Saturday, 5 July 2025

बस्तर जो मैंने देखा : 14 साल पहले और अब का बस्तर



बस्तर का जब भी नाम ज़हन में आता है तो सबसे पहले लोगों को नक्सली/माओवादी वाला एंगल दिखता है। और हो भी क्यों ना, ये आज भी प्रासंगिक जो है। शायद बस्तर की नियति में यही होना लिखा था तभी नक्सलियों का अपना अस्तित्व आज भी बना हुआ है। पर्यटन ने पिछले कुछ वर्षों से बस्तर को मुख्यधारा से जोड़ने में महती भूमिका निभायी है, इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार हुआ है, होटल रेस्तराँ बने हैं, गाँव-गाँव तक सड़कें पहुँच गई हैं, लोग बड़ी संख्या में घूमने भी पहुँच रहे हैं, लेकिन नक्सली वाले एंगल की वजह से आज भी एक बड़ी आबादी यहाँ हल्के पाँव से ही कदम रखती है और बहुत से लोग बस्तर घूमने नहीं आते हैं जो कि एक तरह से देखें तो ठीक भी है। वरना बस्तर का हाल भी मनाली केदारनाथ कान्हा किसली जैसा होने में देर नहीं लगती, प्रकृति की इतनी नेमत तो बरसी ही है यहाँ। विकास चहुँओर पहुँच रहा है लेकिन बस्तर के आम आदिवासियों की जीवनशैली को उनके लोक व्यवहार के तरीकों को उस हद तक प्रभावित नहीं किया है, या शायद ये बस्तर के आम लोगों की जीवटता है कि वे विकास की चकाचौंध से अप्रभावित आज भी मदमस्त अपनी खुमारी में रहते हैं।


सन 2011 में कॉलेज के दिनों में स्कूल के दोस्तों के साथ बस्तर जाना हुआ था। तब बस्तर संभाग में कुल पाँच जिले हुआ करते थे , सुकमा और कोंडागांव ये जिले अस्तित्व में भी नहीं आए थे। जून के शुरुआती महीने में भीषण गर्मी झेलते हम जब जगदलपुर पहुंचे तो दोपहर को सीधे चित्रकोट वॉटरफॉल में ही गाड़ी रोकी। पानी बहुत कम था, और एकदम साफ़ पानी था, हम सभी ने नीचे उतरकर नहाने का मन बना लिया, घंटों उस पानी में नहाने के बाद भयानक भूख लगी थी। भूख शांत करने के लिए आसपास देखा तो खाने के लिए कुछ भी नहीं, एक ठेला तक नहीं। चित्रकोट के पास जो रिसोर्ट बना हुआ है, वह तब से अस्तित्व में था, अभी थोड़ा और बड़ा हो गया है। वॉटरफॉल से आगे एक किलोमीटर निकले तो वहीं एक झोपड़ीनुमा होटल में रोटी सब्जी मिल गई। भीषण गर्मी में पसीने से भीगते हुए हमने खाना खाया और फिर शाम तक वापस जगदलपुर चले गए।


जगदलपुर को चौराहों का शहर कहा जाता है। छोटा सा शहर है और बहुत से चौराहे हैं, शाम को घूमने निकले तो कुछ खास मिला नहीं, तब एक बिनाका नाम का एक छोटा सा मॉल खुल रहा था जो शायद आज की तारीख में अस्तित्व में नहीं है। बिनाका नाम का यह छोटा सा मॉल तब बस्तर के लोगों के लिए बड़ी चीज़ थी, तभी सिर्फ मॉल को देखने बहुत से लोग आए हुए थे, उन लोगों में हम भी थे। फिर वहाँ से हम रात के खाने की खोज में निकल गए, तब गूगल मैप उतना विकसित नहीं हुआ था कि खोजते ही हमें होटल मिल जाये, और तो और तब स्मार्टफोन भी नहीं आया था। नोकिया के symbian मल्टीमीडिया फ़ोन ही चल रहे थे और वह भी दस दोस्तों के ग्रुप में एक दो लोगों के पास ही हुआ करता था। तब कीपैड फ़ोन के जमाने में वो 6-7 हज़ार में मिलने वाला मल्टीमीडिया फ़ोन भी एक लक्ज़री हुआ करती थी। तो होटल खोजने में हमें बड़ी मशक्कत हुई, बहुत ज़्यादा विकल्प नहीं थे, एक बिनाका नाम का ही बढ़िया सा रेस्तरां था वहीं जाकर हमने रात का खाना खाया। जगदलपुर के चौराहे वाले इलाक़े में ही हमने 350 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से हम लोगों के लिए दो कमरे ले लिए थे।


