Saturday, 20 April 2024

- सूखी हवाओं का असर -

फरवरी 2020 का समय था। भारत भ्रमण का 118 वाँ दिन था और मैं राजस्थान के जैसलमेर में था। जब मैं जैसलमेर पहुंचा था, तो मरू महोत्सव चल रहा था, सब तरफ रौनक थी, लेकिन टूरिस्ट बहुत कम थे तो भीड़ वाली रौनक नहीं थी, जो भी भीड़ थी वह स्थानीय लोगों की भीड़ थी, अगर भीड़ को सुखद भीड़ जैसा कुछ नाम दिया जाए तो मरू महोत्सव का अहसास कुछ ऐसा ही था। 

जैसलमेर या राजस्थान आने से पहले मैं गूगल मैप में गाढ़े पीले रंग के इस भूखण्ड को देखकर यही सोचता था कि पेड़ पौधे बिल्कुल नहीं होंगे, चारों ओर रेतीले मरूस्थल होंगे, जबकि ऐसा नहीं था। मरुस्थलीय क्षेत्र में भी झाड़ियों वाले पेड़ बड़ी संख्या में होते हैं, लेकिन उनकी कम ऊंचाई और उनके बहुत अधिक छायादार ना होने के कारण हमें ऊंचाई से पीला रंग ही प्रमुखता से दिखाई देता है, यहां तक की इन मरुस्थलीय क्षेत्रों में जीरे की सर्वाधिक खेती भी होती है। 

जैसलमेर पहुंचते ही पहले दिन आराम करने के बाद शाम को एक सनराइस प्वाइंट पर गया तो कुछ स्कूली युवा मिल गए और खुद से बात करने लगे और जिज्ञासावश मेरे बारे में पूछने लगे। उनमें से एक ने बताया कि सम का मरूस्थल तो हर कोई जाता है, अनाप-शनाप भीड़ रहती है, आपको अगर सच में चारों तरह विशाल मरूस्थल देखने हैं तो आप मेरे गांव म्याजलार फुलिया की ओर जाना। यह गाँव पाकिस्तान बार्डर के ठीक पास में ही पड़ता है, उस गाँव से पाकिस्तान की सीमा महज 10 किलोमीटर ही है। उस लड़के की बताई बात मेरे दिमाग में रह गई। अगले दिन सुबह मैंने फैसला किया कि घूमकर आया जाए और उस लड़के की बताई बातों पर मैंने बिना ज्यादा सोचे अमल कर दिया। 

बताता चलूं कि जैसलमेर से म्याजलार के इस रास्ते में जगह-जगह आर्मी के चेक प्वाइंट थे। लेकिन मरू महोत्सव के कारण और कोरोना की वजह से ना के बराबर भीड़ थी तो कहीं आर्मी वाले भी नहीं दिखे और सौभाग्य से मेरी चेकिंग नहीं हुई। यही सब इसलिए बता रहा हूं क्योंकि इस रूट में अकेले खासकर दूसरे राज्यों की गाड़ियों को जाने की अनुमति नहीं होती है। जब मैं यहाँ से वापस जैसलमेर पहुंचा तो जैसलमेर के ही एक और मेरे स्थानीय दोस्त मिले, उन्हें जब मैंने बताया कि मैं उस रास्ते गया था तो वे बड़े हैरान हुए, यानि उनको यकीन ही नहीं हुआ कि मैं कैसे चला गया। कहने लगे - उधर तो हम स्थानीय लोग भी नहीं जाते, न ही आज तक गये हैं, सीमावर्ती और वीरान क्षेत्र होने की वजह से आर्मी वाले आनाकानी करते हैं, वह भी अलग समस्या है। आप किस्मत वाले हैं कि आप बाइक में ही उधर घूमकर आ गये।

यह पूरा रास्ता इतना वीरान था कि बीच सड़क ही में बहुत देर तक मैं अपनी गाड़ी कई ऐसे अलग-अलग जगहों पर पार्क करके रखा था और बड़े इत्मीनान से खूब तस्वीरें खींची, इधर-उधर आसपास घूमकर भी आ गया, क्योंकि उस रास्ते में दूर-दूर कोई भी नहीं था। इस रास्ते में मुझे एक भी मोटरसाइकिल नहीं दिखी, दो घंटे के इस पूरे सफर में एक दो पुरानी जीप ही दिखी जो सवारियाँ ले जा रही थी, इसके अलावा दूर-दूर तक न कोई इंसानी बसाहट न ही कोई गांव था। भले ही दोपहर का समय था, लेकिन थोड़ी सी घबराहट भी थी कि सुनसान वीरान सा क्षेत्र है, कहीं बाइक में या मुझे ही कुछ समस्या हो गई तो यहां तो दूर-दूर तक एक पंछी भी नहीं दिखाई दे रहा है। इतना वीरान उजाड़ सा क्षेत्र था कि एक समय के बाद मैं इंसान देखने के लिए तरस गया था। 

जिस गाँव में सबसे विशाल मरूस्थल थे वहां मैं पहुंच गया था, छोटी सी बसाहट थी, लेकिन गांव में कोई नजर ही नहीं आया। थोड़ा आगे गया तो एक दो बच्चे खेलते हुए दिखाई दिए जो मुझे बाइक में दिखते हुए पता नहीं कहां झटके में ही अदृश्य हो गये। यहाँ के घरों की वास्तुकला कुछ अलग ही थी। शेष भारत में कहीं मैंने इस तरह के घर नहीं देखे थे। दूर-दूर बने हुए घर और उसके चारों ओर सिर्फ रेत ही रेत था। अलग ही तरह की खूबसूरती थी। इतने विशालकाय रेत के टीले थे कि एक जगह तो बिजली के खंबे तक की उंचाई थी, अगर किसी को कुछ रिपेयर करना हो तो सीढ़ी या चढ़ने की आवश्यकता ही नहीं है। 

