Day 1 -
हमसफर एक्सप्रेस में हूं। जब से चढ़ा हूं तब से खामोश हूं और यही हाल ट्रेन का भी है, मैं इसलिए भी खामोश हूं क्योंकि इस ट्रेन का रूट ऐसा है कि दक्षिण भारत की तीन अलग-अलग भाषाओं के लोगों से ये ट्रेन समान रूप से भरा हुआ है, समझ नहीं बन पा रही कि किस भाषा पर फोकस किया जाए, खैर, राहत की बात यह है कि आसपास कोई बच्चा नहीं है। मेरी प्रार्थना कितने सालों बाद सफल हुई है, अन्यथा नींद तोड़ने के लिए हमेशा स्लीपर से लेकर एसी हर जगह कुछ बच्चे आसपास के बर्थ में मिल ही जाते हैं।
ट्रेन में एक लड़का सामने की बर्थ में है, जो हिन्दी बोल रहा है, जब से चढ़ा है, परेशान सा है, इधर उधर फोन कर रहा है, कोई भी उसका चेहरा देखकर यह बता सकता है कि बहुत ज्यादा चिढ़ा हुआ है, किससे? यह पता नहीं, लेकिन चिढ़ा हुआ है। अभी खाना खाने के लिए जैसे ही मैंने ब्लू लाइट आॅन की तो उसकी "कौन है बे" सुनकर यह बात और प्रबल हुई कि बंदा परेशान है। वो तो अच्छा हुआ कि किसी और ने लाइट आॅन कर के खाना खाओ कह दिया वरना उस लड़के का "बे" सुनकर मेरे भीतर का इंजीनियर जाग ही गया था। असल में यह लड़का जब से ट्रेन में चढ़ा है तब से कुछ परेशान सा है, उसकी शायद बड़ी बहन इसे छोड़ने आई थी, और जाते हुए उसने अपने भाई से कहा था - कोई परेशानी नहीं है, अच्छे से जाना, ख्याल रखना। लड़के ने फोन पर जितनी बातें की, उसे सुनकर यह समझ आया कि लड़के ने पंद्रह हजार रूपए की नौकरी छोड़ दी है, और बिना औपचारिकता निभाए ही दबंग बहादुर की तरह लात मार के भाग आया है और अभी सब छोड़छाड़ के अपने घर को जा रहा है। वह अपने कुछ दोस्तों से बार-बार फोन कर यह कह रहा था कि भक साला, नहीं जमा अपने को, कुछ होगा तो नहीं। उसने एक बात कही कि मेरा अकाउंट का पैसा तो नहीं कटेगा न, अकाउंट हैक तो नहीं कर लेंगे आदि?? मैं यह सोच रहा था जिस पैसे को, मोह को, इस चकाचौंध को, इस अंधाधुंध भागते शहर के जीवन को एक झटके में जिसने त्यागकर इतना बड़ा काम कर दिया है वह अब अकाउंट की चिंता क्यों ही कर रहा है। भारत का समाज जैसा है, उस लिहाज से लड़के की पैसे वाली चिंता भी वाजिब हुई बल।
सामने की बर्थ में एक दादी है, इन्होंने ही मुझसे टूटी फूटी अंग्रेजी में जिद करते हुए कहा कि बड़ी वाली लाइट आॅन करके खाना खाओ, कम लाइट में खाना नहीं खाना, मैंने उनकी बात नजर अंदाज करते हुए खाना निपटा लिया है। दादी अकेली सफर कर रही हैं, मेरी तरह वो भी अभी फोन में टुकुर-टुकुर कर रही हैं, लेकिन फर्क इतना है कि वह अपने बच्चों को फोन करके लाउडस्पीकर में एक दो मिनट बात करके खुश हो रही हैं और मैं यहाँ फेसबुक पोस्ट लिख रहा हूं। दादी को शायद उनका नाती छोड़ने आया था, वह जब छोड़कर जा रहा था, तो दादी उसके हाथ को जोर से पकड़कर उसके जेब को खोलते हुए दो हजार का नोट डालने लगी, लेकिन नाती की पकड़ मजबूत थी, उसने हाथ छुड़ा लिया और पैसे लेने से मना कर दिया। दादी से जब मैंने पूछा कि खाना खाया कि नहीं तो उन्होंने कहा कि खाना रखा हुआ है, पर भूख नहीं है।
