.  

Our policemen grow richer than gods  

counting cash in the dark.  

Our mountains, our rivers, our coasts  

are parcelled out before sunrise:  

Adani on Tuesdays, Ambani on Wednesdays,  

the rest of the week the vultures take turns.


Our diaspora is cursed in foreign tongues,  

our tourists leave temples of trash  

on every beach they touch.  

Our movies teach us to hate correctly,  

our news teaches us to fear correctly,  

our songs teach us to salute correctly.


Yet every morning  

a billion hearts still beat  

inside this bruised, impossible body.  

We wake, we curse, we queue, we pray,  

we post another reel, another rant,  

we die a little, we live a little,  

we refuse to leave  

this burning, beloved, maddening home.


India, my love-

you break me daily  

and still I return  

to kiss your wounded feet.

Sunday, 9 November 2025

खोया हुआ स्वर्णिम काल: जब भारत घूमना सस्ता था, सुहाना था

2020-21 की कोरोना महामारी ने दुनिया को थमने पर मजबूर कर दिया था। लॉकडाउन, कर्फ्यू, अलग-अलग जोन और तमाम तरह की बंदिशें, लेकिन एक छोटा सा अंतराल भी था जब पहली और दूसरी लहर के बीच सन्नाटा पसरा था। उस सन्नाटे में मैं अकेले 2 नवंबर 2020 को भारत भ्रमण पर निकला था। सड़कें खाली, जगहें विरान, होटल सस्ते, ढाबे सुनसान। छत्तीसगढ़ से मध्यप्रदेश उत्तरप्रदेश होते उत्तराखंड फिर वहाँ से जहाँ मन हुआ, चला गया। गंगोत्री से लेकर तुंगनाथ और अमृतसर से लेकर जैसलमेर, इन जगहों पर नितांत अकेले सुनसान वीरान जगहों पर घूमता रहा जो असंभव जैसा है क्योंकि इन जगहों पर सालभर लोगों का हुजूम रहता है। शायद ही आने वाले कुछ दशकों में या शताब्दी में ऐसा सुयोग किसी को नसीब होगा। लॉकडाउन की वजह से प्रदूषण भी हर जगह ना के बराबर था, उस सीजन की ठंड भी सबसे लंबी थी, ऐसा लगा जैसे 15-20 साल पहले के भारत में घूम रहा हूँ। आज उस समय को याद करता हूँ तो सचमुच गोल्डन पीरियड सा लगता है। 


आज वही जगहें फिर से देखीं—ऑनलाइन बुकिंग साइट्स पर, खाने पीने की जगहों पर। जो होटल 800-1000 रुपये में मिल जाता था, आज 2000-2500 से कम नहीं। मनाली का गेस्ट हाउस 600 से 1800, उदयपुर का हेरिटेज हवेली 2000 से 5000। रेलवे का किराया भी बढ़ा, बस का टिकट भी। खाने-पीने की प्लेटें भी महँगी। कुल मिलाकर, वही यात्रा आज दुगुने से ज्यादा खर्चे में पूरी होगी।


यह महँगाई कोई अचानक नहीं आई। इसके पीछे दो बड़े आर्थिक झटके रहे हैं—2016 की नोटबंदी और 2017 का जीएसटी। 


नोटबंदी ने सबसे ज्यादा नुकसान इस घरेलू क्षेत्र को पहुँचाया, जिस पर भारत के पर्यटन की रीढ़ टिकी थी। छोटे होटल, ढाबे, गाइड, टैक्सी वाले, रिक्शा चालक—सब नकद पर चलते थे। एक झटके में 86% मुद्रा गायब। कई बंद हो गए, कई कर्ज में डूब गए। जो बचे, उन्होंने किराया बढ़ा दिया ताकि बैंकिंग सिस्टम, ऑनलाइन पेमेंट गेटवे और बढ़ते टैक्स का बोझ उठा सकें।


फिर आया जीएसटी। पहले टूरिज्म पर वैट, सर्विस टैक्स, लग्जरी टैक्स अलग-अलग थे। जीएसटी ने सबको एक कर दिया, लेकिन दरें बढ़ा दीं। होटल रूम 1000 तक 12%, उससे ऊपर 18%। रेस्टोरेंट बिल पर 5% से 18% तक। टूर पैकेज पर 5%, लेकिन उसमें शामिल हर सर्विस पर अलग-अलग स्लैब। नतीजा? छोटे व्यवसायी या तो जीएसटी रजिस्ट्रेशन के झंझट में फँसे या ऊँचे दाम वसूलने लगे। जो पहले 500 में खाना खिलाता था, अब बिल में जीएसटी जोड़कर 650 लेता है। ग्राहक को लगता है महँगाई, असल में टैक्स।


कोरोना के बाद तो जैसे सबने मौका देख लिया। जो होटल बंद होने की कगार पर थे, उन्होंने कीमतें दुगुनी कर दीं क्योंकि डिमांड अचानक लौटी और सप्लाई कम थी। ऑनलाइन ट्रैवल एजेंट्स (OTA) ने अपना कमीशन 20-30% तक बढ़ा दिया। एयरलाइन्स ने भी किराए आसमान पर पहुँचा दिए। कुल मिलाकर, पर्यटन अब मिडिल क्लास की पहुँच से बाहर होता जा रहा है।


पहले बैकपैकर्स हॉस्टल 200-300 में मिल जाता था, आज 700-1000 से शुरू। 1500-2000 में अच्छे साफ़ सुथरे होटल आपको मिल जाते थे आज 3000-4000 देने के बाद भी इसकी गारंटी नहीं। यह सिर्फ पैसे की बात नहीं—यह आजादी की बात है। घूमना-फिरना अब लग्जरी हो गया है। पहले हम सोचते थे, “चलो निकल पड़ते हैं”, अब सोचते हैं, “बजट बनेगा या नहीं?”


सरकार कहती है जीएसटी से टैक्स कलेक्शन बढ़ा, अर्थव्यवस्था मजबूत हुई। लेकिन सवाल यह है—किसकी अर्थव्यवस्था? बड़े होटल चैन,OTA प्लेटफॉर्म्स, एयरलाइन्स—हाँ, उनकी मजबूत हुई। छोटे ढाबे वाले, गाइड, लोकल टैक्सी ड्राइवर की नहीं। जो पर्यटन/देशाटन भारत की आत्मा थी - वह अब खत्म हो रही है। 


आज अगर मैं फिर से अकेले भारत घूमने निकलूँ तो पहले 50 हजार में दो महीने की यात्रा हो जाती थी, अब उतने में 20-25 दिन भी मुश्किल। वह स्वर्णिम काल अब लौटने वाला नहीं। नोटबंदी और जीएसटी ने जो कर दिया, उसे वापस नहीं लिया जा सकता। अब या तो ज्यादा कमाओ, या कम घूमो। या फिर इंतजार करो अगले किसी संकट का—जब फिर सन्नाटा फैले और कीमतें गिरें। 


लेकिन तब तक शायद हममें से ज्यादातर भूल जाएँ कि बिना प्लानिंग, बिना बजट के बस यूँ ही निकल पड़ना कितना खूबसूरत था। वह आजादी थी, वह घूमना नहीं—जीने का तरीका था। आज वह लग्जरी बन गया। 

Tuesday, 16 September 2025

एक तीर दो निशान

एक राजा था। उसके ख़िलाफ़ एक सूबे के किसानों ने लंबे समय तक आंदोलन किया था। जनता नाराज़ थी। राजा को अपनी सत्ता जाने का डर भी था, अपनी सत्ता बचाने के लिए राजा कुछ भी करने को तैयार था। एक बार राजा ने उसी सूबे में बारिश के पहले ही बाँध का पानी रोककर रख दिया। जैसे ही थोड़ी ज़्यादा बारिश हुई भयानक बाढ़ आई। सब कुछ चौपट। वहीं उस दौरान एक दूसरे सूबे में चुनाव था, उस सूबे के सभी प्रवासी मजदूर बाढ़ वाले सूबे में ही खेतों में काम करते थे, बाढ़ की वजह से सभी अपने सूबे में लौट आए। इसी बीच दोनों सूबों के मध्य भेदभाव पैदा करने और प्रवासी बनाम स्थानीय के तत्व को मजबूती प्रदान करने के लिए रेप, हिंसा और मारपीट का सफल प्रयोग गया। ये प्रवासी राजा के ही समर्थक थे जिन्होंने राजा को पुनः राजगद्दी में तिलक कराने में अपना समर्थन दिया। कुछ इस तरह प्रतापी राजा ने एक तीर से दो निशाना साध लिया, जनता मुग्ध हो गई।

अस्वीकरण : इस काल्पनिक कहानी का वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है। अगर कोई संबंध पाया जाता है तो इसे केवल संयोग माना जाएगा।

Wednesday, 13 August 2025

लोकतंत्र या माफिया तंत्र ?

