Saturday, 20 May 2023

हिंसा बनाम हिंसा

अभी कुछ समय पहले की एक घटना है। छत्तीसगढ़ में एक नशेड़ी सिरफिरे युवा ने अपने माता-पिता एवं दादी की पीट पीटकर हत्या कर उन्हें आग के हवाले कर दिया। पुलिस की जाँच, पत्रकारों की रिपोर्टिंग से जितनी सूचना लोगों के हिस्से आई उसका मोटा-मोटा सार यही है। लेकिन ऐसी घटनाओं के पीछे गहराई में जाकर घटना के पीछे के कारणों की पड़ताल करना जरूरी नहीं समझा जाता है, ऐसी घटना को आखिरकार क्यों अंजाम दिया, इस पर बात नहीं की जाती है। किसी ने अपराध किया, उसे कानून के माध्यम से सजा मिली, हम इतने में ही खुद को कार्यमुक्त कर लेते हैं, अपनी जिम्मेदारी खतम कर लेते हैं। जबकि ऐसी घटनाओं का गहरे से विवेचन किया जाना चाहिए। जब से यह घटना हुई है। आम जनमानस, अड़ोसी पड़ोसी या यूं कहें कि समाज यह कहता फिर रहा है कि लड़का नशेड़ी है, सिरफिरा है तभी ऐसा कदम उठाया, यह भी कहा जा रहा है कि लड़के ने अपने शिक्षक पिता की नौकरी अनुकम्पा में पाने हेतु उन्हें चुपके से मौत के घाट उतार दिया। यह सब ऊपरी बातें चल रही है लेकिन गहराई में जाकर देखें तो असल मामला कुछ और ही निकलता है, जो न्याय कानून संविधान से कहीं आगे की चीज है। मामला परिवार का है, पारिवारिक माहौल का है, समाज का है, सामाजिक ढांचे का है, मूल गड़बड़‌ वहीं से शुरू होती है। इस पोस्ट का उद्देश्य कहीं से भी किसी भी प्रकार के अपराध या हिंसा की पक्षधरता करना नहीं है। उस लड़के ने निस्संदेह एक भयावह कृत्य को अंजाम दिया है, जिसकी जितनी भी भर्त्सना की जाए कम है। ऐसे मामलों में सबसे पहला सवाल जो मेरे मन में आता है वह ये है कि क्या वह लड़का अपनी माता के गर्भ से अपराधी बनकर आया था। जब ऐसा नहीं है तो क्या ऐसा कारण है कि युवावस्था में आते तक वह कुस्संग की राह में बढ़ता चला गया, क्या ऐसा हो गया कि वह अपने ही परिवारजनों से इतना कट गया कि उन्हें एक झटके में हाॅकी के डंडे से मौत के घाट उतार दिया। 

लड़के का एक भाई शायद डाॅक्टर है या डाॅक्टरी की पढ़ाई करता है यानि समाज की नजर में एक सफल व्यक्ति है। पता चला कि बड़े भाई की आड़ में इस लड़के को आए दिन घर परिवार और समाज ने निरंतर पिछले कुछ सालों में खूब लानतें भेजी हैं, निकृष्ट घोषित किया है। और तंग आकर यह लड़का भयानक नकारात्मक होता चला गया, हर कोई ऐसे अपमान झेलकर यह सब नजर अंदाज कर आगे नहीं बढ़ पाता है, कुछ लोग हाथ से छूट ही जाते हैं, सही समय पर इनका हाथ थामकर इन्हें सही दिशा देने वाला भी कोई नहीं होता है। मैंने अधिकतर शिक्षक परिवार के बच्चों की स्थिति देखी है, अपवाद हटा दिया जाए तो बच्चों को एकदम‌ मशीन बनाकर रख देते हैं, भावुकता संवेदनशीलता खत्म कर देते हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति इस परिवार की भी रही होगी। समाज अपने गिरेबां में झांके बिना डंके की चोट पर कह रहा है कि लड़का भयानक हिंसक है, अपराधी है, चलिए मान लिया इसमें कोई दो राय है भी नहीं, लेकिन एक सवाल यह भी पैदा होता है कि इस लड़के को अपराधी आखिर किसने बनाया?