मरूस्थल में एक जगह रूककर उस रेत को हाथों से छूकर देखा, नंगे पांच चलकर भी देखा। मैदानी इलाकों में सदियों से नदियों के बहाव से निर्मित होने वाले रेत में और इस रेत में बहुत फर्क था। दोनों के बनने की प्रक्रिया भी तो अलग थी, एक रेत पानी के बहाव से बना था और यहाँ तो तेज हवाओं ने न जाने कितने लंबे समय से इन रेतीले मरूस्थलों का निर्माण किया होगा। पानी का बहाव तो हर कोई देखता है, यहाँ जैसलमेर के इस मरूस्थल में बैठकर मैं धीमी बहती हवा में रेत को हल्की उड़ान भरते हुए बहते देख रहा था। यह मेरे लिए जीवन के बहुत अनोखे अनुभवों में से एक था। 

मरूस्थल के उन अनुभवों को समेटकर वापस जैसलमेर आ गया। अगले दिन मरू महोत्सव में गडीसर झील के किनारे आयोजन हो रहा था, वहीं शाम को उस सुनहरी ढलती शाम में अपनी कुछ तस्वीरें ली, उन तस्वीरों को देख कनाडा की एक दोस्त जो मेरे लिखे पर जान छिड़कती है, उसने कहा - " ओह, मिस्टर ! सूखी हवाओं का असर हुआ है ", तिस पर मैंने कहा कि साॅरी समझा नहीं। फिर उसने बताया कि पहाड़ों की गुलाबी ठंड में चेहरे में रंगत आती है न, ठीक वैसे ही रेगिस्तान में घूमते हुए आपके चेहरे में सूखी हवाओं का असर हुआ है। 














Monday, 15 April 2024

- चोपटा तुंगनाथ की खामोशी -

1 दिसंबर 2020 का समय था। भारत घूमते हुए 30 दिन पूरे हो चुके थे। मैं एक दिन पहले ही यानि 30 नवंबर को ही रानीखेत से होते हुए चोपटा पहुंच गया था। अभी तक कुछ भी निर्धारित नहीं था कि कहां रूकना है, चोपटा में रूकना है भी या नहीं इस पर भी कुछ फैसला अभी तक नहीं हुआ था। आसपास घूमते हुए कुछ होटल देखे, कुछ समझ ही नहीं आया, तो ढलती शाम में चोपटा के एक छोर पर अपनी गाड़ी खड़ी कर फोटो खींचने लगा। उतने में ही पास के होटल मालिक खुद ही टहलते हुए मेरे पास आए और बात करने लगे कि मैं कहां से आया हूं, कहां घूम रहा हूं और क्या मुझे रहने के लिए होटल चाहिए। मैंने उन्हें कहा कि अभी मैं सोच नहीं पा रहा हूं और उस समय उन्हें मना ही कर दिया कि अभी तो कमरा नहीं चाहिए। फिर कुछ देर बाद मैंने फैसला किया कि चलो खुद से वे पूछने आए उनकी बात का मान रखते हुए कमरा देख ही लिया जाए। बड़ा सा कमरा था, तीन-चार लोग आराम से सो सकते थे इतनी पर्याप्त जगह तो थी ही। उन्होंने कमरे का रेट मुझे 600 रूपया बताया। कहने लगे कि अभी तो कोरोना की वजह से टूरिस्ट ही नहीं है, जो वाजिब रेट है वही आपको बता रहा हूं। मैंने अपनी हामी भर दी और कमरे में शिफ्ट हो गया। ध्यान रहे कि देश में कोरोना की पहली लहर के बाद सब तरफ लाॅकडाउन लगा हुआ था, जिसे शिथिल किया जा रहा था। बहुत से राज्यों में तो लाकडाउन को लेकर बहुत सख्त नियम बरकरार थे, इसी बीच मैं घूमने निकल गया था। इसका एक फायदा यह हुआ कि कोरोना को लेकर लोगों में गजब का डर कायम था, इस वजह से कहीं भी भीड़ नहीं थी। मैं जिस होटल में आज रूकने वाला था, मेरे चेक इन करने के बाद उनके बाकी दो कमरे भी फुल हो गये। होटल मालिक ने मुझे कहा - आप जब तक नहीं आए थे, मुझे लग रहा था कि आज कोई आएगा ही नहीं, लेकिन आपके आने के बाद मेरे सारे कमरे लग गये। 




शाम ढलने को थी। सुर्ख लाल रंग लिए सूर्य अपनी छटा बिखेर रहा था, मैंने टाइमलेप्स कैद करने के लिए अपना फोन ट्राइपाॅड में लगाकर छोड़ दिया था। तभी बाजू कमरे में आए गुजरात के एक भाई देखने लगे और कहने लगे कि ये मैं मिस कर गया, मुझे भी दिखाना और हमारी थोड़ी बहुत बातें हुई। 

चोपटा का ऐसा है कि जैव विविधता की दृष्टि से अतिसंवेदनशील एवं संरक्षित क्षेत्रों में से एक है, इसलिए इस पूरे क्षेत्र में होटल इत्यादि बनाने की बहुत आजादी नहीं है, इस कारण से आपको बहुत विकल्प नहीं मिलते हैं। बहुत से ऐसे लोग जिन्हें थोड़ी ठीक-ठाक सुविधाएं होटल इत्यादि चाहिए होते हैं, और अगर उन्हें ट्रैक भी करना होता है तो वे रात के दो तीन बजे ही किसी पास के गंतव्य स्थल से यहाँ चोपटा तक आते हैं और उसी दिन दोपहर शाम तक ट्रैक करके वापस लौट जाते हैं। 