जितना भारत घुमा, जितने भी राज्यों में गया। हर तरीक़े के ख़ान-पान के तरीकों को देखा। अलग-अलग रेस्तरां में गया। जहाँ भी गया हमेशा से यह रहा कि खाना परोसने वाले को थोड़ा भी यह महसूस नहीं कराना है कि वह मेरा नौकर या ग़ुलाम है। यह बात इसलिए आई कि अधिकतर मैंने देखा है कि भारत की एक बड़ी आबादी जहाँ कहीं भी कोई सुविधा या सेवा लेती है उन्हें डोमिनेट करते हुए या दुत्कारते हुए नौकर की भाँति ही उनसे व्यवहार करती है। लंबे समय से ऐसा ही चलता आ रहा है। इससे अलग आप लोकतांत्रिक तरीके से सामने वाले के पेशे को सम्मान देने की कोशिश करेंगे तो इसमें भी कई बार बहुत सी व्यावहारिक दिक्कतें आती हैं। उल्टे आपको ही अपमान झेलना पड़ जाता है क्यूंकि heirarchy का प्रोटोकॉल तो यही चला आ रहा है कि शाम दाम दंड भेद करते रहिए। 


चूँकि बहुसंख्य आबादी घर में काम करने वाले किसी व्यक्ति से जैसे ग़ुलाम की तरह व्यवहार करता है, कुछ वैसा ही रेस्तराँ होटल दुकानों या अन्य जगहों में भी करता है तो इसका ख़ामियाज़ा उनको भी भुगतना पड़ता है जो ऐसा नहीं करते हैं। जो शांत और विनम्र होते हैं, कई बार उनको या तो नीचा दिखाया जाता है या उनकी ही जेब काटने का प्रयास किया जाता है। मतलब लोगों से लोकतांत्रिक व्यवहार करना भी कितना चुनौतीपूर्ण है। यहाँ हर कोई राजा-प्रजा वाले एहसास में ही जीना चाहता है। इसलिए सबसे ज़्यादा नौकर-चाकर रखने का कल्चर भी हमारे यहाँ ही है। इंसान की अपनी वैल्यू कहाँ रह गई इसमें। एक बड़ा कारण आय के असमान वितरण के प्रचलित अलग-अलग नवपूँजीवादी मॉडल भी हैं, सबको इन्हीं मॉडल के इर्द-गिर्द जीवन काटना है। 


यह सिस्टम कहीं से ख़त्म होता दिखता ही नहीं है, लोगों को आज भी इसी में ही मजा आता है। तभी हमारे यहाँ सबसे ज़्यादा नौकरी करने, कोई पद पा लेने या किसी भी प्रकार की सत्ता हासिल करने की लालसा चरम पर होती है, तभी वीआईपी कल्चर को देखकर लोग चिढ़ते भी हैं और ख़ुद पूरी शिद्दत से उस एहसास को जीना भी चाहते हैं। और आप इस व्यवस्था से अलग जब-जब लोकतांत्रिक व्यवहार करने की कोशिश करते हैं तो कई बार आप ही इस भीड़ का शिकार बन जाते हैं क्यूंकि लोगों को टाइट करके रखना ही हमारा कल्चर बन गया है। अगर आप लोगों को टाइट नहीं रखेंगे, आप अपनी किलेबंदी नहीं करेंगे तो कोई भी मौका देखते ही आप पर आकर चढ़ने की कोशिश करेगा। अब तो इंसानी समाज से ही कोफ़्त होने लगी है। 


दिन-रात अलोकतांत्रिक तरीके से व्यवहार करते और पब्लिक डीलिंग करते लोगों का हुलिया भी अलोकतांत्रिक ही दिखने लगता है। चेहरे में हिंसा तनाव और धूर्तता की लकीरें साफ़ दिखती हैं, जो छिपाए नहीं छिपती हैं। जितना भारत घुमा उसमें अधिकतर ऐसे ही अलोकतांत्रिक चेहरे देखने को मिले। कोरोना के बाद से तो इसमें अभूतपूर्व वृद्धि हुई है।


लोकतंत्र आजादी यह सब तो बस किताबों में पढ़ने भर के लिए ठीक लगती है। असल जीवन में इसका थोड़ा भी कुछ जीवंत रूप में महसूस करने के लिए नहीं मिल पाता है। लोकतंत्र के नाम पर माफिया राज बना रहे इसीलिए जनता को भुलावे में रखने के लिए तमाशे के रूप में हर घर तिरंगा आदि का प्रपंच किया जाता है। मुश्किल है डगर लेकिन उम्मीद की जाए कि आने वाली पीढ़ी को थोड़ा बहुत लोकतांत्रिक माहौल नसीब हो। 


स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ। 

Tuesday, 22 July 2025

आर्मी का तिलिस्म और हमारा भारतीय समाज -

आर्मी का तिलिस्म और हमारा भारतीय समाज -

कुछ दिन पहले रायपुर में कारगिल विजय दिवस का आयोजन हुआ तो उसमें आर्मी वालों के साथ मिलकर एक लंबी मोटरसाइकिल राइड हुई। इस सफ़र ने मुझे भारत के उस पहलू से रूबरू कराया जिसे बहुत समय से मैं चाहकर देख नहीं पा रहा था।

हमारी बाइक्स आर्मी के रायपुर स्थित कोसा हेडक्वार्टर से केसकाल स्थित टाटामारी तक गई और फिर वहीं से फिर दोपहर शाम तक रायपुर वापसी हुई। लगभग 400 किलोमीटर के इस सफ़र में जाते वक्त इतनी बारिश हुई की सबके रेनकोट भीग गए। आर्मी के जो ब्रिगेडियर और लेफ़्टीनेंट स्तर के अधिकारी जो बड़ी सीसी की गाड़ी में आगे लीड कर रहे थे, वे भी तेज बारिश में धीरे चल रहे थे। जबकि हम तो ठहरे देसी हरफनमौला बाइकर, मौत को टक से छूकर आने वाले लोग, हमारी 250 सीसी ने पानी की तेज बौछार को चीरते हुए उनको पछाड़ दिया। वो कहते हैं ना - “ Its not about the bike, its all about the biker how he rides. “

रायपुर से शुरू हुए हमारे इस सफ़र में 2-3 आर्मी की गाड़ियां भी साथ चल रही थी। जिसमें अधिकारी स्तर के लोगों के परिवारजन थे और उनकी सुरक्षा के लिए कुछ एक सिपाही। शेष भारत के आर्मी अफ़सर की तरह ये भी अंग्रेज़ीदाँ ही रहे, उनका अपना बातचीत करने का अलग तौर तरीका, मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि मैं ये कौन से नए भारत में आ गया हूँ। इतना “ sense of alienation “ कभी आईएएस आईपीएस स्तर के लोगों के बीच नहीं हुआ। खैर उसके अपने कारण हैं जिस पर विस्तार से बात करने की आवश्यकता है।

सेना में दो तरह के लोग जाते हैं। पहले वे जिसमें हमेशा से सिपाही स्तर पर भारत का आम खेती-किसानी परिवार का ग़रीब, निम्न और मध्यमवर्गीय तबका जाता है। जिसकी जुबान में अंग्रेज़ी ना के बराबर होती है। यह तबका गाँव घर में पला बढ़ा होता है, ग्राउंड जीरो के भारतीय समाज के हर एक पहलू से रूबरू होता है। ये तबका खूब हाड़तोड़ मेहनत कर सिपाही स्तर की नौकरी पाता है, कम अधिक 12वीं पास कर शारीरिक मेहनत कर यह उस पद को हासिल करता है। अगर भावुकता और देशभक्ति को किनारे कर देखा जाए तो ये वाली एक बड़ी आबादी इसलिए भी आर्मी में जाती है क्यूंकि ख़ुद के और परिवार के लिए आजीवन एक आर्थिक सुरक्षा की गारंटी मिल जाती है। भारत में किसी भी और नौकरी में इस तरह से सुरक्षा नहीं मिलती है। वो बात अलग है कि देशप्रेम के नाम पर जितना शोषण ( यौन शोषण आदि भी ) इन सिपाही स्तर के लोगों का होता है उतना पुलिस में भी नहीं होता है। कई लोगों का जीवन तो किसी अधिकारी के चपरासी बनकर ही निकल जाता है, कई कैंटोनमेंट एरिया में यही सेवा देते हैं, लेकिन देशप्रेम की टोह में सब कुछ छिप जाता है। इस वजह से कई बार आत्महत्या की ख़बरें आती है, लेकिन इस मजबूत शोषणकारी व्यवस्था पर कोई आंच ना आए इसलिए ऐसी खबरें दबा दी जाती है। और सबसे मजे की बात; युद्ध हो, आपातकाल हो, कोई विपदा हो, आपदा हो, हर जगह यही सिपाही तबका ही जाकर लड़ता मरता है।

इसके ठीक उलट सेना में जाने वाला दूसरा तबका ऑफिसर रैंक वालों का है। इस श्रेणी में जाने के लिए एनडीए और सीडीएस स्तर की जो परीक्षा होती है उन परीक्षाओं का पैटर्न पूरा का पूरा अंग्रेजी वाला होता है और उसकी छटनी से लेकर जितने स्तर के उसमें पेपर होते हैं वह इस तरीके से डिज़ाइन किया गया है कि भारत का आम निम्न मध्यवर्गीय किसान कमेरे परिवार का व्यक्ति उस रास्ते आगे जा ही नहीं सकता है। दूसरा एक कारण भाषा और उस स्तर के कॉन्फिडेंस का भी है। ग्रुप डिस्कशन में ही आधे कट जाते हैं, क्यूंकि परिवार में और आसपास कभी वैसी फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलने का माहौल नहीं मिलता है। कोई इक्का दुक्का अपवाद स्वरूप अपनी ख़ुद की मेहनत से आगे चला भी जाता है तो आजीवन alienated महसूस करता है, और तो और उसे रैंक में बहुत आगे नहीं जाने दिया जाता है। जबकि वहीं एक सभ्रांत अधिकारी स्तर के आर्मी परिवार में पले बढ़े व्यक्ति के लिए वहाँ तक पहुंचना बहुत आसान होता है। इस कारण से आज भी आर्मी में ऑफिसर रैंक में एक ख़ास तरह के लोगों का दबदबा आजादी के बाद से कायम है और वहाँ किसी और को घुसने की इजाज़त नहीं है। ये एक ऐसा नेक्सस है जिस पर ना कभी मीडिया सवाल कर पाता है ना कोई नेता इन पर सवाल खड़ा करता है, क्यूँकि देशभक्ति की आड़ में सीधे आपको ग़लत ठहरा दिया जाएगा, आपको देशद्रोही भी कहा जा सकता है।

