Tuesday, 25 August 2020

साहित्यकार बनने के आसान नुस्खे -

- एक बड़ा सा कमरा लें, जिसमें बढ़िया से पुट्टी की गई हो,
- एक लकड़ी वाली पुरानी सी गिटार जुगाड़ें,
- शांतिदूत वाली वाइब दिखाने के लिए एक बुध्द जी की मूर्ति,
- दीवारों पर कुछ क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों की तस्वीरें,
- दो चार दिवंगत कवि लेखकों की तस्वीरें,
- प्रशस्ति पत्र का फोटो फ्रेम, अवार्ड आदि,
- एक दो प्रख्यात कलाकारों की पेटिंग,
- कागज से बने आकर्षक लैम्प,
- लाल पीले रंग से पुती लालटेन जिसमें बल्ब फिट होता हो,
- शोभा बढ़ाने के लिए कोई पुराना विंटेज रेडियो, टेप आदि,
- सुंदर महंगे दिखने वाले सोफे और उनमें चंद रंग-बिरंगे तकिए,
- आदिवासियों द्वारा बनाई गई जूट की कुर्सियाँ और कुछ धातुओं से बनी कलाकृतियाँ,
- एक बड़ा सा सफेद रंग का कम्प्यूटर या लैपटाॅप,
- कुछ प्लास्टिक वाले रंग-बिरंगे फूल, मनी प्लांट आदि,
- चाय काॅफी पीने के लिए टेबल में सुंदर कप और केतली, ये सामान तोहफे वाले हों तो और बेहतर,
- इन सब चीजों की सजावट करने के दौरान रंगों में लाल, पीले, नीले और सफेद रंग को विशेष प्राथमिकता दी जाए,
और अंत में कुछ लकड़ी के रेक भी बनवा लें और किताबें सजा लें,
अब खादी पहनकर या कुर्ता सदरी लगाकर हाथ में किताब लिए फोटो खिचवाएं...
आपके भीतर का साहित्यकार तैयार है।

इतिहासकार+जनवादी+क्रांतिकारी लेखक कैसे बनें -

1. कोई ऐसा ज्वलंत मुद्दा उठाएं जिसका लंबे समय से कोई समाधान न निकला हो। उदाहरण के लिए ऐतिहासिक व्यक्तित्व में नेहरू और गाँधी को ले लें, सामयिक समस्याओं में कश्मीर समस्या, नक्सल समस्या, पूर्वोत्तर की समस्या आदि।
2. इन विषयों पर पहले से लिखी गई किताबें, शोध पत्र-पत्रिकाएँ, पेपर कटिंग, मीडिया कवरेज, जर्नल आदि आदि चीजें जुटाएं।
3. अब इनमें से अपने किताबी शीर्षक के जरूरत के मुताबिक सामान उठा उठाकर टीपते चलें।
4. थोड़ा सा अनुभव और आंचलिकता का पुट डालने के लिए एक दो बार अमुक जगह जहाँ के बारे में किताब लिखी जा रही है, वहाँ की यात्रा कर आएं ताकि एक प्रमाण भी रहे।
5. अंत में कुछ महंगे भारी नामचीन साहित्यकारों से अपनी किताब के लिए नोट लिखवा लें, इन सारी चीजों को अच्छे से मिलाएँ, किताब तैयार है।

मैं तंत्र का हिस्सा न होकर भी तंत्र से अलग नहीं हूं -

"किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर विभेद का प्रतिषेध।"

भारतीय संविधान के इस अनुच्छेद 15 को पढ़ाने वाले ही जब मिनट भर बाद इस अनुच्छेद के मूल भाव को अपनी अभिव्यक्ति से मटियामेट करते हुए पाए जाते तो दिमाग एक समय के लिए काम करना बंद कर देता था। आए दिन ऐसे विरोधाभास देखने मिल जाते थे, सिर्फ संविधान के अनुच्छेदों में ही नहीं, पृथ्वी और तारों के जन्म संबंधी भूगोल में भी, समाजवाद, पूंजीवाद और साम्यवाद के विश्लेषणों में भी, जीडीपी की गणना, गरीबी रेखा के तय मानकों और अर्थव्यवस्था की बोझिल परिभाषाओं में भी।

