जब कभी उत्तराखंड जाना होता है या वापस लौटना होता है तो सफर के दौरान हमेशा कुछ न कुछ ऐसा घटित हो जाता है जिस पर यकीन करना भी मुश्किल सा लगता है...
एक बार मैं मुनस्यारी से काठगोदाम लौट रहा था, ट्रेवलर की उस गाड़ी में मेरे बाजू में एक लड़की बैठी थी, वो जब से मुनस्यारी से बैठी थी, काठगोदाम आते तक किसी लड़के से फोन पर धीमी आवाज में बतियाती रही। बेरीनाग से खाना खाकर जब हम आगे बढ़े तो उसने कोलड्रिंक की एक बोतल ले ली, और ऊपर मुंह करके पीने लगी, फिर उसके बाद उसने मेरी ओर थमाते हुए कहा - लो आप भी पियो। उसका आग्रह सुनते ही मुझे एक पल के लिए इतनी शर्म महसूस हुई, वो इसलिए कि अभी कुछ घंटे पहले ही मैं उसके सामने मुट्ठी मुट्ठी भर चिप्स एक बार में भुक्खड़ की तरह खा रहा था। क्या करता लड़का होकर उसे पूछता तो पूछता कैसे। उसके आग्रह ने मुझे दुविधा में डाल दिया, मन का एक कोना आखिरकार बोलने लग गया कि कहाँ गये तेरे पहाड़ी संस्कार, बाजू में कोई बैठा हुआ है फिर भी तुने अकेले खा कैसे लिया। लड़का होकर तुझे आगे से बात करने में अटपटा लगा सो ठीक पर भूख को तो स्थगित किया जा सकता था।
फिर मैंने उस लड़की को मना किया कि मैं नहीं पीता कोलड्रिंक, आप पीयो। उसने फिर ऊपर मुंह करके पीया और कोलड्रिंक की बोतल को हम दोनों की सीट के बीच की खाली जगह में रख दिया। फिर मैंने कुछ देर सोचा और उसे चिप्स का पैकेट दिया और कहा कि लो आप भी खाओ, मैं कोलड्रिंक नहीं पीता तो क्या हुआ, आप तो ये खा ही सकते हो, फिर उसने चिप्स खाया और खिड़की खोलकर किनारे अपना सर टिकाकर उंगलियों से अपने बालों को कंघी करते हुए फिर से बात करने लग गई। बीच में उसने मुझसे कहा भी कि यार मैं बात कर रही,डिस्टर्ब होगा तो बता देना न।
शाम के 6 बज चुके हैं,
गाड़ी काठगोदाम पहुंच चुकी है। मैं काठगोदाम रेल्वे स्टेशन की ओर जाते हुए यही सोच रहा हूं कि भारत में ऐसी और कितनी जगहें बची होंगी जहाँ ऐसी संस्कृति मिलेगी। फिर हमेशा की तरह बात वहीं पर आकर रूक गई कि यार कुछ चीजें न पहाड़ों में ही संभव है।
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