जिनके यहां मैं रूका था, उनके यहां ऊपर के कमरे में उनका रेस्तरां भी था, वहीं मैंने रात का खाना भी खाया। मैं उनसे तुंगनाथ मंदिर और चंद्रशिला टाॅप तक ट्रैक के बारे में पूछने लगा। वे शहरी लोगों की शारीरिक क्षमता और चलने की गति के आधार पर मुझे बताने लगे कि रात को दो बजे ट्रैक शुरू करना, तब जाकर ऊपर शानदार सूर्योदय देख पाओगे। उनकी दी गई सलाह को मैंने इतनी गंभीरता से लिया कि ढंग से नींद ही नहीं आई और दो बजे ही उठ गया। चाँदनी रात थी। उठकर बाहर निकला तो दूर-दूर तक कोई इंसानी आवाज नहीं। चांद ठीक ऊपर था और चारों ओर गजब का सन्नाटा था। 

बाजू कमरे में जो गुजरात के भाई थे, उनसे भी मैंने रात को पूछा था तो उन्होंने कहा था कि रात को दो बजे उठकर वे शायद ही जाएं। इसका मतलब यह रहा कि मुझे कोई कंपनी नहीं मिलने वाली है। बाहर बहुत ठंड थी, शायद 4 डिग्री के आसपास तापमान था। कुछ देर कंबल के अंदर लेटे-लेटे योजना बनाने लगा कि अकेले जाऊं या नहीं। ऐसा करते, सोचते विचारते ढाई बज गये। मैंने फिर सोचा कि अब इतनी दूर आया हूं तो चलता हूं। तुंगनाथ मंदिर और चंद्रशिला टाॅप के लिए जिस द्वार से ट्रैक शुरू होता है, वो मेरे होटल से लगभग 300 मीटर की दूरी पर था। मैं उस द्वार तक गया, कुछ देर वहाँ बैठा और देखता रहा कि कोई अगर साथ जाने वाला मिल जाए तो साथ में ट्रैक शुरू किया जाए। कुछ इस तरह इंतजार करते-करते रात के 3 बज चुके थे लेकिन एक इंसानी आवाज तक सुनने को नसीब नहीं हुई। अब इस ठंड और इस शांत बियांबान में मेरी हिम्मत जवाब दे रही थी और मैं हार मानकर वापिस अपने कमरे में आ गया। रास्ते में जब आ रहा था तो कुछ लोमड़ियों की चहलकदमी सुनाई दे रही थी, क्षुब्ध होकर उन्हें दौड़ाकर भगाया और वापिस अपने कमरे में आ गया। 

फिर सोते हुए सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए,
अकेले जाना चाहिए या नहीं?
रास्ते में पूरा ऊपर तक जंगल है, जंगली जानवर भी होंगे, मुझे कुछ हो गया तो?
इतना शांत इलाका है, ट्रैक में ऊपर मुझे कुछ हो गया तो कोई मुझे पूछने वाला भी नहीं होगा?
मेरे घरवालों तक कौन बात पहुंचाएगा?

न जाने ऐसे कितने सवाल मेरे मन में आ रहे थे और इन सबसे पैदा हुई घबराहट मुझ पर हावी हो रही थी। फिर मैंने थोड़ी हिम्मत जुटाई और एक आखिरी कोशिश की और कमरे से निकल गया। सोचा कि अब जो होगा देखा जाएगा। ट्रैकिंग रूट के मुख्य द्वार पर पहुंच गया था। लेकिन वहाँ से ऊपर तीस चालीस सीढ़ी चढ़ने के बाद जंगल के इस रास्ते को देखते हुए डर के मारे फिर मुख्य द्वार तक वापस लौट गया। एक बार फिर हिम्मत की और फिर से थोड़ी दूर चढ़कर फिर से डर के मारे मुख्य द्वार तक वापस लौट आया। बार-बार हिम्मत टूट रही थी और वहीं बैठे सोचने लगा कि क्या इतना जोखिम उठाना सही है। ऐसा करते हुए सुबह के पौने चार वहीं हो चुके थे और मुझे अभी तक एक भी इंसान नहीं दिखा था।

वहीं बैठे-बैठे फिर एक गजब चीज हुई। मुझे वहीं पास के एक होटल से किसी व्यक्ति के खांसने की आवाज आई। उस खांसने की आवाज को सुनकर मुझे इतनी हिम्मत मिली कि क्या ही कहूं। चेहरे पर मुस्कान आ गई। उस वीरान अंधेरे में जहाँ चारों ओर एक अजीब सी खामोशी थी, वहाँ तब मेरे लिए एक इंसान को खांसते हुए सुनना दुनिया के सबसे बेहतरीन संगीत से भी बड़ी चीज थी। मेरे भीतर इतना डर हावी हो ही चुका था कि वह आवाज मेरे लिए किसी चमत्कार से कम नहीं था, कुल मिलाकर बेहद खुशी हुई। उस सन्नाटे में एक दूसरे इंसान की आवाज सुनाने के लिए प्रकृति का धन्यवाद किया। और फिर जो मैंने वहाँ से अपना ट्रैक शुरू किया, अब मैं नहीं रूका। रास्ते में मुझे एक लाठी मिल गई तो उसी के सहारे लगातार चल रहा था, चढ़ाई थी तो उस लाठी से अच्छी खासी मदद हो जा रही थी। बीच-बीच में डर हावी हो रहा था लेकिन मैं लगातार चलता रहा‌। डर भी था, लेकिन उसके साथ ही उस वक्त मैं जीवन के प्रति इतना पागल हो चुका था, मेरे भीतर जीने को लेकर इतना उत्साह भर चुका था कि अब मेरी स्थिति यह थी कि जंगली जानवर भी आ जाएं तो कोई समस्या की बात नहीं, निपट लूंगा इस लाठी से, उतने तक के लिए मैंने मानसिक रूप से खुद को तैयार कर लिया था। 

