Friday, 28 February 2020

Tribal Fest BACA 2020 | Brahman village | Mayurbhanj | Odisha

Tribal culture is something from which we can learn and assimilate a lot of things. Here it comes, The ongoing tribal fest in a small beautiful village called brahman surrounded by full of sal tree hills in the Mayurbhanj district of odidha. This annual tribal fest is a amalgamation of various cultural activities like; quiz competition of school kids, sports activities, archery by tribal men and women and cockfight. A part from this the major attraction of these whole event is the cultural dance performed by various dance groups of different tribal communities. Such kind of event helps promoting the rich deep rooted culture of tribal community.












Glimpse of Rich tribal culture

मुझे बार-बार ये महसूस होता है कि आदिवासी समाज मुख्यधारा के सभ्य कहे जाने वाले समाज से कहीं अधिक आगे है।

उदाहरण 1 -
एक गाँव में मासिक धर्म संबंधी चर्चा चल रही थी। उसी दौरान एक महिला ने ऊंची आवाज में बिना किसी संकोच के मुझसे पूछा - ये सूती कपड़ों का पैड जो आप बता रहे हैं, इसे हमें चड्डी के अंदर फँसा के पहनना है ना?
उनका सवाल सुनकर थोड़ी सी हैरानी के साथ मुझे बेहद खुशी भी हुई, मासिक धर्म पर और खुलकर बात करने के लिए मुझे उस महिला से सबल मिला। 

उदाहरण 2 -
आदिवासी गाँव में भ्रमण के दौरान एक महिला से बातचीत हुई, वह मेरे सामने अपने स्तनों को खोलकर निस्संकोच अपने बच्चे को दूध पिला रही थी, उनकी सहजता ने मुझे आश्चर्यचकित कर दिया। मैं उस समय जानबूझकर थोड़ा असहज हुआ फिर उन्होंने अपने स्तनों को कपड़ों से थोड़ा सा ढंक लिया।
मन‌ में एक सवाल आ रहा था कि क्या मुख्यधारा के माॅर्डन कहे जाने समाज में इतना खुलापन है, इतनी सहजता है?

वास्तव में देखा जाए तो आज भी आदिवासी समाज शहरी समाज से कहीं आगे है चाहे बात जीवन मूल्यों की हो, लिंगानुपात की हो, समानता, बंधुता आदि मानवीय मूल्यों की हो, स्त्रियों के सम्मान की बात हो, इन सब में आदिवासी समाज कहीं अधिक समृध्द और परिष्कृत समाज मालूम होता है।







Wednesday, 26 February 2020

पत्थरकारिता

A - रोड चाहिए रोड?
B - नहीं।
A - बिजली चाहिए बिजली?
B - पता नहीं।
A - पक्का मकान चाहिए?
B - घर तो है वैसे..
A - टाॅवर, टाॅवर चाहिए क्या?
B - ना हो तो भी चलेगा।
A - अरे ऐसे कैसे, कुछ तो चाहिए होगा..
B - नहीं काम चल जा रहा, सब ठीक ही है।
A - लेकिन कुछ तो कमियाँ, कुछ जरूरतें तो होंगी ही।
B - सबकी होती हैं।
A - जाहिर है, फिर आपकी भी होंगी..
B - वो तो है, वैसे एक चीज की बड़ी जरूरत है हमें..
A - जी बताइए..
B - आप दे पाएंगे न?
A - पहले आप बताइए तो सही..
B - एक मच्छरदानी की जरूरत है, रात को न इधर मच्छर बहुत काटते हैं।
A - ....