इतना भारत घूमते हुए यह एक चीज़ तो है कि people experience से बहुत कुछ समझ आ जाता है। हमारे साथ जो आर्मी वाले गए और उनके परिवार वाले थे, उनके हावभाव और बातचीत से ऐसा लगा जैसे वे एक अलग ही दुनिया के हैं और हो भी क्यों ना, क्यूंकि वे मुख्यधारा के भारत से इतना अलग-थलग जो रहते हैं। एक तो ऑफिसर रैंक होने की वजह से इफ़रात सुविधाएं नौकर चाकर, ऊपर से दैनिक जरूरतों से लेकर बुनियादी सुविधाओं में भी आर्मी कैंटीन से लेकर स्कूल आदि सबमें भयानक छूट है और गुणवत्ता वाली चीज़ मिलती रहती है। ना ये लोग कभी जीवन में ख़राब फल सब्ज़ी या मिलावट वाला दूध देखते हैं, ना कभी मुख्यधारा के समाज वालों की तरह चोरी झगड़ा बहस मोलभाव नोकझोंक ट्रैफिक जाम ये सब झेलते हैं। ना ही स्कूल फीस और बच्चों के बजट को लेकर कभी घर में तनाव का माहौल बनता है। कार बाइक खरीदनी है वहाँ भी आर्मी कैंटीन में भरपूर छूट है। स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर कभी परेशान नहीं होना पड़ता, इनके अपने अलग सर्वसुविधायुक्त अस्पताल होते हैं। अलग-अलग स्पोर्ट्स खेलने हैं तो विशाल ग्राउंड होते हैं और साथ में सारी सुविधाएं आपको उपलब्ध हैं। यानी मुख्यधारा का भारतीय समाज जिन विद्रूपताओं को झेल रहा होता है, उसकी छत्रछाया से ये आजीवन कोसों दूर रहते हैं। इनको तो शराब भी अलग क्वालिटी की मुहैया करायी जाती है। इन सब कारणों की वजह से मैंने देखा कि जो ऑफिसर रैंक के आर्मी वाले और उनके परिवार जन थे, उनके चेहरे और हावभाव में एक अलग ही किस्म की शालीनता, विनम्रता और व्यक्तित्व का अपना एक अलग स्तर था, लेकिन उस कसी हुई पर्सनालिटी के पीछे एक गदहापन भी साफ़ दिख रहा था, जिसे सिर्फ़ मैं ही देख पा रहा था। आसपास क्या चल रहा है इसके बारे में पता ही नहीं है, इस वजह से मुख्यधारा के भारत के लोगों से कैसे डायलॉग स्थापित करना है इसकी उन्हें ढेला भर समझ नहीं थी क्यूंकि उन्होंने अपना एक सुरक्षित कोकून बनाया हुआ है जहाँ उनको जीने लायक सारी सुविधाएं मिलती है, इसके बाहर कौन सा गृहयुद्ध चल रहा है, इससे वे पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। इसलिए रिटायरमेंट के बाद इनका हाल जीडी बख्शी जैसे दिवालिये की तरह हो जाता है। इसका उपाय यही है कि आर्मी अफसरों को एक साल भारत के किसी ग्रामीण इलाके में छोड़ देना चाहिए ताकि भारत के समाज की असल हक़ीक़त समझ सकें।

देखने में आता है कि ये अमूमन सामान्य व्यवहार में भारत के आम लोगों को सिविलियन की संज्ञा देते हैं, मानो वे कोई नवाब हों और आम लोग उनके नौकर। एक किसी अपराधी की तरह भारत के आम लोगों को जिन्हें भारत का नागरिक कहा जाना चाहिए उनको ये पूरी बेशर्मी के साथ सिविलियन कहते हैं और अपने आपको मुख्यधारा के समाज से पृथक करते हैं।

भारत में हर प्रोफेशन का आंकलन होता है। चाहे वह न्यायपालिका से जुड़े लोग हों या व्यस्थापिका के लोग हो। वो बात अलग है कि ये आर्मी से बड़े वाले धूर्त होते हैं, इनके उपद्रव मूल्य कहीं और बड़े हैं लेकिन बीच-बीच में इन पर सवाल खड़े किए जाते रहते हैं इसलिए इनका तापमान नियंत्रण में रहता है। एक एसडीएम स्तर से लेकर आईएएस आईपीएस स्तर का व्यक्ति भी मजबूरी में आए दिन भारत के आम समाज से रूबरू होता रहता है, उन्हीं के बीच काम करता है तो कभी-कभी वह सारा कुछ वो भी झेल लेता है जो आम आदमी झेलता है इसलिए आम समाज के लिए थोड़ी सी समझ और थोड़ी सी विनम्रता आ जाती है। वरना इनसे बड़ा बदमाश तो कोई नहीं। इसके बाद न्यायपालिका पर आते हैं जिसे गांधी बाबा ने ख़ुद वकील रहते ही सीधे धंधा कह दिया था। न्यायपालिका से जुड़े लोग लोग भी आर्मी की तरह बहुत रिज़र्व रहते हैं, सारी सुविधाएं मिलती हैं, आलीशान जगहों पर इनकी जमीनें इनके रिसॉर्ट्स और ऐशगाह होते हैं। लेकिन फिर भी आए दिन मुकदमे के सहारे ही सही कुछ हद तक भारत के आम समाज के लोगों के दुख दर्द की जानकारी रखते हैं, उसके निवारण के लिए कभी आजीवन धेला भर भी काम नहीं कर पाते वो बात अलग है। उसके बाद आते हैं सुपर ह्यूमन यानी आर्मी के ऑफिसर रैंक के लोग, सबसे ज़्यादा सुरक्षित, रिज़र्व और मुख्यधारा के समाज से कटे हुए लोग, जिनका कभी आंकलन नहीं होता है। जहाँ एक रैंक नीचे वाले अधिकारी को भी अपने से ऊपर के अधिकारी से सीधे बात कर लेने का स्पेस नहीं होता है। सिपाही स्तर के लोगों का हाल तो बस पूछिए ही मत। वे केवल ऑर्डर बजाते हैं। आंतरिक सुरक्षा के नाम पर सब कुछ छिप जाता है। मतलब इतना सामंती चरित्र आपको पूरी व्यवस्था में कहीं और नहीं मिलने वाला है। और मैंने आजतक कभी किसी को हमारे देश समाज के इस अनछुए पहलू पर बात करते नहीं देखा है, अब कौन अपनी जान जोखिम में डाले।

वैसे बताता चलूँ की भारत पूरे विश्व में इकलौता ऐसा देश है जो डिफेंस को दी जाने वाली सुविधाओं में सबसे ज़्यादा खर्च करता है। गांधी अगर एक दशक और ज़िंदा रह जाते तो अपनी किताब हिन्द स्वराज में जो कड़वी बातें उन्होंने वकील और डॉक्टरों के लिए लिखी है, उससे कहीं अधिक कड़वा सेना के उपद्रव मूल्यों पर लिख जाते।

लोग कहते हैं कि भारत में लोकतंत्र है, मैं पूछता हूँ कौन से वाले भारत में लोकतंत्र है ????

As they say -

"काफर हुनु भन्दा मर्नु निको”

“I'll rather die than be a coward...”

जय हिन्द 🙌🏻

Saturday, 5 July 2025

बस्तर जो मैंने देखा : 14 साल पहले और अब का बस्तर



बस्तर का जब भी नाम ज़हन में आता है तो सबसे पहले लोगों को नक्सली/माओवादी वाला एंगल दिखता है। और हो भी क्यों ना, ये आज भी प्रासंगिक जो है। शायद बस्तर की नियति में यही होना लिखा था तभी नक्सलियों का अपना अस्तित्व आज भी बना हुआ है। पर्यटन ने पिछले कुछ वर्षों से बस्तर को मुख्यधारा से जोड़ने में महती भूमिका निभायी है, इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार हुआ है, होटल रेस्तराँ बने हैं, गाँव-गाँव तक सड़कें पहुँच गई हैं, लोग बड़ी संख्या में घूमने भी पहुँच रहे हैं, लेकिन नक्सली वाले एंगल की वजह से आज भी एक बड़ी आबादी यहाँ हल्के पाँव से ही कदम रखती है और बहुत से लोग बस्तर घूमने नहीं आते हैं जो कि एक तरह से देखें तो ठीक भी है। वरना बस्तर का हाल भी मनाली केदारनाथ कान्हा किसली जैसा होने में देर नहीं लगती, प्रकृति की इतनी नेमत तो बरसी ही है यहाँ। विकास चहुँओर पहुँच रहा है लेकिन बस्तर के आम आदिवासियों की जीवनशैली को उनके लोक व्यवहार के तरीकों को उस हद तक प्रभावित नहीं किया है, या शायद ये बस्तर के आम लोगों की जीवटता है कि वे विकास की चकाचौंध से अप्रभावित आज भी मदमस्त अपनी खुमारी में रहते हैं।