यूगोस्लाविया के बाद दूसरा सबसे बड़ा संविधान होने का गर्व पालने वालों पर तब से हँसी आती थी। इन सब से खुद को अलग करने जैसा कभी कुछ रहा ही नहीं। तैयारी क्यों छोड़ दी जैसे सवालों का मेरे पास आज भी कोई जवाब नहीं होता, क्योंकि मुझे याद ही नहीं आता कि मैंने इसे पकड़ा ही कब था। पीसीएस और यूपीएससी मेन्स लेखन की भाषाशैली की समझ वाले बूचड़ों के सुभीते के लिए यही कि छोड़ना एक ऐसी लंबी प्रक्रिया थी, जो शायद पहले दिन से शुरू हो चुकी थी जब लोग पकड़ना शुरू करते हैं या उस मोहपाश में बंधना शुरू करते हैं। वैसे किसी उपन्यास के अंदाज में कहें तो पूरी तरह छोड़ना शायद डेढ़ या दो साल बाद हुआ। लेकिन यह भी लगता है कि अगर किसी कारणवश तैयारी नहीं भी छोड़ता तो मस्तिष्क ने जो वाक्यों के बीच छुपे भावों को और उनके पीछे खेले जा रहे घटिया खेल को, दोहरे मापदंडों को, भाषाई पाखंड और घाघपने को जो देखना शुरू किया था, वह देखना तो तब भी जारी रहता, बस तब मशीनरी का हिस्सा होता तो खुलकर पब्लिक डोमेन में उतना कह न पाता। सरकारी मुलाजिमों की तरह जटिल ऊर्दू की कविताओं या संस्कृत के श्लोकों का सहारा लेकर लोगों को अपनी जटिलताएँ परोसता और उसी में सैकड़ों हजारों लाइक बटोरता। और इसके साथ ही खोखलेपन की पराकाष्ठा लांघ चुका होता लेकिन फर्क यह रहता कि वहाँ रहकर भी रोज रात को सोते समय मुझे इस बात का बराबर आभास होता रहता, इतना तो मैं जहाँ जाता हर जगह खुद को बचा ही लेता। लेकिन संख्याबल से इतर मेरी पूछ परख करने वाले तब भी उतने ही होते जितने अभी हैं, शायद कम भी हो सकते लेकिन ज्यादा तो बिल्कुल नहीं होते। बात सिर्फ पद, प्रतिष्ठा या हनक की नहीं है, आप वास्तव में जो हैं उसके लिए अगर आपकी पूछ होती है, वही असली कमाई है, बाकी सब ढकोसले हैं।

लोग भले ही मुँह उठा के नेगेटिव कह जाते हों, लेकिन सिस्टम के प्रति किसी प्रकार की कुंठा जैसी चीज तब भी नहीं थी, अब भी नहीं है। कभी-कभार के लिए खीज या कसक जैसा कुछ सकें तो बेहतर हो लेकि‌न कुंठा तो कभी थी ही नहीं, कुंठा का जब कुछ हासिल ही नहीं तो सोचने का सवाल ही नहीं होता है।

जहाँ तक बात सिस्टम या तंत्र की है तो हम अगर सिस्टम का हिस्सा प्रत्यक्ष रूप से न भी हों तो क्या हुआ हम उससे अलग भी तो नहीं है, चौतरफा घिरे हुए हैं, प्रभावित होते रहते हैं, भले उतना आभास न हो पाता हो, लेकिन सिस्टम हमारे आसपास के वातावरण में डैने पसारे फैला तो रहता है, बस हम दिखाने वाले की भूमिका में न होकर देखने वाले की भूमिका में होते हैं। और देखने वाले की भूमिका साफ नियत से निभाने की अधकचरी कोशिश करने वाला नेगेटिव नहीं होता है। जिनमें रचनात्मकता और क्रियाशीलता का अभाव होता है उन्हें ही ऐसे लोग नकारात्मक दिखाई पड़ते हैं।

