Monday, 31 May 2021

अन्याय से पहली मुठभेड़ -

12 साल पुरानी बात है। हर कोई काॅलेज में पहले दो सेमेस्टर खत्म कर सीनियर बन जाने और अपने कोर ब्रांच में जाने की खुशी की इंतजार कर रहे थे, लेकिन मैं दो सेमेस्टर खत्म हो जाने के बाद उस बीच के समय में अस्पताल में आखिरी साँसे गिन रहा था। बहुत ज्यादा नाजुक हालत हो गई थी, परीक्षा के दौरान ही मोहम्मद अस्फाक भाई अपना पेपर बीच में छोड़कर मुझे अस्पताल न ले जाते तो शायद आज जीवन नहीं होता। तब फेसबुक चलन में नहीं था, आरकुट ही चलता था, मित्रगण आरकुट में आए रोज रंग बिरंगे स्क्रैप भेजा करते, कविताएँ लिखा करते कि मैं कब कालेज वापस आऊंगा‌, बस यही कुछ कुछ छोटी छोटी चीजें जल्दी से ठीक हो जाने का ईंधन बनी रही। अस्पताल के बिस्तर में लेटे-लेटे मैंने जब-जब मोबाइल का इस्तेमाल किया, डाॅक्टरों और परिजनों ने खूब टोका कि मोबाइल साइड रख दिया करो, जल्दी ठीक हो जाओगे आदि आदि, मैं उस समय डाॅक्टरों पर भी भड़क जाता था कि आप अपना काम करें, क्या मेरी आँखों में कोई समस्या है जो इतना सब ज्ञान दे रहे हैं, रेडिएशन गया तेल लेने, मुझे इस बिस्तर में पड़े हुए जिसमें सुकून मिलेगा, मैं वही करूंगा, फिर वे कुछ नहीं कहते थे। महीने भर की जद्दोजहद के बाद आखिरकार ठीक होकर जिंदगी के पिच पर वापसी हो गई। घरवालों ने कहा कि छोड़ दो पढ़ाई, गेप ले लो, शरीर पर ध्यान दो आदि आदि लेकिन फिर से वापस काॅलेज जाने की तड़प इतनी थी कि सब कुछ झेल गया। 


अब यहाँ से शुरू हुई दूसरी लड़ाई। जो भी इंजीनियरिंग किए हुए हैं, उन्हें पता है कि एक इंजीनियर के जीवन में attendence का क्या महत्व होता है, असल में यही आपके लिए आगे चलके परसेंट बनाता है, यानि मोटा-मोटा यही समझिए कि 100 में से 25 से 30% इससे बनता है, बाकी कुछ 25 से 30% कुछ छुटपुट टेस्ट से बनता है, बचे हुए 50% की परीक्षा होती है, यानि एक बहुत ही खराब स्टूडेंट का भी 45 से 50% अभी विषयों में फेल होने के बाद भी बन जाता है। 


एक‌ सेमेस्टर में मुश्किल से तीन से चार महीने क्लास लगती थी, उसमें मैं एक महीना पहले ही मिस कर चुका था, यानि बनने वाले परसेंट का एक बहुत बड़ा हिस्सा चला गया था। अब इसमें भी attendance का गणित ऐसा है कि शुरूआत में आप लगातार 15 दिन भी काॅलेज चले गये तो आपका attendance का औसत प्रतिशत आखिर तक अच्छा बना रहता है, लेकिन आपने शुरूआत से ही खाता नहीं खोला तो आपका प्रतिशत बहुत कम बनेगा, भले आप बाद के दिनों में लगातार कितने भी दिन कालेज चले जाएं, कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। जैसे उदाहरण के लिए कोई शुरूआत के दो महीने कालेज गया, और बाद के दो महीने शक्ल भी न दिखाए तो उसका attendance 70% के ऊपर ही मिलेगा, लेकिन कोई शुरूआत का एक महीना मिस करके आगे का पूरा तीन महीना भी लगातार जाए, तो भी उसका attendance 50% से ऊपर नहीं जाएगा। मुझे इंजीनियरिंग में ये एक चीज शुरू से बड़ी गलत लगती रही। खैर..।


अब असल मुद्दे पर आते हैं, मुझे अपने attendance के हिस्से का परसेंट वापस पाने के लिए आफिस के खूब चक्कर काटने पड़े, मेडिकल पेपर सब कुछ तैयार कर जमा करने के बाद भी पूरे महीने भर का attendance नहीं मिला, आधा ही मिला। वो भी तब जब मैंने पूरा जोर लगा दिया, साम दाम दंड भेद वाली स्थिति रही तब जाकर हासिल हुआ, महीने भर की जद्दोजहद के बाद चीजें हासिल हुई। मैं पूरी तरह से ठीक नहीं हुआ था, शरीर में जैसी ताकत आनी चाहिए, वो आ नहीं पाई थी, ये मुझे तीन तीन फ्लोर सीढ़ी चढ़ते हुए, दफ्तरों के चक्कर काटते हुए रोज महसूस होता था, कभी किसी से कुछ कहता भी नहीं था कि मैं ठीक नहीं हूं, क्योंकि सबसे लड़कर वापस आया था कि मुझे कालेज जाना ही है, इसलिए सब कुछ मुझे अकेले ही करना था, जीवन बहुत कुछ सीखा रहा था।