सन 2011 में कॉलेज के दिनों में स्कूल के दोस्तों के साथ बस्तर जाना हुआ था। तब बस्तर संभाग में कुल पाँच जिले हुआ करते थे , सुकमा और कोंडागांव ये जिले अस्तित्व में भी नहीं आए थे। जून के शुरुआती महीने में भीषण गर्मी झेलते हम जब जगदलपुर पहुंचे तो दोपहर को सीधे चित्रकोट वॉटरफॉल में ही गाड़ी रोकी। पानी बहुत कम था, और एकदम साफ़ पानी था, हम सभी ने नीचे उतरकर नहाने का मन बना लिया, घंटों उस पानी में नहाने के बाद भयानक भूख लगी थी। भूख शांत करने के लिए आसपास देखा तो खाने के लिए कुछ भी नहीं, एक ठेला तक नहीं। चित्रकोट के पास जो रिसोर्ट बना हुआ है, वह तब से अस्तित्व में था, अभी थोड़ा और बड़ा हो गया है। वॉटरफॉल से आगे एक किलोमीटर निकले तो वहीं एक झोपड़ीनुमा होटल में रोटी सब्जी मिल गई। भीषण गर्मी में पसीने से भीगते हुए हमने खाना खाया और फिर शाम तक वापस जगदलपुर चले गए।


जगदलपुर को चौराहों का शहर कहा जाता है। छोटा सा शहर है और बहुत से चौराहे हैं, शाम को घूमने निकले तो कुछ खास मिला नहीं, तब एक बिनाका नाम का एक छोटा सा मॉल खुल रहा था जो शायद आज की तारीख में अस्तित्व में नहीं है। बिनाका नाम का यह छोटा सा मॉल तब बस्तर के लोगों के लिए बड़ी चीज़ थी, तभी सिर्फ मॉल को देखने बहुत से लोग आए हुए थे, उन लोगों में हम भी थे। फिर वहाँ से हम रात के खाने की खोज में निकल गए, तब गूगल मैप उतना विकसित नहीं हुआ था कि खोजते ही हमें होटल मिल जाये, और तो और तब स्मार्टफोन भी नहीं आया था। नोकिया के symbian मल्टीमीडिया फ़ोन ही चल रहे थे और वह भी दस दोस्तों के ग्रुप में एक दो लोगों के पास ही हुआ करता था। तब कीपैड फ़ोन के जमाने में वो 6-7 हज़ार में मिलने वाला मल्टीमीडिया फ़ोन भी एक लक्ज़री हुआ करती थी। तो होटल खोजने में हमें बड़ी मशक्कत हुई, बहुत ज़्यादा विकल्प नहीं थे, एक बिनाका नाम का ही बढ़िया सा रेस्तरां था वहीं जाकर हमने रात का खाना खाया। जगदलपुर के चौराहे वाले इलाक़े में ही हमने 350 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से हम लोगों के लिए दो कमरे ले लिए थे।


दिन भर सफ़र और नहाने की थकान मिटाने के बाद अगले दिन सुबह हम तीरथगढ़ वॉटरफॉल घूमने गए। आज सुबह से झमाझम बारिश हो रही थी। मौसम एकदम बढ़िया हो गया था। ये बस्तर की एक खूबी है, यहाँ आज भी weather.com आपको धोखे में डाल देगा। यहाँ कभी भी बारिश हो जाती है। तीरथगढ़ पहुँचे तो वहाँ भी कुछ ऐसा ही था जैसा तीरथगढ़ में था, कोई पार्किंग नहीं थी, केवल एक छोटा सा ठेला बना हुआ था जहाँ केवल चिप्स बिस्किट गुटखा इत्यादि थे। सीढ़ियों से उतरते जब तीरथगढ़ पहुंचे तो वहाँ कोई भी नहीं था, सिर्फ़ हम ही लोग थे। कुछ देर वहाँ फोटो लेने के बाद वापस कांगेर घाटी नेशनल पार्क के भीतर और घूमने गए। यहीं स्टैलेगटाइट और स्टैलेगमाइट चट्टानों की श्रृंखला देखने कुटुमसर गुफा चले गए। घुप्प अंधेरे में टार्च मारते हुए गाइड हमें चट्टानों की अलग-अलग कलाकृति दिखा रहा था, लेकिन इन सब के बीच बारिश और उमस की वजह से गुफा के भीतर घुटन सी होने लगी थी और फिर कुछ देर बाद हम वापस आ गए।


14 साल बाद अभी कुछ दिन पहले फिर से बस्तर जाना हुआ। इस दरम्यान ना जाने कितनी बार दोस्तों ने ज़िद किया लेकिन मैं हमेशा जाने से परहेज करता रहा, उसके अपने व्यक्तिगत कारण थे। लेकिन इस बार बिना किसी को बताए चुपके से बाइक में जाने का प्रोग्राम बन गया। आज सड़कें पहले से कहीं अधिक सुव्यवस्थित हैं। जिन भी अंदरूनी गांव वाले रास्ते में जाना हुआ, हर तरफ़ पक्की सड़क बन गई है। अब रुकने के लिए होटल के बहुत से विकल्प हैं, खासकर कोंडागांव और जगदलपुर में ढेरों विकल्प आपके पास हैं, रेस्तरां और कैफ़े की एक अच्छी खासी खेप तैयार हो गई है। फिर भी, होटल और रेस्तरां की बात करें तो यहाँ अभी भी बहुत स्कोप है, नवाचार करे तो कोई भी आराम से आगे जा सकता है। क्यूंकि आगे जाके बस्तर में टूरिज्म कम नहीं होने वाला है।


दोपहर को रायपुर से निकलते शाम तक जगदलपुर पहुंच गया था। कांकेर से ही आर्मी की टुकड़ियाँ रास्ते में एक अस्थायी टेंटनुमा झोपड़ी में दिखने लग गई थी, कोंडागांव जगदलपुर शहर के भीतर भी आर्मी की कुछ एक टुकड़ियाँ गस्त लगाती हुई दिखी, ये सब मेरे लिए बिल्कुल नया था। ये दृश्य आज से 14 साल पहले इतना आम नहीं था जबकि तब नक्सलियों का अपना अस्तित्व चरम पर था।


रात आराम करके सुबह ही चित्रकूट वॉटरफॉल देखने चला गया। रास्ते भर खूब सारे घर बन गए हैं, छोटे मझौले होटल रेस्तराँ खुल गए हैं, सड़क पहले से थोड़ी चौड़ी हो गई है। पर्यटन वाले बोर्ड लगे हुए हैं जो पहले नहीं थे। वॉटरफॉल के पास जैसे ही पहुंचा तो देखा कि अब पार्किंग की व्यवस्था है, आसपास खूब सारी दुकानें हैं जहाँ बांस से बनी टोकरी की-चैन, पूजा के लिए धूप और बस्तर की बियर कही जाने वाली सल्फ़ी पानी की बोतलों में भरी हुई बिक रही है। वॉटरफॉल के ठीक पास में एक कोई मंदिर भी बन गया है जिसे देखकर बहुत अधिक आश्चर्य नहीं हुआ, जब बस्तर जैसे आदिवासी अंचल में जो सदियों से प्रकृति पूजा करता आया है वहाँ जब घनघोर जंगल के बीच गणेश का प्रवेश कराया जा सकता है और जबरन ढोलकल गणेश नामक एक टूरिस्ट स्पॉट बनाया जा सकता है तो यह मंदिर बनाना तो बहुत ही सामान्य घटना है।


वॉटरफॉल के पास अब लोहे की जाली लगी हुई है जिसके आगे अब लोग नहीं जा सकते हैं, पहले यह नहीं हुआ करता था। लोगों के पास तब स्मार्टफ़ोन ही नहीं था तो सेल्फी वाला पागलपन भी नहीं था। इसी पागलपन से लोगों की रक्षा करने के लिए एक दो आर्मी वाले तैनात हैं, जो हमेशा वॉटरफॉल के पास ही चहलकदमी करते रहते हैं। सुंदरता और साज सज्जा के नाम पर बाकी टूरिस्ट स्पॉट में जिस तरह की कृत्रिमता से जड़ित इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार किया जाता है, वैसा यहाँ उस हद तक नहीं है अभी, ख़ुशी हुई कि बस्तर के अपने प्रतीकों का ख्याल रखते हुए एस्थेटिक्स पर भरपूर ध्यान दिया गया है।


यहाँ से आगे बारसूर वाले रास्ते में स्थित मेन्द्रीघूमर वॉटरफॉल देखने चला गया। इस रास्ते और इस वॉटरफॉल के भूगोल को देखकर मेघालय के वॉटरफॉल याद आ गए। वहाँ भी ऐसे ही पठारी रास्ते में नीचे की ओर खूब सारे वॉटरफॉल हैं। मेन्द्रीघूमर मैं पहली बार आया था, यहाँ की खूबसूरती देखते ही बन रही थी, तीन ओर आपके पैरों के नीचे घने जंगलों का नजारा और जंगलों से उठकर आती तेज शुद्ध हवा, उसी के एक किनारे में सीधी रेखा में गिरता वॉटरफॉल। आप घंटों आराम से बैठकर यहाँ की शुद्ध हवा ले सकते हैं, आपको बोरियत नहीं होगी, कोई भीड़ नहीं कोई व्यवधान नहीं, एक अलग किस्म का सुकून है यहाँ जो बस्तर के बाक़ी मेनस्ट्रीम जगहों में आपको नहीं मिलने वाला है। यहाँ गाँव की अपनी पर्यटन समिति बनी हुई है जो इस पर्यटन स्थल का रखरखाव भी करती है, यहाँ पार्किंग का 20 रुपये लिया गया। पूर्वोत्तर में यह व्यवस्था काफ़ी पहले से है। यहाँ भी स्थानीय लोगों को इन तरीकों से पर्यटन से जोड़ कर रोजगार मुहैया कराया जा रहा है यह देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा।


