कुछ समय पहले की बात है। पश्चिम बंगाल के एकलौते हिल स्टेशन वाले जिले में जाना हुआ था। दार्जीलिंग का हाल उन पहाड़ी शहरों की तरह ही है, जहां बेहिसाब भीड़ पहुंचती है। इसलिए मैंने दार्जीलिंग जाना मुनासिब न समझा और कुर्सियोंग, टुंग, सोनाडा होते घूम चला गया। घूम भी एक छोटी सी पहाड़ी बसाहट है, जहाँ तक टाॅय ट्रेन भी आती है। और यहाँ रूकने का एक फायदा यह है कि आपको यहाँ से अगर सूर्योदय देखने के लिए टाइगर हिल जाना है तो ज्यादा दूरी तय नहीं करनी पड़ती। टाइगर हिल का हाल भी बहुत बुरा है, अनाप-शनाप भीड़ रहती है, पिछले दशक भर से इतनी भीड़ हो चुकी है कि वहाँ जाने के लिए अब पास/टिकट लेना पड़ता है, आप बाइक/कार किसी भी माध्यम से जाएं आपको पास चाहिए, बिना पास के आप ऐसे ही नहीं जा सकते हैं।
मैं जिस होमस्टे में रूका था, वहाँ के मालिक जो नेपाली थे, उन्होंने बताया कि आप पैदल भी जा सकते हो। उनकी बात सुनकर मुझे तो मानो हौसला ही आ गया और मैंने अपनी बाइक के लिए पास नहीं बनवाया। गूगल मैप में चेक करने पर पता चला कि 6-7 किलोमीटर की दूरी है, और ऊपर पहाड़ में वह जगह स्थित है तो हल्की सी चढ़ाई है। टाइगर हिल मतलब ऐसी ऊंचाई में स्थित जगह है जहाँ से आप सूर्य को एकदम सामने से लाल रक्तिम आभा लिए उगते हुए देख सकते हैं, और ठीक बाजू में आपको कंचनजंघा की चोटियाँ भी निर्बाध साफ दिखाई देती है।
अगले दिन सुबह मैं 4 बजे उठ गया, एक हल्का सा जैकेट पहनकर ही मैंने पैदल ही टाइगर हिल जाने का मन बना लिया। मैंने मैप में ही देख लिया था कि रास्ते में सेंचल वन्य जीव अभ्यारण्य पड़ता है, और मुझे उस जंगल को पार करके जाना था। मैंने जब अपने होमस्टे से पैदल चलना शुरू किया, गजब सन्नाटा पसरा था, इंसानी चेहरों का नामोनिशान नहीं, नई नई जगह और सुबह तेजी से भोंकते पहाड़ी कुत्ते। खैर यह सब नजर अंदाज करते हुए मैं तेजी से आगे बढ़ता गया। कुछ देर चलने के बाद जैसे ही मुख्य मार्ग तक पहुंचा, ऐसा लगा जैसे मानो पूरा शहर उठकर कहीं कार लेकर निकल रहा हो, सुबह के सवा चार बजे थे और क्या ही गजब जाम लगा हुआ था, ये सब गाड़ियां बुकिंग में पर्यटकों को सूर्योदय दिखाने ले जा रही थी, कुछ लोगों की अपनी पर्सनल गाड़ियां भी थी जिससे वे जा रहे थे, यानि आपके पास ये दोनों विकल्प होते हैं।
लगभग एक किलोमीटर चलने के बाद जंगल का रास्ता आ गया, उसके ठीक पहले आर्मी का एक चेक प्वाइंट था, वहां वे सारी गाड़ियों से पर्ची लेकर उनको आगे जाने के लिए हरी झंडी दे रहे थे। मैं जब पहुंचा तो उन्होंने मुझे रोक लिया। कहने लगे कि कहां जा रहे हो अकेले? मैंने बताया कि टाइगर हिल। फिर पूछने लगे कि पास कहाँ है? मैंने कहा कि पास तो नहीं है, किसी ने बताया कि बिना पास के भी पैदल जा सकते हैं, तो आ गया। फिर उन्होंने कहा कि आपको कोई और पैदल वाला दिख रहा है? मैंने कहा कि अभी तक तो नहीं दिखा है। फिर कहने लगे कि चलो फिर अभी जल्दी जाओ, सनराइस का टाइम हो रहा, आते टाइम एक काम करना पास बना लेना, फिर जाते-जाते उन्होंने कहा कि फोन रखे हो, मैंने हां कहा, तो उन्होंने सलाह दी कि मैं अपने फोन का फ्लैशलाइट आन करते हुए चलूं। मैंने कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि जंगल में भालू, गुलदार हैं। अब जो इतने देर से में बैखोफ अकेले जा रहा था, उनकी इस दी हुई जानकारी से मुझे घबराहट होने लगी। जैसे-तैसे हिम्मत करके मैं आगे बढ़ता गया।
