जर्नलिज्म की पढ़ाई के दौरान एक प्रोफेसर ने क्लास में एक दिन किसी को कहा कि धीरे बोलने से काम नहीं चलेगा, ऊंची आवाज में बोलना सीखिए, पता नहीं क्यों लाउड बोलने को उनके द्वारा जस्टिफाई करना सही नहीं लगा। साफ-साफ हिंसा का तत्व दिखा था। उस बात से आज भी घुटन होती है, जब-जब टीवी चैनलों में लोगों को ऊंची आवाज में बात करते देखता हूं तो उनकी बात याद आ जाती है, बात सिर्फ टीवी की नहीं है, टीवी में किसी दूसरी दुनिया के लोग तो आते नहीं हैं, सुबह से शाम रोज की दिनचर्या में आए दिन हमारे आसपास लोग इसी तरीके से तो पेश आते हैं, जैसे लोग वैसा समाज वैसा ही टेलीविजन। चहुंओर यही तो है। अपनी बात कहूं तो तुरंत केमिकल रिएक्शन होने लगता है कि सही नहीं हो रहा है, तुरंत किनारे हो लेता हूं, पता नहीं लोग इन सब चीजों को लेकर इतना सहज कैसे हो जाते हैं। काॅलेज में भी उस दौरान वैसी ही सहजता सब तरफ फैली हुई थी, उस सहजता ने इस हद तक असहज किया कि अगले दो सेमेस्टर 0.00% की रिकाॅर्ड उपस्थिति रही क्योंकि राज्य ही छोड़ दिया था।
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