ठंड बहुत ही ज्यादा थी, इतनी थी कि एक हाथ जैकेट में रखते हुए चलना पड़ रहा था। लगभग एक घंटे जंगल के रास्ते चलते हुए अब बर्फ मिलनी शुरू हो चुकी थी। इस एक घंटे में न जाने कितने बार डर के मारे मेरी सांसें तेज हुई, लेकिन मैंने चलना नहीं छोड़ा। अब जैसे ही बर्फ का रास्ता शुरू हुआ, पता नहीं कहां से एक काला कुत्ता आ गया। मुझे तो साक्षात महाभारत का वह पूरा दृश्य याद आ गया, जब युधिष्ठिर के मार्गदर्शक के रूप में एक काला कुत्ता उनके साथ स्वर्ग के बर्फीले रास्ते पर जा रहा था। और अब तो मानो सारा डर ही खत्म हो गया, मुझे उस काले कुत्ते के रूप में एक ट्रैकिंग पार्टनर जो मिल गया था। आप विश्वास नहीं मानेंगे वह कुत्ता अब मेरे आगे-आगे ही चल रहा था। मैंने अस्तित्व की इस कृपा के लिए आंख मूंदकर धन्यवाद किया और आगे चलने लगा। 


पूरे ट्रैकिंग रूट में भयानक बर्फ जमी थी। बर्फ क्या ही थी, सारा ब्लैक आइस बढ़िया से जमा हुआ था, चलते-चलते एक बार तो उसकी वजह से जबरदस्त तरीके से गिरा, सीधे फिसलते हुए लगभग बीस फीट नीचे चला गया। किस्मत से थोड़ी भी चोट नहीं आई। फिर से मैंने हिम्मत जुटाई और संभल कर चलने लगा। इस बीच मैंने देखा कि वह कुत्ता भी मेरे लिए रूका हुआ था। अंधेरे की वजह से ब्लैक आइस समझ भी नहीं रहा था, फ्लैशलाइट में भी ठीक-ठीक अनुमान लगाना मुश्किल हो रहा था। कुछ इस तरह मैं एक बार और गिर गया। और अब ट्रैकिंग रूट के अलावा कच्चे रास्ते और जंगल के रास्ते शार्टकट को पकड़ने लगा। 

अब थोड़ी सुबह होने लगी थी। इतनी रोशनी होने लगी थी कि अब फ्लैशलाइट की जरूरत नहीं थी। कुछ इस तरह सुबह साढ़े पाँच बजे के आसपास मैं अकेले तुंगनाथ मंदिर तक पहुंच गया। वहाँ से सूर्योदय का क्या नजारा था, चारों ओर लाल रक्तिम आभा लिए सूर्य ने मानों एक गाढ़ी लकीर खींच दी हो और कह रहे हों कि महसूस करो इस रंग को, इसके महात्मय को। 




इस बीच मैंने देखा कि ठंड की वजह से मेरे हाथों की ऊंगलियाँ नीली पड़ गई थी। लगभग माइनस 2 या 3 डिग्री ठंड होगी, सूर्योदय और पहाड़ों को देखने में ही इतना मशगूल हो गया था कि पता ही नहीं चला कि कब हाथ नीले पड़ गये और चेहरा सूजने लग गया। 

कोरोना की पहली लहर के बाद से इतना बड़ा जोखिम उठाकर मैं अकेले घूमने निकला था तो इसका ये एक फायदा हुआ कि मैं अकेले तुंगनाथ मंदिर में था। दूर-दूर तक किसी इंसान का नामोनिशान नहीं। बस अंदाजा लगाइए मेरे इस सुख का, जहाँ मेरे अलावा कोई भी नहीं था। ऐसा सौभाग्य शायद ही मेरी पीढ़ी के लोगों में से अब किसी को मिले, क्योंकि कोरोना जैसी विभीषिका बड़े लंबे अरसे के बाद ही आती है। और इस कारण से लोग घरों में दुबके हुए थे, वरना आजकल लोगों में एक अलग ही किस्म की असहजता हावी हो चुकी है, हर कोई मानों खरीदने बेचने की तर्ज पर हर नई जगह जहां वह जाता है, उस जगह को पूरी तरह से शोषित कर लेना चाहता है। घूमने में अब कुछ नया जानने सीखने, जीवन को महसूस करने की भूख अब अधिकांश लोगों में नहीं है। रीलयुगीन सभ्यता से ग्रसित लोग एक नौकरी या एक प्रोजेक्ट की तरह बस समय काटने के लिए एक दूसरी जगह चुन लेते हैं, और वहाँ भी टारगेट पूरा कर रहे होते हैं। ऐसी स्थिति में उन जगहों को बेहद नुकसान पहुंचता है। 

तुंगनाथ मंदिर में अकेले थोड़ा समय बिताने के बाद मैं अब चंद्रशिला टाॅप तक जाने का रास्ता ढूंढने लगा, थोड़ी देर के बाद मुझे रास्ता मिल गया। कुछ देर की चढ़ाई के बाद मैं चंद्रशिला में था। सुबह के लगभग 6:30 बज चुके थे, सूर्य का प्रताप चारों ओर पहुंच चुका था और अब सीधी धूप पड़ने लगी थी। यहाँ से चारों ओर की पहाड़ियाँ साफ दिख रही थी। क्या ही नजारा था। लगभग आधे घंटे तक अकेले यहाँ बैठा रहा। खाने-पीने का कुछ सामान रखा था, वो कुछ मैंने खा लिया। और वहीं एक कौव्वा बार-बार मेरे पास आ रहा था, कुछ उसे भी खिला दिया, अमूमन कौव्वे ऐसे इंसानों के पास इतनी आसानी से नहीं आते हैं, वो भी 4000 मीटर की ऊंचाई में उस कौव्वे को आते देख मैंने उसके साथ ही सुबह का यह नाश्ता कर लिया। वहाँ कुछ देर शांति से बैठकर यही समझ आया कि जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि बिना किसी प्राणी मात्र को नुकसान पहुंचाए बहुत छोटी-छोटी चीजों को उसकी संपूर्णता में जीने में ही है। 