महीने भर की जद्दोजहद के बीच एक‌ दिन मुझे शंभू भाई मिले। शंभू भाई दूसरे सेक्शन का था, वह भी महीने भर गायब रहा, मेरी तरह वह भी अस्पताल में था, फर्क यह रहा कि मेरी तबियत खराब हुई थी और शंभू भाई बाइक से दुर्घटनाग्रस्त हुए थे। शंभू भाई बाइक में पीछे बैठे थे, बाइक उनका मित्र चला रहा था, ऐसा जबरदस्त एक्सीडेंट हुआ था कि शंभू भाई के मित्र चल बसे, शंभू भाई को गंभीर चोट आई लेकिन महीने भर में ठीक होकर वापस आ गये। उनके सीने में गंभीर चोट लगी थी, ठीक वैसी ही चीरफाड़ हुई थी, जैसे बाईपास सर्जरी में सीने के बीच से काटा जाता है। शंभू भाई का ट्रैक रिकार्ड पहले का भी कुछ खास नहीं रहा और फिर साम दाम दंड भेद वाली चीज भी उन्हें नहीं आती थी, मेरे साथ-साथ जाते कि काम हो जाएगा, मेरा काम हो जाता, शंभू भाई मेडिकल के कागज दिखाते, प्रोफेसर साहब दुत्कारते हुए यह कहकर फेंक देते कि अस्पताल से तो बहुत पहले डिस्चार्ज हुए हो, काॅलेज अब आ रहे हो फर्जी कहीं के। तब शंभू भाई बटन खोकर अपने सीने के आपरेशन का बड़ा सा कट दिखाते, तब भी प्रोफेसर साहब न मानते। मैंने ऐसा अपने सामने एक ही बार देखा, पता नहीं शंभू ने कितने जगह कितनी बार बटन खोलकर अपने सीने का कट दिखाया होगा‌। शंभू ने बाद में बताया कि उनके मित्र का डेथ सर्टिफिकेट लाना होगा, तभी जाकर attendance का कुछ हिस्सा मिलेगा, शंभू भाई की चीजें जानकर मैं अपना सब कुछ भूल गया था, जब मिलता, यही कहकर साहस देता कि अबे ठोक के काम करवाएंगे, अपने हिस्से का attendance लेके रहेंगे, कहीं पिटयाली मारने थोड़े न गये थे, अस्पताल में थे आदि आदि। लेकिन कुछ दिनों के बाद शंभू भाई काॅलेज में दिखना बंद हो गये, पूछा तो पता चला कि अगला हमेशा के लिए काॅलेज ही छोड़कर चला गया, बहुत गुस्सा आया, बहुत ज्यादा गुस्सा आया, शंभू पर नहीं कालेज प्रशासन पर जो आए दिन उसे डेथ सर्टिफिकेट लाने के लिए प्रताड़ित करते थे, मुझे आज यह भी लगता है कि अगर शंभू भाई किसी दूसरे कुल में पैदा हुए होते तो काॅलेज प्रशासन की लंका लगा देते। 


कुछ सालों बाद मैंने सोचा कि जब एक ईल्ली भर का बिना designation का एक प्राइवेट काॅलेज का प्रोफेसर कुछ परसेंट के नाम पर इतना मानसिक शोषण कर सकता है, वो भी मेरे जैसे इंसान का जो कम से कम अपनी चीजों के लिए स्टैंड लेना जानता है, उसे भी महीने भर तक तंग करके रख लेता है। तो जिनके पास designation है, एक छोटे पद से लेकर सचिव स्तर तक जो गैजेटेज आफिसर टाइप के जंतु हैं, जिनके पास हस्ताक्षर करने की ताकत होती है, वे इस देश के लोगों को, भोली-भाली मासूम जनता को किस हद तक परेशान करते होंगे। शंभू भाई जैसा पढ़ा लिखा आदमी भी जब इस शोषण के आगे सरेंडर कर गया, तो बाकी लोगों के साथ कैसा सलूक होता होगा अंदाजा लगा लिया जाए।