यहाँ से अब मिचनार के जंगल वाले पहाड़ी रास्तों से होते हुए कांगेर घाटी नेशनल पार्क की ओर गया। एक दूसरा रास्ते जगदलपुर के पास से होते हुए जाता है जो दूरी के लिहाज से ज़्यादा मुफ़ीद है लेकिन चित्रकोट वॉटरफॉल घूमने के बाद इसी मिचनार हिल वाले रास्ते से जाना चाहिए क्यूंकि यहाँ की पहाड़ी से जो नीचे का नजारा दिखता है वह ख़ासकर अभी मानसून के समय में देखने लायक होता है। इस रास्ते गाँव-गाँव होते हुए तीरथगढ़ वॉटरफॉल की ओर गया। गाँव की पर्यटन समिति यहाँ भी है, पार्किंग का 20 रुपये और साथ में वॉटरफॉल जाने की टिकट का भी 50 रुपये अब आपको देना होता है। चित्रकोट वॉटरफॉल में दोनों चीज़ें मुफ्त है। चित्रकोट की तरह यहाँ भी उसी तर्ज में मार्केट सजा हुआ है। बारिश लगातार हो रही थी इसलिए यहाँ का पानी भी चित्रकोट की तरह मटमैला दूधिया रंग लिए हुए था।


वापसी में केसकाल के पास टाटामारी नाम का एक व्यू पॉइंट है, वहाँ चला गया। बड़ी सुकून वाली जगह हुई ये भी। व्यू पॉइंट के पास ही रुकने के लिए कुछ कमरे भी बने हुए हैं, जिनमें व्यू के लिए बढ़िया ग्लास लगा हुआ है, एक दिन यहाँ अलग से रुकने लायक जगह लगी ये। यहाँ महिला समूह द्वारा संचालित कैफ़े में मिलेट पकौड़े और मिलेट से बने चीला रोटी का स्वाद याद रहेगा। यहाँ इस कैफ़े में घंटों रुकना हो गया क्यूंकि तेज़ बारिश होने लगी थी। फिर यहाँ से शाम रात तक रायपुर पहुँच गया।


इस दौरान जगदलपुर में एक दिन और अगला दिन कोंडागांव में रुकना हुआ। अगर कोई अपनी सुविधा से आ रहा है तो पहला दिन तो मुझे कोंडागांव में रुकना ज़्यादा उचित लगा, कोंडागांव जगदलपुर से अपेक्षाकृत सस्ता भी है और सारी सुविधाएं भी हैं। और यहीं से सारे मेनस्ट्रीम टूरिस्ट स्पॉट पास में ही हैं। यहीं से सीधे अगली सुबह आप चित्रकोट मेन्द्रीघूमर और तीरथगढ़ तीनों वॉटरफॉल शाम तक आराम से घूम सकते हैं और शाम को जगदलपुर में होटल ले सकते हैं। इन दो दिनों में ही बहुत से अलग-अलग कैफ़े रेस्तराँ में जाना हुआ, मैंने यह देखा कि एक खास तरह की परवलय आकार की पीली रोशनी वाली लाइट बस्तर अंचल के सारे जिलों में उनके कैफ़े में, रेस्तराँ में देखने को मिली। ये एकरूपता देखकर अच्छा भी लगा कि चलिए कुछ तो यहाँ की अपनी स्थानिकता की एक अलग पहचान बनायी हुई है सबने।


अगर शेष भारत की बात कहूँ तो जुलाई-अगस्त-सितंबर ये पूरे मानसून का समय बस्तर स्वर्ग हुआ, इस सीजन में घूमने के लिए बस्तर पूरे देश में सबसे बेहतरीन विकल्पों में से एक है। इतने सारे वॉटरफॉल हैं कि आप घूमते-घूमते थक जाएँगे और मजे की बात की यहाँ पूर्वोत्तर के राज्यों की तरह बाढ़ और भू-स्खलन की समस्या भी नहीं है।


इस बार के सफ़र के दौरान मैंने देखा कि विकास का पहिया बड़े आहिस्ते से सामंजस्य बनाते हुए बस्तर पहुँच रहा है। इस बीच बस्तर का आम आदमी बिल्कुल नहीं बदला है, प्लांट स्थापित किए जा रहे हैं, आर्मी के नए कैम्प बन रहे हैं, पहाड़ खोदकर रेल पहुंचाया जा रहा है, शहरों का पेट पालने के लिए दण्डकारण्य के जंगलों से प्राकृतिक संसाधन खोदकर लाया जा रहा है, विकास की ये तमाम आँधियों के आने के बावजूद बस्तर के आम लोगों के व्यवहार में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है जो कि सुखद है। इतना बड़ा दिल बस्तर वालों का ही हो सकता है, तभी तो इसने नक्सलियों तक की हिंसा क्रूरता अमानवीयता को पचा लिया, विकास की आंधी उस गति से यहाँ नहीं पहुँची है जितने की मैंने उम्मीद की थी, इसका श्रेय भी कुछ हद तक माओवाद को ही जाता है। बहरहाल, बस्तर विकास के रास्ते धीरे से ही करवट ले, इसी में इसकी भलाई है।

Thursday, 22 May 2025

सदगति

लगभग 22 साल पहले की बात है। तब सड़कों का जाल इतना विस्तृत नहीं था। फ़ोरलेन सड़के ना के बराबर थी। अधिकतर सिंगल और डबल लेन सड़कें ही थी। परिवहन के साधन सीमित थे। पीएम ग्राम सड़क योजना भी शैशवावस्था में था। उस समय एक बार चाचा (रिश्तेदार) छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर कुछ काम से गए थे। वापसी में जब बस से लौट रहे थे तो बस ख़राब हो गई और उसे बनने में काफ़ी देर लगी। तब के नेशनल हाईवे NH-6 ( वर्तमान NH-53 ) में भी डबल लेन ही सड़क थी। गुजरात से कोलकाता को जोड़ने वाला यह हाईवे (तब NH-6) खूब दुर्घटना वाला हाईवे हुआ करता था, अपनी दुर्घटनाओं के लिए इतना कुख्यात था कि जगह-जगह दुर्घटना-जन्य क्षेत्र के बोर्ड लगे हुए थे। तब छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश से अलग होकर नया-नया राज्य बना था, राज्य की राजधानी रायपुर भी आकार ले रहा था। रायपुर से बसना (ब्लॉक) तक चाचा बस में आ रहे थे। सुबह से रायपुर से निकले थे लेकिन बस ख़राब होने की वजह से रात तक बसना पहुंचे। वहाँ बस स्टैंड में अपनी साइकिल रखी थी, उसी से गाँव तक उनको आना था। क्यूँकि गाँव भी वहाँ से लगभग 8 किलोमीटर था। तभी एक महिला जो बस में उनके साथ आई थी। पास की सीट में ही बैठी थी। उन्होंने चाचा से आकर निवेदन किया कि वे उन्हें घर तक कृपया छोड़ दें। रात हो चुकी थी। और उस महिला को भी एक अलग रूट में जगदीशपुर नाम की जगह लगभग 8 किलोमीटर जाना था। चाचा के सामने भी धर्मसंकट वाली स्तिथि थी। असल में उस महिला को उतनी दूर साइकिल में घर छोड़ने में समस्या नहीं थी। समस्या थी शुचिता की, एक सामान्य शिष्टाचार की। वो एक समय ऐसा था कि लोग अमूमन पराई महिलाओं को आँख उठाकर नहीं देखा करते थे, इतना धर्म इतनी नैतिकता लोगों के भीतर थी। यही समस्या चाचा के साथ भी थी। उस महिला ने अनुरोध किया कि चाचा उन्हें छोड़ दें क्योंकि उतनी रात को उस रूट में कोई गाड़ी मिलना संभव नहीं था। तब के समय में मोटरसाइकिल भी सीमित लोगों के पास हुआ करते, आवागमन के साधन भी सीमित ही होते थे। लंबी दूरी के लिए गिनी-चुनी बसें होती थी और छोटी दूरी के लिए जीप कमांडर आदि होते जो दिन के समय ही खचाखच हाउसफुल मोड में चलते थे। वह महिला मूल रूप से रायपुर की थी, यहाँ जगदीशपुर में किसी शासकीय पद पर थी, नई- नई नौकरी लगी थी और उन्हें यहाँ की बहुत जानकारी नहीं थी।

चाचा के सामने धर्मसंकट वाली स्थिति थी। यह भी था कि किसी पराई महिला को उन्होंने साइकिल में उनके घर तक छोड़ा है, यह किसी को पता भी चलता तो उनके चरित्र पर प्रश्नचिह्न ना खड़ा हो जाए यह भी शायद वे सोच रहे होंगे, तब के समय के लोग बड़ी आसानी से इतनी नैतिकता लेकर चल लेते थे। उस महिला ने फिर से अनुरोध किया कि भैया आप अगर छोड़ देते तो बड़ी मेहरबानी होती। आखिरकार चाचा ने उस महिला को अपनी साइकिल में उनके घर तक छोड़ दिया। और वहाँ से फिर रात को अपने गाँव आ गए और इस बात को कई साल तक गोपनीय रखा। कुछ सालों बाद वह महिला जो विभाग में अधिकारी बन चुकी थी, चाचा की खोजबीन करने लगी ताकि मिलकर शुक्रिया अदा कर सके। लेकिन तब फ़ोन आदि का जमाना नहीं था। चाचा ने भी संकोचवश बहुत अधिक बातचीत नहीं की थी। लेकिन उन दोनों को बस एक दूसरे का नाम याद था।