अब मैं यहाँ से वापस धीरे-धीरे नीचे की ओर लौटा। नीचे लौटते फिर से एक बार तुंगनाथ मंदिर के पास से गुजरा और सर झुकाकर अब अपने कमरे की ओर तेजी से चलने लगा। चंद्रशिला टाॅप की चढ़ाई कर मैं सुबह 11 बजे ही नीचे चोपटा आ चुका था, सुबह से माइनस डिग्री की ठंड और 3000 से 4000 मीटर की ऊँचाई के कारण सिर में हल्का दर्द था तो मैंने आज चोपटा में ही रूकने‌ का प्लान‌ बनाया था। मैं जिस कमरे में रूका था, ठीक बाजू में जो दो गुजराती दोस्त थे, वे सुबह 9 बजे चढ़े थे और लगभग 2-3 बजे तुंगनाथ से नीचे चोपटा आए और आज ही चोपटा से वापस नीचे जाने का प्लान बना लिया। उनमें और मुझमें एक समानता यह रही कि वे भी बजट ट्रेवल‌ करने वालों में से हैं जो कोई बहुत प्लानिंग नहीं करते हैं और वे भी मेरी तरह बहुत अधिक लक्जरी और तामझाम से इतर जीवन को उसकी संपूर्णता में जीने में यकीन रखते हैं। 

तो हुआ यूं कि जब वे तीन बजे आए, उतने ही समय मैं खाना खा रहा था। वे मुझे कहने लगे कि चलो अब हम जा रहे हैं। उनका उत्साह देखकर पता नहीं क्या हुआ कि मैंने भी आगे जाने का‌ प्लान बना लिया और इत्तफाकन हमें एक‌ ही जगह जाना था। तो उसी दिन उनके साथ चोपटा से रूद्रप्रयाग तक नाइट राइड हो गई। वे दोनों स्कूटी में थे, भले साथ में अलग-अलग बाइक में चलने की वजह से गति धीमी हुई, एक दूसरे के साथ तारतम्य बिठाते रहे, आगे पीछे एक दूसरे को रूकते देखते, कभी वो कभी मैं, और हमारी दोस्ती होती रही, विश्वाश बनता रहा। इससे पहले इस एक दिन में मेरी उनसे कोई बहुत ज्यादा बात नहीं हुई थी, जब हम एक जगह चाय पीने रूके तो पता चला कि सुबह अंधेरे में जब मैं ऊपर तुंगनाथ तक जा रहा था, तो जो कुत्ता मेरे साथ ऊपर तक गया था, वह इन्हीं के साथ नीचे तक आया जब वे दोपहर को आए, उस कुत्ते की तस्वीर मैंने भी खींची थी और उन्होंने भी, हमने मैच किया तो वही निकला। तुंगनाथ से जब मैं वापस नीचे लौट रहा था तो बहुत से लोग चढ़ाई कर रहे थे लेकिन अब इसे संयोग ही कहिए कि जो कुत्ता मुझे रास्ते में मिला था, वह इन्हीं के साथ वापस आया। और अब मैं उन्हीं दो दोस्तों के साथ रूद्रप्रयाग तक जा रहा था। रास्ते भर मन में बस यही खयाल आ रहा था कि कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जो आपको माता-पिता से विरासत में मिलते हैं, लेकिन वहीं कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं, जिन्हें आप खुद बनाते हैं, और यही आपके पूरे जीवन की असली पूंजी होते हैं। पता नहीं क्यों उनके साथ इस सफर के बाद तुंगनाथ चंद्रशिला की चढ़ाई की पूरी थकान छूमंतर सी हो गई। 

Thursday, 11 April 2024

- करो वही जहाँ तक कोई सोच ही न पाए -

कुछ समय पहले की बात है। पश्चिम बंगाल के एकलौते हिल स्टेशन वाले जिले में जाना हुआ था। दार्जीलिंग का हाल उन पहाड़ी शहरों की तरह ही है, जहां बेहिसाब भीड़ पहुंचती है। इसलिए मैंने दार्जीलिंग जाना मुनासिब न समझा और कुर्सियोंग, टुंग, सोनाडा होते घूम चला गया। घूम भी एक छोटी सी पहाड़ी बसाहट है, जहाँ तक टाॅय ट्रेन भी आती है। और यहाँ रूकने का एक फायदा यह है कि आपको यहाँ से अगर सूर्योदय देखने के लिए टाइगर हिल जाना है तो ज्यादा दूरी तय नहीं करनी पड़ती। टाइगर हिल का हाल भी बहुत बुरा है, अनाप-शनाप भीड़ रहती है, पिछले दशक भर से इतनी भीड़ हो चुकी है कि वहाँ जाने के लिए अब पास/टिकट लेना पड़ता है, आप बाइक/कार किसी भी माध्यम से जाएं आपको पास चाहिए, बिना‌ पास के आप ऐसे ही नहीं जा सकते हैं।

मैं जिस होमस्टे में रूका था, वहाँ के मालिक जो नेपाली थे, उन्होंने बताया कि आप पैदल भी जा सकते हो। उनकी बात सुनकर मुझे तो मानो हौसला ही आ गया और मैंने अपनी बाइक के लिए पास नहीं बनवाया। गूगल मैप में चेक करने पर पता चला कि 6-7 किलोमीटर की दूरी है, और ऊपर पहाड़ में वह जगह स्थित है तो हल्की सी चढ़ाई है। टाइगर हिल मतलब ऐसी ऊंचाई में स्थित जगह है जहाँ से आप सूर्य को एकदम सामने से लाल रक्तिम आभा लिए उगते हुए देख सकते हैं, और ठीक बाजू में आपको कंचनजंघा की चोटियाँ भी निर्बाध साफ दिखाई देती है।

