Monday, 15 April 2024

- चोपटा तुंगनाथ की खामोशी -

1 दिसंबर 2020 का समय था। भारत घूमते हुए 30 दिन पूरे हो चुके थे। मैं एक दिन पहले ही यानि 30 नवंबर को ही रानीखेत से होते हुए चोपटा पहुंच गया था। अभी तक कुछ भी निर्धारित नहीं था कि कहां रूकना है, चोपटा में रूकना है भी या नहीं इस पर भी कुछ फैसला अभी तक नहीं हुआ था। आसपास घूमते हुए कुछ होटल देखे, कुछ समझ ही नहीं आया, तो ढलती शाम में चोपटा के एक छोर पर अपनी गाड़ी खड़ी कर फोटो खींचने लगा। उतने में ही पास के होटल मालिक खुद ही टहलते हुए मेरे पास आए और बात करने लगे कि मैं कहां से आया हूं, कहां घूम रहा हूं और क्या मुझे रहने के लिए होटल चाहिए। मैंने उन्हें कहा कि अभी मैं सोच नहीं पा रहा हूं और उस समय उन्हें मना ही कर दिया कि अभी तो कमरा नहीं चाहिए। फिर कुछ देर बाद मैंने फैसला किया कि चलो खुद से वे पूछने आए उनकी बात का मान रखते हुए कमरा देख ही लिया जाए। बड़ा सा कमरा था, तीन-चार लोग आराम से सो सकते थे इतनी पर्याप्त जगह तो थी ही। उन्होंने कमरे का रेट मुझे 600 रूपया बताया। कहने लगे कि अभी तो कोरोना की वजह से टूरिस्ट ही नहीं है, जो वाजिब रेट है वही आपको बता रहा हूं। मैंने अपनी हामी भर दी और कमरे में शिफ्ट हो गया। ध्यान रहे कि देश में कोरोना की पहली लहर के बाद सब तरफ लाॅकडाउन लगा हुआ था, जिसे शिथिल किया जा रहा था। बहुत से राज्यों में तो लाकडाउन को लेकर बहुत सख्त नियम बरकरार थे, इसी बीच मैं घूमने निकल गया था। इसका एक फायदा यह हुआ कि कोरोना को लेकर लोगों में गजब का डर कायम था, इस वजह से कहीं भी भीड़ नहीं थी। मैं जिस होटल में आज रूकने वाला था, मेरे चेक इन करने के बाद उनके बाकी दो कमरे भी फुल हो गये। होटल मालिक ने मुझे कहा - आप जब तक नहीं आए थे, मुझे लग रहा था कि आज कोई आएगा ही नहीं, लेकिन आपके आने के बाद मेरे सारे कमरे लग गये। 




शाम ढलने को थी। सुर्ख लाल रंग लिए सूर्य अपनी छटा बिखेर रहा था, मैंने टाइमलेप्स कैद करने के लिए अपना फोन ट्राइपाॅड में लगाकर छोड़ दिया था। तभी बाजू कमरे में आए गुजरात के एक भाई देखने लगे और कहने लगे कि ये मैं मिस कर गया, मुझे भी दिखाना और हमारी थोड़ी बहुत बातें हुई। 

चोपटा का ऐसा है कि जैव विविधता की दृष्टि से अतिसंवेदनशील एवं संरक्षित क्षेत्रों में से एक है, इसलिए इस पूरे क्षेत्र में होटल इत्यादि बनाने की बहुत आजादी नहीं है, इस कारण से आपको बहुत विकल्प नहीं मिलते हैं। बहुत से ऐसे लोग जिन्हें थोड़ी ठीक-ठाक सुविधाएं होटल इत्यादि चाहिए होते हैं, और अगर उन्हें ट्रैक भी करना होता है तो वे रात के दो तीन बजे ही किसी पास के गंतव्य स्थल से यहाँ चोपटा तक आते हैं और उसी दिन दोपहर शाम तक ट्रैक करके वापस लौट जाते हैं। 