दिन भर सफ़र और नहाने की थकान मिटाने के बाद अगले दिन सुबह हम तीरथगढ़ वॉटरफॉल घूमने गए। आज सुबह से झमाझम बारिश हो रही थी। मौसम एकदम बढ़िया हो गया था। ये बस्तर की एक खूबी है, यहाँ आज भी weather.com आपको धोखे में डाल देगा। यहाँ कभी भी बारिश हो जाती है। तीरथगढ़ पहुँचे तो वहाँ भी कुछ ऐसा ही था जैसा तीरथगढ़ में था, कोई पार्किंग नहीं थी, केवल एक छोटा सा ठेला बना हुआ था जहाँ केवल चिप्स बिस्किट गुटखा इत्यादि थे। सीढ़ियों से उतरते जब तीरथगढ़ पहुंचे तो वहाँ कोई भी नहीं था, सिर्फ़ हम ही लोग थे। कुछ देर वहाँ फोटो लेने के बाद वापस कांगेर घाटी नेशनल पार्क के भीतर और घूमने गए। यहीं स्टैलेगटाइट और स्टैलेगमाइट चट्टानों की श्रृंखला देखने कुटुमसर गुफा चले गए। घुप्प अंधेरे में टार्च मारते हुए गाइड हमें चट्टानों की अलग-अलग कलाकृति दिखा रहा था, लेकिन इन सब के बीच बारिश और उमस की वजह से गुफा के भीतर घुटन सी होने लगी थी और फिर कुछ देर बाद हम वापस आ गए।


14 साल बाद अभी कुछ दिन पहले फिर से बस्तर जाना हुआ। इस दरम्यान ना जाने कितनी बार दोस्तों ने ज़िद किया लेकिन मैं हमेशा जाने से परहेज करता रहा, उसके अपने व्यक्तिगत कारण थे। लेकिन इस बार बिना किसी को बताए चुपके से बाइक में जाने का प्रोग्राम बन गया। आज सड़कें पहले से कहीं अधिक सुव्यवस्थित हैं। जिन भी अंदरूनी गांव वाले रास्ते में जाना हुआ, हर तरफ़ पक्की सड़क बन गई है। अब रुकने के लिए होटल के बहुत से विकल्प हैं, खासकर कोंडागांव और जगदलपुर में ढेरों विकल्प आपके पास हैं, रेस्तरां और कैफ़े की एक अच्छी खासी खेप तैयार हो गई है। फिर भी, होटल और रेस्तरां की बात करें तो यहाँ अभी भी बहुत स्कोप है, नवाचार करे तो कोई भी आराम से आगे जा सकता है। क्यूंकि आगे जाके बस्तर में टूरिज्म कम नहीं होने वाला है।


दोपहर को रायपुर से निकलते शाम तक जगदलपुर पहुंच गया था। कांकेर से ही आर्मी की टुकड़ियाँ रास्ते में एक अस्थायी टेंटनुमा झोपड़ी में दिखने लग गई थी, कोंडागांव जगदलपुर शहर के भीतर भी आर्मी की कुछ एक टुकड़ियाँ गस्त लगाती हुई दिखी, ये सब मेरे लिए बिल्कुल नया था। ये दृश्य आज से 14 साल पहले इतना आम नहीं था जबकि तब नक्सलियों का अपना अस्तित्व चरम पर था।


