मैं - आपके पैर को क्या हुआ है?
मौसी - ये पैर टूटा हुआ है मेरा।
मैं - कैसे टूट गया?
मौसी - दारू पीकर गिर गई थी और क्या?
मैं - क्यों पीते हो दारू ?
मौसी - क्यों क्या, बूढ़ी हूं, क्यों नहीं पियूंगी।
मैं - अच्छा बूढ़ी हो तो ऐसे दारू पियोगी क्या?
मौसी - हां , तो, हम देहुरी लोग(जनजाति) हैं, क्यों नहीं पियेंगे दारू।
मैं - बच्चे भी यही सीखेंगे फिर तो।
मौसी - ये लोग तो सोना हैं मेरे सोना, बड़े होकर ही पियेंगे।
मैं - अच्छा
मौसी( हंसते हुए) - हां तो इतनी दूर से आए हो, दस रूपए देकर जाना, ठीक है
मैं - क्या करोगे दस रूपए का?
मौसी - थोड़ा दारू पियूंगी।
मैं - अरे, नहीं दूंगा मैं, दारू के लिए बिल्कुल नहीं दूंगा
मौसी ( हंसते हुए) - दारू पीके बढ़िया मरूंगी रे।
मैं - अरे क्यों मरोगे दारू पीके?
मौसी - हम देहुरी लोग हैं, कितना ही और जियेंगे, ऐसे ही तो जाना है,
दस रूपए दे के जाना, हां....
मैं - खाने के लिए दूंगा, दारू के लिए नहीं दूंगा,
मौसी(मुस्कुराते हुए) - दारू थोड़ा सा पियूंगी, बढ़िया लगेगा, दे देना दस रूपए , देकर ही जाना, ठीक है।
मैं - इसी दारू की वजह से पैर टूटा है।
मौसी - नहीं वो तो फिसल गई थी।
मैं - अभी कहा था, दारू पीकर गिरी थी।
मौसी - नहीं फिसल गई थी, आओ पखाल(पेज) खा लेना हमारे यहाँ, हम देहुरी लोग हैं, दस रूपए देकर ही जाना बेटा।
मैं - ठीक है लेकिन कुछ खा लेना।
मौसी ( बार-बार दुहराते हुए) - हम देहुरी लोग हैं।
और फिर मैंने जाते-जाते उन्हें कुछ रूपए दे दिए। देने में शर्मिंदगी महसूस हो रही थी, लेकिन क्या ही करें, हम भी तो इसी समाज के हैं। उनमें सबसे अलग चीज यह रही कि उन्होंने इतने प्रेमभाव से मुझसे रूपए मांगा कि उनके बोलने में लेशमात्र भी माँगने का भाव न था। इसलिए मैं बारंबार उनसे उनके बारे में पूछता रहा, लम्बी बातचीत की, तब पता चला कि देहुरी जनजाति जिन्हें खड़िया जनजाति भी कहा जाता, उनकी आर्थिक स्थिति की बात करें तो वे संथाली जनजाति से भी और नीचे है।
मौसी - ये पैर टूटा हुआ है मेरा।
मैं - कैसे टूट गया?
मौसी - दारू पीकर गिर गई थी और क्या?
मैं - क्यों पीते हो दारू ?
मौसी - क्यों क्या, बूढ़ी हूं, क्यों नहीं पियूंगी।
मैं - अच्छा बूढ़ी हो तो ऐसे दारू पियोगी क्या?
मौसी - हां , तो, हम देहुरी लोग(जनजाति) हैं, क्यों नहीं पियेंगे दारू।
मैं - बच्चे भी यही सीखेंगे फिर तो।
मौसी - ये लोग तो सोना हैं मेरे सोना, बड़े होकर ही पियेंगे।
मैं - अच्छा
मौसी( हंसते हुए) - हां तो इतनी दूर से आए हो, दस रूपए देकर जाना, ठीक है
मैं - क्या करोगे दस रूपए का?
मौसी - थोड़ा दारू पियूंगी।
मैं - अरे, नहीं दूंगा मैं, दारू के लिए बिल्कुल नहीं दूंगा
मौसी ( हंसते हुए) - दारू पीके बढ़िया मरूंगी रे।
मैं - अरे क्यों मरोगे दारू पीके?
मौसी - हम देहुरी लोग हैं, कितना ही और जियेंगे, ऐसे ही तो जाना है,
दस रूपए दे के जाना, हां....
मैं - खाने के लिए दूंगा, दारू के लिए नहीं दूंगा,
मौसी(मुस्कुराते हुए) - दारू थोड़ा सा पियूंगी, बढ़िया लगेगा, दे देना दस रूपए , देकर ही जाना, ठीक है।
मैं - इसी दारू की वजह से पैर टूटा है।
मौसी - नहीं वो तो फिसल गई थी।
मैं - अभी कहा था, दारू पीकर गिरी थी।
मौसी - नहीं फिसल गई थी, आओ पखाल(पेज) खा लेना हमारे यहाँ, हम देहुरी लोग हैं, दस रूपए देकर ही जाना बेटा।
मैं - ठीक है लेकिन कुछ खा लेना।
मौसी ( बार-बार दुहराते हुए) - हम देहुरी लोग हैं।
और फिर मैंने जाते-जाते उन्हें कुछ रूपए दे दिए। देने में शर्मिंदगी महसूस हो रही थी, लेकिन क्या ही करें, हम भी तो इसी समाज के हैं। उनमें सबसे अलग चीज यह रही कि उन्होंने इतने प्रेमभाव से मुझसे रूपए मांगा कि उनके बोलने में लेशमात्र भी माँगने का भाव न था। इसलिए मैं बारंबार उनसे उनके बारे में पूछता रहा, लम्बी बातचीत की, तब पता चला कि देहुरी जनजाति जिन्हें खड़िया जनजाति भी कहा जाता, उनकी आर्थिक स्थिति की बात करें तो वे संथाली जनजाति से भी और नीचे है।
Carry on brother
ReplyDeletethanks man.
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