जिनके यहां मैं रूका था, उनके यहां ऊपर के कमरे में उनका रेस्तरां भी था, वहीं मैंने रात का खाना भी खाया। मैं उनसे तुंगनाथ मंदिर और चंद्रशिला टाॅप तक ट्रैक के बारे में पूछने लगा। वे शहरी लोगों की शारीरिक क्षमता और चलने की गति के आधार पर मुझे बताने लगे कि रात को दो बजे ट्रैक शुरू करना, तब जाकर ऊपर शानदार सूर्योदय देख पाओगे। उनकी दी गई सलाह को मैंने इतनी गंभीरता से लिया कि ढंग से नींद ही नहीं आई और दो बजे ही उठ गया। चाँदनी रात थी। उठकर बाहर निकला तो दूर-दूर तक कोई इंसानी आवाज नहीं। चांद ठीक ऊपर था और चारों ओर गजब का सन्नाटा था। 

बाजू कमरे में जो गुजरात के भाई थे, उनसे भी मैंने रात को पूछा था तो उन्होंने कहा था कि रात को दो बजे उठकर वे शायद ही जाएं। इसका मतलब यह रहा कि मुझे कोई कंपनी नहीं मिलने वाली है। बाहर बहुत ठंड थी, शायद 4 डिग्री के आसपास तापमान था। कुछ देर कंबल के अंदर लेटे-लेटे योजना बनाने लगा कि अकेले जाऊं या नहीं। ऐसा करते, सोचते विचारते ढाई बज गये। मैंने फिर सोचा कि अब इतनी दूर आया हूं तो चलता हूं। तुंगनाथ मंदिर और चंद्रशिला टाॅप के लिए जिस द्वार से ट्रैक शुरू होता है, वो मेरे होटल से लगभग 300 मीटर की दूरी पर था। मैं उस द्वार तक गया, कुछ देर वहाँ बैठा और देखता रहा कि कोई अगर साथ जाने वाला मिल जाए तो साथ में ट्रैक शुरू किया जाए। कुछ इस तरह इंतजार करते-करते रात के 3 बज चुके थे लेकिन एक इंसानी आवाज तक सुनने को नसीब नहीं हुई। अब इस ठंड और इस शांत बियांबान में मेरी हिम्मत जवाब दे रही थी और मैं हार मानकर वापिस अपने कमरे में आ गया। रास्ते में जब आ रहा था तो कुछ लोमड़ियों की चहलकदमी सुनाई दे रही थी, क्षुब्ध होकर उन्हें दौड़ाकर भगाया और वापिस अपने कमरे में आ गया। 

फिर सोते हुए सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए,
अकेले जाना चाहिए या नहीं?
रास्ते में पूरा ऊपर तक जंगल है, जंगली जानवर भी होंगे, मुझे कुछ हो गया तो?
इतना शांत इलाका है, ट्रैक में ऊपर मुझे कुछ हो गया तो कोई मुझे पूछने वाला भी नहीं होगा?
मेरे घरवालों तक कौन बात पहुंचाएगा?

न जाने ऐसे कितने सवाल मेरे मन में आ रहे थे और इन सबसे पैदा हुई घबराहट मुझ पर हावी हो रही थी। फिर मैंने थोड़ी हिम्मत जुटाई और एक आखिरी कोशिश की और कमरे से निकल गया। सोचा कि अब जो होगा देखा जाएगा। ट्रैकिंग रूट के मुख्य द्वार पर पहुंच गया था। लेकिन वहाँ से ऊपर तीस चालीस सीढ़ी चढ़ने के बाद जंगल के इस रास्ते को देखते हुए डर के मारे फिर मुख्य द्वार तक वापस लौट गया। एक बार फिर हिम्मत की और फिर से थोड़ी दूर चढ़कर फिर से डर के मारे मुख्य द्वार तक वापस लौट आया। बार-बार हिम्मत टूट रही थी और वहीं बैठे सोचने लगा कि क्या इतना जोखिम उठाना सही है। ऐसा करते हुए सुबह के पौने चार वहीं हो चुके थे और मुझे अभी तक एक भी इंसान नहीं दिखा था।

