पुष्कर का परिवार सात लोगों का, पुष्कर के माता-पिता और उसकी दो छोटी बहनें और दो बड़ी दीदी..कुल मिला के चार लड़कियां और एक लड़का पुष्कर।
पुष्कर के पिता पहले गांव में सरपंच थे..ठीक-ठीक संपन्न परिवार..एक बोलेरो गाड़ी भी ले ली थी..फसल योग्य दो-तीन एकड़ जमीन भी थी..पर धीरे-धीरे सब लूटता गया..और सरपंचगिरी छूटी तो सपरिवार शहर में आकर बस गए।
पुष्कर 10th क्लास में है.उसकी दोनों बहने काफी छोटी हैं एक क्लास 6th में थी और सबसे छोटी बहन क्लास 2nd में।पुष्कर की छोटी दीदी दसवीं में फेल होने के बाद मां के साथ घर के ही काम संभालती।बड़ी दीदी ने स्नातक की पढ़ाई कर ली थी..अब वो एक स्कूल में पढ़ाने लगी..साथ ही कुछ बच्चों को कोचिंग पढ़ाती..इससे घर का कुछ खर्च निकल जाता।अब परिवार को शहर में रहने की ऐसी आदत लगी कि वे चाहकर भी वापस गांव को नहीं जा सकते थे।
अब मैं आपको गांव के बारे में कुछ बताता हूं।गांवों में ऐसा है कि अगर आपको आर्थिक सामाजिक हर तरीके से बर्बाद होना है तो एक दफा सरपंच बन जाइए...आज के समय ये बात लगभग 95% सच है जो 5% बच गये हैं वे तो स्वच्छता एवं उत्पादन की दृष्टि से मिसालें कायम कर ही रहे हैं।
एक बार आदर्श ग्राम निरीक्षण में कलेक्टर अपने क्षेत्र के एक गांव को गये..वहां का सरपंच अच्छा पढ़ा लिखा था..उसको कलेक्टर ने पास बुलाकर कहा- आप इस भारतभूमि की आत्मा के सामने रहते हैं, संस्कृति का द्योतक(means of culture) तो ये है ही साथ ही उत्पादन का मूल(means of production) भी यही है।इसलिए इसे जितना हो सके उतना सहेजें,संवारें,पल्लवित करें,उन्नत करें..मैं तो एक सेवक मात्र हूं लेकिन आपकी जिम्मेदारी मुझसे कहीं बड़ी है..मैं इस उम्मीद के साथ यहां से जा रहा हूं कि आप अपनी जिम्मेवारी समझें।
आज के परिदृश्य में लोकतंत्र में छात्र राजनीति के बाद कोई राजनीतिक तंत्र अगर सबसे विफल है तो वो है गांवों की राजनीति।
इसी राजनीति ने पुष्कर के परिवार को शहर आकर रहने पर विवश कर दिया।
शहर में आने के बाद पिता के सामने आय का साधन एक ही था वो थी उनकी गाड़ी। अब वे उसे किराए पर चढ़ाने लगे..अब पुष्कर के पिता गांवों में रहते..पैसे भेज दिया करते..महीने में एक दो बार आ भी जाते...धीरे-धीरे हालात ऐसे बने कि सरपंच साहब खुद ड्राइवर बन गये।अब वे महीनों तक गांवों में ही रहते।एक तो आय के सीमित साधन और इतना बड़ा परिवार, उनके लिए ये सब संभालना बड़ा मुश्किल जान पड़ रहा था।
पुष्कर की मां आये दिन मन ही मन अपने भाग्य को कोसती।काश वो थोड़ी पढ़ी लिखी होती तो आज उसे ये दिन देखने न पड़ते।सास-ससुर के दबाव, पुत्र-प्राप्ति की अभिलाषा और न जाने किन-किन कारणों से ये इतना बड़ा परिवार स्थापित हुआ।
इस बार ऐसा हुआ है कि पुष्कर के पिता पिछले तीन महीने से घर नहीं आये हैं न ही इन तीन महीनों के दौरान कभी फोन पर बात की है।अब तो मां के सामने सबसे बड़ी चिंता ये थी कि उन्होंने तीन महीने से घर का किराया नहीं दिया है।
अपने गले का हार बेचकर वो तीन महीने का बिजली बिल पहले चुका ली थी।मकान मालिक को आखिर कब तक टाले..मकान मालिक आये रोज आकर कहता कि कमरा खाली कर दो..मुझे भी इसका हर महीने लोन चुकाना होता है अब मैं कितनी बार समझाऊं।मकान मालिक भी अपने जगह सही था..अब इसके अलावा और वो क्या करता..उसकी भी विवशता थी। एक बार वो किराए लेने आया तो पुष्कर की मां कहने लगी कि इसके पिता ने हमें छोड़ दिया है..अब तो साफ मालूम हो रहा है..मकान मालिक ने कहा कि पुलिस में केस दायर करो.लेकिन मां पीछे हट जाती..आखिर अपने ही पति पर केस करे भी तो कैसे..एक उम्मीद एक आस हमेशा उसके साथ थी कि वापस आ जायेंगे।