Thursday, 27 May 2021

Copyright Claim in Youtube Videos -

अभी आधा भारत घूमने के बाद जब घर लौटा तो कोरोना की ये जानलेवा लहर आ गई और लाॅकडाउन लग गया। इसकी वजह से इतना खाली समय मिला तो कुछ मित्रों की गुजारिश के चलते यूट्यूब में वीडियो अपलोड करना हुआ, लगभग सभी वीडियो में काॅपीराइट क्लेम आया है। कुछ एक मित्रों ने फोन मैसेज करके चिंता जताई कि बाद में कापीराइट का मामला फंसेगा आदि आदि, आपके चैनल‌ में समस्या होगी आदि। वैसे वीडियो में कॉपीराइट क्लेम भर है, वीडियो हमेशा रहेगा, आप देख सकते हैं, लेकिन मैं उसे आगे पैसे कमाने के उद्देश्य से monetize करना चाहूं तो ऐसा कभी संभव नहीं होगा, शायद मित्रों की चिंता Monetization को लेकर ही है, वे मुझे शायद इसमें आगे बढ़ते देखना चाहते हों लेकिन मेरी ऐसी मंशा कभी नहीं रही, होती तो पहले दिन से बढ़िया प्रचार मोड में निकलता। यूट्यूबर बनने के लिए घूमने नहीं निकला था यार। इसलिए मैंने जितने भी वीडियो बनाए लगभग सभी में फ्री म्यूजिक का इस्तेमाल न करते हुए ऐसे म्यूजिक का इस्तेमाल किया है, जो फ्री नहीं है, जिसमें किसी व्यक्ति या संस्था का काॅपीराइट है। वैसे भी मुफ्त में जितने भी म्यूजिक यूट्यूब में उपलब्ध हैं, बहुत ज्यादा खोजबीन करनी पड़ती है और उसमें वो बात भी नहीं रहती है, मुझे तो बड़े फालतू लगते हैं। इसलिए मुझे जो म्यूजिक सबसे बढ़िया लगा, जो सबसे बेस्ट हो सकता था, वही उठा के रख दिया, क्योंकि मकसद अपने प्रियजनों को दिखाना भर रहा। इसलिए भी कभी लाइक शेयर सब्सक्राइब ये सब करने करवाने का झंझट भी नहीं रहा, कोई देखे या न देखें इधर कोई फर्क पड़ना है नहीं, जीवन में हर चीज मुद्रा के लिए की भी नहीं जाती है। मैंने दुनिया के दूसरे देशों के बहुत से लोगों को देखा, जो यूट्यूब में सचमुच बेहतरीन कंटेंट अपलोड करते हैं, उन्हें व्यू या लाइक से कोई खास मतलब नहीं रहता है, वे भी फ्री म्यूजिक इस्तेमाल नहीं करते हैं यानि पूरी संभावना है कि वे यूट्यूब का इस्तेमाल पैसे बनाने के लिए नहीं करते हैं, बस अपनी कला को लोगों के सामने रखते हैं, भले एक देखे या हजार लाख लोग देखें उन्हें इन सब चीजों से कोई खास मतलब नहीं रहता है, मुझे जब ये पता चला तो ये चीज बहुत बढ़िया लगी।

मैंने इस इंडिया ट्रिप में न जाने कितने फेसबुक लाइव किए लेकिन कभी यूट्यूब वाला काम नहीं किया, चाहता तो कर लेता, कोई बड़ी बात नहीं थी। अधिकतर लोगों को यह सब चीजें फालतू लगती रही, उन लोगों ने इस ट्रिप से पैसे बनाने के लिए इस्तेमाल करने पर ज्यादा जोर दिया, उनकी नियत भी साफ रही कि मैं ऐसे घूमते हुए इसे थोड़ा प्रोफेशनल टच देते हुए कुछ पैसे बना लूं, मेरे भले के लिए ही वे कहते रहे। इसमें ये भी समझ आया कि समाज मुद्रा से आगे की चीज कभी सोच कहाँ पाता है। मैंने मुद्रा के खेल से इतर जमकर फेसबुक लाइव किया, लगातार फेसबुक अपडेट किये, वो भी बस अपने मित्रों शुभचिंतकों को लगातार अपडेट करते रहने के लिए कि मैं फलां जगह पर आज हूं, ताकि इसी बहाने आसपास कुछ मित्रों से मुलाकात भी हो जाएगी, बस इतना ही कारण रहा।

बहुत से मित्रों का यह भी कहना रहा कि सिनेमैटिक वीडियो के अलावा व्लाॅग बनाएं, यानि बातचीत करें, आप बात नहीं करते हैं, लोगों को उस जगह के बारे में बताएँ, असल में ये काम करता कौन है, पेशेवर लोग करते हैं, टूरिस्ट लोग करते हैं, प्रोफेशनल लोग करते हैं, और जो जिंदगी जीने के लिए घर से निकलते हैं उनके पास इन सब चीजों के लिए समय नहीं हो पाता है। और इसमें एक व्यक्तिगत समस्या भी है कि मुझे बहुत ज्यादा बोलना सही नहीं लगता है, खासकर आज के समय में किसी जगह विशेष में जाकर वहीं की चीजों का बखान करना तो कतई पसंद नहीं है। तो यही है, सबका अपना-अपना टेस्ट है। बाकी जिस दिन लगेगा कि बोलकर वीडियो बनाकर यात्रा संस्मरण वाला काम करना चाहिए, यानि खुद को भी तो लगना चाहिए ना कि कुछ अलग, कुछ बेहतर, कुछ आर्ट जैसा काम कर रहे हैं, जब ऐसा लगेगा तो वो भी आजमा कर देख लिया जाएगा, सुना है ऐसा करने से लोग बहुत जुड़ते हैं, बहुत पैसा भी आता है, आदमी आदमी नहीं रह जाता सेलिब्रिटी हो जाता है, खैर अभी तो फिलहाल ऐसी कोई मंशा नहीं है। जब की तब देखेंगे।

मुझे घूमते हुए रास्ते में आए दिन बहुत से ऐसे लोग मिलते थे जो गाड़ी बैग और ये पूरा तामझाम देखकर पूछते थे कि आप यूट्यूबर हो क्या, इतने लोग पूछते थे कि वही वही सवाल सुनकर कभी-कभी परेशान सा हो जाता था, आखिर में उन्हें सिर्फ इतना ही कहता था कि मैं किसी सोशल मीडिया प्लेटफार्म के लिए नहीं अपने लिए घूम रहा है, लोग समझ नहीं पाते थे, क्योंकि वे जिस तरह की सेलिब्रिटी वाली फील की उम्मीद मुझसे रखते थे, मैं उसमें हमेशा पानी फेर देता था। मैंने तो यह भी सोचा था कि यूट्यूब में अपनी चीजें नहीं परोसूंगा, फिर कुछ एक दोस्तों ने बड़े मन से कहा कि कुछ यूट्यूब के सहारे हमें भी भारत दिखाओ, तो बस अपलोड किया गया।

