Wednesday, 27 January 2021

Articles on Farmers Protest ( Source - Facebook )

By - Vivek Umrao
जब कोई बड़ा जन-आंदोलन होता है तो उसमें गर्म व नर्म दोनों तरह के लोग होते हैं। भारत की आजादी आंदोलन में भी गर्म व नर्म दल थे। चल रहे किसान जन-आंदोलन में भी गर्म व नर्म दल हैं।
नर्म दल बैरीकेडिंग देखकर रुक जाते हैं। लाठी-चार्ज व आंसू गैस इत्यादि रूपी पुलिसिया आत्याचार का विरोध नहीं करते हैं। पुलिस यदि आम आदमी या आंदोलनकारियों की संपत्ति को नुकसान पहुंचाती है, तब भी नर्म दल वाले कुछ नहीं कहते हैं।
गर्म दल बैरीकेडिंग को हटाते हुए आगे बढ़ते हैं। लाठी चार्ज व आंसू गैस को झेलते हुए तथा इनको रोकते हुए आगे बढ़ते हैं। पुलिस यदि आम आदमी या आंदोलनकारियों की संपत्ति को नुकसान पहुंचाती है तो गर्म दल वाले जवाब देते हैं, पुलिस को ऐसा करने से रोकने का प्रयास करते हैं।
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ऐसा ही चल रहे किसान आंदोलन में भी हो रहा है। लेकिन यदि लोकतांत्रिक जनांदोलनों के मूल्यों के आधार पर देखा जाए तो गर्म दलों की कुछ गतिविधियों के बावजूद अभी तक किसान जनांदोलन अहिंसक ही कहा जाएगा।

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**चलते-चलते**
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किसान जनांदोलन की आज की गतिविधि के संदर्भ में पुलिस व प्रशासन ने गलतियां की हैं, बड़ी गलतियां की हैं। यूं लगता है कि इन लोगों को बड़े जनांदोलनों से व्यवहार करने के संदर्भ में धेला भर भी समझ नहीं है।
दरअसल किताबों को रटने, रटी-रटाई ट्रेनिंग व रूटीन तरीकों से ऐतिहासिक क्षणों व गतिविधियों व क्रियाओं से नहीं समझा व निपटा जा सकता है।
यह किसान जनांदोलन ऐतिहासिक है। इससे निपटने के लिए पुलिस व प्रशासन को चले आ रहे ढर्रों से बाहर आकर समझदारी दिखाते हुए व्यवहार करने की जरूरत थी और है। लेकिन जिस तत्व की ट्रेनिंग ही नहीं है, समझ ही नहीं है, दृष्टि ही नहीं है। उसकी अपेक्षा नहीं की जा सकती है।
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जनांदोलन व आंदोलनकारी दुश्मन नहीं होते हैं, ना ही जानवर या कीड़े मकोड़े होते हैं जो उनसे दुश्मनों या जानवरों या कीड़े मकोड़ों की तरह व्यवहार किया जाना चाहिए। फिर भारत में किसानों का बहुत बड़ा योगदान है, उसमें में जो किसान आंदोलनरत हैं उनका तो अधिक ही योगदान रहा है।
जनांदोलनों से सत्ता की हिंसक शक्ति के साथ व्यवहार नहीं किया जाता है। लोकतंत्र में सत्ता किसी भी स्थिति परिस्थिति में आम लोगों पर हिंसा करने के लिए नहीं होती है।
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दो महीनों से किसान धैर्य व शांति से आंदोलन कर रहा है। यदि आज वह देश की राजधानी में किसान परेड निकालना चाहता था तो पुलिस व सरकार द्वारा टकराव करने की बजाय किसानों की इच्छा का सम्मान करना चाहिए था। यह सरकार का बड़प्पन ही होता। पुलिस की समझदारी ही होती।
समझदारी की अपेक्षा केवल किसान से ही क्यों। पुलिस व सरकार भी तो समझदारी दिखा सकती है या यह मान लिया जाए कि सरकार व पुलिस समझदार हो ही नहीं सकती। 
अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। आशा है कि किसान जनांदोलन में नर्म व गर्म दोनों प्रकार के दलों के बावजूद किसान आंदोलन अहिंसक ही रहेगा जैसे कि अभी तक अहिंसक है। 
जब तक किसान आम लोगों की संपत्तियों की लूटपाट नहीं करता है, आम लोगों के साथ मारपीट नहीं करता है तब तक किसान जनांदोलन अहिंसक है, अनुशाषित है। मुझे विश्वास है कि किसान जनांदोलन अहिंसक ही रहेगा भले ही मुख्यधारा की मीडिया अपनी हेडलाइनों में हिंसा भड़काने या हिंसा साबित करने के लिए पूरा जोर लगाती रहे।
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आशा है कि किसान जनांदोलन अहिंसक बना रहेगा। देश को ऐसे आंदोलन की महती जरूरत है। हर ईमानदार व सच्चे देश भक्त का यह दायित्व है कि वह इस आंदोलन से सीखे समझे व संभाले।
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सामाजिक यायावर
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By - Rajneesh Santosh
~~~ स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा अहिंसक आंदोलन ~~~
जैसा भारतीय समाज है, जिस चरित्र का है और जिस तरह की कंडीशनिंग लेकर हम बड़े होते हैं उसके मद्देनज़र मैं आश्चर्यचकित हूँ कि इतना शांतिपूर्ण और संयमित लेकिन दृढ़ आंदोलन कैसे चल रहा है ..