उस घटना के लगभग 20 साल बाद यानि अभी दो साल पहले चाचा का परिवार एक झूठे पुलिस केस (ST-SC एक्ट ) में बहुत बुरी तरीके से फँस गए। उनकी फाइल पुलिस के एक उच्चाधिकारी के पास थी। चाचा ने बहुत इधर-उधर हाथ पांव मारा लेकिन कहीं से कोई उम्मीद की किरण नहीं दिख रही थी। कोर्ट कचहरी आदि में ऐसे फंसे कि जमा पूंजी भी ख़त्म होती रही। जब कुछ समझ नहीं आता तो निराश होकर मंदिर भी जाया करते। फिर एक दिन उन्होंने उस पुलिस वाले के बारे में पता किया, उनके सरनेम को देखकर उन्हें याद आया कि इसी सरनेम कि तो वह महिला भी थी जिनको उन्होंने 20 साल पहले साइकिल में घर छोड़ा था। संयोगवश जिस दिन पुलिस अधिकारी के पास मिलने गए थे, उसी दिन वह महिला भी वहीं मिल गई। पता चला की महिला उसी अधिकारी की पत्नी हैं। चाचा ने अपना परिचय दिया उसके बाद तुरंत उस महिला ने देखते ही पाँव छू लिया और कहा कि भैया इतना कुछ हो गया, आपको पहले बताना चाहिए था। चाचा खामोश होकर मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद कर रहे थे। वह महिला ख़ुद आदिवासी थी फिर भी उन्होंने चाचा के पक्ष को समझा और सीधे अपने पतिदेव को कहा कि इनका मामला देखिए आप, तुरंत रफ़ा-दफ़ा होना चाहिए, अगर क़ानून ऐसे व्यक्ति को अपराधी बनाता है तो फिर मेरा इस पूरी व्यवस्था से भरोसा उठ जाएगा। वैसे भी वह केस झूठा था, किसी फिल्मी कहानी की तरह आखिरकार चाचा के परिवार को उस केस से मुक्ति मिली। चाचा आज भी साइकिल से उस महिला को घर छोड़ने वाली घटना को बताते हुए भावुक हो जाते हैं और कहते हैं कि मैंने आजतक जीवन में कभी किसी के साथ ग़लत नहीं किया तो मेरे साथ भी भगवान की कृपा बनी रही। इंसान को हर परिस्थिति में अपने कर्म हमेशा सही रखने चाहिए, कहीं ना कहीं अच्छा कर्म किसी ना किसी रूप में लौट के आपके पास आता ही है।

जंगल में मोर नाचा किसने देखा -

एक परिचय के व्यक्ति रहे हैं। शादीशुदा हैं, बच्चे भी हैं। कुछ दिन पहले मिले तो बातें होनी लगी। फिर बताने लगे कि पत्नी को एक कॉलेज में फ़लाँ कोर्स के लिए भर्ती करा दिया है। फिर कहने लगे कि मैंने पत्नी जी को कह दिया कि कॉलेज के एक लड़के को सेट कर ले ( दोस्त बना ले ) वो असाइनमेंट और बाक़ी काम कर देगा। पत्नी भी इस पर सहमत है। सारा काम आसानी से हो रहा है। पतिदेव फिर यह भी कहने लगे कि यार क्या करें थोड़ा दुख तो होता है, अकेले में दुख मना लेता हूँ लेकिन ठीक है अपना काम हो जाता है। मुझे बहुत अधिक ध्यान नहीं देना पड़ता है, इससे बड़ा सुख और क्या चाहिए। फिर मुझसे फीडबैक भी लेने लगे तो मैंने भी कहा - हाँ, ये तो बहुत अच्छी व्यवस्था आप लोगों ने बनाई है, आप लोग के बीच अच्छी बांडिंग है तभी इतना अच्छा समन्वय करके आप लोग ऐसा कर पा रहे हैं। नहीं तो कई जगह पतिदेव लोग घिस-घिस के पत्नी के कॉलेज पढ़ाई का सारा काम करते हैं। आपने अपने लिए बढ़िया व्यवस्था की है और इस सच के साथ आपको जीना चाहिए, इसमें बहुत दुख मनाने की कोई बात नहीं है।

और वैसे भी हमारी सनातन परंपरा को भी देखें तो महाभारत में चौसर के खेल में युधिष्ठिर ने अपनी हार को छुपाने और जीतने की उम्मीद में द्रौपदी को दांव पर लगा दिया था। इंसानी जो भी करता है अपनी सहूलियत के लिए ही करता है भले उसमें थोड़ी तकलीफ़ होती है, युधिष्ठिर को भी हुई होगी जब वे द्रौपदी को हार गए और भरी सभा में अपमानित कर चीरहरण किया गया। यहाँ तो आप लोग गुप्त रूप से केवल दोस्ती की बात पर आम सहमति लेकर चल रहे हैं इतना तो कलयुग में जायज है।

Wednesday, 14 May 2025

जब रोम जल रहा था

जब रोम जल रहा था, नीरो emi भर रहा था

जब रोम जल रहा था, नीरो sip कर रहा था

जब रोम जल रहा था, नीरो होम लोन‌ प्लान कर रहा था

जब रोम जल रहा था, नीरो भागवत कर रहा था

जब रोम जल रहा था, नीरो पढ़ाई कर रहा था

जब रोम जल रहा था, नीरो नॉवेल पढ़ रहा था

जब रोम जल रहा था, नीरो जमीन खरीद रहा था

जब रोम जल रहा था, नीरो नौकरी कर रहा था

जब रोम जल रहा था, नीरो सोना खरीद रहा था

जब रोम जल रहा था, नीरो हेल्थ इंश्योरेंस ले रहा था

जब रोम जल रहा था, नीरो ने स्टार्टअप शुरु किया था

जब रोम जल रहा था, नीरो आर्गेनिक फार्मिंग कर रहा था

जब रोम जल रहा था, नीरो फास्ट फूड खा रहा था

जब रोम जल रहा था, नीरो पैसे की वसूली कर रहा था

जब रोम जल रहा था, नीरो शॉपिंग कर रहा था

जब रोम जल रहा था, नीरो वीगन बन रहा था

जब रोम जल रहा था, नीरो अनुलोम विलोम कर रहा था

जब रोम जल रहा था, नीरो शहर में कुत्ता टहलाने निकला था

जब रोम जल रहा था, नीरो एक्सपायर हो गया।

तू भी नीरो, मैं भी नीरो, अब तो सारा जग है नीरो!

Friday, 11 April 2025

घर की आर्थिक जिम्मेदारी और महिलाओं की भूमिका

भारत जब डिजिटल हो रहा था तो उसके पहले के समाज और अभी के समाज में खाई जैसा अंतर है। यह तब की बात है जब 2008-09 के आसपास लगभग हर मध्यवर्गीय आम भारतीय घरों में नोकिया मोटोरोला के मोबाइल फ़ोन आने शुरू हुए थे। बहुत तेज स्पीकर वाले चाइनीज़ फ़ोन भी आए थे। भारत का समाज बदलाव की अपनी ऐसी करवटें ले रहा था जहाँ अब पीछे मुड़ कर देखने की मनाही थी। 2012-13 के बाद से सैमसंग के स्मार्टफोन आने शुरू हुए और एक तरह से डिजिटल भारत की दुनिया में यह बड़ा कदम रहा।

आज के समय में हमारे जीवन का एक बहुत बड़ा हिस्सा स्मार्टफोन ने ले लिया है। हममें से कोई भी इससे अछूता नहीं है। चाहे शॉपिंग हो, बिल पेमेंट हो, किसी से कोई जरूरी बात कहनी करनी हो, मनोरंजन करना हो, ऑनलाइन व्यापार को ट्रैक करना हो या जुआ आदि हो। समय काटने का सारा इंतज़ाम फ़ोन पर उपलब्ध है। अब न तो मनोरंजन के लिए दोस्तों के साथ बैठने की बहुत अधिक ज़रूरत है ना ही जुआ खेलने जैसे कार्य के लिए चौपाल चाहिए।

स्मार्टफोन ने एक तरह से हमारे जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा हमसे छीन लिया है। निःसंदेह इससे हमारी ही सुविधा बढ़ी है लेकिन वही बात है जब बैठे-बैठे बहुत अधिक सुविधा मिलने लगे तो उसके दुष्परिणाम भी होते हैं। सोशल मीडिया से संचालित आज के इस युग में बच्चे से लेकर बूढ़ा हर कोई समय दान की इस बीमारी से ग्रसित है। जो जितना अधिक हो पा रहा है स्क्रीन को अपना समय दे रहा है। इसमें वैसे ग्रामीण परिवेश के पुरानी पीढ़ी के लोग कम है, इसका एक कारण उनका तकनीकी रूप से सक्षम नहीं होना है वरना वे भी इस अंधी रेस का हिस्सा जरूर बनते, दूसरा एक कारण यह भी है कि पुराने समय का व्यक्ति शारीरिक श्रम आधारित समाज में पैदा हुआ जहाँ सुबह से शाम कुछ ना कुछ करते रहने का फ़ितूर छाया रहता है। बहुत अधिक सुस्त होकर बैठने सोने की आदत उनकी नहीं रही है इस कारण से भी वे मनोरंजन के इन साधनों का सीमित उपयोग ही करते हैं। जैसे टीवी उनके लिए मनोरंजन हुआ करता है, उसकी जगह अब एक यूट्यूब नाम का विकल्प फ़ोन के माध्यम से उपलब्ध है, बस इतना ही अंतर है।