Monday, 24 May 2021

सिविल सेवा की तैयारी और मेरी मनोव्यथा -

सिविल सेवा की तैयारी करने वाले अधिकतर युवाओं को तैयारी करने वाले दिनों से इस बात की समझ रहती है कि ठेठ राजा वाली अय्याशी अगर कहीं है तो सिर्फ यहीं है। बहाना चाहे कुछ भी कर लें, ढोंग दिखावा कितना भी कर लें कि समाज सुधार करेंगे आदि आदि लेकिन मूल में भोग वाली मानसिकता के पीछे का लोभ छिपा रहता है। 

भारत में एक युवा के लिए नेता बनने में बहुत मुश्किलें हैं। सबसे बड़ी मुश्किल ये कि शुरूआत से ही लगातार जनता के बीच जाना है, उनसे संवाद स्थापित करना है और यह काम लगातार करना होता है, उसके बाद अगर कहीं पद मिल जाए फिर भी लगातार संवाद वाली चीज करनी ही पड़ती है, और फिर आपने लोगों के लिए कितना भी काम कर लिया, आपके गाली खाने की पूरी संभावना बनी रहती है। एक कलेक्टरगिरी का भूत पाले युवा को इन सब चीजों की समझ पहले से रहती है, उसे इस बात की समझ होती है कि असली राजा ये नहीं है, असली राजा वही है जिसे जनता से न्यूनतम संवाद करना पड़े उनके लिए काम के नाम‌ पर कुछ भी न किया जाए और एक बार किताब चाट के आजीवन भोग के अवसर उपलब्ध होते रहें और भरपूर पाॅवर रहे। यह सुविधा अगर न होती तो देश के युवाओं का इतना बड़ा हिस्सा समाज सुधार के ढोंग के नाम पर इस पद के पीछे नहीं लगा होता।

इसलिए आज भी किसी इलाके से कोई कलेक्टर बन जाता है तो उसे भगवान की तरह पूजा जाता है, क्योंकि उसी पद के सामने न्याय के लिए वर्षों तक हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाती आ रही जनता को भी पता होता है सबसे अधिक पाॅवर इसी के पास है। 

कडिंशनिंग उसी दिन से शुरू हो जाती है, जब एक लड़का पहले दिन कोचिंग ज्वाइन करता है। ठीक कुछ ऐसी मेरी भी कहानी रही। इंजीनियरिंग करने के बाद भारत के लाखों छात्रों की तरह मुझे भी सरकारी नौकर बनने की लाइन में धकेल दिया गया, मैंने भी प्रतिकार न किया, प्रतिकार करने जैसी समझ विकसित ही नहीं हुई थी तो क्या करता, सो उसी को सही मानते हुए प्रियजनों के कहे अनुसार रेस में लग गया, और सिविल सेवा के लिए कोचिंग ज्वाइन कर लिया। 

कोचिंग का पहला दिन था। पहले दिन से ही मेरी परीक्षा शुरू हो चुकी थी, विशिष्ट होने का बोध उसी दिन से हावी होने लगा था, ऐसा लगने लगा कि मैं अलग हूं, कुछ अलग करने जा रहा हूं, महान हूं आदि आदि। कूट-कूट कर महत्वाकांक्षा भर आई थी, पहले दिन से ही भीड़ से खुद को अलग करते हुए देखने लग गया था, कुछ कुछ ऐसा ही महसूस हुआ था। वैसा फिर दुबारा कभी जीवन में उतनी तीव्रता के साथ महसूस नहीं हुआ।

कुछ ऐसे ही सात दिन बीत गये, ऊपर लिखे गये भावों ने अपना विस्तार किया। इसी बीच एक दिन फिर कुछ कारणों से अपनी बाइक में घर जाना हुआ। अकेले जा रहा था, 3 घंटे का सफर था, सफर के दौरान जो जैसे भाव उस दिन मन में आए थे उसे जस का तस लिखने की एक अधकचरी कोशिश कर रहा हूं। हाईवे के दोनों ओर खेत, और मैं गाड़ी चलाते हुए तेजी से आगे बढ़ रहा हूं, उन खाली बंजर पड़े खेतों को देखकर ऐसा महसूस कर रहा हूं कि एक बार जिलाधीश बन जाऊं, एक झटके में इन खेतों को समतल कराकर बड़े खेत बना दूंगा, और कुछ उपयोग हेतु जमीन तैयार करूंगा, अन्य राज्यों की तरह बढ़िया बड़े बड़े समतल खेत होंगे, उन समतल बड़े बड़े जोत के लिए नहरों का जाल होगा। कटे हुए पेड़ देखे, पेड़ों की कमी देखी तो घने जंगल बना देने की चाह पैदा हुई। सूख चुके तालाब देखे, इन्हें देखकर खूब सारे बड़े-बड़े तालाब यूं एक झटके में बनवाने की ललक पैदा हो गई। लावारिस बच्चों को देख बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने हेतु अच्छे स्कूल और तमाम मूलभूत सुविधाएँ मुहैया करने के लिए काम करने की चाह पैदा हुई। उस दिन रास्ते में जहाँ जितनी मेरी नजर गई, जितने परिमाण में अव्यवस्था पीड़ा दिखी, उसे तुरंत एक झटके में बदल देने का पागलपन सवार हो गया था। इस पागलपन में उस दिन हिंसा का प्रवेश हुआ था या नहीं यह पुख्ता तौर पर आज दावा नहीं कर सकता, लेकिन ये मन के भीतर से प्रस्फुटित हुए भाव थे। एक सप्ताह तक कोचिंग जाने के बाद जो भीतर उथल पुथल हुई थी, उन सारे मनोभावों का यह सार था। 