Friday, 19 May 2023

डुबान योग - 2

अभी तक की समझ यही कहती है कि कुछ एक तबके जातियाँ जो भी कह लें, ऐसे हैं जिनके लिए देश समाज व्यवस्था कितना भी भला कर ले, वे अपनी बेहतरी करना ही नहीं चाहते, समय परिस्थिति के अनुसार बदलना ही नहीं चाहते, अपनी पाषाणकालीन सोच से ही जीवन जीना चाहते हैं। व्यवस्था झुककर‌ दरवाजे तक जाती है लेकिन इनके लिए इनका अहं ही सर्वोच्च होता है। ये विवश कर देते हैं कि सामने वाला व्यक्ति इन्हें इनकी बिरादरी से नापे, बार-बार मौका देते हैं। आप इन्हें नजर अंदाज करेंगे तो ये आप पर टूट पड़ेंगे, आप इन्हें आगे करेंगे तो ये समाज को पीछे ले जाएंगे, कुल मिलाकर खाई कुआं वाली स्थिति हो जाती है। इंसानी समाज के लिए भी एक बड़ी चुनौती है कि आखिर वह करे तो करे क्या, इसलिए कई बार समय पर छोड़ देना ही सही विकल्प लगता है। वाकई भारतीय समाज अनेक किस्म की जटिलताओं से अटा पड़ा है जिसका बहुत गहरे से मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने की जरूरत है। गाँधी ने सही नब्ज पकड़ी थी, आजीवन राम नाम जपते हुए कमजोर पिछड़ों के उत्थान के लिए जीवन खपा दिया और उसी समाज ने जो गाँधी को भगवान नहीं बना पाए, एक दूसरा भगवान ढूंढ लिया‌। 

हर तरीके से गुणा भाग करके सोच के देखा कि समाज का प्रतिनिधित्व या जिम्मेदारियों का निर्वहन करने वाले क्षेत्रों में इन खास तबकों के लोग क्यों नहीं होते हैं या अगर होते भी हैं तो समाज को बहुत अधिक पीछे ले जाने का काम आखिर क्यों करते हैं। शायद इसलिए तो नहीं प्रोग्रेसिव समाज ऐसे हाथों में जिम्मेदारी देने से कतराता होगा। बिना पूर्वग्रह के अभी तक यही देखने में आया है कि कुछ खास तबके ऐसे हैं जो कभी किसी का भला या किसी का उत्थान कर ही नहीं सकते हैं, उल्टे बेवजह नुकसान जरूर करते हैं, यह एक तरह का सैडिज्म ही है। पता नहीं क्यों उनमें थोड़ी भी मानवीयता विकसित नहीं हो पाती। खैर, इसमें यह भी एक कारण है कि जो अपना ही भला नहीं कर पाता, वह दूसरों का भला करे भी तो कैसे।

Thursday, 18 May 2023

डुबान योग

इंसानी जीवन की अपनी तमाम तरह की जटिलताएँ हैं। इंसान के व्यवहार की सैकड़ों परतें होती हैं, लेकिन एक उसका मूल व्यवहार इन सभी परतों का आईना होता है, सामने यही रहता है, यही दिखता है। समाज में व्यक्ति हमेशा हर तरह के लोगों से मेलजोल बनाकर चलता है, व्यवहार में बरती जा रही असमानताओं को और छुटपुट अतिवादिताओं को किनारे करते हुए एक दूसरे के साथ समन्वय बनाकर जीवन यापन करता है, समाज हमेशा से ऐसे ही चलता रहा है, आगे भी ऐसे ही चलता रहेगा। ऐसे ही जहाँ मदद करने का मौका आता है, लोग एक-दूसरे की मदद भी करते हैं यह एक सामान्य मानवीय प्रक्रिया है। लेकिन इसमें भी एक विशिष्ट प्रजाति होती है जो डुबान योग से ग्रसित होती है, ऐसे व्यक्ति की मदद आप हमेशा नहीं कर सकते हैं, आपको बाद में पश्चाताप होता है, आप ग्लानि से भर जाते हैं। ये कुछ उसी तरीके की बात है कि कोई डूब रहा है तो आप उसे बचाने के लिए रस्सी फेंकते हैं लेकिन सामर्थ्यवान होने के बावजूद वो रस्सी नहीं लपकता है, वह रस्सी पकड़कर खुद की जान बचाने की बजाय आपको कोसने लगता है। वह अपने तरफ से कोई योगदान नहीं देता है जबकि वह खुद डूब रहा होता है। वो चाहता है कि आप खुद को झोंककर छलांग लगाकर उसे बचाएं। और जब आप ऐसा करते हैं तो अमुक व्यक्ति अपने वजन से आपको पहले डूबा देता है, उसके पागलपन की वजह से आप अपनी जान गंवा बैठते हैं। डुबान योग से ग्रसित व्यक्ति ऐसे ही होते हैं, अवनति ही इनकी नियति में होता है, ये मूर्ख नहीं होते बल्कि धूर्त होते हैं, क्योंकि एक मूर्ख जान बूझकर उसी गलती को बार-बार नहीं दोहराता है। ये लाख समझाने के बावजूद गलती करते हैं क्योंकि इनके लिए इनका अहं सर्वोपरि होता है। ये अपनी मदद नहीं करते हैं, ऐसे लोगों को कितना भी सतमार्ग का रास्ता दिखा दिया जाए, फिर भी वे किसी की एक नहीं सुनेंगे, उस रास्ते में चलकर नहीं जाएंगे। इसलिए एक समय के बाद डुबान योग वालों से दूरी बना लेनी चाहिए ताकि हम जिंदा रह सकें।‌

