Thursday, 25 August 2022

NGO vs. IT Sector

इन दोनों सेक्टर में अदला बदली चलते रहती है, खासकर ह्यूमन रिसोर्स वाले काम को लेकर दोनों क्षेत्र के लोग काम का स्वाद बदलने के लिए स्विच हो जाते हैं। लेकिन मोटा-मोटा देखा जाए तो जितने रूपये आईटी सेक्टर में मिलते हैं, उसका आधा भी एनजीओ सेक्टर में नहीं मिलता है। इस एक बात पर सभी को आम सहमति बना लेनी चाहिए कि दोनों का काम विशुध्द कारपोरेट माॅडल पर आधारित है। बस फर्क यह है कि एक जगह देश समाज के लिए काम करने का इगो है, दूसरे जगह वह इगो संतुष्ट नहीं हो पाता है। अगर एक एनजीओ की नौकरी करने वाला, महीने की तनख्वाह लेकर किसी के लिए कुछ काम कर रहा, तो जब ऐसे काम को अलग से समाजसेवा कहा जाता है, तो एक आईटी कम्पनी में काम रहे कर्मचारी का काम भी समाजसेवा ही है, वह स्क्रीन के सामने कोडिंग करते हुए अगर खप रहा है, तो दूसरी ओर किसी को कुछ सर्विस मिल ही रही है, किसी दूसरे ग्रह के मनुष्य के लिए तो काम नहीं हो रहा, यहीं के लोगों के लिए वह सर्विस दे रहा, तो इसे देशसेवा क्यों नहीं माना जाना चाहिए। अगर एक एनजीओ में रहते सामान बाँटना, बाढ़ प्रभावित इलाकों में सर्वे करना, गाँव-गाँव घूमना अगर समाजसेवा है तो कम्प्यूटर स्क्रीन के सामने बैठकर लोगों के लिए तकनीकी आधारित काम करना भी उतनी ही समाजसेवा है, क्योंकि अपने-अपने उस काम के लिए दोनों वेतन लेते हैं। तो उसमें अलग से समाजसेवा क्यों जोड़ना जब आप मासिक तनख्वाह पर काम कर रहे हैं, उस लिहाज से अपने दफ्तर के बाहर पानीपुरी बेचने या चाय बेचने वाले को सबसे बड़ा समाजसेवक कहिए जो अपने छोटे से व्यापार के लिए रोज जोखिम उठाता है और बदले में आपको कुछ खिलाने पिलाने की सेवा देता है। इसमें तो सबसे ज्यादा समाजसेवा दिखनी चाहिए।

अब थोड़ी साफ और सीधी बात कर लेते हैं। भारत के लोगों के अंदर समाजसेवा को लेकर गजब का रोमांस है, खुद के घर के सामने की नाली साफ नहीं होगी लेकिन एनजीओ से जुड़कर झाडू पकड़कर ढोंग करने, फोटो खींचवाने इन सब में इनको कोई समस्या नहीं होती है, महानता का बोध जो होता है। एक औसत भारतीय जिसकी दैनिक मूलभूत जरूरतें पूरी नहीं हो पा रही है वह नौकरी करते हुए अपने और अपने परिवार का पेट भरने का सोचे या महानता के फर्जी बोध को जीने लग जाए, तो यह काम आप भरे पेट वाले लोगों को करने दीजिए।

