Wednesday, 13 August 2025

लोकतंत्र या माफिया तंत्र ?

जितना भारत घुमा, जितने भी राज्यों में गया। हर तरीक़े के ख़ान-पान के तरीकों को देखा। अलग-अलग रेस्तरां में गया। जहाँ भी गया हमेशा से यह रहा कि खाना परोसने वाले को थोड़ा भी यह महसूस नहीं कराना है कि वह मेरा नौकर या ग़ुलाम है। यह बात इसलिए आई कि अधिकतर मैंने देखा है कि भारत की एक बड़ी आबादी जहाँ कहीं भी कोई सुविधा या सेवा लेती है उन्हें डोमिनेट करते हुए या दुत्कारते हुए नौकर की भाँति ही उनसे व्यवहार करती है। लंबे समय से ऐसा ही चलता आ रहा है। इससे अलग आप लोकतांत्रिक तरीके से सामने वाले के पेशे को सम्मान देने की कोशिश करेंगे तो इसमें भी कई बार बहुत सी व्यावहारिक दिक्कतें आती हैं। उल्टे आपको ही अपमान झेलना पड़ जाता है क्यूंकि heirarchy का प्रोटोकॉल तो यही चला आ रहा है कि शाम दाम दंड भेद करते रहिए। 


चूँकि बहुसंख्य आबादी घर में काम करने वाले किसी व्यक्ति से जैसे ग़ुलाम की तरह व्यवहार करता है, कुछ वैसा ही रेस्तराँ होटल दुकानों या अन्य जगहों में भी करता है तो इसका ख़ामियाज़ा उनको भी भुगतना पड़ता है जो ऐसा नहीं करते हैं। जो शांत और विनम्र होते हैं, कई बार उनको या तो नीचा दिखाया जाता है या उनकी ही जेब काटने का प्रयास किया जाता है। मतलब लोगों से लोकतांत्रिक व्यवहार करना भी कितना चुनौतीपूर्ण है। यहाँ हर कोई राजा-प्रजा वाले एहसास में ही जीना चाहता है। इसलिए सबसे ज़्यादा नौकर-चाकर रखने का कल्चर भी हमारे यहाँ ही है। इंसान की अपनी वैल्यू कहाँ रह गई इसमें। एक बड़ा कारण आय के असमान वितरण के प्रचलित अलग-अलग नवपूँजीवादी मॉडल भी हैं, सबको इन्हीं मॉडल के इर्द-गिर्द जीवन काटना है। 


यह सिस्टम कहीं से ख़त्म होता दिखता ही नहीं है, लोगों को आज भी इसी में ही मजा आता है। तभी हमारे यहाँ सबसे ज़्यादा नौकरी करने, कोई पद पा लेने या किसी भी प्रकार की सत्ता हासिल करने की लालसा चरम पर होती है, तभी वीआईपी कल्चर को देखकर लोग चिढ़ते भी हैं और ख़ुद पूरी शिद्दत से उस एहसास को जीना भी चाहते हैं। और आप इस व्यवस्था से अलग जब-जब लोकतांत्रिक व्यवहार करने की कोशिश करते हैं तो कई बार आप ही इस भीड़ का शिकार बन जाते हैं क्यूंकि लोगों को टाइट करके रखना ही हमारा कल्चर बन गया है। अगर आप लोगों को टाइट नहीं रखेंगे, आप अपनी किलेबंदी नहीं करेंगे तो कोई भी मौका देखते ही आप पर आकर चढ़ने की कोशिश करेगा। अब तो इंसानी समाज से ही कोफ़्त होने लगी है। 


दिन-रात अलोकतांत्रिक तरीके से व्यवहार करते और पब्लिक डीलिंग करते लोगों का हुलिया भी अलोकतांत्रिक ही दिखने लगता है। चेहरे में हिंसा तनाव और धूर्तता की लकीरें साफ़ दिखती हैं, जो छिपाए नहीं छिपती हैं। जितना भारत घुमा उसमें अधिकतर ऐसे ही अलोकतांत्रिक चेहरे देखने को मिले। कोरोना के बाद से तो इसमें अभूतपूर्व वृद्धि हुई है।


लोकतंत्र आजादी यह सब तो बस किताबों में पढ़ने भर के लिए ठीक लगती है। असल जीवन में इसका थोड़ा भी कुछ जीवंत रूप में महसूस करने के लिए नहीं मिल पाता है। लोकतंत्र के नाम पर माफिया राज बना रहे इसीलिए जनता को भुलावे में रखने के लिए तमाशे के रूप में हर घर तिरंगा आदि का प्रपंच किया जाता है। मुश्किल है डगर लेकिन उम्मीद की जाए कि आने वाली पीढ़ी को थोड़ा बहुत लोकतांत्रिक माहौल नसीब हो। 


स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ। 

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