आर्मी का तिलिस्म और हमारा भारतीय समाज -
कुछ दिन पहले रायपुर में कारगिल विजय दिवस का आयोजन हुआ तो उसमें आर्मी वालों के साथ मिलकर एक लंबी मोटरसाइकिल राइड हुई। इस सफ़र ने मुझे भारत के उस पहलू से रूबरू कराया जिसे बहुत समय से मैं चाहकर देख नहीं पा रहा था।
हमारी बाइक्स आर्मी के रायपुर स्थित कोसा हेडक्वार्टर से केसकाल स्थित टाटामारी तक गई और फिर वहीं से फिर दोपहर शाम तक रायपुर वापसी हुई। लगभग 400 किलोमीटर के इस सफ़र में जाते वक्त इतनी बारिश हुई की सबके रेनकोट भीग गए। आर्मी के जो ब्रिगेडियर और लेफ़्टीनेंट स्तर के अधिकारी जो बड़ी सीसी की गाड़ी में आगे लीड कर रहे थे, वे भी तेज बारिश में धीरे चल रहे थे। जबकि हम तो ठहरे देसी हरफनमौला बाइकर, मौत को टक से छूकर आने वाले लोग, हमारी 250 सीसी ने पानी की तेज बौछार को चीरते हुए उनको पछाड़ दिया। वो कहते हैं ना - “ Its not about the bike, its all about the biker how he rides. “
रायपुर से शुरू हुए हमारे इस सफ़र में 2-3 आर्मी की गाड़ियां भी साथ चल रही थी। जिसमें अधिकारी स्तर के लोगों के परिवारजन थे और उनकी सुरक्षा के लिए कुछ एक सिपाही। शेष भारत के आर्मी अफ़सर की तरह ये भी अंग्रेज़ीदाँ ही रहे, उनका अपना बातचीत करने का अलग तौर तरीका, मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि मैं ये कौन से नए भारत में आ गया हूँ। इतना “ sense of alienation “ कभी आईएएस आईपीएस स्तर के लोगों के बीच नहीं हुआ। खैर उसके अपने कारण हैं जिस पर विस्तार से बात करने की आवश्यकता है।
सेना में दो तरह के लोग जाते हैं। पहले वे जिसमें हमेशा से सिपाही स्तर पर भारत का आम खेती-किसानी परिवार का ग़रीब, निम्न और मध्यमवर्गीय तबका जाता है। जिसकी जुबान में अंग्रेज़ी ना के बराबर होती है। यह तबका गाँव घर में पला बढ़ा होता है, ग्राउंड जीरो के भारतीय समाज के हर एक पहलू से रूबरू होता है। ये तबका खूब हाड़तोड़ मेहनत कर सिपाही स्तर की नौकरी पाता है, कम अधिक 12वीं पास कर शारीरिक मेहनत कर यह उस पद को हासिल करता है। अगर भावुकता और देशभक्ति को किनारे कर देखा जाए तो ये वाली एक बड़ी आबादी इसलिए भी आर्मी में जाती है क्यूंकि ख़ुद के और परिवार के लिए आजीवन एक आर्थिक सुरक्षा की गारंटी मिल जाती है। भारत में किसी भी और नौकरी में इस तरह से सुरक्षा नहीं मिलती है। वो बात अलग है कि देशप्रेम के नाम पर जितना शोषण ( यौन शोषण आदि भी ) इन सिपाही स्तर के लोगों का होता है उतना पुलिस में भी नहीं होता है। कई लोगों का जीवन तो किसी अधिकारी के चपरासी बनकर ही निकल जाता है, कई कैंटोनमेंट एरिया में यही सेवा देते हैं, लेकिन देशप्रेम की टोह में सब कुछ छिप जाता है। इस वजह से कई बार आत्महत्या की ख़बरें आती है, लेकिन इस मजबूत शोषणकारी व्यवस्था पर कोई आंच ना आए इसलिए ऐसी खबरें दबा दी जाती है। और सबसे मजे की बात; युद्ध हो, आपातकाल हो, कोई विपदा हो, आपदा हो, हर जगह यही सिपाही तबका ही जाकर लड़ता मरता है।