रास्ते भर लगातार सवारी गाड़ियाँ आ रही थी, उनकी रोशनी आती, तो इस वजह से अकेलापन तो नहीं लग रहा था, लेकिन 20-30 सेकेण्ड के लिए भी अगर कोई गाड़ी न आती तो मन में यही ख्याल आता कि अगर मुझे किसी जंगली जानवर ने दबोच लिया तो घरवालों तक कौन बात पहुंचाएगा, तुरंत मेरा फोन अनलाॅक कर कौन सूचित करेगा, इतनी सुबह तो कोई फोन का लाॅक खोलने वाला भी न मिलेगा, ऐसे तमाम अजीबोगरीब खयाल आने लगे थे। सोचने लगा कि क्या मेरी नियति में जंगली जानवरों के हाथों ही खत्म हो जाना लिखा है। फिर सोचा कि अगर कोई जानवर पीछे से हमला न करके ठीक सामने से आ गया और मेरे पास प्रतिक्रिया देने के लिए कुछ सेकेण्ड का भी अगर समय होगा तो तब मैं क्या करूंगा, क्या मैं भी हुंकार भरुंगा या फिर दंतकथाओं में लिखी कहानियों में जंगली जानवर के सामने धैर्य बांधकर खड़े किसी साधु की तरह खामोशी से खड़ा रहूंगा। यह सब सोचते हुए मैंने पूरी ईमानदारी से खुद को अस्तित्व के हवाले कर दिया। सोचने लगा कि अगर सच में मैंने अपने अभी तक के जीने में ईमानदारी नहीं बरती है, अगर किसी को मानसिक/शारीरिक किसी भी तरीके से चोट/हानि पहुंचाई है, तो मुझे अस्तित्व की शक्ति जो सजा देना चाहे उसकी मर्जी, उसका खुले मन से स्वागत है। इस बीच जब डर बहुत हावी हो जाता तो कुछ एक गाड़ियों से मैंने लिफ्ट भी मांगा लेकिन चूंकि सभी गाड़ियां टूरिस्ट को लेकर आ रही थी तो सब फुल चल रही थी, इसलिए भी मैंने ज्यादा कोशिश करना उचित नहीं समझा और खुद को शांत कर लिया। चलते-चलते पसीना आने लगा था, जबरदस्त ठंड भी थी, इतनी ठंड तो थी ही कि मुझे एक और जैकेट अपने साथ न रखने का अफसोस भी बराबर हो रहा था। क्योंकि जब बहुत ठंड में आपको पैदल चलते या मेहनत करते पसीना आने लगे तो जो कपड़ा पसीने से भीग चुका होता है, उसे तुरंत बदल देना चाहिए, वरना ठंड एकदम मस्तिष्क तक पहुंच जाता है और आपको कुछ हद बीमार कर देता है, सिरदर्द होने लगता है, मेरे साथ भी आगे जाकर यही हुआ।
घने जंगल का रास्ता लगभग खत्म होने को था, इस बीच मुझे बहुत प्यास लगने लगी, मैं तो जूते पहनकर सिर्फ अपना फोन लेकर आया था, इसके अलावा मेरे पास कुछ भी नहीं था। रास्ते में पानी के एक प्राकृतिक स्त्रोत की आवाज आई, लेकिन मैंने सुबह-सुबह जंगली जानवरों के इलाके में पानी पाने का जोखिम नहीं उठाया। कुछ इस तरह घने जंगल का यह पड़ाव पूरा हो गया। अब थोड़ा खुला आसमान दिखने लगा था, पूर्णिमा की रात थी तो खूब रोशनी थी, फ्लैशलाइट की जरूरत भी अब नहीं थी। इसी बीच कुछ पैदल चलने वाले लोग मुझे आगे दिखाई दिए। इतने देर से अकेले शांत घने जंगल में डर-डर के पैदल चलते हुए आपको कोई एक दूसरा इंसान दिख जाए तो इसकी क्या खुशी होती है इसे शब्दों में बताना संभव नहीं है। बस यूं समझिए कि बेहद खुशी हुई, हिम्मत मिल गई। मैंने सोचा कि ये लोग मुझे पहले क्यों नहीं मिले, शायद पांच-दस मिनट ही मैं इनसे पीछे होऊंगा। फिर अस्तित्व को मन से आंख मूंद कर धन्यवाद किया, कि वह कुछ मिनटों के अंतर आपको क्या अहसास करा देती है, आपके भीतर अभय पैदा कर देती है, आपको जीवन की क्षणभंगुरता का अहसास कराती है।
जो लोग मुझे मिले, इनका कोई काॅलेज का ही ग्रुप था, सब दोस्त यार साथ में थे, आराम से मस्ती करते हुए धीरे-धीरे चल रहे थे। सूर्योदय देखने के लिए मैं इतना तेज तो चल ही रहा था कि इनको पार करके आगे बढ़ गया। टाइगर हिल में लोगों के जमघट के बीच लाल रक्तिम आभा लिए सूर्य के दर्शन किए, फूल की किसी कली की तरह सूर्य को बाहर फूटते हुए निकलते देखना जीवन के अभूतपूर्व अनुभवों में से एक था। ठीक इसके बाद सूर्य की पहली किरणें कंचनजंघा की सफेद बर्फीली चोटियों पर पड़ी और उन्हें सूर्ख लाल रंग दे गई, फिर कुछ देर बाद धरती प्रकाशमान हो गई।