रात आराम करके सुबह ही चित्रकूट वॉटरफॉल देखने चला गया। रास्ते भर खूब सारे घर बन गए हैं, छोटे मझौले होटल रेस्तराँ खुल गए हैं, सड़क पहले से थोड़ी चौड़ी हो गई है। पर्यटन वाले बोर्ड लगे हुए हैं जो पहले नहीं थे। वॉटरफॉल के पास जैसे ही पहुंचा तो देखा कि अब पार्किंग की व्यवस्था है, आसपास खूब सारी दुकानें हैं जहाँ बांस से बनी टोकरी की-चैन, पूजा के लिए धूप और बस्तर की बियर कही जाने वाली सल्फ़ी पानी की बोतलों में भरी हुई बिक रही है। वॉटरफॉल के ठीक पास में एक कोई मंदिर भी बन गया है जिसे देखकर बहुत अधिक आश्चर्य नहीं हुआ, जब बस्तर जैसे आदिवासी अंचल में जो सदियों से प्रकृति पूजा करता आया है वहाँ जब घनघोर जंगल के बीच गणेश का प्रवेश कराया जा सकता है और जबरन ढोलकल गणेश नामक एक टूरिस्ट स्पॉट बनाया जा सकता है तो यह मंदिर बनाना तो बहुत ही सामान्य घटना है।


वॉटरफॉल के पास अब लोहे की जाली लगी हुई है जिसके आगे अब लोग नहीं जा सकते हैं, पहले यह नहीं हुआ करता था। लोगों के पास तब स्मार्टफ़ोन ही नहीं था तो सेल्फी वाला पागलपन भी नहीं था। इसी पागलपन से लोगों की रक्षा करने के लिए एक दो आर्मी वाले तैनात हैं, जो हमेशा वॉटरफॉल के पास ही चहलकदमी करते रहते हैं। सुंदरता और साज सज्जा के नाम पर बाकी टूरिस्ट स्पॉट में जिस तरह की कृत्रिमता से जड़ित इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार किया जाता है, वैसा यहाँ उस हद तक नहीं है अभी, ख़ुशी हुई कि बस्तर के अपने प्रतीकों का ख्याल रखते हुए एस्थेटिक्स पर भरपूर ध्यान दिया गया है।


यहाँ से आगे बारसूर वाले रास्ते में स्थित मेन्द्रीघूमर वॉटरफॉल देखने चला गया। इस रास्ते और इस वॉटरफॉल के भूगोल को देखकर मेघालय के वॉटरफॉल याद आ गए। वहाँ भी ऐसे ही पठारी रास्ते में नीचे की ओर खूब सारे वॉटरफॉल हैं। मेन्द्रीघूमर मैं पहली बार आया था, यहाँ की खूबसूरती देखते ही बन रही थी, तीन ओर आपके पैरों के नीचे घने जंगलों का नजारा और जंगलों से उठकर आती तेज शुद्ध हवा, उसी के एक किनारे में सीधी रेखा में गिरता वॉटरफॉल। आप घंटों आराम से बैठकर यहाँ की शुद्ध हवा ले सकते हैं, आपको बोरियत नहीं होगी, कोई भीड़ नहीं कोई व्यवधान नहीं, एक अलग किस्म का सुकून है यहाँ जो बस्तर के बाक़ी मेनस्ट्रीम जगहों में आपको नहीं मिलने वाला है। यहाँ गाँव की अपनी पर्यटन समिति बनी हुई है जो इस पर्यटन स्थल का रखरखाव भी करती है, यहाँ पार्किंग का 20 रुपये लिया गया। पूर्वोत्तर में यह व्यवस्था काफ़ी पहले से है। यहाँ भी स्थानीय लोगों को इन तरीकों से पर्यटन से जोड़ कर रोजगार मुहैया कराया जा रहा है यह देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा।


यहाँ से अब मिचनार के जंगल वाले पहाड़ी रास्तों से होते हुए कांगेर घाटी नेशनल पार्क की ओर गया। एक दूसरा रास्ते जगदलपुर के पास से होते हुए जाता है जो दूरी के लिहाज से ज़्यादा मुफ़ीद है लेकिन चित्रकोट वॉटरफॉल घूमने के बाद इसी मिचनार हिल वाले रास्ते से जाना चाहिए क्यूंकि यहाँ की पहाड़ी से जो नीचे का नजारा दिखता है वह ख़ासकर अभी मानसून के समय में देखने लायक होता है। इस रास्ते गाँव-गाँव होते हुए तीरथगढ़ वॉटरफॉल की ओर गया। गाँव की पर्यटन समिति यहाँ भी है, पार्किंग का 20 रुपये और साथ में वॉटरफॉल जाने की टिकट का भी 50 रुपये अब आपको देना होता है। चित्रकोट वॉटरफॉल में दोनों चीज़ें मुफ्त है। चित्रकोट की तरह यहाँ भी उसी तर्ज में मार्केट सजा हुआ है। बारिश लगातार हो रही थी इसलिए यहाँ का पानी भी चित्रकोट की तरह मटमैला दूधिया रंग लिए हुए था।