इसके ठीक उलट सेना में जाने वाला दूसरा तबका ऑफिसर रैंक वालों का है। इस श्रेणी में जाने के लिए एनडीए और सीडीएस स्तर की जो परीक्षा होती है उन परीक्षाओं का पैटर्न पूरा का पूरा अंग्रेजी वाला होता है और उसकी छटनी से लेकर जितने स्तर के उसमें पेपर होते हैं वह इस तरीके से डिज़ाइन किया गया है कि भारत का आम निम्न मध्यवर्गीय किसान कमेरे परिवार का व्यक्ति उस रास्ते आगे जा ही नहीं सकता है। दूसरा एक कारण भाषा और उस स्तर के कॉन्फिडेंस का भी है। ग्रुप डिस्कशन में ही आधे कट जाते हैं, क्यूंकि परिवार में और आसपास कभी वैसी फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलने का माहौल नहीं मिलता है। कोई इक्का दुक्का अपवाद स्वरूप अपनी ख़ुद की मेहनत से आगे चला भी जाता है तो आजीवन alienated महसूस करता है, और तो और उसे रैंक में बहुत आगे नहीं जाने दिया जाता है। जबकि वहीं एक सभ्रांत अधिकारी स्तर के आर्मी परिवार में पले बढ़े व्यक्ति के लिए वहाँ तक पहुंचना बहुत आसान होता है। इस कारण से आज भी आर्मी में ऑफिसर रैंक में एक ख़ास तरह के लोगों का दबदबा आजादी के बाद से कायम है और वहाँ किसी और को घुसने की इजाज़त नहीं है। ये एक ऐसा नेक्सस है जिस पर ना कभी मीडिया सवाल कर पाता है ना कोई नेता इन पर सवाल खड़ा करता है, क्यूँकि देशभक्ति की आड़ में सीधे आपको ग़लत ठहरा दिया जाएगा, आपको देशद्रोही भी कहा जा सकता है।
इतना भारत घूमते हुए यह एक चीज़ तो है कि people experience से बहुत कुछ समझ आ जाता है। हमारे साथ जो आर्मी वाले गए और उनके परिवार वाले थे, उनके हावभाव और बातचीत से ऐसा लगा जैसे वे एक अलग ही दुनिया के हैं और हो भी क्यों ना, क्यूंकि वे मुख्यधारा के भारत से इतना अलग-थलग जो रहते हैं। एक तो ऑफिसर रैंक होने की वजह से इफ़रात सुविधाएं नौकर चाकर, ऊपर से दैनिक जरूरतों से लेकर बुनियादी सुविधाओं में भी आर्मी कैंटीन से लेकर स्कूल आदि सबमें भयानक छूट है और गुणवत्ता वाली चीज़ मिलती रहती है। ना ये लोग कभी जीवन में ख़राब फल सब्ज़ी या मिलावट वाला दूध देखते हैं, ना कभी मुख्यधारा के समाज वालों की तरह चोरी झगड़ा बहस मोलभाव नोकझोंक ट्रैफिक जाम ये सब झेलते हैं। ना ही स्कूल फीस और बच्चों के बजट को लेकर कभी घर में तनाव का माहौल बनता है। कार बाइक खरीदनी है वहाँ भी आर्मी कैंटीन में भरपूर छूट है। स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर कभी परेशान नहीं होना पड़ता, इनके अपने अलग सर्वसुविधायुक्त अस्पताल होते हैं। अलग-अलग स्पोर्ट्स खेलने हैं तो विशाल ग्राउंड होते हैं और साथ में सारी सुविधाएं आपको उपलब्ध हैं। यानी मुख्यधारा का भारतीय समाज जिन विद्रूपताओं को झेल रहा होता है, उसकी छत्रछाया से ये आजीवन कोसों दूर रहते हैं। इनको तो शराब भी अलग क्वालिटी की मुहैया करायी जाती है। इन सब कारणों की वजह से मैंने देखा कि जो ऑफिसर रैंक के आर्मी वाले और उनके परिवार जन थे, उनके चेहरे और हावभाव में एक अलग ही किस्म की शालीनता, विनम्रता और व्यक्तित्व का अपना एक अलग स्तर था, लेकिन उस कसी हुई पर्सनालिटी के पीछे एक गदहापन भी साफ़ दिख रहा था, जिसे सिर्फ़ मैं ही देख पा रहा था। आसपास क्या चल रहा है इसके बारे में पता ही नहीं है, इस वजह से मुख्यधारा के भारत के लोगों से कैसे डायलॉग स्थापित करना है इसकी उन्हें ढेला भर समझ नहीं थी क्यूंकि उन्होंने अपना एक सुरक्षित कोकून बनाया हुआ है जहाँ उनको जीने लायक सारी सुविधाएं मिलती है, इसके बाहर कौन सा गृहयुद्ध चल रहा है, इससे वे पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। इसलिए रिटायरमेंट के बाद इनका हाल जीडी बख्शी जैसे दिवालिये की तरह हो जाता है। इसका उपाय यही है कि आर्मी अफसरों को एक साल भारत के किसी ग्रामीण इलाके में छोड़ देना चाहिए ताकि भारत के समाज की असल हक़ीक़त समझ सकें।