Saturday, 22 February 2020

हम‌ देहुरी लोग हैं

मैं - आपके पैर को क्या हुआ है?
मौसी - ये पैर टूटा हुआ है मेरा।
मैं - कैसे टूट गया?
मौसी - दारू पीकर गिर गई थी और क्या?
मैं - क्यों पीते हो दारू ?
मौसी - क्यों क्या, बूढ़ी हूं, क्यों नहीं पियूंगी।
मैं - अच्छा बूढ़ी हो तो ऐसे दारू पियोगी क्या?
मौसी - हां , तो, हम देहुरी लोग(जनजाति) हैं, क्यों नहीं पियेंगे दारू।
मैं - बच्चे भी यही सीखेंगे फिर तो।
मौसी - ये लोग तो सोना हैं मेरे सोना, बड़े होकर ही पियेंगे।
मैं - अच्छा
मौसी( हंसते हुए) - हां तो इतनी दूर से आए हो, दस रूपए देकर जाना, ठीक है
मैं - क्या करोगे दस रूपए का?
मौसी - थोड़ा दारू पियूंगी।
मैं - अरे, नहीं दूंगा मैं, दारू के लिए बिल्कुल नहीं दूंगा
मौसी ( हंसते हुए) - दारू पीके बढ़िया मरूंगी रे।
मैं - अरे क्यों मरोगे दारू पीके?
मौसी - हम देहुरी लोग हैं, कितना ही और जियेंगे, ऐसे ही तो जाना है,
दस रूपए दे के जाना, हां....
मैं - खाने के लिए दूंगा, दारू के लिए नहीं दूंगा,
मौसी(मुस्कुराते हुए) - दारू थोड़ा सा पियूंगी, बढ़िया लगेगा, दे देना दस रूपए , देकर ही जाना, ठीक है।
मैं - इसी दारू की वजह से पैर टूटा है।
मौसी - नहीं वो तो फिसल गई थी।
मैं - अभी कहा था, दारू पीकर गिरी थी।
मौसी - नहीं फिसल गई थी, आओ पखाल(पेज) खा लेना हमारे यहाँ, हम देहुरी लोग हैं, दस रूपए देकर ही जाना बेटा।
मैं - ठीक है लेकिन कुछ खा लेना।
मौसी ( बार-बार दुहराते हुए) - हम देहुरी लोग हैं।

और फिर मैंने जाते-जाते उन्हें कुछ रूपए दे दिए। देने में शर्मिंदगी महसूस हो रही थी, लेकिन क्या ही करें, हम भी तो इसी समाज के हैं। उनमें सबसे अलग चीज यह रही कि उन्होंने इतने प्रेमभाव से मुझसे रूपए मांगा कि उनके बोलने में लेशमात्र भी माँगने का भाव न था। इसलिए मैं बारंबार उनसे उनके बारे में पूछता रहा, लम्बी बातचीत की, तब पता चला कि देहुरी जनजाति जिन्हें खड़िया जनजाति भी कहा जाता, उनकी आर्थिक स्थिति की बात करें तो वे संथाली जनजाति से भी और नीचे है।



Tuesday, 18 February 2020

Bangalore to Bhubaneswar via Hamsafar Express


Day 1 -

हमसफर एक्सप्रेस में हूं। जब से चढ़ा हूं तब से खामोश हूं और यही हाल ट्रेन का भी है, मैं इसलिए भी खामोश हूं क्योंकि इस ट्रेन का रूट ऐसा है कि दक्षिण भारत की तीन अलग-अलग भाषाओं के लोगों से ये ट्रेन समान रूप से भरा हुआ है, समझ नहीं बन पा रही कि किस भाषा पर फोकस किया जाए, खैर, राहत की बात यह है कि आसपास कोई बच्चा नहीं है। मेरी प्रार्थना कितने सालों बाद सफल हुई है, अन्यथा नींद तोड़ने के लिए हमेशा स्लीपर से लेकर एसी हर जगह कुछ बच्चे आसपास के बर्थ में मिल ही जाते हैं। 