लगभग हमने सब ने अपनी ज़िंदगी में छोटे मोटे आंदोलन ज़रूर देखे होंगे, हिस्सा रहे होंगे। अगर हम ईमानदारी से विचार करें तो हम पाएँगे कि कुछ सौ या हज़ार की भीड़ कितनी हिंसात्मक हो जाती है और कैसा लूटपाट, छेड़छाड़ और तोड़फोड़ होती है, यहाँ लाखों की भीड़ थी कल और यह मत भूलिए कि वो सब महीनों से भयानक ठण्ड और सरकार की उपेक्षा के शिकार थे। इसके बावजूद कहीं कोई तोड़फोड़ नहीं हुई, कोई दूकान नहीं लूटी गयी, कहीं से छेड़छाड़ की शिकायत नहीं है किसी तरह se सार्वजनिक सम्पत्ति का नुक़सान नहीं हुआ, उल्टे सरकार ने हाईवे खुदवाने और बसों को बेरिकैडिंग बनाने से लेकर ट्रैक्टरों की हवा निकालने और कारों के शीशे तोड़ने जैसी टुच्ची हरकतें करके सार्वजनिक सम्पत्ति का नुक़सान किया है।
योगेन्द्र यादव जैसे लोग जो इस बात पर दुबले हुए जा रहे हैं कि एक दो प्रायोजित छुटपुट घटनाओं से आंदोलन बदनाम हो गया है उनकी समझ पर तरस खाइए और कल के आंदोलन पर गर्व कीजिए। दुनिया देख रही है और इतिहास में यह दर्ज हो चुका है कि इतनी बड़ी संख्या में लोग आए और सरकार द्वारा उकसाने के सारे हथकंडों के बावजूद उन्होंने अहिंसक आंदोलन किया ।
यह आंदोलन बहुत ऐतिहासिक है और कल की घटना ने मेरी इस समझ को और पुख़्ता किया है कि हम लोग एक ऐसे आंदोलन के साक्षी बन रहे हैं जो इस देश और इस समाज के चरित्र को बदल डालने की क्षमता रखता है।
कल की ट्रैक्टर परेड ने यह साबित किया है कि अब न तो सरकार के बूते में है इसे ख़त्म कर पाना और न मीडिया के बस में है इसे बदनाम कर पाना। 
वक़्त के साथ यह आंदोलन और व्यापक होना चाहिए और ऐसा होने की सारी सम्भावनाएँ कल नज़र आयीं । जिन्हें कल की एकाध प्रायोजित घटनाओं पर शर्मिंदा होने का नाटक करना पड़ रहा है उन्हें उनकी शर्मिंदगी मुबारक।
#रजनीश


By - Nishant Rana
भारतीय मशीनरी मीडिया :- 
किसी भी मीडिया चैनल की पिछले 10 सालों की कोई भी वीडियों सर्च कर लीजिए और बताइये कि कितनी बार इन्होंने किसानों को, मजदूरों को सही मूल्य या लाभ में न्याय पूर्ण हिस्सा देने की बात उठाई हो।
वह पल बता दीजिए जब इन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य, समानता, लैंगिक, जातीय, धार्मिक भेदभाव जैसे मुद्दों पर कोई सार्थक बहस आयोजित करी हो या सामाजिक, वैज्ञानिक चेतना को जागृत करते हुए कोई काम किया हो। 
यह एलियन ने कौन सी गाय का दूध पिया,  
कौन-सी सीढ़ी कौन से स्वर्ग को जाती है, कौन से नोट में कौन सी चिप लगी होती है, भारत-पाकिस्तान करने में जो समय लगाते है। करोड़ो का खर्च करते है, कई कई घण्टे प्रोग्राम करते है। वह सब किसलिए करते है? 