ध्यान रहे कि इंजीनियरिंग करने के ठीक बाद अचानक से इस क्षेत्र में कदम रखने वाले मुझ औसत छात्र को यह नहीं पता था कि भारत के संविधान में अनुच्छेदों की संख्या कितनी है, कितने भाग हैं, अनुसूचियाँ हैं आदि। मुझे इस बात की भी जानकारी नहीं थी कि अर्थव्यवस्था में किस क्षेत्र का योगदान कितना प्रतिशत पढ़ाया जाना है। मुझे इस बात की भी जानकारी नहीं थी कि एक जिले में एक जिलाधीश के पास कितनी शक्तियाँ होती है। फिर भी मुझमें एक अजीब किस्म का आत्मविश्वास या यूं कहें कि विशेषज्ञता का ऐसा बोध घर कर गया था जो सब कुछ कर लेने की क्षमता अर्जित कर चुका था, जिसे बार-बार यह महसूस होने लगा था कि वह सब कुछ कर सकता है, वह तालाब भी बनवा सकता है, भले उसे मिट्टी पानी की बेसिक समझ भी न हो, वह जंगल भी बना सकता है, भले खुद जीवन में कभी एक पेड़ तक लगाने का सलीका न आया हो। जिसने कभी खेतों में पाँव न रखें हो, वह जोत बनाने के सपने देखता है। शिक्षा का क ख ग पता न हो फिर भी शिक्षा पर काम करने की महत्वाकांक्षा सर चढ़ कर बोल रही थी। कुछ नहीं पता होकर भी विशेषज्ञ हो जाने का ऐसा बोध पहली बार हुआ था, जानकारी और अनुभव की घोर कमी होने के बावजूद सब कुछ कितना आसान लगने लगा था। दुनिया मुट्ठी में जकड़ लेने जैसी ताकत महसूस होने लगी थी, सरल शब्दों में कहें तो एक किसी इलाके के राजा हो जाने वाले भाव उमड़ने लगे थे। इसका अर्थ यह है कि बिना पढ़े, बिना जाने, बिना व्यवस्था का हिस्सा बने हुए भी कितनी आसानी से महसूस किया जा सकता है कि एक जिलाधीश के पास कितनी अधिक शक्तियाँ होती हैं।

ऊपर लिखे पैराग्राफ में जिस विशेषज्ञता का बोध मुझमें हावी हो चुका था, वह आने वाले कुछ समय तक बना रहा। इस बीच हर दिन द्वंद की स्थिति पैदा होती रही, जो संविधान, जो समाजशास्त्र, जो दर्शन मैं किताबों में पढ़ता, मैंने देखा कि वास्तविक जीवन में सब कुछ उसके उलट ही हो रहा है। सिविल सेवा की इस रेस में दौड़ते हुए मुझे हर दिन यह महसूस होता रहा कि ये किताबें, ये परिभाषाएँ, ये आंकड़े, ये तमाम आदर्शवादी बातें इनका धरातल में अस्तित्व ना के बराबर है, पालन ही नहीं होता है, बस एक लिखो-फेंको पेन की तरह इस किताब ज्ञान का इस्तेमाल किया जाता है, फिर नौकरी लगने के बाद इसे उसी तरह छोड़ दिया जाता है, जैसे साँप अपनी केंचुली से खुद को अलग करता है। एक दूसरी कड़वी हकीकत यह है कि जिन किताबों को पढ़कर आगे एक पद तक जाने का रास्ता तैयार होता है, वे किताबें उनमें लिखी चीजें एकदम कूड़ा होती हैं, जिनसे सीखने के स्तर पर कुछ भी नहीं मिलता है, उल्टे व्यक्ति की अपनी संभावनाओं का ह्रास जरूर होता है। और तो और इस पूरी चयन प्रक्रिया में इतने लूपहोल्स होते हैं कि आप परत दर परत बस रटते हुए, झूठ बोलते हुए, प्रपंच करते हुए शीर्ष तक जा सकते हैं, क्योंकि आपके वास्तविक चरित्र का, आपकी क्षमताओं का मूल्यांकन यह परीक्षा इंच मात्र भी नहीं करती है।