Monday, 15 May 2023

आम आदमी व्यवस्था की नजर में कीड़ा मकोड़ा है

अभी पिछले कुछ दिनों से पीएससी के परीक्षा परिणाम के पश्चात माहौल गरमाया हुआ है। कुछ एक सामाजिक कार्यकर्ता जिन्होंने सीट बिक्री और 75 लाख को लेकर सनसनी बटोर ली। उनकी मासूमियत पर भी हंसी आती है और लोगों की भी। लोग इतने भोले हैं उन्हें महान समझकर सर आंखों पर बिठा लेते हैं। और उसमें ये लोग यह तर्क भी दे देते हैं कि भाई व्यवस्था में अयोग्य लोगों का चुनाव हो जाता है। ऐसे लोगों से पूछने का मन होता है की ऐसी व्यवस्था जिसमें सिर्फ इंसान आदेश का पालन करने के लिए बाध्य होता है। जहां इंसान का एक सूत्री कार्यक्रम ही आदेश की पालना करना होता है वहां योग्य या अयोग्य जैसी कोई चीज होती कहां है।

बड़ी मासूमियत से ऐसे लोग आम लोगों की भावनाओं से खेल जाते हैं। ऐसे लोगों की हिम्मत नहीं कि खुलकर कुछ कह सकें इसलिए रटी रटाई बातें दुहराकर ईमानदारी का शिगूफा छोड़ देते हैं, लोग लपक लेते हैं। अब एक आम व्यक्ति भी जो आजीवन अपने आसपास भ्रष्टाचार से दो-चार हो रहा होता है वह भी बहुत आश्चर्य जताता है कि अरे यह तो कमाल हो गया, ये हम ईमानदार लोगों की धरती में ये इतने लाख का खेल चल रहा है, गलत बात है ये, जबकि खुद भी उसी व्यवस्था का हिस्सा है जो खुद में भ्रष्ट है। हममें से हर कोई भ्रष्टाचार करता है और भ्रष्टाचार सिर्फ पैसे से नहीं होता है आचार व्यवहार से, रिश्तों में, अपने दैनिक जीवन की हर एक गतिविधि में इंसान भ्रष्टाचार कर ही रहा होता है।

रही बात पिछले कुछ समय से आ रही अनेक भर्ती परीक्षाओं की। तो इसमें सिर्फ यही कहना है कि जब राज्य प्रशासनिक सेवा की परीक्षाओं में नेता और अधिकारियों ने अपने बच्चों को सेट कर लिया तो व्यापम स्तर की परीक्षाओं में छुटपुट अधिकारी और ब्लॉक प्रमुख अपने बच्चों को आगे करेंगे ही और इसमें कोई दो राय नहीं है यह सब पहले भी होता आया है, अभी भी हो रहा है और आगे भी होता रहेगा। बस अंतर यह है कि इस बार थोड़ा रेट बढ़ गया है और चीजें खुलकर, अधिक पारदर्शिता के साथ हो रही हैं। पीएससी का जो रिजल्ट आया उसमें बड़े-बड़े पद रसूख वालों ने हथिया लिया, हमेशा की तरह आम आदमी के लिए नायब तहसीलदार, जेल अधीक्षक, लेखा सेवा यही सब छोड़ दिया गया। आपने कमजोर को कमजोर ही रखा। वह प्रमोट होते होते बूढ़ा हो जाएगा लेकिन रहेगा आपका नौकर ही, आपने ऐसी व्यवस्था कर दी। 

