Tuesday, 14 February 2017

~ मैं लड़की नहीं ~

                  रोज की तरह मैं कालेज जाने के लिए सुबह से तैयार हो गई। कल मेरे सर पर चोट लग गई थी अब इस वजह से मुझे यही लग रहा है कि मैं सब भूल रही हूं। गली से पैदल चलते मैं अपने चौराहे की तरफ जा रही थी। अचानक से मुझे महसूस हुआ कि मुझे चुपके से कोई देख रहा है, शायद वो कोई दुकान वाले अंकल थे, क्या वे लड़कों को भी देखते होंगे या सिर्फ मुझे ही देख रहे हैं, खैर मैंने उन्हें नजरअंदाज किया और मैं आगे बढ़ने लगी। फिर थोड़ी देर बाद मुझे ये लगने लगा कि कोई है जो फिर से देख रहा है, टेढ़ी नजरों से देखा तो ये पाया कि कोई लड़का है जिसकी हल्की सी निगाह मुझ पर पड़ रही है। फिर मैं आगे बढ़ी, मैंने देखा एक बुढ़िया मुझे ऊपर से नीचे ताक रही थी। न जाने कितनों ने मुझे देखा, मैं गिनती न कर पायी, कोई आंखे फाड़कर देखता तो कोई चोरी-छिपे। मुझे नहीं पता कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। एक बार को लगा कि मैंने कपड़े ढंग से पहने हैं कि नहीं, कहीं कुछ ढीला पड़ गया हो शायद, इसलिए भी तो लोग देख रहे होंगे, फिर मैं खुद को जांचने लगी और ये पाया कि सब ठीक तो है।
मैं भला आज इतना क्यों सोच रही हूं, सामान्य सी बात तो है।
हां ये तो मेरे लिए रोजमर्रा की बात थी, रोज इसी रास्ते होकर कालेज के लिए बस पकड़ती हूं, लेकिन आज मुझे ये क्या हो गया है, शायद आज मैं देख पा रही हूं कि एक लड़की होने के नाते मुझे कितनों के द्वारा देखा जा रहा है, ये आज इतना लड़कीपन मुझमें क्यों आ गया है, मेरी खूबसूरती सामान्य सी है, कपड़े भी ज्यादा भड़कीले नहीं हैं, फिर भी मुझे ये पता नहीं कि कौन किस नजरिए से देख रहा है, लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि आज मैं इन सब देखने वालों की गिनती कर रही हूं तो मुझे घबराहट सी हो रही है, डर सा लग रहा है।
                  मेरे घर से चौराहे तक की दूरी लगभग पांच सौ मीटर है, मैं ये दूरी नापकर रोज की तरह अपने कालेज की बस का इंतजार करने लगी। कुछ एक मिनट तक वहां खड़ी रही तो मुझे लगा कि फिर से कुछ लोग मुझे देख रहे हैं, मैं अब पीछे चली जाती हूं, उन लोगों के चेहरों को याद करने लगती हूं जो पहले ही रास्ते में मुझे देख चुके हैं और फिर से घबराने लगती हूं। शायद मेरे मम्मी-पापा को भी कुछ इसी तरह बैचेनी होती होगी मेरे लिए, जब मुझे कभी घर लौटने में देरी हो जाती है।
                   मैं वहां चौराहे में खड़ी मन ही मन सोचती हूं कि जल्दी से मेरी बस आ जाए, अपनी उंगलियाँ मरोड़ने लगती हूं, पैरों को धीमे से जमीन पर पटकने लगती हूं। लेकिन आज मेरी बस का कोई पता नहीं, रोज इस टाइम पर तो आ जाती थी, आज इस बस को क्या हुआ। उतने में ही एक कोई अंकल आते हैं और मुझसे टाइम पूछने लगते हैं, इस भीड़ में मैं ही उन्हें मिली क्या? मैं अचानक से उन्हें अपने सामने देखकर कुछ समझ नहीं पाती कि क्या जवाब दूं, मेरी जुबान सिल जाती है, मैं डर के मारे कांपने लगती हूं, और फिर इसी दौरान घबराहट के मारे मेरी नींद खुल जाती है, उठने के बाद पता चलता है कि 'मैं लड़की नहीं'।

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