ट्रेन में एक लड़का सामने की बर्थ में है, जो हिन्दी बोल रहा है, जब से चढ़ा है, परेशान सा है, इधर उधर फोन कर रहा है, कोई भी उसका चेहरा देखकर यह बता सकता है कि बहुत ज्यादा चिढ़ा हुआ है, किससे? यह पता नहीं, लेकिन चिढ़ा हुआ है। अभी खाना खाने के लिए जैसे ही मैंने ब्लू लाइट आॅन की तो उसकी "कौन है बे" सुनकर यह बात और प्रबल हुई कि बंदा परेशान है। वो तो अच्छा हुआ कि किसी और ने लाइट आॅन कर के खाना खाओ कह दिया वरना उस लड़के का "बे" सुनकर मेरे भीतर का इंजीनियर जाग ही गया था। असल में यह लड़का जब से ट्रेन में चढ़ा है तब से कुछ परेशान सा है, उसकी शायद बड़ी बहन इसे छोड़ने आई थी, और जाते हुए उसने अपने भाई से कहा था - कोई परेशानी नहीं है, अच्छे से जाना, ख्याल रखना। लड़के ने फोन पर जितनी बातें की, उसे सुनकर यह समझ आया कि लड़के ने पंद्रह हजार रूपए की नौकरी छोड़ दी है, और बिना औपचारिकता निभाए ही दबंग बहादुर की तरह लात मार के भाग आया है और अभी सब छोड़छाड़ के अपने घर को जा रहा है। वह अपने कुछ दोस्तों से बार-बार फोन कर यह कह रहा था कि भक साला, नहीं जमा अपने को, कुछ होगा तो नहीं। उसने एक बात कही कि मेरा अकाउंट का पैसा तो नहीं कटेगा न, अकाउंट हैक तो नहीं कर लेंगे आदि?? मैं यह सोच रहा था जिस पैसे को, मोह को, इस चकाचौंध को, इस अंधाधुंध भागते शहर के जीवन को एक झटके में जिसने त्यागकर इतना बड़ा काम कर दिया है वह अब अकाउंट की चिंता क्यों ही कर रहा है। भारत का समाज जैसा है, उस लिहाज से लड़के की पैसे वाली चिंता भी वाजिब हुई बल।

सामने की बर्थ में एक दादी है, इन्होंने ही मुझसे टूटी फूटी अंग्रेजी में जिद करते हुए कहा कि बड़ी वाली लाइट आॅन करके खाना खाओ, कम लाइट में खाना नहीं खाना, मैंने उनकी बात नजर अंदाज करते हुए खाना निपटा लिया है। दादी अकेली सफर कर रही हैं, मेरी तरह वो भी अभी फोन में टुकुर-टुकुर कर रही हैं, लेकिन फर्क इतना है कि वह अपने बच्चों को फोन करके लाउडस्पीकर में एक‌ दो मिनट बात करके खुश हो रही हैं और मैं यहाँ फेसबुक पोस्ट लिख रहा हूं। दादी को शायद उनका नाती छोड़ने आया था, वह जब छोड़कर जा रहा था, तो दादी उसके हाथ को जोर से पकड़कर उसके जेब को खोलते हुए दो हजार का नोट डालने लगी, लेकिन नाती की पकड़ मजबूत थी, उसने हाथ छुड़ा लिया और पैसे लेने से मना कर दिया। दादी से जब मैंने पूछा कि खाना खाया कि नहीं तो उन्होंने कहा कि खाना रखा हुआ है, पर भूख नहीं है।



Day - 2

वह मेरे उठने का इंतजार कर रही थी, वैसे मैं उठ गया था लेकिन अभी भी अपनी सीट पर लेटा हुआ था। दादी ने कहा - बेटा, साथ में रोटी खा लेना। मैंने कह दिया कि मैंने अभी तक ब्रश नहीं किया है, दादी ने रोटी साइड में रख दिया मतलब अब वह तब रोटी खाएँगी जब मैं ब्रश करके आऊंगा। दादी ने मुझे दो रोटियाँ खाने को दी, और अपने लिए दो रोटियाँ रख ली। आगे उन्होंने कहा - चावल भी है, अगर खाना है तो। असल में ये रात का बचा हुआ खाना ही था, दादी इसका अधिक से अधिक सदुपयोग करना चाहती थी ताकि फेंकना ना पड़े। 