जैसे उदाहरण के लिए इस परीक्षा में पूछे जा रहे इंटरव्यू का ही एक प्रश्न लेते हैं। पूछा जाता है - आप जिलाधीश क्यों बनना चाहते हैं? भारतीय परिप्रेक्ष्य में इसका सबसे स्पष्ट और सीधा जवाब क्या हो सकता है - "पद की हनक चाहिए, नाम और रूतबा चाहिए, जीवन भर के लिए सामाजिक आर्थिक सुरक्षा चाहिए।" लेकिन इंटरव्यू में जाने वाला क्या एक भी प्रतियोगी ऐसा जवाब देता है, वह नहीं देता है। वह उसी दिशा में चलता है, जिस गुलामी की दिशा में उसे पहले दिन से चलने कहा गया था जिस दिन से उसने कोचिंग ज्वाइन किया था या फिर अपनी तैयारी शुरू की थी। वह पूरी बेशर्मी के साथ झूठ बोलता है, और ऐसा करना वह कहाँ से सीखता है, वहीं से जिस दिन से वह इस परीक्षा की तैयारी कर रहा होता है, वह पहले दिन से यह दोगलापन अपने भीतर लेकर चल रहा होता है, इसलिए वह पूरी धूर्तता के साथ गोल मटोल जवाब देता है और उन सारे घुमावदार जवाबों का सार क्या होता है - " देश की सेवा करनी है। " देश सेवा के नाम पर इतना भयानक झूठ परोसा जाता है। 

यह सिर्फ इंटरव्यू की बात हो रही है, चयन प्रक्रिया के जितने भी स्तर हैं चाहे वह वस्तुनिष्ठ परीक्षा हो, लिखित परीक्षा हो, उनमें पूछे जा रहे सवाल हों या फिर चयन होने के बाद चयनितों की जो ट्रेनिंग की भी पूरी प्रक्रिया है। इन सभी चरणों में झूठ, दोगलापन, हिंसा, सामंती मानसिकता कूट कूट कर भरी होती है। एक चयनित को इन सभी चीजों के बारे में बहुत अच्छे से पता होता है, वह आँख का अंधा बनने का ढोंग करता है, यह ढोंग वह सिर्फ अधिकारी बनने के बाद ही नहीं करता बल्कि ऐसा वह बहुत पहले ही करना शुरू कर चुका होता है, जिस दिन वह इस अंधी रेस में पहली बार शामिल होता है।

भारत में जो भी छात्र सिविल सेवा की तैयारी में जाते हैं, मुझे लगता है कि अगर उनमें थोड़ी भी भीतर की ईमानदारी होगी तो उन्हें शुरूआती दिनों में ही विशिष्ट होने का यह बोध होने लगेगा। जो ईमानदार नहीं होते, असल में उन्हें भी यह बोध होता है, लेकिन उनके साथ ये सहूलियत रहती है कि वे इस भाव के साथ सहज हो जाते हैं, उन्हें ये सामान्य लगता है, वे इस खोखली विशेषज्ञता के भीतर छुपी हिंसा, सामंती मानसिकता, राज करने के भाव को देखकर भी अनदेखा करते हैं, इसी को ही जीवन जीने का तरीका समझने लगते हैं और एक दिन इस सढ़ चुकी व्यवस्था की तीमारदारी में ही अपना जीवन होम कर देते हैं।

एक प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी से जुड़े छात्र के लिए एक ऐसी परीक्षा जिसमें इतनी भरपूर मात्रा में राजसी सुविधाएँ मिलती हों, ऐसी परीक्षा की तैयारी करना और उस तैयारी को एक झटके में छोड़ देना इतना आसान नहीं होता है, बिल्कुल धारा के विपरित चलने जैसा है, इसलिए छात्र लंबे समय तक समय ऊर्जा धन सब कुछ लुटाकर लगे रहते हैं, क्योंकि एक बार कुछ हासिल हो गया तो सब कुछ वसूल हो जाना है। और यह सब इसलिए किया जाता है क्योंकि आज भी इस देश में सरकारी पद ही विशेषज्ञता का मानक होती है, भले आप कितने भी अयोग्य हों, धूर्त हों, कितने भी नकारा हों, अगर आपके पास पद है, सब कुछ जायज है, आप समाज की नजर में सम्मानीय हैं, पूजनीय हैं। 

आप अपने बचपन से लेकर आगे तक आपने जहाँ तक भी अपना जीवन जिया है, उसमें आप खुद ही मूल्यांकन करें कि एक जिले का जिलाधीश आपके जीवन में क्या महत्व रखता है? आप कितने बार अपने किसी काम के सिलसिले में एक जिले के जिलाधीश के पास जाते हैं? शायद एक बार भी नहीं। किसी कागज में दस्तखत कराने के अलावा या तीन तिकड़म वाले काम कराने के अलावा एक जिलाधीश का आपके जीवन में कोई खास महत्व नहीं होता है। झुण्ड में जाकर किसी सामाजिक विषय को लेकर शिकायत करना, ज्ञापन सौंपना, शादी का न्यौता देना, किसी समारोह में अतिथि बनाने के लिए निमंत्रण देने के अलावा एक जिलाधीश का आपके जीवन में और क्या महत्व है, आप खुद ही मूल्यांकन करें।

वास्तव में देखा जाए तो भारत जैसे देशों में जिलाधीश जैसे पदों की आवश्यकता ही नहीं है। जैसा ये ढांचा है, इसमें आप लोगों के लिए समाज के लिए इनकी जवाबदेही तय कर ही नहीं सकते। जो राजसी और सामंती तत्व इस पद के मूल में रचा बसा है, उसका समूल नाश किए बिना उसे जवाबदेह बनाया ही नहीं जा सकता है।‌ समूल नाश करने के बाद समाधान के रूप में यह हो कि अधिकारी के बदले सेवादार या सेवक कहा जाए, अलग-अलग विभागों के लिए विशेषज्ञता के आधार पर अलग-अलग सेवादार बनाएं जाए। जैसे जल विभाग में जल सेवक, विद्युत विभाग में विद्युत सेवक, स्वास्थ्य विभाग में स्वास्थ्य सेवक, शिक्षा विभाग में शिक्षा सेवक आदि। जब पदनुरूप सेवा करनी है तो सेवा का तत्व नाम से लेकर काम हर जगह परिलक्षित होना चाहिए, दिखना चाहिए, महसूस होना चाहिए।