वहीं देश की जरूरी घटनाओं को सेकेंड दो सेकेंड का स्क्रीन टाइम देकर गायब कर दिया जाता है। और अगर गायब नहीं कर सकते तो तोड़ मरोड़ने कर बदनाम कर दीजिए। 
मुट्ठी भर लोग निर्धारित कर देते है कि कौन-सा मुद्दा जरूरी मुद्दा है कौन सा गैर जरूरी। दरअसल इनके जरूरी मुद्दों में सबसे अहम एजेंडा यहीं होता है कि कैसे भारत के आम आदमी की सोच को और संकुचित किया जाये, भारतीय समाज को और ज्यादा अवैज्ञानिकता की ओर धकेला जाए। मीडिया का मतलब केवल प्रतिक्रिया और ज्वलनशील मोड में ही रहना होता है या फिर मीडिया के कुछ अलग मायने भी होते होंगे। 
क्यों न इस पर भी बात की जाये कि मीडिया के इनके दफ्तरों में कौन सी जाति के लोगों का कब्जा है, जातीय प्रतिनिधित्व कितना है। इनके ऑफिसों में क्यों नहीं बात होती कि समान काम के लिए समान वेतन होना चाहिए। क्यों महिला पुरषों के वेतन में भारी अंतर किया जाता है। 
जो लोग नौकरी जाने के डर से अपने ही शोषण के खिलाफ आवाज न उठा सकते हो, साथ वालो के शोषण पर आवाज न उठा सकते हो या शोषण करने में सहयोग करते हो उन लोगों से वाकई पत्रकारिता के मूल्यों की उनके काम में निभाने की अपेक्षा की जा सकती है क्या?
जो मीडिया कॉरपोरेट के विज्ञापनों से चलती हो, सरकारों के विज्ञापनों से चलती हो। जो कॉरपोरेट, सरकार और ब्यूरोक्रेसी किसान-मजदूरों की लूट से चल रहे होते है। वह क्यों न मीडिया का इस्तेमाल अपने लाभ के लिए न करेंगे।
जो मीडिया अपने लाभ के लिए इन सब पर निर्भर करता हो, जो लाभ के हिसाब से चलता हो। एंकरों पर उन्माद पैदा करने के लिए, सेफ्टी वॉल्व की तरह इस्तेमाल के लिए करोड़ो रुपये की सैलरी दी जाती हो। उस पर भी वह अपने आप को गरीब या समाज का चिंतक प्रस्तुत करते हो। उनसे किस प्रकार की सामाजिक ईमानदारी की उम्मीद की जा सकती है?
प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में यह मीडिया 142वें स्थान पर आती है। अंदाजा लगाइए यह समाज को भ्रमित करने, सामाजिक भाईचारा तोड़ने, साम्प्रदायिक, युद्ध उन्माद पैदा करने, लोगों को बाजारू गुलामी की तरफ धकेलने में यह किस स्थान पर आती होगी। 
सोशल मीडिया का बड़ा धड़ा इन्हीं कॉरपरेट कंपनियों में काम करता है, देश मे आग लगाने वाले इस सिस्टम में सहयोग करता है और अपना फेयर शेयर भी लेता हो, सुविधाओं शक्तियों का आनंद लेता हो उससे आप उम्मीद कर सकते है वह स्वतंत्रता और लोकतंत्र जैसे तत्वों को समझता हो?
सुविधाओं के घेरे में रह कर, लूट में हिस्सा लेकर थोड़ा बहुत दान पुण्य कर लीजिए, थोड़ा बहुत सोशल मीडिया में  सेंसेशन पैदा कर लीजिए हो गई क्रांति; महानता वाला फील भी ले लीजिए और क्या चाहिए समाज तो वैसे ही रहता है, लोग तो होते ही कीड़े मकोड़े है। कैरियर बनने चाहिए, अटेंशन मिलती रहनी चाहिए!