वहीं बैठे-बैठे फिर एक गजब चीज हुई। मुझे वहीं पास के एक होटल से किसी व्यक्ति के खांसने की आवाज आई। उस खांसने की आवाज को सुनकर मुझे इतनी हिम्मत मिली कि क्या ही कहूं। चेहरे पर मुस्कान आ गई। उस वीरान अंधेरे में जहाँ चारों ओर एक अजीब सी खामोशी थी, वहाँ तब मेरे लिए एक इंसान को खांसते हुए सुनना दुनिया के सबसे बेहतरीन संगीत से भी बड़ी चीज थी। मेरे भीतर इतना डर हावी हो ही चुका था कि वह आवाज मेरे लिए किसी चमत्कार से कम नहीं था, कुल मिलाकर बेहद खुशी हुई। उस सन्नाटे में एक दूसरे इंसान की आवाज सुनाने के लिए प्रकृति का धन्यवाद किया। और फिर जो मैंने वहाँ से अपना ट्रैक शुरू किया, अब मैं नहीं रूका। रास्ते में मुझे एक लाठी मिल गई तो उसी के सहारे लगातार चल रहा था, चढ़ाई थी तो उस लाठी से अच्छी खासी मदद हो जा रही थी। बीच-बीच में डर हावी हो रहा था लेकिन मैं लगातार चलता रहा‌। डर भी था, लेकिन उसके साथ ही उस वक्त मैं जीवन के प्रति इतना पागल हो चुका था, मेरे भीतर जीने को लेकर इतना उत्साह भर चुका था कि अब मेरी स्थिति यह थी कि जंगली जानवर भी आ जाएं तो कोई समस्या की बात नहीं, निपट लूंगा इस लाठी से, उतने तक के लिए मैंने मानसिक रूप से खुद को तैयार कर लिया था। 

ठंड बहुत ही ज्यादा थी, इतनी थी कि एक हाथ जैकेट में रखते हुए चलना पड़ रहा था। लगभग एक घंटे जंगल के रास्ते चलते हुए अब बर्फ मिलनी शुरू हो चुकी थी। इस एक घंटे में न जाने कितने बार डर के मारे मेरी सांसें तेज हुई, लेकिन मैंने चलना नहीं छोड़ा। अब जैसे ही बर्फ का रास्ता शुरू हुआ, पता नहीं कहां से एक काला कुत्ता आ गया। मुझे तो साक्षात महाभारत का वह पूरा दृश्य याद आ गया, जब युधिष्ठिर के मार्गदर्शक के रूप में एक काला कुत्ता उनके साथ स्वर्ग के बर्फीले रास्ते पर जा रहा था। और अब तो मानो सारा डर ही खत्म हो गया, मुझे उस काले कुत्ते के रूप में एक ट्रैकिंग पार्टनर जो मिल गया था। आप विश्वास नहीं मानेंगे वह कुत्ता अब मेरे आगे-आगे ही चल रहा था। मैंने अस्तित्व की इस कृपा के लिए आंख मूंदकर धन्यवाद किया और आगे चलने लगा। 


पूरे ट्रैकिंग रूट में भयानक बर्फ जमी थी। बर्फ क्या ही थी, सारा ब्लैक आइस बढ़िया से जमा हुआ था, चलते-चलते एक बार तो उसकी वजह से जबरदस्त तरीके से गिरा, सीधे फिसलते हुए लगभग बीस फीट नीचे चला गया। किस्मत से थोड़ी भी चोट नहीं आई। फिर से मैंने हिम्मत जुटाई और संभल कर चलने लगा। इस बीच मैंने देखा कि वह कुत्ता भी मेरे लिए रूका हुआ था। अंधेरे की वजह से ब्लैक आइस समझ भी नहीं रहा था, फ्लैशलाइट में भी ठीक-ठीक अनुमान लगाना मुश्किल हो रहा था। कुछ इस तरह मैं एक बार और गिर गया। और अब ट्रैकिंग रूट के अलावा कच्चे रास्ते और जंगल के रास्ते शार्टकट को पकड़ने लगा। 

