Wednesday, 22 February 2017

~ मितव्ययिता ~

               उस समय 3rd या 4rth क्लास में था। पड़ोस के एक लड़के ने मुझे पत्थर देकर चैलेंज किया कि चल देखता हूं तेरा निशाना कितना अच्छा है, चल इस रिक्शावाले के सिर में मार के बता, मैं ठहरा भोला भंडारी, साथ ही उतना ही सिरफिरा, मैंने उस रिक्शेवाले के सिर में पत्थर दे मारा, मेरा निशाना सटीक था, रिक्शेवाले के माथे पर सूजन आ गई, उसने मुझे पकड़ने को दौड़ाया, मैं दौड़ते घर आया और खाट के नीचे छुप गया। रिक्शेवाले ने मां से शिकायत की। मां बोलती रही, आने दे तेरे पापा को वगैरह। उतने ही समय पापा आफिस से घर आ गए, रिक्शावाला घर के बाहर खड़ा था, वो पापा को बोलने लग गया कि संभालो साहब अपने बेटे को, हम गरीब हैं, कोई भी अपने मजे के लिए मार के चला जाता है,हम सहन कर लेंगे, कोई और नहीं सहेगा, रिक्शावाला कुछ इस तरह सुनाता रहा, पापा सुनते रहे, फिर पापा ने पास की झाड़ी से एक बेशरम का डंडा तोड़ा और मुझे घर से बाहर निकालकर उस रिक्शेवाले के सामने डंडे से पीटना शुरू कर दिया। लेकिन मैं भी निर्लज्ज की तरह मार खाता रहा, क्योंकि मैंने तो बस एक निशाना लगाया था। अब उस उम्र में  क्या सही क्या गलत, किसी को थोड़े न पता रहता है। लगभग 20-30 डंडे पड़ चुके थे, मैं रोने लगा तब जाकर रिक्शेवाले को चैन आया, वो बोला- रहने दो साहब कितना मारोगे, बच्चा है। और फिर पापा शांत हो गये, डंडा टूट चुका था, मेरे दोनों पैर नीले पड़ चुके थे।
उसी दिन शाम को पापा मुझे गाड़ी में बिठाकर घुमाने ले गये। शायद उन्हें दु:ख पहुंचा होगा। मैं चुपचाप गाड़ी में बैठा रहा, कंधे/कमर में हाथ पकड़कर बैठने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी। हल्की-हल्की ठंड थी, हाफ-पैंट पहना हुआ था तो जब भी पास से कोई ट्रक गुजरता, उससे निकलती गर्म हवा से पैर से लेकर जांघ तक गजब का सुकून मिलता।एक पल को लगता कि ये ट्रक कुछ देर हमारे साथ-साथ क्यों नहीं चलता। पापा ने मुझे उस दिन शाम को आइसक्रीम खिलाई, मैं तो आइसक्रीम खाने के बाद एक झटके में सारी मार भूल गया।
                  इस घटना के ठीक एक हफ्ते बाद मैंने एक लड़के के कंधे पर दांतों से काट लिया, और फिर से मेरे लिए डंडा टूटा। खैर ये सिलसिला चलता रहा।
                 मूल बात ये कि उस शाम मैं आइसक्रीम पाकर सब कुछ भूल गया था। वो इसलिए भी क्योंकि उस उम्र में बाहर से कोई चीज खरीद कर खाना बहुत बड़ी बात होती थी। हमारे मन में यही होता था कि सुबह नाश्ता, दोपहर खाना और रात का खाना, यही सब कुछ है। इसके अलावा बाहर कुछ भी खाते हैं तो वो हमें बीमार कर देगा। हम अगर कभी शाम को चोरी-छिपे तेल से तली हुई चीजें खाकर घर पहुंचते तो भी मन में ये रहता कि जैसे हमने कोई गलती की है, कायदा तोड़ा है।