मीडिया अगर समाज को जागरूक करने की दिशा में नहीं है। मीडिया अगर लोगों के अधिकारों के साथ नहीं खड़ा है, मीडिया अगर किसान-मजदूरों की तकलीफों के साथ नहीं खड़ा है। वह सब मीडिया है ही नहीं भले ही उस मीडिया हाउस में कोई फन्ने खां काम करता हो।
**चलते-चलते**
भारत में आजादी के बाद ऐसा कोई आंदोलन आज तक नहीं हुआ है। मीडिया, शासन प्रशासन इस आंदोलन को अभी तक उसी तरह के आंदोलनो की तरह ले रहे है जो प्रायोजित होते रहे है। ढर्रे वाले रवैयों को अपनाया जा रहा है। 
यह वह आंदोलन तो बिल्कुल नहीं है जिस पर मीडिया या सोशल मीडिया की चिल्ल पौ से फर्क पड़ने वाला हो या उसकी वजह से कोई गलत असर इस आंदोलन पर पड़ने वाला हो। उल्टा यह आंदोलन ऐसी बहुत चीजों को पचाने वाला है जो समाज में लोगों की आवाज को दबाने के लिए इस्तेमाल होती आई है। इस आंदोलन में  किसान महिलाएं-पुरुष अपने बच्चों के साथ अपने घरों से दूर है। केवल इसी बात से अंदाजा लगा लीजिये की इस आंदोलन की तासीर क्या है, यह कितना गहरा और दूर तक है। सेंससेशन वाली कूद फांद से दूर रह सकते है तो कुछ समय रहने की कोशिश कीजिए।
सादर
धन्यवाद




Friday, 22 January 2021

किसान आंदोलन की फंडिंग -

 किसान आंदोलन कितना अधिक पारदर्शी है इसका अंदाजा इसी से लगाइए कि अगर इस आंदोलन में कोई बाहर से यानि जो दिल्ली में नहीं है और दूसरे राज्य या देश से सीधे रूपयों का सहयोग करना चाहे तो नहीं कर सकता है। आज जब आनलाइन विकल्पों के बारे में पता किया तो मालूम पड़ा कि ऐसी कोई सुविधा ही नहीं है, और ये कितनी अच्छी बात है। सोचिए अगर आनलाइन फंड के कलेक्शन की सुविधा होती तो इसमें दुनिया भर के फंड की जाँच, इनकम‌ टैक्स की जाँच और सरकार की तरफ से जो लांछन लगाये जाते वो अलग। आनलाइन माध्यम से दानदाता की नियत भी पता नहीं चलती। इस माध्यम से इस आंदोलन को ठीक-ठाक क्षति पहुंचने की संभावना थी। जब एक धर्म विशेष के झंडे को खलिस्तान पाकिस्तान कहकर दुष्प्रचार किया जा सकता है तो आनलाइन फंडिंग अगर होती तो इस पवित्र आंदोलन के लिए बहुत अधिक मुश्किल पैदा की जाती। इसीलिए सीधे कैश से डोनेशन देने की सुविधा है, इससे दान वाली पारदर्शिता भी बनी रहती है, और जो व्यक्ति दान देने आता है वह सिर्फ दान देने नहीं आता, वह आंदोलन को महसूस करके जाता है। आनलाइन माध्यम न होने के बावजूद लोगों के प्रेम आशीर्वाद से अभी तक किसी भी प्रकार की आर्थिक समस्या नहीं आई है। लोग दिल खोलकर दान दे रहे हैं। जनवरी की ठंड और इन विकट परिस्थितियों में 150 लोगों की मृत्यु के बावजूद उसी उत्साह से लगातार सड़कों पर डटे रहना, फंडिंग के लिए किसी भी प्रकार के आनलाइन माध्यमों का सहारा न लेना, और सरकार (और सरकार समर्थक आमजन) की तरफ से लगातार तमाम तरह की प्रताड़नाएँ झेलना, अपमान झेलना।


कितना कुछ हो रहा है, इसके बावजूद किसान आंदोलन में न जाने कौन सी ऐसी अदृश्य शक्ति है जिसने इसे बाँधकर रखा हुआ है, एक छोटी भी कोई हिंसा की घटना अभी तक किसी के द्वारा नहीं हुई है, ये हैरान कर देने वाली बात है। मानो सबको यह आंदोलन, इस आंदोलन की आबोहवा कुछ जीवन मूल्य दे रही हो, मानवता को पुनीत कर रही हो, सभी अनजाने सामाजिक मूल्यों से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर रही हो, उमंगों को मधुर बना रही हो, लोगों को शांत कर रही हो, प्रबुद्ध बना रही हो, सारे भेद मिटाकर एकता के सूत्र में पिरो रही हो और एक सभ्यता का अवतरण कर लहरें उठाने की कोशिश कर रही हो। यकीनन देश के लिए समाज के लिए ऊंची चीज हो रही है।