दादी तेलुगु है, विशाखापट्टनम जा रही हैं, उनकी मुस्कुराहट ऐसी मानो देखकर ऐसा लगे जैसे सामने एक शांत समुद्र है, और कोई तट पर बैठकर उन्हें देख रहा हो और वे मुस्कुरा रही हों। इतनी करूणा, इतनी विनम्रता, इतनी निश्छलता, जीवनरूपी विस्तार को विभाजित करती उनकी चेहरे की रेखाएँ। ऐसा नहीं है कि वह खाने के लिए सिर्फ मुझे पूछ रही थी, आसपास के लोगों को भी उन्होंने प्रेमभाव से पूछा लेकिन भारत में जातिवाद अविश्वास लोगों के दिमाग में इतना घर कर गया है कि किसी अनजान के खाने के प्रस्ताव में प्रेम और अपनत्व खोजना अब सबके बूते की बात नहीं रह गई है। दादी ने मुझे दो रोटियां देकर कहा कि पहले तुम खा लो, फिर मैं खाऊँगी, मैं खाता रहा, वह देखती रही। और मेरे खाने के बाद उन्होंने भी खा लिया। ट्रेन में सब लोगों के बीच भोजन करना हमेशा से बड़ा मुश्किल होता है, इस मामले में मेरा स्वभाव कुछ हद तक नेपोलियन जैसा रहा है, कहा जाता है कि नेपोलियन हमेशा अकेले खाना खाता था, वह इसलिए क्योंकि उसे ढंग से खाना खाने नहीं आता था। मेरी समस्या दूसरी है, कोई देखता रहे तो निवाला अंदर नहीं जा पाता है। 

हम जैसी सोच रखते हैं, जैसा जीवन जीते हैं, शनै: शनै: हमारे चेहरे की भाव-भंगिमा भी उसी अनुरूप ढलने लगती है। वह लड़का जो नौकरी छोड़ अपने घर को जा रहा था, अभी तक सोया हुआ है, विश्रामावस्था में भी उसके चेहरे के भाव जस के तस हैं। शायद उसे ऐसी और लंबी नींद चाहिए ताकि उसका आत्मविश्वास दुबारा लौट आए और वह जीवन रूपी सागर में फिर से डुबकियाँ लगाने के लिए तैयार हो जाए। 

कर्नाटक के अलग-अलग इलाकों में जाकर लगभग सब तरीके का स्वाद चख लिया है, शायद ही कुछ छूटा हो और इस बात में कोई शक नहीं कि आंध्रप्रदेश का खाना, स्पाइस इसके सामने कर्नाटक कहीं नहीं ठहरता है। आंध्र प्रांत की बात ही कुछ और है। दादी की दी हुई स्वादिष्ट सब्जी और रोटी खाकर ट्रेन का वो सफर याद आ गया जब 25 रूपए में 1200 किलोमीटर का लंबा सफर किया था, तब जो दादी मिलीं थी उन्होंने जमकर मिठाईयाँ खिलाई थी। कुछ लोग सवाल करते हैं कि ऐसे लोग मुझे ही क्यों मिलते हैं, अब इस पर क्या ही कहा जाए, ऐसे लोग सबको मिलते हैं, देखने-देखने का फर्क है।






Sunday, 2 February 2020

भारत में शादियाँ

                     आज के सुविधाभोगी जीवनशैली वाले समय में कोई भी युवा यह नहीं चाहता है कि वह धूमधाम से शादी करे, जबरन दिखावे के लिए, बस लोगों को और समाज को दिखाने के लिए लाखों रूपए उड़ाए। क्योंकि वह भी इस कड़वी सच्चाई को महसूस कर रहा होता है कि आजकल शादियाँ सिर्फ दोपहर/रात का भोजन फलाँ के घर जाना है, इसी मुख्य बात पर आकर रूक गई है। जबकि पहले शादियों में एक सामाजिक मेलजोल की प्रक्रिया प्रमुखता से विद्यमान थी, रिश्तेदार कई-कई दिन पहले आकर साथ रहते, मिल-जुलकर पकवान बनाते, सुख:दुख तो बाँटते ही साथ ही अपने-अपने हिस्से का काम बाँट लेते थे, संवाद के लिए जगह होती थी, सप्‍ताह क्या लगभग आधे महीने तक उत्सव जैसा माहौल रहता था।