अब मैं टाइगर हिल से नीचे वापस लौट रहा था। लौटते हुए अपने फोन से चलते-चलते उन रास्तों की वीडियो बनाते हुए लंबी सांस लेकर मैंने कहा - " हर किसी की जीवन यात्रा बहुत अलग तरह की होती है, मैंने पहले भी ऐसे जोखिम उठाए हैं, अस्तित्व के सहारे खुद को छोड़ा है, अस्तित्व की शक्ति को महसूस किया है। इसलिए ऐसी बातों से किसी को भी प्रेरित नहीं होना चाहिए। और अंत में फिर मैंने कहा - " करो वही जहाँ तक कोई सोच भी न पाए। "
नीचे लौटते हुए अब जंगल वाला रास्ता लगभग खत्म होने को था, उसके ठीक पहले काॅलेज के वे लड़के-लड़कियां फिर से मुझे मिल गये। मैं उनके ठीक पीछे ही था। आर्मी का चेक प्वाइंट आ गया था। आर्मी वालों ने सबको रोक लिया और पास के लिए पैसे जमा करने कहा, उन काॅलेज स्टूडेंट के साथ मैं भी खड़ा था। आर्मी वाला भी एक नेपाली था, आर्मी वाले ने कहा कि एक एक स्टूडेंट का 400 रूपये लगेगा, सबने एक स्वर में विरोध किया और कहा कि इतना ज्यादा कैसे? उनमें से एक उत्साही स्टूडेंट ने कहा कि हम नेपाल से हैं, हम यहां काॅलेज के छात्र हैं हमको तो छूट मिलना चाहिए, फिर आर्मी वाले ने थोड़ा और रेट कहा, फिर वे छात्र भी मस्ती करते हुए कहने लगे कि नहीं हमको पूरा फ्री करो आप, हम स्टूडेंट को इतनी छूट मिलनी चाहिए, फिर वो नेपाली लड़का अपना जींस उठाकर अपने पैरों की पिंडली की मांसपेशियां दिखाने लगा और कहने लगा कि देखो नेपाली हूं मैं, आप भी तो नेपाली हो, देखो ये मजबूत पिंडलियाँ, नेपाल के पहाड़ों सी मजबूती है इसमें, पहचानो इन पिंडलियों से मुझे। यह सब देखकर बड़ा मजा आया कि कैसे इतनी खूबसूरती से शौर्य प्रदर्शन करते हुए अपनी पहचान बताई जा रही है। उस लड़के के पैरों की पिंडलियों को देखकर लगा कि मुझ जैसे मैदानी इलाके के लड़के को शरीर का यह स्तर छूने में तो पूरा जीवन लग जाएगा लेकिन ये चीज हासिल नहीं होगी, कुछ चीजें तो मानो पहाड़ी लोगों को विरासत में मिलती है।
आर्मी वालों द्वारा इतने देर से हो रहे नोंकझोंक से मुझे कुछ-कुछ समझ आ गया था कि आर्मी वाले जो खुद नेपाली थे, वे हम सब के साथ मस्ती कर रहे थे। लेकिन उन्होंने अभी हमें छोड़ा नहीं था, कहने लगे कि हम कैसे मान लें कि नेपाली हो, फिर लड़कियों ने भी राग छेड़ा, कहने लगी - लाओ स्पीकर, लगाओ नेपाली गाना, नाच के बताते हैं फिर यकीन हो जाएगा। स्पीकर का जुगाड़ तो हो नहीं पाया, तो आर्मी वाले और बाकी स्टूडेंट सब मिलकर तब का एक वायरल हुआ नेपाली गाना " बादल बरसा बिजुली सावन को पानी " गाने लगे। और सारे काॅलेज स्टूडेंट्स ने अपने डांस से मानो समा ही बांध दिया, आर्मी वाले भी नाचने लगे। और फिर उन्होंने हमें जाने दे दिया। जब भी लगे कि मुद्रा, नौकरी, भौतिक सुविधाओं से इतर स्थानीय संस्कृति को क्यों संजोना चाहिए तब जीवन के ऐसे बेशकीमती पहलुओं पर जरूर ध्यान देना चाहिए।
वे काॅलेज स्टूडेंट जो टाइगर हिल जाते समय मुझे रास्ते में मिले, और फिर वापसी में भी मिल गये। उनसे मैंने अलग से कोई बात नहीं की, उन्होंने भी अपनी ओर से मेरे से बात नहीं की। लेकिन अस्तित्व रूपी प्रकृति की रची बसी दुनिया में बिना आवाज किए ही शायद हमारी बातें हो गई थी और हमने इंसान रूप में एक दूसरे को स्वीकार कर लिया, महसूस कर लिया।
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