अब मूल बात यानी शीर्षक पर आते हैं। पहले के समय घर की दादी नानी या जो भी मुखिया हुआ करती। उनके हाथ में कमर में या कपड़े के एक छोटे से रूमाल में हमेशा चाबी का गुच्छा हुआ करता। घर की सभी बड़ी छोटी आर्थिक गतिविधियों का मैनेजमेंट वही देखा करती थी। उस समय की महिलाओं के साथ यह चीज़ हुआ करती कि वे फ़िज़ूलख़र्च ना ख़ुद करते थे, ना ही परिवार के किसी सदस्य को ऐसा करने देते थे। इस एक कारण से पूंजी का संचय हुआ करता था और आर्थिक स्तर पर कोई भी समस्या या आपातकाल वाली स्थिति निर्मित हो जाये, चीज़ें नियंत्रण में ही रहती थी। लेकिन अभी के समय में ऐसी दादियाँ ऐसी माताएं अब देखना दुर्लभ है। बहुत कम ही परिवार होंगे जहाँ अब दादी नानी साथ रहती हो, गाँव में ही यह थोड़ा बहुत बचा है। शहर में अगर साथ रहती भी है तो बिना किसी अधिकार के बेटे या बेटी के साथ उनके बच्चों का मन बहलाने के लिए एक सहयोगी की तरह ही रहती हैं। इस कारण से अब घर की समस्त आर्थिक जिम्मेदारियों का मैनेजमेंट इन नई लड़कियों के हाथों है। इन लड़कियों ने भले पैसे का संघर्ष देखा होगा लेकिन मितव्ययिता नाम की चीज़ क्या होती है, इन्हें इसकी बहुत अधिक समझ नहीं है या शायद यह भी है कि वह समझना ही नहीं चाहती हैं। पहले की महिलायें भले कभी स्कूल कॉलेज नहीं गई होंगी लेकिन पैसे के मैनेजमेंट की समझ उनकी अच्छी थी, सोचने का दायरा सीमित था तो एक ही फ्रेम में जीवन गुजर जाता था लेकिन अभी वह चीज़ बहुत कम हो गई है। इस कारण से पति-पत्नी में बहुत अलग-अलग तरह से झगड़े भी देखने को मिलते हैं क्यूंकि एक घर की अर्थव्यवस्था का संचालन करना इतना भी आसान काम नहीं है।

महिलाओं को चूँकि शुरू से पराये घर का धन माना गया। संपत्ति का अधिकार नहीं रहा इस कारण से कैसे भी करके बचत करते रहना उनके गुणसूत्र में रहता ही है। लेकिन डिजिटल युग आने के बाद के परिवारों को आप उठा के देख लीजिए, उन्हें पैसे की मैनेजमेंट की सही ट्रेनिंग शायद मिल नहीं पायी, साथ में परिवार के साथ दबकर रहने की बाध्यता भी हट गई, इस कारण से अकारण ही महिलायें अंधाधुंध खर्च करने लगी हैं। और घर के सारे सदस्य भी उसी राह पर चलने लगे हैं। पतियों पर भी ग़ज़ब का आर्थिक मनोवैज्ञानिक दबाव बढ़ा है। उन्हें नकारा दिखाया जाता है कि फलाने ने कार ख़रीद ली जमीन ख़रीद ली पत्नी के लिए सोना खरीदा इतने जगह ट्रिप में चले गए, आप तो ऐसा कुछ भी नहीं कर रहे। जबकि इसके ठीक उलट ऑनलाइन शॉपिंग, कपड़े, घर के सामान आदि हर जगह बेफ़िज़ुल के खर्चे शामिल हैं जिसकी कोई सीमा नहीं है। क्यूंकि डिजिटल युग में आपको हर चीज़ झटके में सोशल मीडिया के माध्यम से दुनिया के सामने दिखाना है। पैसे जोड़कर इंसान जो कार या जमीन 10 साल में खरीदता आज उसे ख़रीद लेने का पागलपन बढ़ा है, तेज़ी बढ़ी है, अब उसे वही चीज़ 1 साल के अंदर चाहिए। इस कारण से व्यक्ति लोन लेता है, गृहिणी ख़ुद ईएमआई के लिए प्रोत्साहित करती है। यहीं सारा कुछ गड़बड़ होना शुरू होता है। मसलन घर के कुल मासिक आय का 40-50% हिस्सा तरह-तरह की ईएमआई में चला जाता है, उसके बाद के हिस्से को खाने के लिए महंगाई डायन है ही, बचा खुचा हिस्सा दिखावे वाला समाज छीन लेता है और आपके पास केवल घंटा बच जाता है। और यही घंटा गृह कलह के रूप में अनवरत बजता रहता है।

पितृसत्तात्मक समाज में घर की अर्थव्यवस्था का संचालन महिलाओं के हाथ में रहा है, क्यूंकि पुरुष इस एक मामले में उस तरह से परिपक्व नहीं रहते हैं, सीधे-सीधे यह भी कह सकते हैं कि पितृसत्तात्मकता के नशे में पुरुषों ने इस ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया, इस कारण से महिलाओं के कंधे पर बड़ी जिम्मेदारी रही। लेकिन अभी के समय में जहाँ महिलायें खुल कर बोलना शुरू कर रही हैं, अपनी ख्वाहिशों को प्राथमिकता दे रही हैं, नौकरी से लेकर हर जगह अपना हस्तक्षेप बढ़ा रही हैं ऐसे में अगर वही इस चले रहे आर्थिक उत्पात से नजर हटा लें तो समाज का पतन होना तय है।

एक दूसरा मजबूत पहलू इसमें यह भी है कि इतनी पीढ़ियों से अपने कंधों पर घर की सारी जिम्मेदारियों का बोझ उठा रही महिलाओं ने अब कन्नी काटना शुरू किया है जहाँ वह अब भारमुक्त होना चाहती है, स्वतंत्र होना चाहती है और यह सही भी है, समाज को ख़त्म होना हो, हो जाए। महिलाओं की अपनी स्वतंत्रता उनकी अपनी ख्वाहिशें होम कर बनने वाला समाज कहीं से भी स्वस्थ समाज तो नहीं ही कहा जाएगा। आज महिलायें खुलकर अपने पतियों से कह रहीं हैं कि मैं घर का मैनेजमेंट अकेले नहीं देखूँगी, मेरी भी अपनी जीवन रुपी ख्वाहिशें हैं, तुम भाई रखो मेड/बाई। और ये माँ के हाथ के खाने का महिमामंडन बंद होना चाहिए। बच्चा घर लौटे तो माँ के हाथ के खाने के साथ बाई और बाप के हाथ के खाने को भी लालायित हो, मुझ अकेले पर सारी दुनिया की नैतिक जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए। मुझे कहीं से भी सुपर वुमन या त्याग की देवी नहीं बनना है। पति बेचारा ऊहापोह में है, उसे समझ नहीं आ रहा है कि इस नवाचार को स्वीकारे करे भी तो कैसे, इस कारण से भी परेशान होकर आजकल पतियों को लाइव आकर आत्महत्या करना पड़ रहा है, तलाक के मामले बढ़े हैं, और इस सबका मूल यही है की महिलाओं ने खुली हवा में सांस लेना शुरू किया है। अब पूंजी से संचालित आज के समाज में देवतुल्य पुरुषों के पास अपना अहं त्याग कर जल्द से जल्द नौकरी करने और उसके बाद भी पैसे का मैनेजमेंट सीखने के साथ-साथ घर संभालने के अलावा और कोई विकल्प बचा नहीं है।

Saturday, 1 March 2025

अतिरेक करने वालों का बोलबाला

चाहे कुंभ हो या हो केदारनाथ,

काशी हो या वृंदावन,

या हो मनाली या लद्दाख,

हर जगह अतिरेक वालों का बोलबाला है।

आस्था के पीछे तर्क देने वाले,

और आस्था का मजाक उड़ाने वाले,

दोनों कर रहें हैं धींघामुस्ती,

हर जगह अतिरेक वालों का बोलबाला है।

नुक्कड़ में चिल्लाने वाले,

टीवी में बकबक करने वाले,

सभी लड़ रहे अपने हिस्से का युद्ध,

हर जगह अतिरेक वालों का बोलबाला है।

उसने अपने भीतर नहीं झांका कभी,

ना कभी दूसरे के अच्छे पहलू को देखा,

मन मस्तिष्क में लड़ते रहने का छाया है फ़ितूर,

हर जगह अतिरेक वालों का बोलबाला है।

ख़ुद के पैरों में लगी है बेड़ियाँ,

लेकिन दूसरे की हथकड़ी का उड़ाता है मजाक,

शासित शोषित दोनों खड़े हैं कतार में,

हर जगह अतिरेक वालों का बोलबाला है।

दिन रात जुबानी तलवार चलाने वाले,

कर देते हैं एक बड़ी आबादी को ख़ामोश,

चुपचाप तमाशा देखिए,

हर जगह अतिरेक वालों का बोलबाला है।

Wednesday, 5 February 2025

बात निकली चॉकलेट की -

सोशल मीडिया में अपने छोटे मोटे सुख-दुख को बांटते हुए हम आम भारतीयों में से लगभग हर किसी को इस फ्रिज के बारे में पता होगा। यह डिब्बेनुमा फ्रिज जो लगभग हर छोटे बड़े परचून/किराने की दुकान में देखने मिल जाता है, इसमें बहुत से अलग-अलग ब्रांड के चॉकलेट रखे जाते हैं, अमूमन 5 रुपए से लेकर 100 रुपए तक के चॉकलेट रहते हैं, इन सारे चॉकलेट्स के विज्ञापन बड़े-बड़े सेलिब्रिटी दशकों से करते आ रहे हैं। इस कारण से इन चॉकलेट्स की बड़ी खेप भारत के आम लोगों तक पहुँचती है, हममें से लगभग हर किसी ने खाया ही होगा। दोस्त यार को तोहफ़े में भी हम दशकों से यही सब देते आ रहे हैं। “ कुछ मीठा हो जाए “ की तर्ज़ पर अमिताभ बच्चन जैसे सेलिब्रिटियों ने एक तरह से चॉकलेट को मीठे का पर्याय बना दिया जबकि चॉकलेट उस तरह से मीठे और सुगर वाली श्रेणी में नहीं आता है।