अब तनख्वाह पर आते हैं। सबसे मूल और जरूरी बात यह कि भारत की जैसी अस्थिर अर्थव्यवस्था है उसमें इंसान के लिए ठीक-ठाक पैसे अर्जित करना ही जीवन का सबसे बड़ा मोटिवेशन होता है, और यह होना भी चाहिए। अगर पैसे कमाने से आपके जीवन की लगभग सारी दुश्वारियाँ कम हो जाती हों तो बिल्कुल इसमें समय देना चाहिए। अंततः रूपये तो सबको चाहिए। और जब रूपया ही कमाना है, नौकरी ही करना है, और नौकरी में ही कारपोरेट माॅडल की जब नौकरी है, सप्ताह में 6 दिन रोज खपना है, तो जहाँ ज्यादा रूपये मिलें, वहाँ खपना चाहिए। इसीलिए एनजीओ और आईटी सेक्टर में हमेशा आईटी सेक्टर को चुनना चाहिए, क्योंकि आपका समय भी निर्धारित रहता है, एक समय के बाद सप्ताह में पाँच दिन काम करने की सहूलियत भी मिल जाती है, समाजसेवा के फर्जीवाड़े का ढोंग भी नहीं, तनख्वाह भी दुगुनी चौगुनी रहती है। इसीलिए, यह एनजीओ में जाने से कहीं बड़ी समाजसेवा है, आप ज्यादा रूपया कमाएंगे तो आपकी क्रयशक्ति भी ज्यादा होगी, स्वयं को और अपने स्वजनों को ज्यादा आराम दे पाएंगे। अंत में यही कि एनजीओ सेक्टर में आपकी मानसिक शारीरिक दोनों तरह की क्षति होती है, जबकि आईटी में मुख्यत: शारीरिक नुकसान होता है। मैं पहले वाले को ज्यादा खतरनाक मानता हूं क्योंकि शरीर को साधना, मन साधने से ज्यादा आसान होता है। बाकी अपनी-अपनी सोच है।

Sunday, 14 August 2022

असली बीमार कौन ?

कल एक स्टडी ग्रुप में एक लड़के ने " Depression से कैसे निकलूं ? " ऐसा लिखा था, कारण भी लिखा की नौकरी, प्रेमिका की मृत्यु आदि आदि, सैकड़ों कमेंट्स आए, क्या क्या सलाह दी गई, नीचे पढ़ते जाइए -

1. सकारात्मक सोच, सकारात्मक लोग, सकारात्मक माहौल
2. घरवालों से बात कीजिए
3. Wings of fire आदि आदि किताब पढ़ो
4. दरवाजे से
5. भाई दो पैक सुबह शाम
6. रोज वाॅक करो
7. मेडिटेशन करो
8. जिंदगी का एक मकसद बनाओ
9. यूट्यूब में संदीप माहेश्वरी आदि का वीडियो देख लो
10. जानवरों के साथ समय बिताइए
11. फ्लर्ट करो किसी के साथ
12. व्यस्त रखो खुद को
13. मंदिर होकर आ जाओ
14. कहीं घूमने चले जाओ
15. फेसबुक, व्हाट्सएप्प बंद करो
16. नींद की दवा लेकर सोना शुरू करो
17. रील्स बनाओ और दुनिया को भाड़ में जाए बोलो
18. जिम जाना शुरू करो, योगा करो
19. मोह माया से दूर रहो, प्रकृति का आनंद लो
20. आध्यात्मिक जीवन जीना शुरू कर दो

सिर्फ किसी एक ने कहा था कि किसी मनोविकित्सक के‌ पास होकर आ जाइए बाकी सैकड़ों कमेंट्स में यही सब था, समझ नहीं आया कि वास्तव में ज्यादा मानसिक बीमार कौन है, जो देख पा रहा है या जो नहीं देख‌ पा रहा है...
वैसे इन सैकड़ों लोगों में भी 4. नंबर वाला मुझे मानसिक रूप से सबसे स्वस्थ व्यक्ति लगा। 

Saturday, 13 August 2022

भोगी राजा और भोगी प्रजा -

एक राजा था। वह बहुत ही अधिक विलासी प्रवृति का रहा, उसे अपनी तारीफ करवाने का बहुत शौक रहा, अलग-अलग तरह के कपड़े और घूमने-फिरने का भी शौकीन आदमी था। देश की मूल समस्याओं से उसे कभी कोई खास मतलब नहीं रहा। अब चूंकि बड़ी मुश्किल से उसे राज पाट करने का मौका मिला था तो वह भोग करने का एक मौका नहीं छोड़ना चाहता था‌। लेकिन अपने भोग और विलासितापूर्ण जीवन को बरकरार रखने के लिए भी जनता के बीच एक काम करने वाली छवि को भी बनाए रखना होता है। वैसे ऐसा करना भी उसके लिए बहुत मुश्किल का काम नहीं था क्योंकि उसके राज्य की प्रजा पहले ही तरह-तरह के नशे में आकण्ठ डूबी हुई थी, भोग-विलास की चीजें चरमोत्कर्ष पर थी। राजा ने इस चीज को करीने से रेखांकित किया और इसे बनाए रखने में और मदद की। 

