आजकल तुम्हारी सामान्य सी बातचीत में भी कपट,राजनीति,अहंकार एवं द्वेष का अद्भुत सम्मिश्रण दिखाई पड़ता है।
पता है जब मैं किसी दूसरे राज्य में जाता हूं, वहां जब किसी सुदूर गांव के लोगों से चलते फिरते मिलना होता है तो ऐसा लगता है जैसे मैंने कोई धन पा लिया हो, मानो कोई कीमती चीज मेरे हाथ लगी हो।
अभी हाल फिलहाल की ही बात है, अकेले एक नदी की ओर ट्रैकिंग के लिए निकला था..रास्ते में एक गांव पड़ा..वहां एक छोटा सा होटल था, मैं नाश्ते के लिए वहां थोड़ी देर रूका..
वहां जो भैया थे उनको मैंने कहा कि चाउमिन बना देना और मैं वहां लगी टाटपट्टी पर बैठ गया..वहां आसपास कुछ वृध्द भी थे..साथ ही और भी जितने लोग वहां थे..सब उम्र में मेरे से बड़े ही लग रहे थे। सब मुझे इतने आदर से देख रहे थे जैसे हम विदेशी सैलानियों को देखते हैं..अपने ही देश में अपने से उम्र में बड़े लोगों द्रारा ऐसा व्यवहार पाकर मुझे बड़ी घुटन हुई।
साथ ही साथ मैं हैरान था..हैरानी की वजह ये सुखद असहजता थी जिससे मैं जल्द से जल्द निजात पाना चाहता था..फौरन पानी पीने के बहाने उठा और वहां पास में एक पत्थर में बैठ गया..और पास में एक दादाजी थे उनको बोला..दारजी मैं भी गांव वाला लड़का हूं।इतना बोलकर मैं शांत हो गया।
मैंने एक तो सामान्य से कपड़े पहने थे, बैग भी कोई ब्रांड वाला नहीं था।पता नहीं मेरे लिए ये हसरत भरी निगाहें क्यों आयी..मैं कौन सा भला इन गांव वालों को तारने आया हूं।
मैं ये सब सोच ही रहा था कि चाउमिन वाले भैया ने आवाज लगाई..सरजी ये आपका चाउमिन ले लो..मुझे बड़ा गुस्सा आया..वो चाउमिन वाले भैया कम से कम मेरे से दस साल के बड़े होंगे..चाउमिन लेते हुए मैंने उनसे कहा- अरे क्या दाज्यू(कुमाऊँनी में अपने से बड़ों के लिए प्रयुक्त होता है) आप भी..मैं ये कैमरा वाला बैग टांग के सर बन गया क्या..इतना बड़ा मत बनाओ यार..मैं कोई साहब थोड़ी न हूं..अगर होता भी तो भी आप हमसे बड़े हो दाज्यू..आप भी न सर बोलकर चाउमिन का टेस्ट खराब कर दिये।
वो ये सब सुन के मुस्कुरा दिये।
मैंने चाउमिन के पैसे चुकाये और वहां सबको नमस्ते वाला इशारा करते हुए वहां से आगे को निकला।
अब बात आती है आज के इस शीर्षक की।
ऐसे जना जिसने अच्छे से पढ़ाई की, नौकरी भी लगाई, पैसे भी कमाया..लेकिन एक चीज हमेशा भूलते गये.." उद्देश्यों की पवित्रता "।
आज जब मैं किसी ठेले वाले से मिलता हूं, किसी छोटे से दुकान में जाता हूं या और भी ऐसे कितने लोग जो कोई छोटा-मोटा काम करके अपनी जिंदगी काट रहे हैं उन तक जब मैं पहुंचता हूं तो ये उद्देश्यों से जुड़ी खूबी वहां बड़ी मात्रा में देखने को मिलती है। वो अपने हितों को साधने के लिए किसी भी तंत्र को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते।इसलिए शायद मैं कई बार उन्हीं के बीच का हो जाता हूं, उन्हीं के माहौल में घुल-मिल जाता हूं एक पल के लिए भूल जाता हूं कि मैं एक ठीक-ठीक पढ़ने-लिखने वाला स्टुडेंट हूं, कुछ इस तरह भूल जाना अच्छा मालूम होता है।
उद्देश्यों की पवित्रता को नये आयाम मिल जाते हैं।
