Friday, 11 April 2025

घर की आर्थिक जिम्मेदारी और महिलाओं की भूमिका

भारत जब डिजिटल हो रहा था तो उसके पहले के समाज और अभी के समाज में खाई जैसा अंतर है। यह तब की बात है जब 2008-09 के आसपास लगभग हर मध्यवर्गीय आम भारतीय घरों में नोकिया मोटोरोला के मोबाइल फ़ोन आने शुरू हुए थे। बहुत तेज स्पीकर वाले चाइनीज़ फ़ोन भी आए थे। भारत का समाज बदलाव की अपनी ऐसी करवटें ले रहा था जहाँ अब पीछे मुड़ कर देखने की मनाही थी। 2012-13 के बाद से सैमसंग के स्मार्टफोन आने शुरू हुए और एक तरह से डिजिटल भारत की दुनिया में यह बड़ा कदम रहा।

आज के समय में हमारे जीवन का एक बहुत बड़ा हिस्सा स्मार्टफोन ने ले लिया है। हममें से कोई भी इससे अछूता नहीं है। चाहे शॉपिंग हो, बिल पेमेंट हो, किसी से कोई जरूरी बात कहनी करनी हो, मनोरंजन करना हो, ऑनलाइन व्यापार को ट्रैक करना हो या जुआ आदि हो। समय काटने का सारा इंतज़ाम फ़ोन पर उपलब्ध है। अब न तो मनोरंजन के लिए दोस्तों के साथ बैठने की बहुत अधिक ज़रूरत है ना ही जुआ खेलने जैसे कार्य के लिए चौपाल चाहिए।

स्मार्टफोन ने एक तरह से हमारे जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा हमसे छीन लिया है। निःसंदेह इससे हमारी ही सुविधा बढ़ी है लेकिन वही बात है जब बैठे-बैठे बहुत अधिक सुविधा मिलने लगे तो उसके दुष्परिणाम भी होते हैं। सोशल मीडिया से संचालित आज के इस युग में बच्चे से लेकर बूढ़ा हर कोई समय दान की इस बीमारी से ग्रसित है। जो जितना अधिक हो पा रहा है स्क्रीन को अपना समय दे रहा है। इसमें वैसे ग्रामीण परिवेश के पुरानी पीढ़ी के लोग कम है, इसका एक कारण उनका तकनीकी रूप से सक्षम नहीं होना है वरना वे भी इस अंधी रेस का हिस्सा जरूर बनते, दूसरा एक कारण यह भी है कि पुराने समय का व्यक्ति शारीरिक श्रम आधारित समाज में पैदा हुआ जहाँ सुबह से शाम कुछ ना कुछ करते रहने का फ़ितूर छाया रहता है। बहुत अधिक सुस्त होकर बैठने सोने की आदत उनकी नहीं रही है इस कारण से भी वे मनोरंजन के इन साधनों का सीमित उपयोग ही करते हैं। जैसे टीवी उनके लिए मनोरंजन हुआ करता है, उसकी जगह अब एक यूट्यूब नाम का विकल्प फ़ोन के माध्यम से उपलब्ध है, बस इतना ही अंतर है।

अब मूल बात यानी शीर्षक पर आते हैं। पहले के समय घर की दादी नानी या जो भी मुखिया हुआ करती। उनके हाथ में कमर में या कपड़े के एक छोटे से रूमाल में हमेशा चाबी का गुच्छा हुआ करता। घर की सभी बड़ी छोटी आर्थिक गतिविधियों का मैनेजमेंट वही देखा करती थी। उस समय की महिलाओं के साथ यह चीज़ हुआ करती कि वे फ़िज़ूलख़र्च ना ख़ुद करते थे, ना ही परिवार के किसी सदस्य को ऐसा करने देते थे। इस एक कारण से पूंजी का संचय हुआ करता था और आर्थिक स्तर पर कोई भी समस्या या आपातकाल वाली स्थिति निर्मित हो जाये, चीज़ें नियंत्रण में ही रहती थी। लेकिन अभी के समय में ऐसी दादियाँ ऐसी माताएं अब देखना दुर्लभ है। बहुत कम ही परिवार होंगे जहाँ अब दादी नानी साथ रहती हो, गाँव में ही यह थोड़ा बहुत बचा है। शहर में अगर साथ रहती भी है तो बिना किसी अधिकार के बेटे या बेटी के साथ उनके बच्चों का मन बहलाने के लिए एक सहयोगी की तरह ही रहती हैं। इस कारण से अब घर की समस्त आर्थिक जिम्मेदारियों का मैनेजमेंट इन नई लड़कियों के हाथों है। इन लड़कियों ने भले पैसे का संघर्ष देखा होगा लेकिन मितव्ययिता नाम की चीज़ क्या होती है, इन्हें इसकी बहुत अधिक समझ नहीं है या शायद यह भी है कि वह समझना ही नहीं चाहती हैं। पहले की महिलायें भले कभी स्कूल कॉलेज नहीं गई होंगी लेकिन पैसे के मैनेजमेंट की समझ उनकी अच्छी थी, सोचने का दायरा सीमित था तो एक ही फ्रेम में जीवन गुजर जाता था लेकिन अभी वह चीज़ बहुत कम हो गई है। इस कारण से पति-पत्नी में बहुत अलग-अलग तरह से झगड़े भी देखने को मिलते हैं क्यूंकि एक घर की अर्थव्यवस्था का संचालन करना इतना भी आसान काम नहीं है।