अब जब आर्थिक स्थिति और खराब होने लगी तो वो आस पड़ोस के लोगों को कहने लगी कि मेरे लड़के के लिए कोई अच्छा काम ढूंढ देना।पुष्कर की छोटी दीदी जो दसवीं में फेल हो गई थी वो अब सिलाई का काम करने लगी।
अब मां की चिंता पुष्कर पर आकर टिक गयी।
एकलौता लड़का..और एक ऐसा लड़का जो अंतर्मुखी(introvert) सा था।
कभी-कभार हंसता या मुस्कुराता तो ऐसा लगता कि उसे बीच में रोककर ये कह दें कि यार तुम रहने दो..तुम्हारे बदले मैं हंस देता हूं।
एक दिन बाद दीवाली है।
सारे बच्चे मां के साथ घर की सफाई में लग गये।
सफाई के दौरान कुछ पुराने लोहे और प्लास्टिक के सामान मिले..साथ ही एक पुरानी जंग लगी हुई डंडी वाली सायकल थी..इन सबको कबाड़ वाले के पास बेच दिया।कुछ 300 रुपए मिल गये।
अब जो थोड़ी बहुत पिछले साल की रंगोली डब्बे में बची हुई थी..बहनों ने यही फैसला किया कि इस बार सिर्फ लक्ष्मीपूजा के दिन ही रंगोली बनायेंगे वैसे भी रोज जरूरी थोड़ी न है..दीवाली तो एक ही दिन होता है।इस एक बात पर सबकी सहमति हो गयी।
मां ने बेटी के साथ मिलकर पुराने दियों को धोकर साफ कर लिया था..थोड़े पैसों से कुछ नये दिये भी खरीद लिए..बाजार जाकर सबसे सस्ता तेल खरीद लाया।
नये कपड़े या पटाखे खरीदने का तो सोच भी नहीं सकते थे
बस दूसरों को देखकर खुश होने के इंतजार में हैं
और सबसे बड़ा इंतजार तो पिता के आने का भी है।
अब धनतेरस का जब पूरा दिन खत्म हो चुका है तो सबने उम्मीद छोड़ दी कि अब पापा शायद ही आयें।
इसी बीच एक घटना हो गई।पुष्कर की बहन का सैंडल थोड़ा टूट गया था..तो पुष्कर उसे चिपकाने फेवी क्विक लेकर आया,जल्दी-जल्दी में फेवी क्विक की एक बूंद पुष्कर के आंखों के किनारे लग गई..हालात ऐसे हुए कि डाक्टर के पास जाना पड़ा..लगभग 500 रुपए खर्च हो गये।मां अपनी सुधी खो बैठी और उसने बेटे को थप्पड़ भी लगा दिया..आज उसने कितने दिनों बाद बेटे को हाथ लगाया है।लगे हाथ बेटियों पर भी गुस्सा कर दिया कि ये रंगोली मेंहदी बनाना ये सब क्यों नहीं सीखते..देखो तुम्हारे साथ की लड़कियां कैसे कमा रही हैं।कुछ इस तरह मां थोड़े देर नाराजगी जताकर शांत हो गई।
पुष्कर भी एक मीठा हृदयघात समझकर सब भूल जाता।
पुष्कर एक शांत स्वभाव का लड़का,जिसके सीमित दोस्त हैं।
साल भर से चल रही आर्थिक टूटन के चलते लगभग सभी बच्चों की ख्वाहिशों ने मानो दम तोड़ दिया था।वो 2nd क्लास की बच्ची तो उम्र से पहले ही समझदार हो गयी..न किसी चीज के लिए जिद ना ही कोई चाह, लेकिन पुष्कर की एक चाह हमेशा बची रही।
जब जब दीवाली पास आती वो अपने दोस्तों से दूरी बना लेता।जिस तरह एक पढ़ने वाले का लगाव नये कापी किताब की खुशबू से होता है।पुष्कर का लगाव नये कपड़ों की खुशबू से था।इतना गहरा लगाव कि कहीं से उसके पास जेबखर्च को कुछ पैसे होते तो वो एक रूमाल ही खरीद लेता..कुछ इस तरह उसके इस शौक की भरपाई आसानी से हो जाती।
इस बार भी पुष्कर इसी कोशिश में है कि एक नया रूमाल ही खरीद ले.....
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