सिंघु बार्डर में हर दिन पाँच दस नये टेंट लगते हुए देख रहा हूं, यही नजारा टिकरी बार्डर, शाहजहांपुर और गाजीपुर बार्डर का है। यानि जिस तेजी से आए दिन किसान आंदोलन में हजारों की संख्या में लोग आकर जुड़ रहे हैं, उसी तेजी से इस आंदोलन में नि:स्वार्थ भाव से मदद करने लोगों की संख्या भी तेजी से बढ़ती ही जा रही है।



Tuesday, 19 January 2021

जियो सिम और किसान बिल -

जब जियो सिम आया था तो जियो वालों ने यह नहीं कहा था कि एयरटेल, आइडिया और बाकी कंपनियाँ बंद हो जाएंगी। अब शुरू से देखते हैं जब जियो आया मुफ्त में सिम, मुफ्त में डेटा। इससे पहले जियो ने बहुत से सरकारी संस्थानों, पार्क आदि में जियोफाई बनने का काम किया, सिम तो बाजार में बाद में आया। शायद जियोफाई, जियो के सिम को लाने के लिए एक ट्रायल रहा होगा। क्योंकि जियोफाई की स्पीड इतनी जबरदस्त रही कि पार्क आदि में घंटों बस उस स्पीड का आनंद लेने के लिए लोगों की भीड़ देखते बनती थी। "इंटरनेट का लुफ्त उठाते युवा" बकायदा ऐसी न्यूज बनती थी वो भी धड़ल्ले से, क्यों ये सब होता था, समझदार के लिए इशारा काफी है। 

फिर एक दिन मार्केट में जियो का सिम आता है, टेक्नोलॉजी के कीड़े जिन लोगों ने शुरुआत में सिम लिया, उन्होंने बताया कि काल इंटरनेट सब कुछ फ्री है, सिम भी फ्री है, अनलिमिटेट इंटरनेट है, धासू स्पीड है, लोग पागल हुए जा रहे थे, मुझे यह सब देखकर भयंकर हंसी आ रही थी और साथ ही उस फोकटछाप डेटा वितरण के पीछे की खतरनाक मंशा भी साफ दिखाई दे रही थी, तब हँस ही सकते थे। अंबानी रातों रात इंटरनेट के कीड़ों के भगवान बन चुके थे। एक ने बताया कि उसने एक दिन में 50 GB से अधिक की फिल्में आदि डाउनलोड कर ली। यहाँ तक सब कुछ अनलिमिटेड ही रहा, फिर दिखना शुरू हुआ जियो के नशे का असली स्वरूप। अब एक दिन में अनलिमिटेड डाउनलोड की लिमिट 30 GB कर दी गई, फिर 10 GB कर दी गई, फिर 4 GB और फिर शायद 2 GB में आकर मामला रूक गया। तब तक जियो के सिम का नशा मार्केट में फैल चुका था, बाकी सारी सिम कंपनियां प्रतिस्पर्धा से बाहर। और फिर जब सबको नशे की लत लगा दी तब जियो ने वापस अपने पैसे वसूलने शुरू कर दिये। आपने खुद से कभी पूछा कि जिस डोंगल के माध्यम से प्रति महीना 10 GB डेटा में आपका बड़े से बड़ा काम हो जाता था, आज रोज के 1,2 GB में भी आप तड़पते रहते हैं, किसने आपको ये लत लगाई पूछिए खुद से।

आज आप बताइए डोकोमो, एयरसेल जैसी कंपनियाँ कहाँ हैं? वही डोकोमो जो एक समय में काॅल और इंटरनेट की बेहतरीन सुविधाएँ दे रहा था, झटके से गायब हो गया। मैंने डोकोमो के बंद होने तक उसकी सुविधाएँ ली थी, फिर अंतत: विवश होकर पोर्ट करना पड़ा। डोकोमो तो छोटी कंपनी रही, आइडिया और वोडाफोन जैसी कंपनियाँ भी जब घाटा नहीं झेल पाई, तो आज मिल के "VI" हो गई। जियो ने बस एक काम किया, उसने सबको मार्केट से हटा दिया, कोई प्रतिस्पर्धा करने लायक नहीं बचा।