अब सवाल यह खड़ा होता है कि आम आदमी करे तो करे क्या। आखिर इतने छात्र क्यों सरकारी नौकरी की तैयारी करते हैं। मां-बाप अपना सर्वस्व न्यौछावर कर क्यों अपने बच्चों को एक सरकारी नौकरी मिल जाए इसके लिए एड़ी चोटी का जोर लगाए रहते हैं। असल में भारत के आम, कमजोर, निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार के पास जीवन यापन के लिए और कोई स्पेस बचता ही नहीं है। इसमें भी जो आराम में हैं, सुविधाभोगी लोग हैं, वे लोग बड़ी आसानी से मुंह उठाकर कह देते हैं कि आप में योग्यता है तो व्यापार कर लीजिए, खुद का कुछ कीजिए लेकिन क्या भारत के एक आम आदमी के पास यह स्पेस है ? कुछ रूपया जोड़कर कुछ करना भी चाहे तो उसके सामने पहाड़ जैसी मुश्किलें हैं। वहां तो और भी स्पेस नहीं है, एक बहुत बड़े तबके ने पहले ही सब कुछ आरक्षित करके रखा हुआ है, आपको बाजार में टिकने ही नहीं देंगे।

इसीलिए भारत के आम आदमी के पास एक कोई छोटी मोटी सरकारी नौकरी के अलावा कोई दूसरा सुरक्षित स्पेस बचता ही नहीं है, तभी लोग लगे रहते हैं। संघर्ष सिर्फ नौकरी पाने का नहीं होता है, जीवन मरण का प्रश्न होता है, अस्मिता की बात होती है। उसमें भी व्यक्ति नौकरी पाकर क्या ही कर लेता है उसका पूरा जीवन पारिवारिक उलझन, तनाव और जिम्मेदारियों के ईर्द गिर्द ही खत्म हो जाता है और एक दिन‌ वह चुपचाप दुनिया से चला जाता है। जीवन भर की पूंजी के रूप में एक कार और एक कोई घर या थोड़ी सी जमीन पीछे छोड़ जाता है। 

कुछ साल पहले भारत के माननीय प्रधानमंत्री जी ने देश के युवाओं को बहुत सही सुझाव दिया था। उन्होंने युवाओं से अपील की थी की युवा रोजगार के लिए पकौड़े बेचे। प्रधानमंत्री जी की बात सही है, भारत के आम युवा के पास चाय पकोड़े बेचने के अलावा और कोई दूसरा विकल्प दिखता ही नहीं है। इससे ज्यादा उसके पास स्पेस ही नहीं है। वह थोड़ा भी अपने सामर्थ्य से आगे बढ़ने की कोशिश करता है तो रसूख वाले पहले ही गिध्द की भांति उसे नोचने के लिए तैयार बैठे रहते हैं। इस आम आदमी के हिस्से जब असफलता हाथ लगती है, जब उसे छला जाता है, वह बड़ी मासूमियत से या तो अपने भाग्य को कोस लेता है या फिर अपनी योग्यता पर सवाल खड़ा कर खुद को शांत कर लेता है। शायद आम आदमी की इसी पीड़ा को प्रधानमंत्री जी भी समझ ही रहे होंगे तभी उन्होंने असहाय होकर ऐसा विकल्प सुझाया होगा।

Sunday, 14 May 2023

बात चली शराब की - ( भाग - 2 )

शराब अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग है। भारत के बहुत से ऐसे राज्य हैं जहाँ सरकारें अपने राज्य के आम लोगों के सेहत के साथ बहुत अधिक खिलवाड़ नहीं करती है। शराब हर राज्य में बिकती है, लेकिन जिन राज्यों में शराब पर सरकार पूरी तरह से आश्रित नहीं है या जहाँ शराब को लेकर बहुत अधिक कायदे कानून न लगाकर सरकारों ने लचीलेपन से काम लिया है, वहाँ अपेक्षाकृत प्रति व्यक्ति शराब की खपत बहुत कम है।

