Saturday, 20 April 2024

- सूखी हवाओं का असर -

फरवरी 2020 का समय था। भारत भ्रमण का 118 वाँ दिन था और मैं राजस्थान के जैसलमेर में था। जब मैं जैसलमेर पहुंचा था, तो मरू महोत्सव चल रहा था, सब तरफ रौनक थी, लेकिन टूरिस्ट बहुत कम थे तो भीड़ वाली रौनक नहीं थी, जो भी भीड़ थी वह स्थानीय लोगों की भीड़ थी, अगर भीड़ को सुखद भीड़ जैसा कुछ नाम दिया जाए तो मरू महोत्सव का अहसास कुछ ऐसा ही था। 

जैसलमेर या राजस्थान आने से पहले मैं गूगल मैप में गाढ़े पीले रंग के इस भूखण्ड को देखकर यही सोचता था कि पेड़ पौधे बिल्कुल नहीं होंगे, चारों ओर रेतीले मरूस्थल होंगे, जबकि ऐसा नहीं था। मरुस्थलीय क्षेत्र में भी झाड़ियों वाले पेड़ बड़ी संख्या में होते हैं, लेकिन उनकी कम ऊंचाई और उनके बहुत अधिक छायादार ना होने के कारण हमें ऊंचाई से पीला रंग ही प्रमुखता से दिखाई देता है, यहां तक की इन मरुस्थलीय क्षेत्रों में जीरे की सर्वाधिक खेती भी होती है। 

जैसलमेर पहुंचते ही पहले दिन आराम करने के बाद शाम को एक सनराइस प्वाइंट पर गया तो कुछ स्कूली युवा मिल गए और खुद से बात करने लगे और जिज्ञासावश मेरे बारे में पूछने लगे। उनमें से एक ने बताया कि सम का मरूस्थल तो हर कोई जाता है, अनाप-शनाप भीड़ रहती है, आपको अगर सच में चारों तरह विशाल मरूस्थल देखने हैं तो आप मेरे गांव म्याजलार फुलिया की ओर जाना। यह गाँव पाकिस्तान बार्डर के ठीक पास में ही पड़ता है, उस गाँव से पाकिस्तान की सीमा महज 10 किलोमीटर ही है। उस लड़के की बताई बात मेरे दिमाग में रह गई। अगले दिन सुबह मैंने फैसला किया कि घूमकर आया जाए और उस लड़के की बताई बातों पर मैंने बिना ज्यादा सोचे अमल कर दिया। 

बताता चलूं कि जैसलमेर से म्याजलार के इस रास्ते में जगह-जगह आर्मी के चेक प्वाइंट थे। लेकिन मरू महोत्सव के कारण और कोरोना की वजह से ना के बराबर भीड़ थी तो कहीं आर्मी वाले भी नहीं दिखे और सौभाग्य से मेरी चेकिंग नहीं हुई। यही सब इसलिए बता रहा हूं क्योंकि इस रूट में अकेले खासकर दूसरे राज्यों की गाड़ियों को जाने की अनुमति नहीं होती है। जब मैं यहाँ से वापस जैसलमेर पहुंचा तो जैसलमेर के ही एक और मेरे स्थानीय दोस्त मिले, उन्हें जब मैंने बताया कि मैं उस रास्ते गया था तो वे बड़े हैरान हुए, यानि उनको यकीन ही नहीं हुआ कि मैं कैसे चला गया। कहने लगे - उधर तो हम स्थानीय लोग भी नहीं जाते, न ही आज तक गये हैं, सीमावर्ती और वीरान क्षेत्र होने की वजह से आर्मी वाले आनाकानी करते हैं, वह भी अलग समस्या है। आप किस्मत वाले हैं कि आप बाइक में ही उधर घूमकर आ गये।

यह पूरा रास्ता इतना वीरान था कि बीच सड़क ही में बहुत देर तक मैं अपनी गाड़ी कई ऐसे अलग-अलग जगहों पर पार्क करके रखा था और बड़े इत्मीनान से खूब तस्वीरें खींची, इधर-उधर आसपास घूमकर भी आ गया, क्योंकि उस रास्ते में दूर-दूर कोई भी नहीं था। इस रास्ते में मुझे एक भी मोटरसाइकिल नहीं दिखी, दो घंटे के इस पूरे सफर में एक दो पुरानी जीप ही दिखी जो सवारियाँ ले जा रही थी, इसके अलावा दूर-दूर तक न कोई इंसानी बसाहट न ही कोई गांव था। भले ही दोपहर का समय था, लेकिन थोड़ी सी घबराहट भी थी कि सुनसान वीरान सा क्षेत्र है, कहीं बाइक में या मुझे ही कुछ समस्या हो गई तो यहां तो दूर-दूर तक एक पंछी भी नहीं दिखाई दे रहा है। इतना वीरान उजाड़ सा क्षेत्र था कि एक समय के बाद मैं इंसान देखने के लिए तरस गया था। 

जिस गाँव में सबसे विशाल मरूस्थल थे वहां मैं पहुंच गया था, छोटी सी बसाहट थी, लेकिन गांव में कोई नजर ही नहीं आया। थोड़ा आगे गया तो एक दो बच्चे खेलते हुए दिखाई दिए जो मुझे बाइक में दिखते हुए पता नहीं कहां झटके में ही अदृश्य हो गये। यहाँ के घरों की वास्तुकला कुछ अलग ही थी। शेष भारत में कहीं मैंने इस तरह के घर नहीं देखे थे। दूर-दूर बने हुए घर और उसके चारों ओर सिर्फ रेत ही रेत था। अलग ही तरह की खूबसूरती थी। इतने विशालकाय रेत के टीले थे कि एक जगह तो बिजली के खंबे तक की उंचाई थी, अगर किसी को कुछ रिपेयर करना हो तो सीढ़ी या चढ़ने की आवश्यकता ही नहीं है। 

मरूस्थल में एक जगह रूककर उस रेत को हाथों से छूकर देखा, नंगे पांच चलकर भी देखा। मैदानी इलाकों में सदियों से नदियों के बहाव से निर्मित होने वाले रेत में और इस रेत में बहुत फर्क था। दोनों के बनने की प्रक्रिया भी तो अलग थी, एक रेत पानी के बहाव से बना था और यहाँ तो तेज हवाओं ने न जाने कितने लंबे समय से इन रेतीले मरूस्थलों का निर्माण किया होगा। पानी का बहाव तो हर कोई देखता है, यहाँ जैसलमेर के इस मरूस्थल में बैठकर मैं धीमी बहती हवा में रेत को हल्की उड़ान भरते हुए बहते देख रहा था। यह मेरे लिए जीवन के बहुत अनोखे अनुभवों में से एक था। 

मरूस्थल के उन अनुभवों को समेटकर वापस जैसलमेर आ गया। अगले दिन मरू महोत्सव में गडीसर झील के किनारे आयोजन हो रहा था, वहीं शाम को उस सुनहरी ढलती शाम में अपनी कुछ तस्वीरें ली, उन तस्वीरों को देख कनाडा की एक दोस्त जो मेरे लिखे पर जान छिड़कती है, उसने कहा - " ओह, मिस्टर ! सूखी हवाओं का असर हुआ है ", तिस पर मैंने कहा कि साॅरी समझा नहीं। फिर उसने बताया कि पहाड़ों की गुलाबी ठंड में चेहरे में रंगत आती है न, ठीक वैसे ही रेगिस्तान में घूमते हुए आपके चेहरे में सूखी हवाओं का असर हुआ है। 














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