किसान बिल में जो किसानों को मंडी से बाहर फसल बेचने की आजादी सरकार जबरदस्ती देने के लिए इतनी हड़बड़ी कर रही है, यह वही है, सरकार कहीं भी नहीं कह रही कि मंडी खत्म होगी। जियो ने भी नहीं कहा था कि डोकोमो एयरसेल खत्म होगा, लेकिन हो गया। रिलायंस पेट्रोलियम जो बंद हो चुका था, जो फिर से पैदा हो चुका है, उसने भी नहीं कहा है कि भारत पेट्रोलियम और बाकी सार्वजनिक उपक्रम बंद होंगे, लेकिन तलवार सब पर लटक रही है। ठीक वही तलवार आज किसानों के ऊपर लटकाने की तैयारी है। जियो के फ्री डाटा की तरह प्राइवेट वाले शुरूआती वर्षों में इतना फायदा देंगे, इतने आफर देंगे कि किसान खुद कहेगा कि यही ठीक है चलो सिम पोर्ट करने की तरह मंडी खत्म करो, हम आपके कस्टमर हुए। और फिर असली रंगदारी शुरू होगी और किसान गुलाम बना दिए जाएंगे, आम इंसान गुलाम बना दिया जाएगा। इसी का विरोध पिछले दो महीनों से चल रहा है। 

Monday, 18 January 2021

किसान आंदोलन और पाकिस्तान का समर्थन -

किसान आंदोलन‌ सिर्फ किसान आंदोलन है, जिसकी नींव पंजाब के सिखों ने रखी, फिर बाकी लोग जुड़ते गये। और जब नींव सिखों ने रखी तो उनको उम्मीद थी कि देश के बाकी हिस्सों से भी अलग-अलग लोग जुड़ेंगे, उसी तेवर से जुड़ेंगे जिस तेवर से उनका सिख तबका जुड़ता गया, लेकिन हमेशा की तरह इस देश ने इस देश की आवाम ने उन्हें निराश किया।

आजादी के समय से आज तक जिस कौम ने अपने सीने में गोली खाने से परहेज न किया, हंसते हंसते फाँसी के फंदे को गले लगा लिया, आज वह कौम अकेले अपने दम पर जब किसानों के मुद्दे को लगातार अग्नि दे रही है, तो इस देश की जनता क्या कर रही है, वह बजाय उनका समर्थन करने के उल्टे उन पर शक कर रही है, उन्हें खलिस्तानी, पाकिस्तानी, देशद्रोही कह रही है, उनकी नियत पर शक कर रही है, एक भारतीय के लिए इससे बड़ी शर्म की बात और क्या हो सकती है कि उसी के देश में सबसे जिंदादिल कौम जो सरहद से लेकर देश के भीतर हर जगह हमेशा अपनी मिट्टी के लिए मर मिटने को तैयार रहा, उसे आज यह दिन देखना पड़ रहा है। फिर भी दो महीनों से वह डटा हुआ है, उसे किसी के समर्थन सहयोग की जरूरत नहीं है, वह अकेले रस्सी खींच ले जाएगा और आप और हम शर्म से सिर झुकाने के लिए बस रह जाएंगे।

जहाँ तक बात पाकिस्तान के समर्थन की है, तो समर्थन पाकिस्तान का है, कनाडा का है, अमेरिका है, फ्रांस का है, ब्रिटेन का है, बहुत से ऐसे देशों का है। लेकिन समर्थन देश नहीं कर रहा है, समर्थन कर रही है वहाँ बैठी सिखों की आबादी जिन्हें अपने लोगों के लिए आगे आना पड़ा क्योंकि इस देश की जनता सोई हुई है। 

Thursday, 14 January 2021

किसान आंदोलन से लोकतंत्र का खतरे में आ जाना -

 लोग कह रहे कि किसान रोड जाम कर रहे, ट्रेन रोक रहे, लोकतंत्र खतरे में आ गया। चलिए मान लिया।


लेकिन तब आपका लोकतंत्र क्यों खतरे में नहीं आता है जब -

- कांवड़ यात्रा से आधा नार्थ इंडिया कई दिनों तक जाम की परेशानियां झेलता है।

- जब रोड में मुहर्रम, गणेश पूजा, दुर्गा पूजा और तमाम तरह की धार्मिक गतिविधियों की रैलियाँ निकलती है।

- जब राजनैतिक पार्टियों की रैली निकलती है।

- जब शादियों की गाड़ियाँ सड़क को अपने ताऊ की जमीन समझकर घंटों घेरकर चलती है।



