आज के सुविधाभोगी जीवनशैली वाले समय में कोई भी युवा यह नहीं चाहता है कि वह धूमधाम से शादी करे, जबरन दिखावे के लिए, बस लोगों को और समाज को दिखाने के लिए लाखों रूपए उड़ाए। क्योंकि वह भी इस कड़वी सच्चाई को महसूस कर रहा होता है कि आजकल शादियाँ सिर्फ दोपहर/रात का भोजन फलाँ के घर जाना है, इसी मुख्य बात पर आकर रूक गई है। जबकि पहले शादियों में एक सामाजिक मेलजोल की प्रक्रिया प्रमुखता से विद्यमान थी, रिश्तेदार कई-कई दिन पहले आकर साथ रहते, मिल-जुलकर पकवान बनाते, सुख:दुख तो बाँटते ही साथ ही अपने-अपने हिस्से का काम बाँट लेते थे, संवाद के लिए जगह होती थी, सप्ताह क्या लगभग आधे महीने तक उत्सव जैसा माहौल रहता था।
वर्तमान समय में युवा खर्चीली शादी की चाह न रखते हुए भी आखिरकार घूम फिरके वह उसी फाॅर्मूले में शादी करता है, जिस फाॅर्मूले पर पूरा समाज चल रहा है। असल में वह जो चाहता है, वह चाह कर भी कर नहीं पाता है, समाज से लड़ नहीं पाता है, कभी उसके सामने समाज और सामाजिक प्रथाओं, परंपराओं आदि का डर सामने आता है, तो कभी माता-पिता और परिजनों का चेहरा सामने आ जाता है। वह इन सबके खिलाफ अपने भीतर एक जिद पैदा नहीं कर पाता है, वह अपने भीतर जन्मे नवाचार रूपी अंकुर को जीवित नहीं रख पाता है, वह बस सोचता रह जाता है, वह यह भी सोचता है आखिर क्यों अपना बवाल काटा जाए, जैसा लंबे समय से चला आ रहा है, आखिर कुछ तो उसमें अच्छाइयाँ होंगी ही इसलिए चलने देते हैं, कुछ इस तरह वह आँखें मूंद लेता है, तमाम वर्जनाओं, अप्रासंगिक हो चुकी प्रथाओं से मुँह मोड़ लेता है। वैसे भी जहाँ तक बनी बनाई सामाजिक प्रथाओं के विपरित जाकर कुछ कर गुजरने की बात आती है, वहाँ एक अलग ही किस्म के आंतरिक आंदोलन की दरकार होती है, जो सबसे पहले व्यक्ति को स्वयं अपने भीतर से शुरू करनी होती है, फिर कहीं जाकर यह हमारे घर के चौखट तक पहुंचती है, वहाँ यह हलचल पैदा करती है, उसके बाद कहीं जाकर समाज आता है, सामाजिक नियम कानून आदि आते हैं, और जब यह प्रक्रिया पूरी होती है, तब कहीं जाकर अपनी मर्जी के मुताबिक उन्मुक्त होकर जीवन जीना आसान हो पाता है।
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