Day - 2
वह मेरे उठने का इंतजार कर रही थी, वैसे मैं उठ गया था लेकिन अभी भी अपनी सीट पर लेटा हुआ था। दादी ने कहा - बेटा, साथ में रोटी खा लेना। मैंने कह दिया कि मैंने अभी तक ब्रश नहीं किया है, दादी ने रोटी साइड में रख दिया मतलब अब वह तब रोटी खाएँगी जब मैं ब्रश करके आऊंगा। दादी ने मुझे दो रोटियाँ खाने को दी, और अपने लिए दो रोटियाँ रख ली। आगे उन्होंने कहा - चावल भी है, अगर खाना है तो। असल में ये रात का बचा हुआ खाना ही था, दादी इसका अधिक से अधिक सदुपयोग करना चाहती थी ताकि फेंकना ना पड़े।
दादी तेलुगु है, विशाखापट्टनम जा रही हैं, उनकी मुस्कुराहट ऐसी मानो देखकर ऐसा लगे जैसे सामने एक शांत समुद्र है, और कोई तट पर बैठकर उन्हें देख रहा हो और वे मुस्कुरा रही हों। इतनी करूणा, इतनी विनम्रता, इतनी निश्छलता, जीवनरूपी विस्तार को विभाजित करती उनकी चेहरे की रेखाएँ। ऐसा नहीं है कि वह खाने के लिए सिर्फ मुझे पूछ रही थी, आसपास के लोगों को भी उन्होंने प्रेमभाव से पूछा लेकिन भारत में जातिवाद अविश्वास लोगों के दिमाग में इतना घर कर गया है कि किसी अनजान के खाने के प्रस्ताव में प्रेम और अपनत्व खोजना अब सबके बूते की बात नहीं रह गई है। दादी ने मुझे दो रोटियां देकर कहा कि पहले तुम खा लो, फिर मैं खाऊँगी, मैं खाता रहा, वह देखती रही। और मेरे खाने के बाद उन्होंने भी खा लिया। ट्रेन में सब लोगों के बीच भोजन करना हमेशा से बड़ा मुश्किल होता है, इस मामले में मेरा स्वभाव कुछ हद तक नेपोलियन जैसा रहा है, कहा जाता है कि नेपोलियन हमेशा अकेले खाना खाता था, वह इसलिए क्योंकि उसे ढंग से खाना खाने नहीं आता था। मेरी समस्या दूसरी है, कोई देखता रहे तो निवाला अंदर नहीं जा पाता है।
हम जैसी सोच रखते हैं, जैसा जीवन जीते हैं, शनै: शनै: हमारे चेहरे की भाव-भंगिमा भी उसी अनुरूप ढलने लगती है। वह लड़का जो नौकरी छोड़ अपने घर को जा रहा था, अभी तक सोया हुआ है, विश्रामावस्था में भी उसके चेहरे के भाव जस के तस हैं। शायद उसे ऐसी और लंबी नींद चाहिए ताकि उसका आत्मविश्वास दुबारा लौट आए और वह जीवन रूपी सागर में फिर से डुबकियाँ लगाने के लिए तैयार हो जाए।
कर्नाटक के अलग-अलग इलाकों में जाकर लगभग सब तरीके का स्वाद चख लिया है, शायद ही कुछ छूटा हो और इस बात में कोई शक नहीं कि आंध्रप्रदेश का खाना, स्पाइस इसके सामने कर्नाटक कहीं नहीं ठहरता है। आंध्र प्रांत की बात ही कुछ और है। दादी की दी हुई स्वादिष्ट सब्जी और रोटी खाकर ट्रेन का वो सफर याद आ गया जब 25 रूपए में 1200 किलोमीटर का लंबा सफर किया था, तब जो दादी मिलीं थी उन्होंने जमकर मिठाईयाँ खिलाई थी। कुछ लोग सवाल करते हैं कि ऐसे लोग मुझे ही क्यों मिलते हैं, अब इस पर क्या ही कहा जाए, ऐसे लोग सबको मिलते हैं, देखने-देखने का फर्क है।
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