12 साल पुरानी बात है। हर कोई काॅलेज में पहले दो सेमेस्टर खत्म कर सीनियर बन जाने और अपने कोर ब्रांच में जाने की खुशी की इंतजार कर रहे थे, लेकिन मैं दो सेमेस्टर खत्म हो जाने के बाद उस बीच के समय में अस्पताल में आखिरी साँसे गिन रहा था। बहुत ज्यादा नाजुक हालत हो गई थी, परीक्षा के दौरान ही मोहम्मद अस्फाक भाई अपना पेपर बीच में छोड़कर मुझे अस्पताल न ले जाते तो शायद आज जीवन नहीं होता। तब फेसबुक चलन में नहीं था, आरकुट ही चलता था, मित्रगण आरकुट में आए रोज रंग बिरंगे स्क्रैप भेजा करते, कविताएँ लिखा करते कि मैं कब कालेज वापस आऊंगा, बस यही कुछ कुछ छोटी छोटी चीजें जल्दी से ठीक हो जाने का ईंधन बनी रही। अस्पताल के बिस्तर में लेटे-लेटे मैंने जब-जब मोबाइल का इस्तेमाल किया, डाॅक्टरों और परिजनों ने खूब टोका कि मोबाइल साइड रख दिया करो, जल्दी ठीक हो जाओगे आदि आदि, मैं उस समय डाॅक्टरों पर भी भड़क जाता था कि आप अपना काम करें, क्या मेरी आँखों में कोई समस्या है जो इतना सब ज्ञान दे रहे हैं, रेडिएशन गया तेल लेने, मुझे इस बिस्तर में पड़े हुए जिसमें सुकून मिलेगा, मैं वही करूंगा, फिर वे कुछ नहीं कहते थे। महीने भर की जद्दोजहद के बाद आखिरकार ठीक होकर जिंदगी के पिच पर वापसी हो गई। घरवालों ने कहा कि छोड़ दो पढ़ाई, गेप ले लो, शरीर पर ध्यान दो आदि आदि लेकिन फिर से वापस काॅलेज जाने की तड़प इतनी थी कि सब कुछ झेल गया।
अब यहाँ से शुरू हुई दूसरी लड़ाई। जो भी इंजीनियरिंग किए हुए हैं, उन्हें पता है कि एक इंजीनियर के जीवन में attendence का क्या महत्व होता है, असल में यही आपके लिए आगे चलके परसेंट बनाता है, यानि मोटा-मोटा यही समझिए कि 100 में से 25 से 30% इससे बनता है, बाकी कुछ 25 से 30% कुछ छुटपुट टेस्ट से बनता है, बचे हुए 50% की परीक्षा होती है, यानि एक बहुत ही खराब स्टूडेंट का भी 45 से 50% अभी विषयों में फेल होने के बाद भी बन जाता है।
एक सेमेस्टर में मुश्किल से तीन से चार महीने क्लास लगती थी, उसमें मैं एक महीना पहले ही मिस कर चुका था, यानि बनने वाले परसेंट का एक बहुत बड़ा हिस्सा चला गया था। अब इसमें भी attendance का गणित ऐसा है कि शुरूआत में आप लगातार 15 दिन भी काॅलेज चले गये तो आपका attendance का औसत प्रतिशत आखिर तक अच्छा बना रहता है, लेकिन आपने शुरूआत से ही खाता नहीं खोला तो आपका प्रतिशत बहुत कम बनेगा, भले आप बाद के दिनों में लगातार कितने भी दिन कालेज चले जाएं, कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। जैसे उदाहरण के लिए कोई शुरूआत के दो महीने कालेज गया, और बाद के दो महीने शक्ल भी न दिखाए तो उसका attendance 70% के ऊपर ही मिलेगा, लेकिन कोई शुरूआत का एक महीना मिस करके आगे का पूरा तीन महीना भी लगातार जाए, तो भी उसका attendance 50% से ऊपर नहीं जाएगा। मुझे इंजीनियरिंग में ये एक चीज शुरू से बड़ी गलत लगती रही। खैर..।