वापसी में केसकाल के पास टाटामारी नाम का एक व्यू पॉइंट है, वहाँ चला गया। बड़ी सुकून वाली जगह हुई ये भी। व्यू पॉइंट के पास ही रुकने के लिए कुछ कमरे भी बने हुए हैं, जिनमें व्यू के लिए बढ़िया ग्लास लगा हुआ है, एक दिन यहाँ अलग से रुकने लायक जगह लगी ये। यहाँ महिला समूह द्वारा संचालित कैफ़े में मिलेट पकौड़े और मिलेट से बने चीला रोटी का स्वाद याद रहेगा। यहाँ इस कैफ़े में घंटों रुकना हो गया क्यूंकि तेज़ बारिश होने लगी थी। फिर यहाँ से शाम रात तक रायपुर पहुँच गया।


इस दौरान जगदलपुर में एक दिन और अगला दिन कोंडागांव में रुकना हुआ। अगर कोई अपनी सुविधा से आ रहा है तो पहला दिन तो मुझे कोंडागांव में रुकना ज़्यादा उचित लगा, कोंडागांव जगदलपुर से अपेक्षाकृत सस्ता भी है और सारी सुविधाएं भी हैं। और यहीं से सारे मेनस्ट्रीम टूरिस्ट स्पॉट पास में ही हैं। यहीं से सीधे अगली सुबह आप चित्रकोट मेन्द्रीघूमर और तीरथगढ़ तीनों वॉटरफॉल शाम तक आराम से घूम सकते हैं और शाम को जगदलपुर में होटल ले सकते हैं। इन दो दिनों में ही बहुत से अलग-अलग कैफ़े रेस्तराँ में जाना हुआ, मैंने यह देखा कि एक खास तरह की परवलय आकार की पीली रोशनी वाली लाइट बस्तर अंचल के सारे जिलों में उनके कैफ़े में, रेस्तराँ में देखने को मिली। ये एकरूपता देखकर अच्छा भी लगा कि चलिए कुछ तो यहाँ की अपनी स्थानिकता की एक अलग पहचान बनायी हुई है सबने।


अगर शेष भारत की बात कहूँ तो जुलाई-अगस्त-सितंबर ये पूरे मानसून का समय बस्तर स्वर्ग हुआ, इस सीजन में घूमने के लिए बस्तर पूरे देश में सबसे बेहतरीन विकल्पों में से एक है। इतने सारे वॉटरफॉल हैं कि आप घूमते-घूमते थक जाएँगे और मजे की बात की यहाँ पूर्वोत्तर के राज्यों की तरह बाढ़ और भू-स्खलन की समस्या भी नहीं है।


इस बार के सफ़र के दौरान मैंने देखा कि विकास का पहिया बड़े आहिस्ते से सामंजस्य बनाते हुए बस्तर पहुँच रहा है। इस बीच बस्तर का आम आदमी बिल्कुल नहीं बदला है, प्लांट स्थापित किए जा रहे हैं, आर्मी के नए कैम्प बन रहे हैं, पहाड़ खोदकर रेल पहुंचाया जा रहा है, शहरों का पेट पालने के लिए दण्डकारण्य के जंगलों से प्राकृतिक संसाधन खोदकर लाया जा रहा है, विकास की ये तमाम आँधियों के आने के बावजूद बस्तर के आम लोगों के व्यवहार में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है जो कि सुखद है। इतना बड़ा दिल बस्तर वालों का ही हो सकता है, तभी तो इसने नक्सलियों तक की हिंसा क्रूरता अमानवीयता को पचा लिया, विकास की आंधी उस गति से यहाँ नहीं पहुँची है जितने की मैंने उम्मीद की थी, इसका श्रेय भी कुछ हद तक माओवाद को ही जाता है। बहरहाल, बस्तर विकास के रास्ते धीरे से ही करवट ले, इसी में इसकी भलाई है।

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