                   शाम को जब पापा आफिस से लौटते तो हमेशा मन में ये रहता कि कुछ लाएं होंगे क्या, मम्मी की साड़ी से लिपटकर कहते कि पूछो तो जरा कि कुछ लाएं हैं कि नहीं। हमारी तो पूछने की हिम्मत कभी न होती। मुझे आज भी समझ नहीं आता कि पापा के आने की  भनक पाते ही खाट, पलंग और दरवाजे के किनारों में आखिर हम क्यों छिपते थे, जबकि कुछ सेकेंड बाद निकलना होता ही था।
                  कभी मामा घर जाते तो मामा-मामी हमें पांच दस रुपए हाथ में थमा देते और कहते कि रखे रहना, फालतू खर्च मत करना। मुझे आज उस पैसे का महत्व समझ आता है, वो पांच दस रुपए जो हमें दिया जाता है,  उससे हमें मितव्ययिता का पाठ पढ़ा दिया जाता था। कि अभी तुम्हारी उम्र और समझ विकसित नहीं हुई इन पैसों को खर्च करने की। और हम उन पैसों को महीनों तक अपने पास रखते भी थे। अगर खर्च करते भी थे तो कुछ जरूरत की ही चीज लेते थे। और अगर उन पैसों से बाहर किसी दुकान से कुछ खरीदकर खा लेते तो थोड़ा गलत सा लगता कि जो दस रुपए अभी हमने खर्च कर दिया वो बहुत कीमती था। हां हम ऐसा करके खर्चीले कहलाते लेकिन हमारी दीदी बहने कितने महीनों तक उन पैसों को संभाल के रख लेती, उनके जमा पैसों को देखकर हमें ऐसा लगता कि हमारे हाथ खाली हैं, हमारे पास कुछ भी तो नहीं है। जब बहुत ज्यादा बुरा लग जाता तो फिर हम मां से पांच रुपए जबरन मांग लेते कि देना तो मैं इसे रखूंगा अपने पास।कभी खर्च नहीं करने की कसम खा लेते।
                  लेकिन आज, आज जमाना बदल गया है। पता नहीं आजकल के मां-बाप एवं बच्चों को मितव्ययिता का अर्थ पता भी है या नहीं। आज के बड़े होते बच्चे क्या अपने मां-बाप के घर आने पर इंतजार करते हैं कि वे कुछ लेकर आए होंगे। अरे उन्हें तो पाकेट मनी ही इतनी मिल जाती है कि बस क्या कहने। हमारे मां-बाप हमेशा हमें छोटी-छोटी चीजों से खुश रखते, जिस चीज की जरूरत जिस उम्र में है, उसी उम्र में ही हमें मुहैया कराया जाता। मैं जब समय से पहले घरवालों से छिप-छिपकर दोस्त के साथ उसकी गाड़ी से ड्राइविंग सीखने लगा, तो हमारी बहनों ने पापा से शिकायत कर दी कि देखो लड़का बिगड़ रहा है, संगति देखो इसकी। लेकिन आज, एक दसवीं पास बच्चा पचास हजार का फोन लेकर चलता है, कार चलाना सीख जाता है और लाख रुपए की बाइक में घूमता है, उस दसवीं के बच्चे की जरूरत इतनी है ही नहीं, फिर भी मां-बाप अपनी औलाद को चढ़ा कर रखते हैं, बेटा कहां जा रहा है क्या कर रहा है कैसे लोगो के साथ उठना-बैठना कर रहा है, किसी को नहीं मालूम, फिर एक दिन कोई अनहोनी हो जाती है और मां-बाप सर पकड़ के बैठ जाते हैं।
आज लोगों के पास हर चीज जरूरत से ज्यादा है। और इस आपाधापी में जिंदगी का जो आनंद होता है, वो पूरी तरह से खत्म हो रहा है।