अब मुद्दे की बात यह है कि ये सारे चॉकलेट निहायती कूड़ा हैं, जिससे शरीर को कुछ भी नहीं मिलता है। निःसंदेह इनके बनने में एकदम घटिया स्तर के कोको और नाना प्रकार के आर्टिफीसियल फ्लेवर का इस्तेमाल किया जाता है, तभी इनमें चॉकलेट के नाम पर केवल एक ख़ास तरह का स्वाद होता है। यही फार्मूला सेलिब्रिटी द्वारा प्रचारित किए जा रहे बहुत से दैनिक जीवन के उत्पादों पर लगाया जा सकता है।

चॉकलेट की असली पहचान क्या है, उसका एहसास क्या होता है, इसे समझने के लिए सन् 2000 में बनी चॉकलेट फ़िल्म को देखना चाहिए। फ़िल्म में एक महिला और उसकी बेटी फ्रांस में एक रूढ़िवादी गाँव में चॉकलेट की दुकान खोलती हैं, जिसे वहाँ के ग्रामीण स्वीकार नहीं करते हैं। लेकिन धीरे-धीरे समय के साथ वे लोगों का दिल जीतती हैं और उनकी परेशानियों में उनकी आर्थिक मदद भी करती हैं। यह सिर्फ़ और सिर्फ़ वे अपने घर में हाथ से बनाए चॉकलेट के दम पर करती हैं। जो कोई भी विरोध करते वे सबको मुफ्त में चॉकलेट खिलाया करती हैं, चॉकलेट खाकर ही वे उनके प्रशंसक बन जाते हैं। किसी की तबीयत ठीक नहीं है उसे भी एक ख़ास तरह का चॉकलेट दे देती है जो तुरंत उनकी तबीयत ठीक कर देता है। यह सब कुछ उनके बनाये चॉकलेट के दम पर होता है।

कुछ समय पहले विदेशी ब्रांड की चॉकलेट लगातार खाने के बाद समझ आया की असल मायनों में चॉकलेट होता क्या है। चॉकलेट कम अधिक इनो की तरह होता है, वही 6 सेकंड में काम करने वाला इनो जिसे भारत का समाज एसिडिटी भगाने के लिए कम और इडली बनाने के लिए अधिक इस्तेमाल करता है। असल में चॉकलेट खाते ही आपका मूड बहुत बढ़िया हो जाता है, मिनट भर के अंदर ही एक हल्कापन महसूस होता है क्यूंकि अच्छा चॉकलेट तुरंत अच्छी मात्रा में सेरोटोनिन और एंडोर्फिन स्रावित करता है। लेकिन ख़राब और घटिया क्वालिटी के कोको से बने चॉकलेट में सिर्फ़ आर्टिफीसियल फ्लेवर ही मिलता है जिससे आपको केवल घंटा मिलता है।

Sunday, 2 February 2025

सरकारी कर्मचारी अधिकारी दिखने में अच्छे क्यों नहीं होते हैं ?

एक अधिकारी दोस्त ने कुछ समय पहले घोर निराशा जताते हुए मुझसे पूछा कि ये सरकारी अधिकारी लोग अच्छे क्यों नहीं दिखते हैं? कुछ एक अपवाद छोड़ दें तो एक भी इंसान ढंग का नहीं। ना कोई पर्सनैलिटी, ना ही पहनावे का ढंग, सब एक जैसे ही निष्प्राण से लगते हैं।

इसके बहुत से कारण हैं -

1. आप किसी पद पर हैं, आपको हमेशा इस बात का ध्यान रखना होगा कि दिखने में आप अपने सीनियर अधिकारी से बड़े और बेहतर ना लगें, वरना उसका अहम हावी होने लगेगा। इसलिए एक तहसीलदार स्तर का व्यक्ति कभी एसडीएम और कलेक्टर के स्तर के कपड़े जानबूझकर नहीं पहनता है जबकि पहन सकता है। अगर पहन भी ले तो उसे असहज महसूस कराया जाएगा, व्यवस्था ऐसी है कि वह ख़ुद भी असहज महसूस करेगा। आप यहीं से ख़ुद को छोटा करते हैं, आप क्या करते हैं, व्यवस्था ही कर देती है।

2. भोजन के तौर तरीकों की भी बड़ी भूमिका होती है। लगभग हर सरकारी विभाग और उसके कर्मचारी अधिकारी मीटिंग और छुटपुट पार्टी के नाम पर समोसे और चाय से ऊपर सोच नहीं पाते हैं। चाय समोसे पर ही दोस्ती यारी होती है, चर्चाएं होती है। इस वजह से भी कोई क्लास डेवलप नहीं हो पाता है। दूसरा एक पहलू इसमें यह भी है कि आपके चारों ओर नाना प्रकार के बागड़बिल्ले होते हैं तो आप चाहकर भी ऊँचा नहीं सोच सकते, आपको सामूहिकता का ध्यान रखना होता है। तो आप जैसा खाते हैं, आपकी सोच भी वैसी होने लगती है, आपका ढाँचा भी वैसे ही ढल जाता है, आप अलग नहीं दिखते हैं।

3. चर्चा विमर्श के नाम पर किसने कहाँ जमीन ख़रीदी, कौन सी गाड़ी ख़रीदी, कौन सा लोन लिया, यही चलता है। फ़िल्म मनोरंजन के नाम पर भी वही बॉलीवुड और साउथ की बात चलती है। कभी आप नहीं सुनेंगे कि कोई किताबों पर बात करे या किसी थिएटर या आर्ट फ़िल्म को लेकर कोई चर्चा हो। तो इंसान जैसा देखता है, वैसा होने लगता है।

4. सरकारी विभाग में आदमी समाज के हर तबके से मुखातिब होता है। अमीर ग़रीब हर कोई टकराता है। ऐसी स्तिथि में समाज के हर पहलू, उससे जुड़े लोक व्यवहार के तरीक़ों और विद्रूपताओं से आए दिन दो-चार होने की वजह से आपके भीतर भी थोड़ा सा प्रभाव आ ही जाता है। वैसे भी हर कोई कहीं ना कहीं लूट रहा है, ऐसे में व्यवस्था के साथ रहने की इतनी क़ीमत तो चुकानी ही पड़ती है।

5. सरकारी दफ़्तर में नाम से अधिक सरनेम की पूजा होती है, आपको आपके सरनेम से ही पुकारा जाता है, आपके जॉइनिंग के दिन से आपका जाति गोत्र खंगाला जाता है, आपको ऐसे ही लोगों के बीच खपना होता है। आप भी जुगाड़ के नाम पर अपना जात भाई खोजने लगते हैं। कुल मिलाकर भारतीय समाज के कटु यथार्थ को एकदम निचले स्तर तक सरकारी दफ्तर में आप आए दिन महसूस कर सकते हैं। ये सब संगत में आप रहते हैं तो आपका भी दिमाग भ्रष्ट होता है, आप बहुत दिन तक अप्रभावित नहीं रह सकते हैं, वैसे भी व्यवस्था की एक ताक़त है कि वह बिना पता चले ही लोगों को अपने भीतर अवशोषित कर लेती है, इसलिए थोड़ी बहुत कीचड़ की छींटें आप तक भी आती है।

6. सरकारी तंत्र में आपकी योग्यता और आपके काम की गुणवत्ता से कहीं अधिक बड़ा गुण जी हुजूरी करने को माना जाता है। इस कारण से आपसे बेहतर काम की अपेक्षा ना होकर हमेशा औसत काम की अपेक्षा रहती है। अहम संतुष्ट करना काम को बेहतर ढंग से करने से बड़ा ध्येय माना जाता है। इसलिए ठेके में लिए गए काम की तरह आपको एक काम को पकड़ के धीरे-धीरे अलादीन के चिराग की तरह घिसते रहना होता है। आप जल्दी करके देंगे तो आपका भयानक शोषण होगा, इसलिए जानबूझकर आपको अपनी गति धीमी करनी होती है, इससे आपकी मेधा, क्षमता और उत्पादकता कम होती है। इस कारण से भी लोग निष्क्रिय उबाऊ होने लगते हैं।

7. सरकारी विभाग यानी पॉवर। आपके पास जब पॉवर होता है, खासकर एक इंसान होने के नाते जब आप एक किसी दूसरे इंसान के जीवन के छोटे से पहलू को भी प्रभावित करने की ताक़त रखते हैं, ऐसी स्तिथि में आपके भीतर एक अजीब किस्म का अक्खड़पना हावी होने लगता है। इंच मात्र ही सही मैं ही सर्वे सर्वा हूँ, मैं ही इष्ट हूँ, भगवान हूँ, यह वाला भाव जब आपके भीतर आता है तो आपको ना तो अच्छा दिखने की ज़रूरत महसूस होती है, ना ही आपको अपनी पर्सनैलिटी का ध्यान रखना बहुत बड़ी चीज़ लगती है। क्यूंकि इसके बिना भी आपका खूब डंका बजता है, आपको पूजा जाता है। इसलिए भी अधिकतर लोगों का स्किलसेट सरकारी व्यवस्था में जाते ही खत्म होने लगता है।

ऊपर लिखित बातों में ही इंसान इतने बुरे तरीके से फँसा रहता है कि उसके लिए ख़ासकर अच्छे कपड़े पहना, अच्छा स्मेल करना, अच्छा दिखना यह सब चीज़ें गौण हो जाती है। और पितृसत्तात्मक समाज होने की वजह से यह दरिद्रता पुरुषों में अधिक दिखाई देती है।