अंत में चलते चलते एक सवाल के साथ अपनी बात को विराम देता हूं। जो छात्र प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करते हैं, उनमें से अधिकांश ऐसे होते हैं या लगभग सभी ऐसे होते हैं जिन्हें उनके परिवार या किसी परिजन के द्वारा इसके बारे में बताया जाता है, या फिर समाज के द्वारा सतत रूप से बनाए गये एक आभामंडल से वह प्रभावित होकर इस दिशा में कदम रखता है, वे छात्र एक बार ईमानदारी से खुद से सवाल करें कि वह जिस परिवार, जिस समाज में जन्म लेता है वह अमूमन उसे एक बड़ा अधिकारी या एक जिलाधीश ही क्यों बनाना चाहता है?

Friday, 7 May 2021

शोषक और शोषित -

स्वास्थ्य विभाग, पुलिस विभाग और ऐसे ही दो चार अन्य विभागों को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर सरकारी विभाग पिछले एक साल से कुछ खास काम नहीं कर रहे हैं या बिल्कुल काम पर नहीं है, लेकिन तनख्वाह पूरी मिल रही है। लेकिन अगर कायदे से देखा जाए तो उन्हें पूरी तनख्वाह नहीं मिलनी चाहिए। और अगर उन्हें इस विपदा के समय बिना काम के इतना बड़ा आर्थिक सहयोग मिल रहा है, तो भारत के आम लोगों को, हर एक तबके को मिलना चाहिए, एक रेहड़ी वाले से लेकर एक नौकरी खो चुके प्राइवेट नौकर और एक व्यापारी तक सबको आर्थिक मदद मिलनी चाहिए, देश के हर एक नागरिक को जीवन जीने लायक आर्थिक मदद मिलनी ही चाहिए। 

जिन्हें वास्तव में मदद की आवश्यकता है, बस उन्हें ही मदद नहीं मिल रही है, बल्कि उन्हें और दबाया कुचला जा रहा है। इन लोगों के लिए न कोई हेल्पलाइन है, न कोई बेड है, न कोई दवा है, न आक्सीजन सिलेंडर है, अस्तित्व ही इनका मालिक है। इनके लिए कोई फेसबुक पोस्ट में मदद की गुहार नहीं करता है, इनके लिए कोई दवा का जुगाड़ नहीं करता है। एक सोशल मीडिया में पोस्ट कर मदद जुगाड़ने वाला सोशल मीडिया तक चलाने की औकात नहीं रखने वाले की मदद कर ही नहीं सकता है, वह बस अपने आसपास के लोगों के लिए कुछ व्यवस्थाएँ कर सकता है, और वीभत्स रूप में कहें तो अपने रसूख अपने पहचान का इस्तेमाल कर पहले से मौजूद सुविधाओं पर कब्जा जमा सकता है।

अगर आज भारत के आम लोगों को फ्री में वैक्सीन नहीं मिल पा रहा है, उसे न्यूनतम स्वास्थ्य सुविधाएँ नहीं मिल पा रही है, उसे मरने के लिए छोड़ दिया गया है, तो इसके लिए कोई प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री दोषी नहीं है, दोषी निचले स्तर तक का मेडिकल आफिसर है, तहसील से केन्द्र स्तर तक बैठे हुए सरकारी नौकर हैं, ये पूरी की पूरी नौकरशाही है, देश यही चलाते हैं, सिस्टम सिर्फ किसी नेता से नहीं बल्कि इनसे मिलकर बनता है। और भारत का आम आदमी इस सिस्टम को ठीक करने के बजाय इसी का हिस्सा बनने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाता है, ताकि सिस्टम की मार उसे कम से कम झेलनी पड़े।

अंबानी अडानी जैसे रक्तपिपासु मानसिकता वाले छोटे छोटे प्रोटोटाइप गाँव से लेकर मेगा सिटी तक हर जगह हैं। एक अकेला आदमी किसी देश का बेड़ा गर्क कर ही नहीं सकता है, सबके सहयोग की आवश्यकता होती है, उस मानसिकता वाली पूरी फौज चाहिए होती है, यही तो सिस्टम है। 

जो इस सिस्टम का हिस्सा है वह शोषक है, और जो सिस्टम का हिस्सा नहीं है वह शोषित है। 