जैसे उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ के पड़ोसी राज्य ओड़िशा को ही ले लीजिए। इस राज्य में शराब की खपत तुलनात्मक रूप से बहुत कम होती जा रही है। सन 2000 से पहले की बात है। तब छत्तीसगढ़ राज्य अस्तित्व में नहीं आया था। ओड़िशा गरीब राज्य की श्रेणी में आता था, लानतें भेजी जाती थी कि गरीबहा राज्य है, लोग लीचड़ होते हैं, शराब के नशे में धुत्त रहते हैं आदि आदि। आज की स्थिति ऐसी है कि कोई कह के दिखा दे कि गरीब और शराबी राज्य है। इसके बहुत से कारण हैं। सबसे बड़ा कारण है गुड गर्वनेंस। सरकार आम लोगों को राहत दे दे, उनको तनावमुक्त रखे, उनका सामाजिक आर्थिक शोषण न हो पाए, उनको मान-सम्मान मिल जाए। इससे ज्यादा उन्हें कुछ नहीं चाहिए होता है, इस न्यूनतम प्रबंधन को पाकर आम‌ लोग खुश रहते हैं। सरकारें पता नहीं क्यों इतनी मामूली सी बात आखिर कैसे नहीं समझ पाती है। क्योंकि इस एक समझ के विकसित हो जाने से काम का दिखावा नहीं करना पड़ता है। ओड़िशा की सरकार राज्य की अर्थव्यवस्था चलाने के लिए शराब के अलावा दूसरे तरीकों से मैनेजमेंट कर लेती है लेकिन लोगों की सेहत के साथ खिलवाड़ नहीं करती है। 

दूसरा एक राज्य है कर्नाटक। यहाँ सच्चे मायनों में शराब को लेकर लोकतंत्र कायम है। राजधानी बैंगलोर में आपको जगह-जगह छोटे-छोटे ग्राॅसरी स्टोर की तर्ज पर शराब की दुकानें मिल जाएंगी। ऐसा लगेगा कि शापिंग माॅल है। बकायदा टोकरी लेकर अपनी पसंद की शराब की खरीददारी करते हैं, क्या महिला क्या पुरूष सब खुलकर खरीददारी करते हैं, कोई किसी को जज नहीं करता है। कोई धक्का मुक्की नहीं, कोई जल्दबाजी नहीं। बैंगलोर के आसपास वाइन की बहुत सी रिफाइनरी है। बैंगलोर का मौसम वैसे भी वाइन रिफाइनरी के हिसाब से उपयुक्त माना जाता है। ऊपर से यहाँ के जितने पब क्लब रेस्तराँ हैं, वहाँ वे खुद अपना क्राफ्ट बियर बेचते हैं जिसमें वे दुनिया जहाँ के फ्लेवर परोसते हैं, इस मामले में ये शहर भारत के सभी शहरों से आगे है। शराब की गुणवत्ता के मामले में बैंगलोर देश में अव्वल नंबर पर है। अब सवाल यह कि यह राज्य जब नकली शराब नहीं बेच रहा, तीन तिकड़म नहीं कर रहा है तो अर्थव्यवस्था चलाने के लिए बाकी मैनेजमेंट कैसे कर रहा है तो इसका जवाब यह है कि बैंगलोर शहर पूरे देश में करप्शन में नंबर वन है। रोड टैक्स यहाँ सबसे ज्यादा है। और आफिस लेवल पर जो भ्रष्टाचार होता है, वह अलग ही लेवल पर चलता है। सेमी लीगल तरीके से एक बढ़िया व्यवस्था बनी हुई है। पैसे का मजबूत प्रवाह बना रहता है।

देवभूमि नाम से विख्यात राज्य हिमाचल और उत्तराखण्ड की बात करें तो वहाँ भी शराब में ठीक-ठाक मिलावट होती है लेकिन उतनी नहीं होती है जितनी भारत के अन्य राज्यों में होती है। भले देवभूमि कहा जाता है लेकिन वहाँ होने वाली पूजा में देवताओं को भी तो शराब चढ़ाया जाता है, और भगवान तो कण-कण में विद्यमान हैं, उस कण में मनुष्य भी आता है और मनुष्य तो आदिकाल से सोमरस का पान कर रहा है। तो वहाँ के लोगों का भी शराब के प्रति अटूट प्रेम है। अच्छी खासी खपत होती है, राज्य को ठीक-ठाक राजस्व मिल जाता है। बाकी नैसर्गिक सुंदरता से परिपूर्ण होने की वजह से वहाँ का टूरिज्म अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान कर ही देता है। 