देखने में आता है कि ये अमूमन सामान्य व्यवहार में भारत के आम लोगों को सिविलियन की संज्ञा देते हैं, मानो वे कोई नवाब हों और आम लोग उनके नौकर। एक किसी अपराधी की तरह भारत के आम लोगों को जिन्हें भारत का नागरिक कहा जाना चाहिए उनको ये पूरी बेशर्मी के साथ सिविलियन कहते हैं और अपने आपको मुख्यधारा के समाज से पृथक करते हैं।
भारत में हर प्रोफेशन का आंकलन होता है। चाहे वह न्यायपालिका से जुड़े लोग हों या व्यस्थापिका के लोग हो। वो बात अलग है कि ये आर्मी से बड़े वाले धूर्त होते हैं, इनके उपद्रव मूल्य कहीं और बड़े हैं लेकिन बीच-बीच में इन पर सवाल खड़े किए जाते रहते हैं इसलिए इनका तापमान नियंत्रण में रहता है। एक एसडीएम स्तर से लेकर आईएएस आईपीएस स्तर का व्यक्ति भी मजबूरी में आए दिन भारत के आम समाज से रूबरू होता रहता है, उन्हीं के बीच काम करता है तो कभी-कभी वह सारा कुछ वो भी झेल लेता है जो आम आदमी झेलता है इसलिए आम समाज के लिए थोड़ी सी समझ और थोड़ी सी विनम्रता आ जाती है। वरना इनसे बड़ा बदमाश तो कोई नहीं। इसके बाद न्यायपालिका पर आते हैं जिसे गांधी बाबा ने ख़ुद वकील रहते ही सीधे धंधा कह दिया था। न्यायपालिका से जुड़े लोग लोग भी आर्मी की तरह बहुत रिज़र्व रहते हैं, सारी सुविधाएं मिलती हैं, आलीशान जगहों पर इनकी जमीनें इनके रिसॉर्ट्स और ऐशगाह होते हैं। लेकिन फिर भी आए दिन मुकदमे के सहारे ही सही कुछ हद तक भारत के आम समाज के लोगों के दुख दर्द की जानकारी रखते हैं, उसके निवारण के लिए कभी आजीवन धेला भर भी काम नहीं कर पाते वो बात अलग है। उसके बाद आते हैं सुपर ह्यूमन यानी आर्मी के ऑफिसर रैंक के लोग, सबसे ज़्यादा सुरक्षित, रिज़र्व और मुख्यधारा के समाज से कटे हुए लोग, जिनका कभी आंकलन नहीं होता है। जहाँ एक रैंक नीचे वाले अधिकारी को भी अपने से ऊपर के अधिकारी से सीधे बात कर लेने का स्पेस नहीं होता है। सिपाही स्तर के लोगों का हाल तो बस पूछिए ही मत। वे केवल ऑर्डर बजाते हैं। आंतरिक सुरक्षा के नाम पर सब कुछ छिप जाता है। मतलब इतना सामंती चरित्र आपको पूरी व्यवस्था में कहीं और नहीं मिलने वाला है। और मैंने आजतक कभी किसी को हमारे देश समाज के इस अनछुए पहलू पर बात करते नहीं देखा है, अब कौन अपनी जान जोखिम में डाले।
वैसे बताता चलूँ की भारत पूरे विश्व में इकलौता ऐसा देश है जो डिफेंस को दी जाने वाली सुविधाओं में सबसे ज़्यादा खर्च करता है। गांधी अगर एक दशक और ज़िंदा रह जाते तो अपनी किताब हिन्द स्वराज में जो कड़वी बातें उन्होंने वकील और डॉक्टरों के लिए लिखी है, उससे कहीं अधिक कड़वा सेना के उपद्रव मूल्यों पर लिख जाते।
लोग कहते हैं कि भारत में लोकतंत्र है, मैं पूछता हूँ कौन से वाले भारत में लोकतंत्र है ????
As they say -
"काफर हुनु भन्दा मर्नु निको”
“I'll rather die than be a coward...”
जय हिन्द 🙌🏻
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