जनमानस में एकरूपता बनाए रखने के लिए कभी राजा अपने राज्य के बाहरी दुश्मनों के नाम पर उनको अपने साथ जोड़ लेता, तो कभी राज्य की एकता अखण्डता को बनाए रखने के लिए सांकेतिक रूप में उन्हें कमण्डल लेकर घंटी बजाने कहता, चूंकि जनता को भी राजा की तरह भोग ऐश्वर्य और आलस्य की तलब लगी हुई थी इसलिए वे भी कभी कभार राजा के कहने पर सड़कों पर घंटी बजाने निकल जाते थे। राजा भी जनता के क्षमतानुसार ऐसे छोटे-मोटे काम ही उनसे कराता रहता था। आम लोगों को राजा ने छुटपुट भोग के साधन उपलब्ध करा दिए थे, सबके नशे का बराबर ख्याल रखा जा रहा था, ताकि कुछ गंभीर दूरगामी बड़े काम करने की, सोचने की कभी जरूरत ही न पड़े। जनता भी खुश थी, उसके सारे दिमागी रास्ते इस हद तक बंद कर दिये गये थे कि वह राजा के बताए गये प्रयोगों को ही सबसे महान वैज्ञानिक प्रयोग मानकर चलते थे क्योंकि हरामखोरी उनमें भी कम नहीं थी इसलिए वे भी इस चलताऊ भोग से खुश ही थे। कभी-कभी जब भोग के साधन खत्म होने लगते, कोई समस्या होने लगती, चीजें नियंत्रण से बाहर होने लगती तो राजा तुरंत धन और दैनिक जीवन की उपभोग की वस्तुओं को मुफ्त में बाँटने का ऐलान कर देता, वो बात अलग है कि यह सब चीजें उन तक कभी नहीं पहुंचती लेकिन जनता तुरंत अपना सारा दुःख दर्द भूलकर वापस सामान्य हो जाती थी, राजा किसी एक मंझे हुए डाॅक्टर की भांति थी, उसे पता होता था कि ऐसी बीमार प्रजा की बीमारी को लंबे समय तक यथावत बनाए रखने के लिए कब कौन सी दवाई पेनकिलर के रूप में देनी है‌।

राजा के पास पेनकिलर्स की कमी नहीं थी। राजा के पास वफादार महंतों और सामंतों की पूरी फौज थी जो उसके लिए नये-नये पेनकिलर्स इजाद कर देते थे। एक बार राज्य को भीषण महामारी ने अपनी चपेट में ले लिया, इस बार वास्तव में चीजें नियंत्रण से बाहर हो रही थी, राजा को अपने सभी वफादार लोगों को काम पर लगाना पड़ गया ताकि चीजें नियंत्रण में रहें और राजा की छवि पर आंच न आए। चीजें कुछ हद तक नियंत्रित हुई, इसकी खुशी में राजा ने अपने वफादार लोगों के लिए पुष्पवर्षा तक करवाया। जनता भी यह सब देखकर गर्व से सीना चौड़ा करने लगी, सीना चौड़ा करते हुए गर्व करना भी उन्होंने राजा से ही सीखा था क्योंकि राजा बार-बार विकट परिस्थितियों में भी सीना चौड़ा करने की बात करके लोगों में साहस भर देता था। 

महामारी का दौर गुजर चुका था। कभी पता ही नहीं चला कि कितने‌ लोग उस महामारी में चल बसे। माहौल ऐसा बन पड़ा कि जिनका कोई अपना दुनिया से चला गया उनको भी इस भ्रम में रखा गया कि कारण महामारी हो यह जरूरी नहीं। खैर, महामारी का दंश झेल चुकी जनता का जीवन पटरी पर लौटने‌ लगा था। इसी बीच राजकोष खत्म होने की नौबत आ गई। राजा चूंकि एक सिध्दहस्त मनोविज्ञान के डाॅक्टर की तरह था तो उसने इसका भी उपाय निकाल लिया। उसने राज्य की सुरक्षा और भविष्यलक्षीय उद्देश्यों को जनता के सामने रखकर टैक्स की वसूली दोगुनी कर दी। जनता भले ही मन मस्तिष्क से थक चुकी थी, मृतप्राय स्थिति में थी, लेकिन झटका तो उसे तब भी लगा जब दोगुने टैक्स की बात आई। लेकिन झटके को कम करने‌ के लिए चूंकि राजा ने  पहले ही उपाय ढूंढ लिए थे इसलिए उसे बहुत अधिक विरोध या अड़चनों का सामना नहीं करना पड़ा। इस बार राजा ने लोगों की अपने राज्य के‌ प्रति निष्ठा पर ही सवाल खड़ा कर दिया था, आम‌लोग भी नाराज हुए कि इतनी निष्ठा दिखाने के बावजूद उनकी राज्यभक्ति पर कैसे सवाल खड़ा किया जा सकता है। इस बार जनता ने राजा को खुश करने के लिए, अपनी निष्ठा का निर्वहन करने के लिए सारी जिम्मेदारी अपने कंधो पर लेने की ठान ली। 