महिलाओं को चूँकि शुरू से पराये घर का धन माना गया। संपत्ति का अधिकार नहीं रहा इस कारण से कैसे भी करके बचत करते रहना उनके गुणसूत्र में रहता ही है। लेकिन डिजिटल युग आने के बाद के परिवारों को आप उठा के देख लीजिए, उन्हें पैसे की मैनेजमेंट की सही ट्रेनिंग शायद मिल नहीं पायी, साथ में परिवार के साथ दबकर रहने की बाध्यता भी हट गई, इस कारण से अकारण ही महिलायें अंधाधुंध खर्च करने लगी हैं। और घर के सारे सदस्य भी उसी राह पर चलने लगे हैं। पतियों पर भी ग़ज़ब का आर्थिक मनोवैज्ञानिक दबाव बढ़ा है। उन्हें नकारा दिखाया जाता है कि फलाने ने कार ख़रीद ली जमीन ख़रीद ली पत्नी के लिए सोना खरीदा इतने जगह ट्रिप में चले गए, आप तो ऐसा कुछ भी नहीं कर रहे। जबकि इसके ठीक उलट ऑनलाइन शॉपिंग, कपड़े, घर के सामान आदि हर जगह बेफ़िज़ुल के खर्चे शामिल हैं जिसकी कोई सीमा नहीं है। क्यूंकि डिजिटल युग में आपको हर चीज़ झटके में सोशल मीडिया के माध्यम से दुनिया के सामने दिखाना है। पैसे जोड़कर इंसान जो कार या जमीन 10 साल में खरीदता आज उसे ख़रीद लेने का पागलपन बढ़ा है, तेज़ी बढ़ी है, अब उसे वही चीज़ 1 साल के अंदर चाहिए। इस कारण से व्यक्ति लोन लेता है, गृहिणी ख़ुद ईएमआई के लिए प्रोत्साहित करती है। यहीं सारा कुछ गड़बड़ होना शुरू होता है। मसलन घर के कुल मासिक आय का 40-50% हिस्सा तरह-तरह की ईएमआई में चला जाता है, उसके बाद के हिस्से को खाने के लिए महंगाई डायन है ही, बचा खुचा हिस्सा दिखावे वाला समाज छीन लेता है और आपके पास केवल घंटा बच जाता है। और यही घंटा गृह कलह के रूप में अनवरत बजता रहता है।

पितृसत्तात्मक समाज में घर की अर्थव्यवस्था का संचालन महिलाओं के हाथ में रहा है, क्यूंकि पुरुष इस एक मामले में उस तरह से परिपक्व नहीं रहते हैं, सीधे-सीधे यह भी कह सकते हैं कि पितृसत्तात्मकता के नशे में पुरुषों ने इस ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया, इस कारण से महिलाओं के कंधे पर बड़ी जिम्मेदारी रही। लेकिन अभी के समय में जहाँ महिलायें खुल कर बोलना शुरू कर रही हैं, अपनी ख्वाहिशों को प्राथमिकता दे रही हैं, नौकरी से लेकर हर जगह अपना हस्तक्षेप बढ़ा रही हैं ऐसे में अगर वही इस चले रहे आर्थिक उत्पात से नजर हटा लें तो समाज का पतन होना तय है।

एक दूसरा मजबूत पहलू इसमें यह भी है कि इतनी पीढ़ियों से अपने कंधों पर घर की सारी जिम्मेदारियों का बोझ उठा रही महिलाओं ने अब कन्नी काटना शुरू किया है जहाँ वह अब भारमुक्त होना चाहती है, स्वतंत्र होना चाहती है और यह सही भी है, समाज को ख़त्म होना हो, हो जाए। महिलाओं की अपनी स्वतंत्रता उनकी अपनी ख्वाहिशें होम कर बनने वाला समाज कहीं से भी स्वस्थ समाज तो नहीं ही कहा जाएगा। आज महिलायें खुलकर अपने पतियों से कह रहीं हैं कि मैं घर का मैनेजमेंट अकेले नहीं देखूँगी, मेरी भी अपनी जीवन रुपी ख्वाहिशें हैं, तुम भाई रखो मेड/बाई। और ये माँ के हाथ के खाने का महिमामंडन बंद होना चाहिए। बच्चा घर लौटे तो माँ के हाथ के खाने के साथ बाई और बाप के हाथ के खाने को भी लालायित हो, मुझ अकेले पर सारी दुनिया की नैतिक जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए। मुझे कहीं से भी सुपर वुमन या त्याग की देवी नहीं बनना है। पति बेचारा ऊहापोह में है, उसे समझ नहीं आ रहा है कि इस नवाचार को स्वीकारे करे भी तो कैसे, इस कारण से भी परेशान होकर आजकल पतियों को लाइव आकर आत्महत्या करना पड़ रहा है, तलाक के मामले बढ़े हैं, और इस सबका मूल यही है की महिलाओं ने खुली हवा में सांस लेना शुरू किया है। अब पूंजी से संचालित आज के समाज में देवतुल्य पुरुषों के पास अपना अहं त्याग कर जल्द से जल्द नौकरी करने और उसके बाद भी पैसे का मैनेजमेंट सीखने के साथ-साथ घर संभालने के अलावा और कोई विकल्प बचा नहीं है।

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