अगले दिन सुबह मैं 4 बजे उठ गया, एक हल्का सा जैकेट पहनकर ही मैंने पैदल ही टाइगर हिल जाने का मन बना लिया। मैंने मैप में ही देख लिया था कि रास्ते‌ में सेंचल वन्य जीव अभ्यारण्य पड़ता है, और मुझे उस जंगल‌ को पार करके जाना था। मैंने जब अपने होमस्टे से पैदल चलना शुरू किया, गजब सन्नाटा पसरा था, इंसानी चेहरों का नामोनिशान नहीं, नई नई जगह और सुबह तेजी से भोंकते पहाड़ी कुत्ते। खैर यह सब नजर अंदाज करते हुए मैं तेजी से आगे बढ़ता गया। कुछ देर चलने के बाद जैसे ही मुख्य मार्ग तक पहुंचा, ऐसा लगा जैसे मानो पूरा शहर उठकर कहीं कार लेकर निकल रहा हो, सुबह के सवा चार बजे थे और क्या ही गजब जाम लगा हुआ था, ये सब गाड़ियां बुकिंग में पर्यटकों को सूर्योदय दिखाने ले जा रही थी, कुछ लोगों की अपनी पर्सनल गाड़ियां भी थी जिससे वे जा रहे थे, यानि आपके पास ये दोनों विकल्प होते हैं। 

लगभग एक किलोमीटर चलने के बाद जंगल का रास्ता आ गया, उसके ठीक पहले आर्मी का एक चेक प्वाइंट था, वहां वे सारी गाड़ियों से पर्ची लेकर उनको आगे जाने के लिए हरी झंडी दे रहे थे। मैं जब पहुंचा तो उन्होंने मुझे रोक लिया। कहने लगे कि कहां जा रहे हो अकेले? मैंने बताया कि टाइगर हिल। फिर पूछने लगे कि पास कहाँ है? मैंने कहा कि पास तो नहीं है, किसी ने बताया कि बिना‌ पास के भी पैदल जा सकते हैं, तो आ गया। फिर उन्होंने कहा कि आपको कोई और पैदल वाला दिख रहा है? मैंने कहा कि अभी तक तो नहीं दिखा है। फिर कहने लगे कि चलो फिर अभी जल्दी जाओ, सनराइस का टाइम हो रहा, आते टाइम एक काम करना पास बना लेना, फिर जाते-जाते उन्होंने कहा कि फोन रखे हो, मैंने हां कहा, तो उन्होंने सलाह दी कि मैं अपने फोन का फ्लैशलाइट आन करते हुए चलूं‌। मैंने कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि जंगल में भालू, गुलदार हैं। अब जो इतने देर से में बैखोफ अकेले जा रहा था, उनकी इस दी हुई जानकारी से मुझे घबराहट होने लगी। जैसे-तैसे हिम्मत करके मैं आगे बढ़ता गया। 

रास्ते भर लगातार सवारी गाड़ियाँ आ रही थी, उनकी रोशनी आती, तो इस वजह से अकेलापन तो नहीं लग रहा था, लेकिन 20-30 सेकेण्ड के लिए भी अगर कोई गाड़ी न आती तो मन में यही ख्याल आता कि अगर मुझे किसी जंगली जानवर ने दबोच लिया तो घरवालों तक कौन बात पहुंचाएगा, तुरंत मेरा फोन अनलाॅक कर कौन सूचित करेगा, इतनी सुबह तो कोई फोन का लाॅक खोलने वाला भी न मिलेगा, ऐसे तमाम अजीबोगरीब खयाल आने‌ लगे थे। सोचने लगा कि क्या मेरी नियति में जंगली जानवरों के हाथों ही खत्म हो जाना लिखा है। फिर सोचा कि अगर कोई जानवर पीछे से हमला न करके ठीक सामने से आ गया और मेरे पास प्रतिक्रिया देने के लिए कुछ सेकेण्ड का भी अगर समय होगा तो तब मैं क्या करूंगा, क्या मैं भी हुंकार भरुंगा या फिर दंतकथाओं में लिखी कहानियों में जंगली जानवर के सामने धैर्य बांधकर खड़े किसी साधु की तरह खामोशी से खड़ा रहूंगा। यह सब सोचते हुए मैंने पूरी ईमानदारी से खुद को अस्तित्व के हवाले कर दिया। सोचने लगा कि अगर सच में मैंने अपने अभी तक के जीने‌ में ईमानदारी नहीं बरती है, अगर किसी को मानसिक/शारीरिक किसी भी तरीके से चोट/हानि पहुंचाई है, तो मुझे अस्तित्व की शक्ति जो सजा देना चाहे उसकी मर्जी, उसका खुले मन से स्वागत है। इस बीच जब डर बहुत हावी हो जाता तो कुछ एक गाड़ियों से मैंने लिफ्ट भी मांगा लेकिन चूंकि सभी गाड़ियां टूरिस्ट को लेकर आ रही थी तो सब फुल चल रही थी, इसलिए भी मैंने ज्यादा कोशिश करना उचित नहीं समझा और खुद को शांत कर लिया। चलते-चलते पसीना आने लगा था, जबरदस्त ठंड भी थी, इतनी ठंड तो थी ही कि मुझे एक और जैकेट अपने साथ न रखने का अफसोस भी बराबर हो रहा था। क्योंकि जब बहुत ठंड में आपको पैदल चलते या मेहनत करते पसीना आने लगे तो जो कपड़ा पसीने से भीग चुका होता है, उसे तुरंत बदल देना चाहिए, वरना ठंड एकदम मस्तिष्क तक पहुंच जाता है और आपको कुछ हद बीमार कर देता है, सिरदर्द होने लगता है, मेरे साथ भी आगे जाकर यही हुआ। 