कितने ऐसे मौके हैं जब आप और हम थोक के भाव में लोकतंत्र की ऐसी तैसी करते हैं लेकिन हमें किसानों के रोड रोकने से बदहजमी‌ हो जाती है, किसान आंदोलन तो वैसे भी व्यवस्थित आंदोलन है, जहाँ जहाँ वे बैठे हैं, रास्ता डाइवर्ट कर दिया है, रास्ता रोका नहीं है, इसलिए किसी को समस्या भी नहीं है, पुलिस आर्मी किसान सब मिलजुलकर साथ में लंगर खा रहे हैं। लेकिन जिन्हें ये सब चीजें नहीं मालूम, जो अपने घरों में बैठकर टीवी देख रहे हैं, मोबाइल में न्यूज देखकर अपनी राय बना रहे हैं, उन्हें बहुत समस्या हो रही है, उनके लिए ही ये देश और इस देश का लोकतंत्र खतरे में आ गया है। 



तस्वीर में आप देखिए, पूरे एक साइड का रोड खाली है ताकि लोगों को समस्या न हो, और रोड के दूसरी ओर किसान बैठे हैं, किसान आंदोलन कितना लोकतांत्रिक है इस का अंदाजा इसी तस्वीर को देखकर लगाइए कि जिन सड़कों में ये महीनों से रह रहे हैं उसमें सड़क के दूसरी ओर जहाँ गाड़ियों का आवागमन हो रहा है वहाँ एक कचरा तक नहीं दिखाई देता है, ऐसी खूबसूरती आपको सिर्फ इसी आंदोलन में दिखेगी,  इसलिए भी यह भारत में अभी तक हुए धरनों, आंदोलनों से बिल्कुल अलग है।

Wednesday, 13 January 2021

Doubts related to Farmers bill and the protest -

किसान आंदोलन से संबंधित भ्रांतियाँ -


सवाल - खलिस्तानी हैं, पंजाब को अलग करना है, इसलिए आंदोलन हो रहा है।


जवाब - सब मूर्खता की बात है, पंजाब आखिर क्यों अलग होना चाहेगा। चीन पाकिस्तान और भारत तीन अलग-अलग विकासशील देशों का बार्डर झेलना है क्या उसे?अलग होना बस मूल मुद्दे से भटकाने वाली बातें हैं। किसान अपनी चीजों को लेकर सरकार से कहीं अधिक स्पष्ट हैं।


सवाल - पंजाब हरियाणा के किसान तो अमीर हैं, पता नहीं और कितने पैसे चाहिए उन्हें। 


जवाब - जहाँ तक किसानों की अमीरी की बात है, हर कोई किसानी दम लगाकर करे, पैसे कमाएँ, एसयूवी खरीदे, बच्चों को पढ़ने के लिए विदेश भेजे, किसने रोका है। उनसे तो प्रेरणा लेनी चाहिए जो किसानी की इतनी इज्जत करते हैं, अब यह भी तर्क रहेगा कि पंजाब हरियाणा की जमीन अच्छी है फलां फलां। तो भाई वो एसयूवी ले सकते हैं तो आप कम से कम मारूति ले लीजिए, थोड़ा कम ही सही, शान से जीवन यापन करिए, भारत के दूसरों राज्यों का किसानी का सिस्टम इतना भी खराब नहीं कि किया ही न जा सके। 


सवाल - सिर्फ पंजाब हरियाणा के लोग प्रमुखता से प्रोटेस्ट कर रहे क्योंकि इन्हीं को इस बिल से फर्क पड़ेगा।


जवाब - चलिए ठीक है एक बार के लिए मान लिया जाए इन्हीं को फर्क पड़ेगा। शुरूआत में तो इन्हें ही फर्क पड़ेगा। जहाँ जितनी अमीरी वहाँ उतना ही फर्क पड़ना है। लेकिन धीरे-धीरे सबको फर्क पड़ेगा। न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) किसी न किसी फसल में हर राज्य में है, मंडी हर राज्य में है। मंडी खत्म होने का सिलसिला शुरू हो जाएगा फिर दिया तले अंधेरा वाली स्थिति सबके लिए निर्मित हो जाएगी। जो किसान जागरूक है, देख पा रहा है, उसने मुहिम शुरू कर दी है, धीरे-धीरे बाकी राज्य भी जुड़ने लगेंगे, देर से ही सही सबको आना होगा। विश्वास वाली चीज सरकार से सबको चाहिए, पूरे देश के किसानों को चाहिए, उनका यह विश्वास उनका हक है, उन्हें ये किसी भी सूरत में मिलना ही चाहिए। 


सवाल - किसान पिज्जा खा रहे, हलवा खा रहे, ये कैसा आंदोलन है?