अब असल मुद्दे पर आते हैं, मुझे अपने attendance के हिस्से का परसेंट वापस पाने के लिए आफिस के खूब चक्कर काटने पड़े, मेडिकल पेपर सब कुछ तैयार कर जमा करने के बाद भी पूरे महीने भर का attendance नहीं मिला, आधा ही मिला। वो भी तब जब मैंने पूरा जोर लगा दिया, साम दाम दंड भेद वाली स्थिति रही तब जाकर हासिल हुआ, महीने भर की जद्दोजहद के बाद चीजें हासिल हुई। मैं पूरी तरह से ठीक नहीं हुआ था, शरीर में जैसी ताकत आनी चाहिए, वो आ नहीं पाई थी, ये मुझे तीन तीन फ्लोर सीढ़ी चढ़ते हुए, दफ्तरों के चक्कर काटते हुए रोज महसूस होता था, कभी किसी से कुछ कहता भी नहीं था कि मैं ठीक नहीं हूं, क्योंकि सबसे लड़कर वापस आया था कि मुझे कालेज जाना ही है, इसलिए सब कुछ मुझे अकेले ही करना था, जीवन बहुत कुछ सीखा रहा था।
महीने भर की जद्दोजहद के बीच एक दिन मुझे शंभू भाई मिले। शंभू भाई दूसरे सेक्शन का था, वह भी महीने भर गायब रहा, मेरी तरह वह भी अस्पताल में था, फर्क यह रहा कि मेरी तबियत खराब हुई थी और शंभू भाई बाइक से दुर्घटनाग्रस्त हुए थे। शंभू भाई बाइक में पीछे बैठे थे, बाइक उनका मित्र चला रहा था, ऐसा जबरदस्त एक्सीडेंट हुआ था कि शंभू भाई के मित्र चल बसे, शंभू भाई को गंभीर चोट आई लेकिन महीने भर में ठीक होकर वापस आ गये। उनके सीने में गंभीर चोट लगी थी, ठीक वैसी ही चीरफाड़ हुई थी, जैसे बाईपास सर्जरी में सीने के बीच से काटा जाता है। शंभू भाई का ट्रैक रिकार्ड पहले का भी कुछ खास नहीं रहा और फिर साम दाम दंड भेद वाली चीज भी उन्हें नहीं आती थी, मेरे साथ-साथ जाते कि काम हो जाएगा, मेरा काम हो जाता, शंभू भाई मेडिकल के कागज दिखाते, प्रोफेसर साहब दुत्कारते हुए यह कहकर फेंक देते कि अस्पताल से तो बहुत पहले डिस्चार्ज हुए हो, काॅलेज अब आ रहे हो फर्जी कहीं के। तब शंभू भाई बटन खोकर अपने सीने के आपरेशन का बड़ा सा कट दिखाते, तब भी प्रोफेसर साहब न मानते। मैंने ऐसा अपने सामने एक ही बार देखा, पता नहीं शंभू ने कितने जगह कितनी बार बटन खोलकर अपने सीने का कट दिखाया होगा। शंभू ने बाद में बताया कि उनके मित्र का डेथ सर्टिफिकेट लाना होगा, तभी जाकर attendance का कुछ हिस्सा मिलेगा, शंभू भाई की चीजें जानकर मैं अपना सब कुछ भूल गया था, जब मिलता, यही कहकर साहस देता कि अबे ठोक के काम करवाएंगे, अपने हिस्से का attendance लेके रहेंगे, कहीं पिटयाली मारने थोड़े न गये थे, अस्पताल में थे आदि आदि। लेकिन कुछ दिनों के बाद शंभू भाई काॅलेज में दिखना बंद हो गये, पूछा तो पता चला कि अगला हमेशा के लिए काॅलेज ही छोड़कर चला गया, बहुत गुस्सा आया, बहुत ज्यादा गुस्सा आया, शंभू पर नहीं कालेज प्रशासन पर जो आए दिन उसे डेथ सर्टिफिकेट लाने के लिए प्रताड़ित करते थे, मुझे आज यह भी लगता है कि अगर शंभू भाई किसी दूसरे कुल में पैदा हुए होते तो काॅलेज प्रशासन की लंका लगा देते।
कुछ सालों बाद मैंने सोचा कि जब एक ईल्ली भर का बिना designation का एक प्राइवेट काॅलेज का प्रोफेसर कुछ परसेंट के नाम पर इतना मानसिक शोषण कर सकता है, वो भी मेरे जैसे इंसान का जो कम से कम अपनी चीजों के लिए स्टैंड लेना जानता है, उसे भी महीने भर तक तंग करके रख लेता है। तो जिनके पास designation है, एक छोटे पद से लेकर सचिव स्तर तक जो गैजेटेज आफिसर टाइप के जंतु हैं, जिनके पास हस्ताक्षर करने की ताकत होती है, वे इस देश के लोगों को, भोली-भाली मासूम जनता को किस हद तक परेशान करते होंगे। शंभू भाई जैसा पढ़ा लिखा आदमी भी जब इस शोषण के आगे सरेंडर कर गया, तो बाकी लोगों के साथ कैसा सलूक होता होगा अंदाजा लगा लिया जाए।
No comments:
Post a Comment