अब थोड़ी सुबह होने लगी थी। इतनी रोशनी होने लगी थी कि अब फ्लैशलाइट की जरूरत नहीं थी। कुछ इस तरह सुबह साढ़े पाँच बजे के आसपास मैं अकेले तुंगनाथ मंदिर तक पहुंच गया। वहाँ से सूर्योदय का क्या नजारा था, चारों ओर लाल रक्तिम आभा लिए सूर्य ने मानों एक गाढ़ी लकीर खींच दी हो और कह रहे हों कि महसूस करो इस रंग को, इसके महात्मय को। 




इस बीच मैंने देखा कि ठंड की वजह से मेरे हाथों की ऊंगलियाँ नीली पड़ गई थी। लगभग माइनस 2 या 3 डिग्री ठंड होगी, सूर्योदय और पहाड़ों को देखने में ही इतना मशगूल हो गया था कि पता ही नहीं चला कि कब हाथ नीले पड़ गये और चेहरा सूजने लग गया। 

कोरोना की पहली लहर के बाद से इतना बड़ा जोखिम उठाकर मैं अकेले घूमने निकला था तो इसका ये एक फायदा हुआ कि मैं अकेले तुंगनाथ मंदिर में था। दूर-दूर तक किसी इंसान का नामोनिशान नहीं। बस अंदाजा लगाइए मेरे इस सुख का, जहाँ मेरे अलावा कोई भी नहीं था। ऐसा सौभाग्य शायद ही मेरी पीढ़ी के लोगों में से अब किसी को मिले, क्योंकि कोरोना जैसी विभीषिका बड़े लंबे अरसे के बाद ही आती है। और इस कारण से लोग घरों में दुबके हुए थे, वरना आजकल लोगों में एक अलग ही किस्म की असहजता हावी हो चुकी है, हर कोई मानों खरीदने बेचने की तर्ज पर हर नई जगह जहां वह जाता है, उस जगह को पूरी तरह से शोषित कर लेना चाहता है। घूमने में अब कुछ नया जानने सीखने, जीवन को महसूस करने की भूख अब अधिकांश लोगों में नहीं है। रीलयुगीन सभ्यता से ग्रसित लोग एक नौकरी या एक प्रोजेक्ट की तरह बस समय काटने के लिए एक दूसरी जगह चुन लेते हैं, और वहाँ भी टारगेट पूरा कर रहे होते हैं। ऐसी स्थिति में उन जगहों को बेहद नुकसान पहुंचता है। 

तुंगनाथ मंदिर में अकेले थोड़ा समय बिताने के बाद मैं अब चंद्रशिला टाॅप तक जाने का रास्ता ढूंढने लगा, थोड़ी देर के बाद मुझे रास्ता मिल गया। कुछ देर की चढ़ाई के बाद मैं चंद्रशिला में था। सुबह के लगभग 6:30 बज चुके थे, सूर्य का प्रताप चारों ओर पहुंच चुका था और अब सीधी धूप पड़ने लगी थी। यहाँ से चारों ओर की पहाड़ियाँ साफ दिख रही थी। क्या ही नजारा था। लगभग आधे घंटे तक अकेले यहाँ बैठा रहा। खाने-पीने का कुछ सामान रखा था, वो कुछ मैंने खा लिया। और वहीं एक कौव्वा बार-बार मेरे पास आ रहा था, कुछ उसे भी खिला दिया, अमूमन कौव्वे ऐसे इंसानों के पास इतनी आसानी से नहीं आते हैं, वो भी 4000 मीटर की ऊंचाई में उस कौव्वे को आते देख मैंने उसके साथ ही सुबह का यह नाश्ता कर लिया। वहाँ कुछ देर शांति से बैठकर यही समझ आया कि जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि बिना किसी प्राणी मात्र को नुकसान पहुंचाए बहुत छोटी-छोटी चीजों को उसकी संपूर्णता में जीने में ही है। 