Wednesday, 5 May 2021

लाॅकडाउन बनाम आत्मनिर्भर भारत

A - ना देव मिला ना ब्राम्हण।
B - ये मुहावरा सुनाने के लिए मैं ही मिला तुम्हें?
A - हम अपना हाल बता रहे हैं।
B - तो हाल बताओ, आउटडेटेड मुहावरे ना गढ़ो।
A - इस पापी लाॅकडाउन का सत्यानाश हो।
B - क्यों गरम होते हो, सबके भले के लिए है।
A - तो कर दे संपूर्ण लाॅकडाउन, काहे क्वार्टर मिनी हाफ फुल करते हैं ये।
B - अब फिर क्या किया।
A - कृषि केन्द्र खुलेंगे, लेथ मशीन वेल्डिंग वाली दुकानें बंद।
B - आत्मनिर्भर भारत का नारा दिये थे प्रधानमंत्री थी, इसीलिए था।
A - कह रहे पेट्रोल डीजल मिलेगा लेकिन गाड़ी की रिपेयरिंग वाली दुकानें बंद।
B - तो खुद रिपेयर करो, आत्मनिर्भर बनो।
A - मोहल्ले वाले दुकान खोलेंगे, सड़क वाले होम डिलीवरी करेंगे।
B - तो सड़क से मोहल्ले तक का पुल तैयार करो।
A - ये सब वैसा ही हुआ कि एक पैर काट दो और ओलंपिक दौड़ने को कहो।
B - तो दूसरा पैर लगवा के दौड़े इंसान, जो आत्मनिर्भर होगा वो दौड़ लेगा।
A - नहीं, एक ही पैर से दौड़ेंगे न, खबरें बनेगी अखबारों में।
B - अच्छा यही कि एक पैर से दौड़ कर इतिहास रच दिया।
A - नहीं, एक पैर से दौड़ने के कारण वह पैर भी खो दिया।
B - ऐसे ना कहो प्यारे, सकारात्मक रहो। 
A - हाँ हाँ, आत्मनिर्भर के साथ अब सकारात्मक भी हो जाता हूं।
B - बढ़िया, अब तुम सिस्टम के मुताबिक जीने लायक हो चुके हो।

Monday, 3 May 2021

भारत की वैक्सीन के प्रोडक्शन में कुछ तो गड़बड़ है -

पिछले एक दो महीने में पूरे भारत में जमकर वैक्सीनेशन हुआ है, जिन लोगों का वैक्सीनेशन हुआ है, भले उनमें से 90% लोगों को मामूली सर्दी बुखार हुआ हो, या कुछ भी न हुआ हो, लेकिन ये लोग जमकर अन्य लोगों के संपर्क में आए हैं। पूरे भारत भर में ये चीज हुई है। 

वैक्सीन पर शक नहीं है, सरकार की नियत पर भी शक नहीं है, लेकिन कुछ तो प्रोडक्शन में गड़बड़ हो रहा होगा तभी बड़े स्तर पर वैक्सीन लेने के तुरंत बाद बहुत लोगों को जो स्वस्थ थे, उन्हें गंभीर बीमारियाँ हुई है, कई कई गाँवों में दर्जनों लोग निपट चुके हैं, आपको मानना है मानिए, नहीं मानना है मत मानिए, जिनका अपना इस दुनिया में नहीं है, उन्हें हकीकत पता है।

अभी एक महीने में अचानक से कोरोना का सेकेण्ड वेव आ गया, इस बात में भी कोई शक नहीं है, लेकिन अचानक से कश्मीर से कन्याकुमारी, गुजरात से बंगाल हर जगह लोगों का आक्सीजन लेवल डाउन हो जाना और तड़प-तड़प कर मर जाना, जबकि लोगों की आवाजाही एक जगह से दूसरी जगह वैसी नहीं रही है जैसे सामान्य दिनों में होती थी, फिर भी पूरे देश में सेकेण्ड वेव के बाद एक ही तरीके से लोगों में संक्रमण का अचानक फैल जाना वो भी एक दो सप्ताह में ही और सीधे मृत्यु। जब से वैक्सीनेशन शुरू हुआ उसके बाद से ही ये अचानक से सेकेण्ड वेव वाली चीजें होनी शुरू हो गई, इससे पहले इतनी मेडिकल एमरजेंसी वाली चीज नहीं थी। और यह पूरी दुनिया में सिर्फ भारत में ही हो रहा है, बहुत लोग मर रहे हैं, बहुत ज्यादा लोग मर रहे हैं, जितना सरकारी डाटा है उसको 30 या 40 से गुणा कर लीजिए। तब भी शायद वास्तविकता हाथ नहीं आएगी। 

कोरोना का सेकेण्ड वेव आया, और एक दो हफ्ते में ही पूरे देश के अलग-अलग कोने से अधिकतर लोग आक्सीजन और जीवनरक्षक दवाईयों के लिए हाँफने लगे, इस बात पर यकीन करना मुश्किल जान पड़ता है। एक ओर जहाँ मास लेवल पर पूरे देश में वैक्सीनेशन की गई, क्या पता उन लोगों से कोरोना का ऐसा म्यूटेंट फैला हो, जो सीधे फेफड़ा डैमेज करता हो। कोरोना अपने आप को लगातार बदल रहा है, तो इस बात की भी पूरी संभावना है कि जिसके शरीर में वैक्सीन गया है, उस शरीर में भी एक नये म्यूटेंट के लिए जगह तैयार कर रहा हो। ये सिर्फ एक कयास भर है कि अगर ऐसा हुआ है तो यह भयावह है, पूरी दुनिया में सिर्फ हम ही आए दिन इतने लोगों की मौत देख रहे हैं, दुनिया के और किसी देश में वैक्सीन के इतने साइड इफेक्ट देखने को नहीं मिले हैं, कुछ तो प्रोडक्शन में गड़बड़ी है।