और जो मैं इन लोगों से कभी मिल लेता हूं इनका कम पढ़ा होना, कम सीखा होना, कम जानकारी के साथ एवं तमाम अभावों के बावजूद कर्त्तव्यपथ पर बने रहना इनके उद्देश्यों की पवित्रता को जीवित रखता है।
आज वर्तमान में मैंने उन सभी दोस्तियों से दूरी बना ली है जो दौलत, शोहरत, रुतबे और दिखावे के छाया तले दोस्तियां निभाते हैं, मैं इनके बीच खुद को बड़ा असहज महसूस करने लगा हूं, इनके बीच रहकर न तो मैं मन मुताबिक बात कर सकता हूं न ही खुलकर हंस पाता हूं।
एक पल को लगता है कि कितने अजीब लोग हैं हमारे आसपास, मानता हूं विविधताओं से भरा देश है, लेकिन आज इस विविधता ने एक ऐसा रूप ले लिया है कि कोई किसी को समझना तक नहीं चाहता।
ऐसे लोग जब कई सालों तक गायब रहने के बाद अचानक जन्मदिन पर हैप्पी बर्थडे मैसेज करके गायब हो जाते हैं तो लगता है कि इसने इतनी बड़ी तोहमत उठाई ही क्यों और जब बात ऐसी ही है तो लगता है कि इससे अच्छा मुझे दो चार गालियां भेंट कर देता, कम से कम ये बात मेरे स्मरण में तो रहती।
अब ये दोस्तियां चीनी मिट्टी के बर्तन जैसी ही लगने लगी है कब हाथ से छूट जायें टूट जायें, इसका कोई भरोसा नहीं।
बहुत सहेजना पड़ता है इन चीनी मिट्टी के इन बर्तनों को, हमसे थोड़ा सी गलती हुई नहीं कि ये हमें अपमानित करने को तैयार रहते हैं, पीड़ा तो ये भी है कि इन्हें इस बात का पता भी नहीं चलता कि इन्होंने रिश्ते खराब कर लिये, ये क्षणभंगुर हैं, जल्दी टूट के बिखर जाते हैं, द्वेष से भर जाते हैं।
मैं यह समझ पाने में असमर्थ हूं कि आखिर जिंदगी में क्या ज्यादा जरूरी हो गया है।
उर्दू में एक शब्द है "तरजीहात" यानी कि "Priorities"।
हमारी priorities क्या हैं?
आखिर हैं भी तो ऐसी ही क्यों हैं?
किसलिए हैं?
क्या हमारा खुद पर इतना भी हक नहीं बनता कि इस बदलते सामाजिक-आर्थिक परिवेश में अपनी तरजीहात संवार लें, खुद से कुछ सवाल-जवाब कर लें।
जब कभी मैं अपने किसी पढ़े लिखे नौकरीपेशे वाले दोस्तों से मिलता हूं सामान्यतया होता ये है कि ढेर सारी बातें होती है।मैं कुछ बातें कहता हूं और साथ ही वो भी बातें करने लगता है।जब वो बात करता है तो उसकी एक एक बात से मुझे यही लगता है कि यार तू आखिर खुद को इतना एक्सपोज क्यों कर रहा है।मैं ये सिलसिला चलने देता हूं, बातें होती रहती है, और उस एक दोस्त की चंद बातों के सहारे एक पूरे समाज का नजरिया सामने आ जाता है।
एक ऐसा सामाजिक मुखौटा मेरे सामने होता है, जो पल-पल छुप के डराने की कोशिश कर रहा होता है।
हालात कुछ ऐसे बन गये हैं कि उद्देश्यों की पवित्रता को ताक में रखकर सब कुछ तो हासिल कर लेता है इंसान, सिवाय इंसानी गुणों वाले लोग उसे ढूंढे नहीं मिलते।
पता है जब मैं किसी दूसरे राज्य में जाता हूं, वहां जब किसी सुदूर गांव के लोगों से चलते फिरते मिलना होता है तो ऐसा लगता है जैसे मैंने कोई धन पा लिया हो, मानो कोई कीमती चीज मेरे हाथ लगी हो।
अभी हाल फिलहाल की ही बात है, अकेले एक नदी की ओर ट्रैकिंग के लिए निकला था..रास्ते में एक गांव पड़ा..वहां एक छोटा सा होटल था, मैं नाश्ते के लिए वहां थोड़ी देर रूका..