अब मैं यहाँ से वापस धीरे-धीरे नीचे की ओर लौटा। नीचे लौटते फिर से एक बार तुंगनाथ मंदिर के पास से गुजरा और सर झुकाकर अब अपने कमरे की ओर तेजी से चलने लगा। चंद्रशिला टाॅप की चढ़ाई कर मैं सुबह 11 बजे ही नीचे चोपटा आ चुका था, सुबह से माइनस डिग्री की ठंड और 3000 से 4000 मीटर की ऊँचाई के कारण सिर में हल्का दर्द था तो मैंने आज चोपटा में ही रूकने‌ का प्लान‌ बनाया था। मैं जिस कमरे में रूका था, ठीक बाजू में जो दो गुजराती दोस्त थे, वे सुबह 9 बजे चढ़े थे और लगभग 2-3 बजे तुंगनाथ से नीचे चोपटा आए और आज ही चोपटा से वापस नीचे जाने का प्लान बना लिया। उनमें और मुझमें एक समानता यह रही कि वे भी बजट ट्रेवल‌ करने वालों में से हैं जो कोई बहुत प्लानिंग नहीं करते हैं और वे भी मेरी तरह बहुत अधिक लक्जरी और तामझाम से इतर जीवन को उसकी संपूर्णता में जीने में यकीन रखते हैं। 

तो हुआ यूं कि जब वे तीन बजे आए, उतने ही समय मैं खाना खा रहा था। वे मुझे कहने लगे कि चलो अब हम जा रहे हैं। उनका उत्साह देखकर पता नहीं क्या हुआ कि मैंने भी आगे जाने का‌ प्लान बना लिया और इत्तफाकन हमें एक‌ ही जगह जाना था। तो उसी दिन उनके साथ चोपटा से रूद्रप्रयाग तक नाइट राइड हो गई। वे दोनों स्कूटी में थे, भले साथ में अलग-अलग बाइक में चलने की वजह से गति धीमी हुई, एक दूसरे के साथ तारतम्य बिठाते रहे, आगे पीछे एक दूसरे को रूकते देखते, कभी वो कभी मैं, और हमारी दोस्ती होती रही, विश्वाश बनता रहा। इससे पहले इस एक दिन में मेरी उनसे कोई बहुत ज्यादा बात नहीं हुई थी, जब हम एक जगह चाय पीने रूके तो पता चला कि सुबह अंधेरे में जब मैं ऊपर तुंगनाथ तक जा रहा था, तो जो कुत्ता मेरे साथ ऊपर तक गया था, वह इन्हीं के साथ नीचे तक आया जब वे दोपहर को आए, उस कुत्ते की तस्वीर मैंने भी खींची थी और उन्होंने भी, हमने मैच किया तो वही निकला। तुंगनाथ से जब मैं वापस नीचे लौट रहा था तो बहुत से लोग चढ़ाई कर रहे थे लेकिन अब इसे संयोग ही कहिए कि जो कुत्ता मुझे रास्ते में मिला था, वह इन्हीं के साथ वापस आया। और अब मैं उन्हीं दो दोस्तों के साथ रूद्रप्रयाग तक जा रहा था। रास्ते भर मन में बस यही खयाल आ रहा था कि कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जो आपको माता-पिता से विरासत में मिलते हैं, लेकिन वहीं कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं, जिन्हें आप खुद बनाते हैं, और यही आपके पूरे जीवन की असली पूंजी होते हैं। पता नहीं क्यों उनके साथ इस सफर के बाद तुंगनाथ चंद्रशिला की चढ़ाई की पूरी थकान छूमंतर सी हो गई। 

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