                   वर्तमान समय में युवा खर्चीली शादी की चाह न रखते हुए भी आखिरकार घूम फिरके वह उसी फाॅर्मूले में शादी करता है, जिस फाॅर्मूले पर पूरा समाज चल रहा है। असल में वह जो चाहता है, वह चाह कर भी कर नहीं पाता है, समाज से लड़ नहीं पाता है, कभी उसके सामने समाज और सामाजिक प्रथाओं, परंपराओं आदि का डर सामने आता है, तो कभी माता-पिता और परिजनों का चेहरा सामने आ जाता है। वह इन सबके खिलाफ अपने भीतर एक जिद पैदा नहीं कर पाता है, वह अपने भीतर जन्मे नवाचार रूपी अंकुर को जीवित नहीं रख पाता है, वह बस सोचता रह जाता है, वह यह भी सोचता है आखिर क्यों अपना बवाल काटा जाए, जैसा लंबे समय से चला आ रहा है, आखिर कुछ तो उसमें अच्छाइयाँ होंगी ही इसलिए चलने देते हैं, कुछ इस तरह वह आँखें मूंद लेता है, तमाम वर्जनाओं, अप्रासंगिक हो चुकी प्रथाओं से मुँह मोड़ लेता है। वैसे भी जहाँ तक बनी बनाई सामाजिक प्रथाओं के विपरित जाकर कुछ कर गुजरने की बात आती है, वहाँ एक अलग ही किस्म के आंतरिक आंदोलन की दरकार होती है, जो सबसे पहले व्यक्ति को स्वयं अपने भीतर से शुरू करनी होती है, फिर कहीं जाकर यह हमारे घर के चौखट तक पहुंचती है, वहाँ यह हलचल पैदा करती है, उसके बाद कहीं जाकर समाज आता है, सामाजिक नियम कानून आदि आते हैं, और जब यह प्रक्रिया पूरी होती है, तब कहीं जाकर अपनी मर्जी के मुताबिक उन्मुक्त होकर जीवन जीना आसान हो पाता है।

तुम्हारे लिए - एक कविता

तुम जिस रास्ते निकले हो,
वहाँ ढेरों लोग मिलेंगे,
लेकिन कुछ लोग ऐसे होंगे,
जिन्हें तुम्हें संभालने की जरूरत है।

जो देते रहेंगे अहसास,
एक अगल किस्म के अपनेपन का,
लेकिन विरले ही होंगे,
जिन्हें तुम‌ अपना कह सकोगे।

तुम्हें फर्क करना होगा,
तरह-तरह के लोगों के बीच,
अपनी तरह के लोगों में,
जो वास्तव में तुम्हें सुन सकें,
और मुस्कुराते हुए जिन्हें तुम सुन सको।

ऐसे लोग आसानी से नहीं मिलेंगे,
न ही पहचान में आएंगे,
तुम्हें गहरे उतरकर देखना होगा,
और खोज निकालना होगा इन्हें।

जो हमेशा तुम्हारा साथ देंगे,
जो तुम्हारे जीवन में प्रकाश की तरह होंगे,
जिनके साथ तुम घंटों व्यतीत कर पाओगे,
जिन पर निरंतर भरोसा कर पाओगे।

ऐसे कुछ ही लोग होंगे,
जो लंबी पारी के साथी होंगे,
जो आखिरी समय तक टिकेंगे,
जिनके लिए सुख-दुख से बढ़कर भी,
जीवन मजे से जीना बड़ी चीज होगी।

जो महीनों खामोश रहकर भी,
तुम्हारी खबर लेते रहेंगे,
ऐसे लोग गिनती के होंगे,
यही तुम्हारी असली कमाई होंगे,
तुम्हें इन्हें संभालने की जरूरत है‌।