वहां जो भैया थे उनको मैंने कहा कि चाउमिन बना देना और मैं वहां लगी टाटपट्टी पर बैठ गया..वहां आसपास कुछ वृध्द भी थे..साथ ही और भी जितने लोग वहां थे..सब उम्र में मेरे से बड़े ही लग रहे थे। सब मुझे इतने आदर से देख रहे थे जैसे हम विदेशी सैलानियों को देखते हैं..अपने ही देश में अपने से उम्र में बड़े लोगों द्रारा ऐसा व्यवहार पाकर मुझे बड़ी घुटन हुई।
साथ ही साथ मैं हैरान था..हैरानी की वजह ये सुखद असहजता थी जिससे मैं जल्द से जल्द निजात पाना चाहता था..फौरन पानी पीने के बहाने उठा और वहां पास में एक पत्थर में बैठ गया..और पास में एक दादाजी थे उनको बोला..दारजी मैं भी गांव वाला लड़का हूं।इतना बोलकर मैं शांत हो गया।
मैंने एक तो सामान्य से कपड़े पहने थे, बैग भी कोई ब्रांड वाला नहीं था।पता नहीं मेरे लिए ये हसरत भरी निगाहें क्यों आयी..मैं कौन सा भला इन गांव वालों को तारने आया हूं।
मैं ये सब सोच ही रहा था कि चाउमिन वाले भैया ने आवाज लगाई..सरजी ये आपका चाउमिन ले लो..मुझे बड़ा गुस्सा आया..वो चाउमिन वाले भैया कम से कम मेरे से दस साल के बड़े होंगे..चाउमिन लेते हुए मैंने उनसे कहा- अरे क्या दाज्यू(कुमाऊँनी में अपने से बड़ों के लिए प्रयुक्त होता है) आप भी..मैं ये कैमरा वाला बैग टांग के सर बन गया क्या..इतना बड़ा मत बनाओ यार..मैं कोई साहब थोड़ी न हूं..अगर होता भी तो भी आप हमसे बड़े हो दाज्यू..आप भी न सर बोलकर चाउमिन का टेस्ट खराब कर दिये।
वो ये सब सुन के मुस्कुरा दिये।
मैंने चाउमिन के पैसे चुकाये और वहां सबको नमस्ते वाला इशारा करते हुए वहां से आगे को निकला।
अब बात आती है आज के इस शीर्षक की।
ऐसे जना जिसने अच्छे से पढ़ाई की, नौकरी भी लगाई, पैसे भी कमाया..लेकिन एक चीज हमेशा भूलते गये.." उद्देश्यों की पवित्रता "।
आज जब मैं किसी ठेले वाले से मिलता हूं, किसी छोटे से दुकान में जाता हूं या और भी ऐसे कितने लोग जो कोई छोटा-मोटा काम करके अपनी जिंदगी काट रहे हैं उन तक जब मैं पहुंचता हूं तो ये उद्देश्यों से जुड़ी खूबी वहां बड़ी मात्रा में देखने को मिलती है। वो अपने हितों को साधने के लिए किसी भी तंत्र को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते।इसलिए शायद मैं कई बार उन्हीं के बीच का हो जाता हूं, उन्हीं के माहौल में घुल-मिल जाता हूं एक पल के लिए भूल जाता हूं कि मैं एक ठीक-ठीक पढ़ने-लिखने वाला स्टुडेंट हूं, कुछ इस तरह भूल जाना अच्छा मालूम होता है।
उद्देश्यों की पवित्रता को नये आयाम मिल जाते हैं।
और जो मैं इन लोगों से कभी मिल लेता हूं इनका कम पढ़ा होना, कम सीखा होना, कम जानकारी के साथ एवं तमाम अभावों के बावजूद कर्त्तव्यपथ पर बने रहना इनके उद्देश्यों की पवित्रता को जीवित रखता है।