बच्चों को कैसे मूल्य दिये जाएं, कैसे आज के इस बदलते परिदृश्य में उनकी परवरिश की जाए, आज के अधिकतर मां-बाप को इसकी समझ ही नहीं, घूम-घूमकर सेमिनार में भागीदारी निभाते हैं कि बच्चों का विकास कैसे किया जाए, और बच्चों को ढंग से समय ही नहीं दे पाते, समय देते भी हैं तो एक दूसरे के फोन में एप्लीकेशन्ज और बाकी जानकारी मां-बाप अपने बच्चों से ले रहे होते हैं। और ये सोशल मीडिया बच्चों को जितना तबाह कर रहा है उसके कहीं ज्यादा आज के माडर्न मां-बाप को चपेट में ले रहा है, वे इस चक्कर में रोबोट बनते जा रहे हैं और तो और बच्चे अब उन्हें किसी बोझ की तरह भी लगने लगते हैं, वे अब हर नई जिम्मेदारी को बस कैसे भी करके निपटाना चाहते हैं। अरे एक बच्चे के संपूर्ण व्यक्तित्व का जो एक शुरुआती काउंसलिंग होता है, वो एक मां-बाप से बेहतर और कोई नहीं कर सकता, अगर इतनी सी बात नहीं समझ आती तो भेजिए ट्यूशन क्लासेस, फलां क्लासेस आदि आदि।                  
                     शौक तो सबके होते हैं, हम बचपन में किसी चीज की जिद करते, तो हमें हफ्ते महीने बाद वो चीज मिलती, आपने कभी सोचा कि ऐसा क्यों होता था, ऐसा नहीं है कि पैसे का अभाव होता था, बल्कि बात ये थी कि इस पूरी प्रक्रिया से वे हमें धैर्य का पाठ पढ़ा देते थे। और हमें इतने महीनों बाद जब वो चीज मिलती थी तो हम खुशी से झूम उठते थे। लेकिन आज लाखों की गाड़ी खरीदने के बाद भी वो आनंद नहीं है, क्योंकि आप मूल्यहीन हो चुके हैं। आपने धैर्य का पाठ पढ़ा ही नहीं। महंगे गैजेट्स, गाड़ी या और कोई दूसरी चीज हो, आप उसकी खरीददारी इसलिए नहीं कर रहे कि आप रोज उस चीज को पाने का सपना देखते थे या आपको उसका सालों से इंतजार था बल्कि इसलिए करते हैं ताकि आपके ईगो का तुष्टीकरण हो सके।
                   आज के समय में जैसे बच्चा किसी चीज की जिद कर रहा है तो तुरंत उसे पैसे पकड़ा दिया, उम्र से पहले ही एटीएम दे दिया, हां मार्केट सजा हुआ है, हर चीज तैयार है आपकी सुविधा के लिए, जी भर के खर्च करो, सोच के गये थे कि एक हजार की खरीददारी करेंगे, कर आते हैं पांच हजार खर्च। अपार सुविधाएं मिल रही है इस जनरेशन को, जो मांगा तुरंत हाजिर। स्वाइप करो ऐश करो। बिस्तर में लेटे-लेटे खाना आर्डर करो, मनमाने आनलाइन शापिंग करो। लेकिन भाई साहब हर जनरेशन की अपनी कुछ जिम्मेदारियां होती है, अगर आपको ये नहीं दिख रहा कि कल जाके आपके बच्चे मूल्यहीन हो जाएंगे तो इसमें पूरी गलती आपकी है। आपने एकदम टेक्नोलॉजी को गर्दन से चिपका लिया है, अब हिल भी नहीं पा रहे, नया कुछ सोच नहीं पा रहे।  बस एक धुन में बहे जा रहे हैं, बेहिसाब फिजूलखर्च कर रहे हैं, और बच्चों को भी यही सीखा रहे हैं। कंजूसी और मितव्ययिता में थोड़ा सा फर्क होता है, इसे आप इतनी पढ़ाई करने के बाद भी समझ नहीं पा रहे, जीवन में उतार नहीं पा रहे हैं। कम से कम एक पांव रख भी लीजिए जमीन पर। थोड़ा प्रकृति से जुड़िए। प्रकृति में धैर्य है । तकनीकी में अधैर्य । जीवन धैर्य में है। साँस क्या जल्दीबाजी में ले सकते हैं क्या ,बेसब्री के कारण ,हमारे जीवन का आनंद ही गायब हो रहा है ,हमें खबर ही नहीं।
 

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