राजा और प्रजा दोनों गुपचुप तरीके से अपनी तैयारी में थे। राज्य का स्थापना दिवस नजदीक आ रहा था तो राजा ने राज्य की अस्मिता को और अधिक मजबूती से पेश करने के लिए राज्य के प्रतीक चिन्ह का बड़ा सा स्मारक बना दिया और उसे देशवासियों के समक्ष एक तोहफे की तरह प्रस्तुत किया, स्मारक देखकर लोगों की आँखे चौंधिया गई लेकिन जनता तो जनता थी, इस बार वो राजा से एक कदम आगे निकल गई। राज्य के स्थापना दिवस के ठीक पहले आम लोगों ने खुद अपने शरीर के अलग-अलग हिस्सों में राज्य का प्रतीक चिन्ह गुदवा लिया, आमजन स्थापना दिवस के दिन कमीज उतारकर अपना प्रतीक चिन्ह दिखाते हुए राज्य भर में रैली कर रहे थे, अद्भुत दृश्य था। राजा यह सब देखकर आह्लादित हो उठा क्योंकि इस बार राजा को पेनकिलर देना नहीं पड़ा था, जनता खुद अपने लिए पेनकिलर बनाने लगी थी। 

Saturday, 6 August 2022

किसान का बेटा अधिकारी नेता बना है -

( शीर्षक में आप दोनों जेंडर को लेकर चलिए, सुभीते के लिए बस मैंने एक को ही लिया है, जेंडर बाइस नहीं हूं। )

हमारे यहाँ आए दिन ऐसी खबरें देखने सुनने में आती है कि किसान का बेटा अधिकारी बन गया, नेता बन गया, फलां‌ व्यक्ति जो छोटा सा होटल चलाता था उसका बेटा अधिकारी बन गया, रिक्शेचालक की बिटिया कलेक्टर बन गई आदि आदि। सरकारी नौकरी की तैयारी के समय यह खूब देखने में आया कि पिता लोहार हैं, मैकेनिक हैं, ड्राइवर हैं या श्रम से जुड़ा कोई काम करते हैं, बच्चे को बहुत मेहनत करके पढ़ाया और बेटा/बेटी अधिकारी बन गये। इसमें भी पिता के काम को छोटा और बच्चे के नौकरी लग जाने को महानता की तरह प्रस्तुत किया जाता है, जबकि उसी श्रम से, उसी काम की वजह से बच्चा नौकरी पाता है, समझ नहीं आता कि इसमें श्रम का प्रकार छोटा कैसे हुआ। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री तक के लिए यह कहा गया कि चायवाला प्रधानमंत्री बन गया, मानो चाय बेचना बहुत निम्न स्तर का काम हो। राष्ट्रपति जी के लिए भी गाँव की पृष्ठभूमि और आदिवासी समाज को कमतर बताकर राष्ट्रपति बनने को एक ऊंचाई की तरह प्रस्तुत किया गया। ठीक इसी तरह आज उपराष्ट्रपति जी के मामले में किसान परिवार से आया यह कहकर किसानी को लाइन खींचकर छोटा करने का काम किया जा रहा है।