घने जंगल का रास्ता लगभग खत्म होने को था, इस बीच मुझे बहुत प्यास लगने लगी, मैं तो जूते पहनकर सिर्फ अपना फोन लेकर आया था, इसके अलावा मेरे पास कुछ भी नहीं था। रास्ते में पानी के एक प्राकृतिक स्त्रोत की आवाज आई, लेकिन मैंने सुबह-सुबह जंगली जानवरों के इलाके में पानी पाने का जोखिम नहीं उठाया। कुछ इस तरह घने जंगल का यह पड़ाव पूरा हो गया। अब थोड़ा खुला आसमान दिखने लगा था, पूर्णिमा की रात थी तो खूब रोशनी थी, फ्लैशलाइट की जरूरत भी अब नहीं थी। इसी बीच कुछ पैदल चलने वाले लोग मुझे आगे दिखाई दिए। इतने देर से अकेले शांत घने जंगल में डर-डर के पैदल चलते हुए आपको कोई एक दूसरा इंसान दिख जाए तो इसकी क्या खुशी होती है इसे शब्दों में बताना संभव नहीं है। बस यूं समझिए कि बेहद खुशी हुई, हिम्मत मिल गई। मैंने सोचा कि ये लोग मुझे पहले क्यों नहीं मिले, शायद पांच-दस मिनट ही मैं इनसे पीछे होऊंगा। फिर अस्तित्व को मन से आंख मूंद कर धन्यवाद किया, कि वह कुछ मिनटों के अंतर आपको क्या अहसास करा देती है, आपके भीतर अभय पैदा कर देती है, आपको जीवन की क्षणभंगुरता का अहसास कराती है। 

जो लोग मुझे मिले, इनका कोई काॅलेज का ही ग्रुप था, सब दोस्त यार साथ में थे, आराम से मस्ती करते हुए धीरे-धीरे चल रहे थे। सूर्योदय देखने के लिए मैं इतना तेज तो चल ही रहा था कि इनको पार करके आगे बढ़ गया। टाइगर हिल में लोगों के जमघट के बीच लाल रक्तिम आभा लिए सूर्य के दर्शन किए, फूल की किसी कली की तरह सूर्य को बाहर फूटते हुए निकलते देखना जीवन के अभूतपूर्व अनुभवों में से एक था। ठीक इसके बाद सूर्य की पहली किरणें कंचनजंघा की सफेद बर्फीली चोटियों पर पड़ी और उन्हें सूर्ख लाल रंग दे गई, फिर कुछ देर बाद धरती प्रकाशमान हो गई।

अब मैं टाइगर हिल से नीचे वापस लौट रहा था। लौटते हुए अपने फोन से चलते-चलते उन रास्तों की वीडियो बनाते हुए लंबी सांस लेकर मैंने कहा - " हर किसी की जीवन यात्रा बहुत अलग तरह की होती है, मैंने पहले भी ऐसे जोखिम उठाए हैं, अस्तित्व के सहारे खुद को छोड़ा है, अस्तित्व की शक्ति को महसूस किया है। इसलिए ऐसी बातों से किसी को भी प्रेरित नहीं होना चाहिए। और अंत में फिर मैंने कहा - " करो वही जहाँ तक कोई सोच भी न पाए। " 

नीचे लौटते हुए अब जंगल वाला रास्ता लगभग खत्म होने को था, उसके ठीक पहले काॅलेज के वे लड़के-लड़कियां फिर से मुझे मिल गये। मैं उनके ठीक पीछे ही था। आर्मी का चेक प्वाइंट आ गया था। आर्मी वालों ने सबको रोक लिया और पास के लिए पैसे जमा करने कहा, उन काॅलेज स्टूडेंट के साथ मैं भी खड़ा था। आर्मी वाला भी एक नेपाली था, आर्मी वाले ने कहा कि एक एक स्टूडेंट का 400 रूपये लगेगा, सबने एक स्वर में विरोध किया और कहा कि इतना ज्यादा कैसे? उनमें से एक उत्साही स्टूडेंट ने कहा कि हम नेपाल से हैं, हम यहां काॅलेज के छात्र हैं हमको तो छूट मिलना चाहिए, फिर आर्मी वाले ने थोड़ा और रेट कहा, फिर वे छात्र भी मस्ती करते हुए कहने लगे कि नहीं हमको पूरा फ्री करो आप, हम स्टूडेंट को इतनी छूट मिलनी चाहिए, फिर वो नेपाली लड़का अपना जींस उठाकर अपने पैरों की पिंडली की मांसपेशियां दिखाने लगा और कहने लगा कि देखो नेपाली हूं मैं, आप भी तो नेपाली हो, देखो ये मजबूत पिंडलियाँ, नेपाल के पहाड़ों सी मजबूती है इसमें, पहचानो इन पिंडलियों से मुझे। यह सब देखकर बड़ा मजा आया कि कैसे इतनी खूबसूरती से शौर्य प्रदर्शन करते हुए अपनी पहचान बताई जा रही है। उस लड़के के पैरों की पिंडलियों को देखकर लगा कि मुझ जैसे मैदानी इलाके के लड़के को शरीर का यह स्तर छूने में तो पूरा जीवन लग जाएगा लेकिन ये चीज हासिल नहीं होगी, कुछ चीजें तो मानो पहाड़ी लोगों को विरासत में मिलती है।

आर्मी वालों द्वारा इतने देर से हो रहे नोंकझोंक से मुझे कुछ-कुछ समझ आ गया था कि आर्मी वाले जो खुद नेपाली थे, वे हम सब के साथ मस्ती कर रहे थे। लेकि‌न उन्होंने अभी हमें छोड़ा नहीं था, कहने लगे कि हम कैसे मान लें कि नेपाली हो, फिर लड़कियों ने भी राग छेड़ा, कहने लगी - लाओ स्पीकर, लगाओ नेपाली गाना, नाच के बताते हैं फिर यकीन हो जाएगा। स्पीकर का जुगाड़ तो हो नहीं पाया, तो आर्मी वाले और बाकी स्टूडेंट सब मिलकर तब का एक वायरल हुआ नेपाली गाना " बादल बरसा बिजुली सावन को पानी " गाने लगे। और सारे काॅलेज स्टूडेंट्स ने अपने डांस से मानो समा ही बांध दिया, आर्मी वाले भी नाचने लगे। और फिर उन्होंने हमें जाने दे दिया। जब भी लगे कि मुद्रा, नौकरी, भौतिक सुविधाओं से इतर स्थानीय संस्कृति को क्यों संजोना चाहिए तब जीवन के ऐसे बेशकीमती पहलुओं पर जरूर ध्यान देना चाहिए। 