अब उस राज्य पर आते हैं जहाँ बकायदा लोग या तो शराब पीने जाते हैं या फिर वहाँ से शराब की बोतलें लेकर आते हैं। तो इस राज्य का नाम है गोवा। गोवा को वैसे तो राज्य कहना ही अपने आप में बेमानी है क्योंकि 451 साल तक पुर्तगालियों के आधिपत्य में रहा और अभी 62 साल पहले ही हमारे हिस्से आया है तो वहाँ की आबोहवा थोड़ी अलग है। गोवा का आम आदमी शराब छूता तक नहीं है वाली स्थिति है। काजू से बनने वाली शराब भी अधिकतर पर्यटकों के हिस्से ही आती है, वही इसे उदरस्थ करते हैं। बाकी स्थानीय लोगों में शराब का मोह उतना नहीं है। लेकिन गोवा जाने वाले पर्यटकों में शराब के प्रति अजीब तरह का मोह है, चूंकि शराब और पेट्रोल दोनों वहाँ टैक्स फ्री है तो लोग जमकर मौज काटते हैं। और हम भारतीयों की आदत है ही कि थोड़ा भी कुछ सस्ता मिले तो सारी नैतिकता वहीं ताक पर। कोई चीज अगर हमें सस्ती मिल जाए तो "इतना कम कर दोगे तो दो किलो खरीद लूंगा" इसी तर्ज पर अपनी क्षमता से अधिक खरीददारी करते हैं। इसी साइकोलाॅजी से गोवा की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलती है। 

कोरोना जब चल रहा था तो शराब को लेकर गजब की आपाधापी मची हुई थी। हर जगह से वीडियो वायरल हो रहे थे जिसमें लोग कतारबध्द दिखाई दे रहे थे। आज भी आपको इंटरनेट में वीडियो मिल जाएंगे। उसमें भी आपको सर्वाधिक मारामारी और भीड़ वाली वीडियो में अव्वल नंबर पर छत्तीसगढ़ ही दिखाई देगा। ऐसा क्यों है इसके पीछे के कारणों पर कभी और चर्चा की जाएगी। अभी के लिए बस इतना ही कि सारी गलती नामुराद टेथिस सागर की है और ये हमारा दुर्भाग्य है कि हमारा क्षेत्र गोण्वाना लैण्ड में पड़ता है।

Friday, 12 May 2023

बात चली शराब की --

अपने जान-पहचान के स्कूल कालेज के तमाम दोस्तों को मैंने बार-बार अवगत कराया कि छत्तीसगढ़ में शराब का सेवन संभल कर करें। चूंकि मिलावट वाली शराब का खेल चहुंओर व्याप्त है, ऐसे में शरीर को और अधिक नुकसान‌ पहुंचता है, वैसे भी एक बार का जीवन है, थोड़ा तो अपने जीवन की गुणवत्ता के लिए ध्यान देना ही चाहिए। तेल, प्राकृतिक गैस, खनिज के अलावा शराब किसी भी राज्य या देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ होती है। मेक्सिको, कोलंबिया जैसे देशों की बात करें तो वहां की अर्थव्यवस्था ही कोकेन, मारिजुआना से चलती है, वहां की जलवायु ऐसी है कि अच्छी गुणवत्ता की पैदावार होती है, जिसकी खपत पूरी दुनिया में होती है। और उसी पैसे से देश की अर्थव्यवस्था चलती है, लोगों को रोजगार मिलता है, गांवों शहरों का विकास होता है, सरकार लोगों को मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराती है..आदि आदि।

भारत में अलग-अलग राज्यों में शराब बिक्री का अलग-अलग तरह का नेक्सस है। उदाहरण के लिए शराबबंदी वाले राज्य गुजरात को लीजिए, वहाँ सबसे अधिक एक्साइज ड्यूटी राज्य को शराब से मिलती है। जबकि भ्रम इस बात का, कि शराबबंदी है। लीगल तरीके से सरकार हमेशा नये नये कानून बनाकर दुगुने-तिगुने दाम में शराब बेचती है। जैसे अभी नियम यह है कि मैं दूसरे राज्य से हूं और अगर मुझे शराब चाहिए तो मैं यहाँ कार्ड बनाकर खरीद सकता हूं, लेकिन गुजरात का लोकल आदमी नहीं खरीद सकता है, लेकिन मैं कार्ड बनाकर यहाँ के किसी लोकल को दे दूं तो वह लगातार शराब आनलाइन घर तक मँगवा सकता है, लेकिन दाम दुगुने हैं। शराब वहाँ भी वैसे ही बिकती है जैसे बाकी राज्यों में बिकती है। बाकी राज्यों से कहीं अधिक कमाई होती है क्योंकि रेट दुगुने तिगुने हैं। 

