स्वास्थ्य विभाग, पुलिस विभाग और ऐसे ही दो चार अन्य विभागों को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर सरकारी विभाग पिछले एक साल से कुछ खास काम नहीं कर रहे हैं या बिल्कुल काम पर नहीं है, लेकिन तनख्वाह पूरी मिल रही है। लेकिन अगर कायदे से देखा जाए तो उन्हें पूरी तनख्वाह नहीं मिलनी चाहिए। और अगर उन्हें इस विपदा के समय बिना काम के इतना बड़ा आर्थिक सहयोग मिल रहा है, तो भारत के आम लोगों को, हर एक तबके को मिलना चाहिए, एक रेहड़ी वाले से लेकर एक नौकरी खो चुके प्राइवेट नौकर और एक व्यापारी तक सबको आर्थिक मदद मिलनी चाहिए, देश के हर एक नागरिक को जीवन जीने लायक आर्थिक मदद मिलनी ही चाहिए।
जिन्हें वास्तव में मदद की आवश्यकता है, बस उन्हें ही मदद नहीं मिल रही है, बल्कि उन्हें और दबाया कुचला जा रहा है। इन लोगों के लिए न कोई हेल्पलाइन है, न कोई बेड है, न कोई दवा है, न आक्सीजन सिलेंडर है, अस्तित्व ही इनका मालिक है। इनके लिए कोई फेसबुक पोस्ट में मदद की गुहार नहीं करता है, इनके लिए कोई दवा का जुगाड़ नहीं करता है। एक सोशल मीडिया में पोस्ट कर मदद जुगाड़ने वाला सोशल मीडिया तक चलाने की औकात नहीं रखने वाले की मदद कर ही नहीं सकता है, वह बस अपने आसपास के लोगों के लिए कुछ व्यवस्थाएँ कर सकता है, और वीभत्स रूप में कहें तो अपने रसूख अपने पहचान का इस्तेमाल कर पहले से मौजूद सुविधाओं पर कब्जा जमा सकता है।
अगर आज भारत के आम लोगों को फ्री में वैक्सीन नहीं मिल पा रहा है, उसे न्यूनतम स्वास्थ्य सुविधाएँ नहीं मिल पा रही है, उसे मरने के लिए छोड़ दिया गया है, तो इसके लिए कोई प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री दोषी नहीं है, दोषी निचले स्तर तक का मेडिकल आफिसर है, तहसील से केन्द्र स्तर तक बैठे हुए सरकारी नौकर हैं, ये पूरी की पूरी नौकरशाही है, देश यही चलाते हैं, सिस्टम सिर्फ किसी नेता से नहीं बल्कि इनसे मिलकर बनता है। और भारत का आम आदमी इस सिस्टम को ठीक करने के बजाय इसी का हिस्सा बनने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाता है, ताकि सिस्टम की मार उसे कम से कम झेलनी पड़े।
अंबानी अडानी जैसे रक्तपिपासु मानसिकता वाले छोटे छोटे प्रोटोटाइप गाँव से लेकर मेगा सिटी तक हर जगह हैं। एक अकेला आदमी किसी देश का बेड़ा गर्क कर ही नहीं सकता है, सबके सहयोग की आवश्यकता होती है, उस मानसिकता वाली पूरी फौज चाहिए होती है, यही तो सिस्टम है।
जो इस सिस्टम का हिस्सा है वह शोषक है, और जो सिस्टम का हिस्सा नहीं है वह शोषित है।
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