वे काॅलेज स्टूडेंट जो टाइगर हिल जाते समय मुझे रास्ते में मिले, और फिर वापसी में भी मिल‌ गये। उनसे मैंने अलग से कोई बात नहीं की, उन्होंने भी अपनी ओर से मेरे से बात नहीं की। लेकिन अस्तित्व रूपी प्रकृति की रची बसी दुनिया में बिना आवाज किए ही शायद हमारी बातें हो गई थी और हमने इंसान रूप में एक दूसरे को स्वीकार कर लिया, महसूस कर लिया।












Monday, 8 April 2024

- जैसा देस वैसा भेष -

A - बहुत मांस खा रहा है वो आजकल।
B - तुमको क्या समस्या है?
A - नहीं, मैं बस बता रहा हूं ?
B - तुम तो शायद खाते भी नहीं!
A - हां, मैं शुध्द शाकाहारी हूं।
B - फिर जाने दो, खाने दो उसे।
A - लेकिन फिर भी, बहुत खा रहा है वो।
B - तुम्हारे जेब से खा रहा है?
A - नहीं, लेकिन ज्यादा मांस खाने के लिए लोगों को लूटता है।
B - तुमको लूटा उसने ?
A - नहीं, लेकिन किसी को तो लूट रहा है।
B - जिसको उसने लूटा, वो तुम्हारा परिचित है?
A - नहीं है, लेकिन ये तो गलत है न!
B - तो तुम इस गलत का क्या कर लोगे?
A - मुझे नहीं मालूम, मैं बस बता रहा हूं।
B - मांस खाने वालों से चिढ़ते हो तुम।
A - बिल्कुल नहीं, मैं तो शाकाहारी हूं।
B - तो फिर तुम्हें समस्या नहीं होनी चाहिए।
A - अब मैं आपको कैसे समझाऊं!
B - अब कह भी दो।
A - असल में समस्या मांस खाने से नहीं है।
B - तो कहते क्यों नहीं कि बात क्या है?
A - पहले वादा करो, किसी से नहीं कहोगे?
B - चलो वादा, नहीं कहूंगा। अब बताओ भला।
A - वह इंसानों का मांस खाता है।
B - अबे खाने दो, हमें क्या।
A - हम भी तो इंसान हैं।
B - हम मजबूत लोग हैं, हमारे आसपास नहीं आएगा।
A - हमें घेर के कमजोर कर दिया तब?
B - अपने से कमजोर कोई दिखा देना उसे, कह देना कि उसे खा ले।
A - तुम कितने घटिया व्यक्ति हो।
B - तो क्या तुम खुद को खाने दोगे उसे?
A - नहीं, लेकिन किसी दूसरे को कैसे मरवा दूं?
B - जाओ खुद मर जाओ।
A - बेशर्म आदमी, कितने निर्दयी हो चुके हो?
B - यार सुनो, मैं खुद कभी-कभी इंसानी मांस खा लेता हूं।
A - क्या कहा? शर्म नहीं आती ऐसा कहते हुए।
B - हत्या मैं नहीं करता, कहीं से मिल जाता है तब खा लेता हूं।
A - वाह, कितने भले मानुष हो। 
B - तुम्हें पका पकाया मिलता, क्या तुम मना करते?
A - मैं मर जाता, लेकिन इंसानी मांस कभी न खाता। 
B - हर कोई तुम्हारी तरह यहां मरना नहीं चाहता।
A - एक बात पूछूं?
B - हां, पूछो?
A - अगर किसी ने मुझे मार दिया, तो क्या मेरा मांस भी खा लोगे?
B - मुझे थोड़े न पता चलेगा, मांस किसका है?
A - हद हरामी हो बे।
B - जैसा देस वैसा भेष।

Thursday, 4 April 2024

Zero percent interest

Purchasing power parity आत्मबल का विरूध्दार्थी है। दो दशक पहले का ही समाज देखें तो लोगों के पास बहुत सीमित संसाधन हुआ करते, इसका अर्थ यह नहीं था कि उनके पास क्रय शक्ति नहीं थी, समाज का एक बड़ा हिस्सा सदियों से जिस परंपरा को अपना कर चला आ रहा था, उसी दिशा में था, चोचले ज्यादा नहीं थे। शादी का आयोजन या कोई विपदा ही इंसान के सबसे बड़े खर्च के रूप में था, जिसके लिए वह कर्ज लिया करता। इसके अलावा अगर कोई व्यक्ति कर्ज/उधार लेता तो उसे बड़ी हेय दृष्टि से देखा जाता कि ऐसी क्या नौबत आ गई कि कर्ज लेना पड़ा। कुल मिलाकर एक अपराध के रूप में देखा जाता रहा कि इतना क्या नैतिक बल कमजोर हो गया। लेकिन बदलते समय के साथ और खासकर इस रीलयुगीन सभ्यता के उत्तरार्द्ध के बाद से जैसे तमाम नैतिकताओं का भूस बन गया। आज अपनी छोटी-छोटी जरूरतों के लिए कर्ज लेना ( emi etc) फैशन बन चुका है, आप उस लिए हुए कर्ज पर दुबारा कर्ज लेना चाहते हैं तो वह भी उपलब्ध है। अपने क्षणिक सुख के लिए इस फैशन को गले लगाने वाले को बाजार यह जरा भी अहसास होने नहीं देता कि वह बदले में उपभोक्ता का आत्मबल, उसका स्वाभिमान हमेशा के लिए छीन रहा होता है वो भी 0% interest पर। ऐसे कमजोर हो चुके नागरिक को मनचाहे लाइन पर लगाया जा सकता है, उससे ताली थाली भी बजवाया जा सकता है, बिना अनुमति के उसे चंदा राशन वगैरह भी बांटा जा सकता है, आसान शब्दों में कहें तो उसे बड़ी आसानी से मानसिक रूप से नपुंसक बनाया जा सकता है।