शराबबंदी वाले राज्यों में दूसरा चर्चित नाम बिहार का आता है। बिहार में मामला एकदम अलग है। वहाँ गुणवत्ता को लेकर भयानक समस्या है। जो चुनिंदा ब्रांड वाली शराब है, कहीं से आपको जुगाड़ से मिल जाए, उसमें भी इतनी अधिक मिलावट है कि आप दुगुने दाम में लेकर आएंगे फिर भी आप विश्वास के साथ नहीं कह सकते कि आपको सही चीज मिल रही है। यही सिलसिला स्थानीय शराब बनाने वालों के साथ भी है। मिलावट कर कुछ भी बेच रहे हैं। इसलिए कई बार बिहार से ऐसी घटनाएं सुनने को भी मिलती हैं कि नकली शराब से बहुत लोगों की जान चली गई। बिहार के मेरे कुछ एक करीबी मित्र बताते हैं कि जो लोग कभी कभार महीने साल में पी लेते थे उन्होंने भी अब डर के‌ मारे पीना छोड़ दिया है, क्योंकि इतनी अधिक मिलावट है, कभी किसी दूसरे राज्य जाना होता है तब पी लेते हैं और गुणवत्ता में जमीन आसमान का अंतर महसूस होता है। 

अब छत्तीसगढ़ पर आते हैं, यहाँ शराब को लेकर कुछ अलग ही तरह का नेक्सस है जो पिछली सरकार के समय से चला आ रहा है। यहाँ शराबबंदी जैसा कोई नियम नहीं है लेकिन आपको ढूंढने पर भगवान मिल जाएगा लेकिन यहाँ शराब का ब्रांड नहीं मिलेगा। छत्तीसगढ़ में शराब के ऐसे-ऐसे ब्रांड इजात हुए हैं, जो नाम‌ आपको पूरे ब्रम्हाण्ड में कहीं नहीं मिलेंगे। शराब का जो ब्रांड पूरे देश में मिलता है, जो एक तय मानक के आधार पर तैयार होता है, उसकी खपत छत्तीसगढ़ में 20% के आसपास है, बाकी 80% मार्केट स्थानीय नेक्सस के आधार पर तैयार हुए शराब का है जो अधिकृत रूप से सभी शराब दुकानों में बकायदा पैकिंग के साथ बिकता है। और लंबे समय से वही बिक रहा है तो लोगों के दिमाग में भी यही फिट हो गया है कि फलां ब्रांड बढ़िया है, यानि स्थानीय स्तर पर बने उस ब्रांड ने असली ब्रांड को पीछे छोड़ दिया है। कुछ एक दोस्त शिकायत करते हैं कि क्या नकली शराब है, चढ़ता ही नहीं है। कोई कहता है कि पीने के अगले दिन सुबह सिरदर्द की समस्या रहती है। वैसे बिहार में नकली शराब से बहुधा लोग स्वर्ग सिधार जाते हैं, शुक्र है यहाँ मामला सिरदर्द तक सीमित है। मेरे एक करीबी शराबी मित्र जो पाक्षिक पी लेते थे, उन्होंने तो पिछले एक साल से शराब पीना ही छोड़ दिया है। हाल ही में इसी 80% लोकल ब्रांड को खपाने वाले मामले को लेकर ही माननीय ईडी ने छापा मारा है। अब भई केन्द्र हो या राज्य, व्यवस्था चलाने के लिए पैसा तो सबको चाहिए। अब इस छापेमारी में हकीकत जो भी हो, जितने भी करोड़ का बंदरबांट हो, हम सभी को इस सच को स्वीकार लेना चाहिए कि शराब अर्थव्यवस्था का एक अभिन्न अंग है। हम अपने आसपास सड़क निर्माण, भवन निर्माण, स्कूल, काॅलेज, उद्योग या अन्य विकास कार्यों को जो देखकर खुश होते हैं उसके लिए भी पैसा इसी शराब से ही आता है। अब हमें इसमें यह देखना होगा कि इस सच को हम कैसे स्वीकारते हैं।