#बसयूँही

माता-पिता बच्चों के प्रति हिंसा के लिए जिम्मेदार होते हैं -

माता-पिता अपनी हिंसा बच्चों को हस्तांतरित करने का एक मौका नहीं छोड़ते हैं, खुद जितने मशीनी होते हैं अपने बच्चों को भी वैसा ही बना डालते हैं, इसमें आधार बनता है परिवार, समाज, देश, संस्कृति आदि। इन्हीं टूल्स को काम में लगाकर बच्चे की बुध्दि को संकुचित करने का काम किया जाता है। और मजे की बात ये कि उन्हें अपनी इस गलती का इंच मात्र भी आभास नहीं हो पाता है, उन्हें लगता है बच्चा अगर उनकी तरह रोबोट नहीं बन पाया तो उसका जीवन नर्क हो जाएगा। उन्हें लगता है कि उन्होंने जिस ढर्रे पर पूरा जीवन जिया है, जीवन जीना उसे ही कहते हैं, उसके अलावा भी कोई जीवन होता है, इसकी न तो उन्हें समझ होती है, न ही ऐसी दृष्टि होती है, इसलिए ऐसी कल्पना भी नहीं कर पाते हैं। उन्हें लगता है वे अग्रगामी हैं, लेकिन असल में होते वे पश्चगामी ही हैं। ऐसी मानसिकता ही समाज को, देश को पीछे ढकेलती है। शिक्षा व्यवस्था, स्वास्थ्य, सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार यह सब बहुत बाद में आता है, इन सारी समस्याओं की जड़ हमारा अपना परिवार होता है, सब कुछ इसी का विस्तार तो है, हम जब तक इस सच्चाई को नहीं स्वीकारेंगे, तब तक उल्टी दिशा में गंगा बहती रहेगी।

दहेज -

पिता - चलो सगाई हो गई, अब कार एसयूवी ही लेना है।
पुत्र - बिल्कुल, लेकिन मेरे को नहीं लगता कि मिल पाएगा।
पिता - बड़ा खानदान है कैसे नहीं मिलेगा?
पुत्र - सुनने में आया कि वे कुछ और सोच रहे‌।
पिता - कैसे नहीं देंगे, अगर अभी नहीं मिला तो शादी के बाद लेंगे।
पुत्र - शादी के बाद कैसे?
पिता - बेटी तो घर आएगी, वो कब काम आएगी‌।
पुत्र - समझ गया।
पिता - उसको तू संभालना, बस हावी न हो पाए।
पुत्र - ठीक, मैं उसका देख लूंगा।
पिता - बाकी तो मैं संभाल‌ लूंगा।
पुत्र - ठीक है।
पिता - एसयूवी से कम में नहीं मानना है।
पुत्र - अरे बिल्कुल। लेकर रहेंगे।

Saturday, 22 August 2020

जाति धर्म का निम्नीकरण और हमारी युवा पीढ़ी

 आज का युवा भले जाति धर्म कितना भी मान ले, भले समर्थन के लिए क्षणिक हिंसा दिखा जाए, लेकिन अब उसमें जड़ताएँ कम होती दिखती है, बस करना है इसलिए कर जाता है, मन से कुछ नहीं होता है, बस एक दबाव की तरह झेल रहा होता है। एक बड़ा सु:खद परिवर्तन जो पिछले कुछ सालों में तेजी से देखने में आ रहा है वो यह है कि अब वह सारी दुनिया को ठेंगा दिखाते हुए अपने मन से शादी करना चाहता है, और कई बार अपने मन से शादी के बाद अपने मन के और भी काम करने का साहस जुटाता चला जाता है। जब वह अपने घर परिवार और आसपास के परिवेश में, सजातीय विवाह में, इन सब में रिश्तों को टूटते बिखरते मानवीय मूल्यों को तार-तार होते देखता है तो उसे एक सहज बोध यह होने लगता है कि इससे बेहतर तो यही है कि जिसे हम बेहतर जानते हैं, समझते हैं या जो हमें जानता है, बेहतर समझता है, सम्मान करता है आदि आदि, उसे के साथ ही आगे का जीवन बिताने का फैसला क्यों न किया जाए। भले अजीब लग सकता है लेकिन धीरे से ही सही इस सहज बोध ने जाति व्यवस्था को चीरना शुरू कर दिया है, आज का युवा बस अपने मन से एक बेहतर जीवनसाथी चुनना चाहता है, उसकी इस एक जिद ने ही आज जाति धर्म आदि को किनारे करना शुरू कर दिया है, भले औपचारिकताओं के स्तर पर आज के भारतीय सामाजिक परिवेश के अनुसार वह धर्म जाति को पकड़ कर चलता रहता है, लेकिन मन से स्वीकार करने लायक अब वो जकड़न उसमें बची ही नहीं है, कुछ पुराने बूढ़े(सोच के स्तर पर) आज भी जाति धर्म की रस्सी पकड़े हुए हैं लेकिन उनको ये नहीं पता कि हमारी पीढ़ी जाने अनजाने ही सही अब उस रस्सी को काट के फेंकने‌ पर ऊतारू है।