आज वर्तमान में मैंने उन सभी दोस्तियों से दूरी बना ली है जो दौलत, शोहरत, रुतबे और दिखावे के छाया तले दोस्तियां निभाते हैं, मैं इनके बीच खुद को बड़ा असहज महसूस करने लगा हूं, इनके बीच रहकर न तो मैं मन मुताबिक बात कर सकता हूं न ही खुलकर हंस पाता हूं।
एक पल को लगता है कि कितने अजीब लोग हैं हमारे आसपास, मानता हूं विविधताओं से भरा देश है, लेकिन आज इस विविधता ने एक ऐसा रूप ले लिया है कि कोई किसी को समझना तक नहीं चाहता।
ऐसे लोग जब कई सालों तक गायब रहने के बाद अचानक जन्मदिन पर हैप्पी बर्थडे मैसेज करके गायब हो जाते हैं तो लगता है कि इसने इतनी बड़ी तोहमत उठाई ही क्यों और जब बात ऐसी ही है तो लगता है कि इससे अच्छा मुझे दो चार गालियां भेंट कर देता, कम से कम ये बात मेरे स्मरण में तो रहती।
अब ये दोस्तियां चीनी मिट्टी के बर्तन जैसी ही लगने लगी है कब हाथ से छूट जायें टूट जायें, इसका कोई भरोसा नहीं।
बहुत सहेजना पड़ता है इन चीनी मिट्टी के इन बर्तनों को, हमसे थोड़ा सी गलती हुई नहीं कि ये हमें अपमानित करने को तैयार रहते हैं, पीड़ा तो ये भी है कि इन्हें इस बात का पता भी नहीं चलता कि इन्होंने रिश्ते खराब कर लिये, ये क्षणभंगुर हैं, जल्दी टूट के बिखर जाते हैं, द्वेष से भर जाते हैं।
मैं यह समझ पाने में असमर्थ हूं कि आखिर जिंदगी में क्या ज्यादा जरूरी हो गया है।
उर्दू में एक शब्द है "तरजीहात" यानी कि "Priorities"।
हमारी priorities क्या हैं?
आखिर हैं भी तो ऐसी ही क्यों हैं?
किसलिए हैं?
क्या हमारा खुद पर इतना भी हक नहीं बनता कि इस बदलते सामाजिक-आर्थिक परिवेश में अपनी तरजीहात संवार लें, खुद से कुछ सवाल-जवाब कर लें।
जब कभी मैं अपने किसी पढ़े लिखे नौकरीपेशे वाले दोस्तों से मिलता हूं सामान्यतया होता ये है कि ढेर सारी बातें होती है।मैं कुछ बातें कहता हूं और साथ ही वो भी बातें करने लगता है।जब वो बात करता है तो उसकी एक एक बात से मुझे यही लगता है कि यार तू आखिर खुद को इतना एक्सपोज क्यों कर रहा है।मैं ये सिलसिला चलने देता हूं, बातें होती रहती है, और उस एक दोस्त की चंद बातों के सहारे एक पूरे समाज का नजरिया सामने आ जाता है।
एक ऐसा सामाजिक मुखौटा मेरे सामने होता है, जो पल-पल छुप के डराने की कोशिश कर रहा होता है।
हालात कुछ ऐसे बन गये हैं कि उद्देश्यों की पवित्रता को ताक में रखकर सब कुछ तो हासिल कर लेता है इंसान, सिवाय इंसानी गुणों वाले लोग उसे ढूंढे नहीं मिलते।
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