कुछ बातें समझ ही नहीं आती है कि जैसे कोई अगर नौकरी पा लेता है तो इसमें बार-बार यह क्यों कहा जाता है कि गाँव से था, किसान परिवार से आया। मतलब यह सब कहकर आप कौन सा भाव लोगों के अंदर डालना चाहते हैं। सब कुछ इस तरह से प्रस्तुत किया जाता है कि जीवन में उसने महान काम‌ किया है, दो कदम आगे बढ़ा है यानि किसानी फालतू है, उससे आगे की चीज किसी की नौकरी करना है। जब देश की दो तिहाई आबादी गाँव से ही आती है, किसान परिवार ही अमूमन सबका बैकग्राउंड रहा है तो किसान के बच्चे ही तो नौकर बनेंगे, अब इसमें गाँव और किसानी को बार-बार इतना नीचा क्यों दिखाना। क्या फाॅर्मल कपड़े पहनकर आफिस में बैठने वाली चाकरी करना ही महानता है। क्या किसान का इस देश में कोई योगदान नहीं है। देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ ही किसान है फिर भी किसानी को बार-बार इतना हत्तोसाहित क्यों किया जाता है? किसानी के बिना आपका एक भी दफ्तर दो दिन भी नहीं चल पाएगा इस सच्चाई को आप कब तक अस्वीकारेंगे?

ठीक इसी तरह किसानी से ही जुड़े या श्रम के जितने भी आयाम हैं, चाहे वह वजन उठाने से लेकर खाना परोसने का, या शारीरिक स्किल वाले वे जितने भी काम हों, ऐसा करने वालों के बच्चों को हेय क्यों माना जाता है कि उनकी नौकरी लग जाने पर माता-पिता और घर के बैकग्राउंड को एकदम लाचारी के साथ प्रस्तुत किया जाता है।

हम इस सब दोगली मानसिकता से आखिर कब ऊपर उठेंगे?

Monday, 1 August 2022

भैया दीदी मम्मी पापा etc नैतिकताएँ -

बहुत से ऐसे परिवारों में देखा है, जहाँ आज भी भाई बहन एक दूसरे को नाम से पुकारते हैं, उसी में सहज होते हैं, उनके माता-पिता को इस बात से कोई समस्या नहीं रहती है। लेकिन जैसे किसी तीसरे के सामने बात करनी है तो अनुपस्थिति में भैया दीदी कहकर ही याद करते हैं क्योंकि समाज में यही सिस्टम चल रहा होता है, लेकिन सामने बोलचाल में ऐसा कभी नहीं होता है। जिन घरों में भैया दीदी बोलने का कल्चर बचपन से बना दिया जाता है, ऐसे परिवार उन परिवारों को बड़ी हेय दृष्टि से देखते हैं जिनमें ऐसी नैतिकता का पालन नहीं होता है। मेरे घर में तो शुरू से कभी ऐसा नहीं रहा, किसी ने ये वाली नैतिकता नहीं थोपी, और मुझे यह बड़ा सही लगता है। दीदी को शादी के बाद भी जीजा के सामने नाम‌ से पुकारता हूं, नैतिकता का कोई ढोंग नहीं। जिस दिन मैंने गलती से दीदी बोल दिया वो खुद ही गुस्से से कहेंगी कि दुबारा ऐसे शर्मिंदा करने की जरूरत नहीं है, नाम ही पुकारना। ये कुछ वैसा ही है कि जिससे आप लंबे समय से किसी भाषा में बात कर रहे हैं, तो आप उस व्यक्ति से किसी दूसरी भाषा में जो आप दोनों को आती हो, उस भाषा में सहज होकर बात कर ही नहीं सकते हैं। यहाँ तक कि जो छोटा बच्चा होता है, वह अपने माता-पिता का नाम सुनते हुए 2-3 साल की उम्र में नाम से ही पुकारता रहता है, जो नाम सुनता है वह नाम सुनके आपको दोस्त समझ के वह नाम पुकारता है, इसमें तो अपनापन महसूस करना चाहिए, जब तक नाम पुकारता है पुकारने देना चाहिए, लेकिन नहीं माता-पिता को बच्चों से कहाँ दोस्ती करनी होती है, वहाँ भी छोटे बड़े वाली नैतिकता घुसेड़कर मम्मी पापा वगैरह कहना सीखाते चले जाते हैं। अपनी-अपनी सहजता है, न किसी पर कुछ थोपना चाहिए, न किसी का थोपा हुआ किसी को उठाना चाहिए।