जवाब - पिज्जा और हलवा खाने पर सवाल उठाने वाला आखिर है कौन? इसी अपमान से ही तो यह आंदोलन किसानों को मुक्ति दिलाएगा, यह बताएगा कि किसानी सम्मान की चीज है, उसको सम्मान देना ही होगा। जैसे पंजाब हरियाणा का किसान सम्मान से किसानी करता है, वैसा सम्मान पूरे देश के किसानों तक पहुंचेगा, तक युवाओं तक भी यह बात जाएगी कि किसानी किसी की नौकरी करने से कहीं बड़ी चीज है।


बाकी पिज्जा और हलवा के लिए जो आवश्यक कच्चा माल चाहिए होता है, सब किसानी से ही आता है, क्या अब किसान अपनी पैदा की हुई चीजें भी न खाए? वह क्या भूखा मरे? जो उपभोक्ता है, जो कुछ उत्पादन नहीं करता है, क्या उसकी यही सोच है? उसे तो शुक्रगुजार होना चाहिए कि किसान चीजें पैदा करता है तभी वह खाना खाके मजे से जीवन यापन करता है, आफिस में बैठ के मौज करता है, कंप्यूटर चलाकर पैसे बनाता है, फ्लाइट में उड़ता है। किसानी जिस दिन अलग हो जाएगी, सब खत्म हो जाएगा। तब पिज्जा और हलवा खाने पर सवाल करने लायक भी न बचेंगे।


सवाल - फलां फलां संस्थाएँ पार्टियाँ प्रायोजित करवा रही यह आंदोलन, ये सब राजनीतिक आंदोलन है।


जवाब - बिल्कुल नहीं। जिन्हें ऐसा लगता है, उन्हें एक बार आंदोलन वाली जगह में जाकर देख आना चाहिए। शायद यह आजाद भारत का पहला ऐसा आंदोलन है तो प्रायोजित नहीं है। प्रायोजित होता तो अब तक बाकी फर्जी आंदोलनों की तरह यह भी हाइजैक हो चुका होता, लेकिन यह नहीं हुआ, क्योंकि यह किसी विचारधारा, पंथ, पार्टी, द्वारा पैदा किया गया आंदोलन नहीं है। किसानों के मन से उपजा आंदोलन है, किसानी की साख बचाने के लिए शुरू किया गया आंदोलन है, जिसकी अभी शुरूआत ही हुई है।



अंत में जो तस्वीर अपलोड हुई है, उस पर ध्यान दिया जाए। यह एक किसान आंदोलन की तस्वीर है, जिसमें महिलाओं के लिए रहने सोने की व्यवस्था की गई है, आस पड़ोस में अलग-अलग राज्यों के टेंट लगे हुए हैं, जिनमें अधिकांशत: पुरूष वर्ग हैं, हर कोई मिल-जुलकर साथ में रह रहा है। अब जिनको भी किसान आंदोलन से संबंधित बुनियादी शंकाएँ हैं वे इस तस्वीर को देखकर मन में यह विचार करें कि जिस दिल्ली में महिलाएँ असुरक्षित महसूस कर लेती हैं, उसी दिल्ली में महिलाएँ कैसे सुरक्षित होकर रोड में महीनों से अनजान लोगों के बीच रह रही हैं?