Tuesday, 21 May 2019

नेता बनाम‌ अधिकारी

वर्तमान भारत में अगर सचमुच किसी को राजा-प्रजा वाले समय का अहसास लेना हो तो वह तंत्र में एक ऊंचे पद पर अधिकारी बन जाए, एक‌ नेता से कहीं ज्यादा उसे यह अहसास होगा कि वही राजा है।

लेकिन फिर भी अधिकांशत: भारतीय जनमानस दशकों से ब्रम्ह सत्य की तरह इन दो बातों को पूजता चला आया है --

1. " अधिकारी क्या ही करेगा, वह तो नेताओं की कठपुतली बन कर रह गया है। "
2. " ये सारे नेता चोर हैं, भला हो इन पढ़े-लिखे अधिकारियों का, जिनकी वजह से देश बचा हुआ है। "

इस मानसिकता के हिसाब से अगर देखें तो एक व्यक्ति जिस दिन से नेता बनता है, उसके साथ घपलेबाज का टैग जुड़ जाता है, यानि नेताओं का काम ही हुआ तीन-पांच करना, घोटाला करना, प्रेम-प्रसंग में लिप्त रहना, एक से अधिक शादियाँ रचाना और तो और अधिकारियों को काम करने नहीं देना, उन्हें तंग करना, उन्हें प्रताड़ित करना, उनका जीवन नर्क बना देना, जबकि एक अधिकारी तो बेचारा सुशील, विनम्र, कर्तव्य परायण और प्रतिबध्द होता है, सबसे अच्छा व्यवहार करता है, बेईमानी ना के बराबर करता है।

अधिकारियों को पवित्र, निष्पक्ष, सहज, ईमानदार और गाढ़े दूध का धुला हुआ मानने के पीछे सबसे चोखा तर्क यह होता है कि वह बहुत पढ़ा लिखा होता है, संवेदनशील नागरिक होता है, समझदार होता है, तब जाकर ऐड़ी-चोटी की मेहनत से एक अधिकारी का टैग हासिल करता है।
इसके ठीक उलट भारत में एक नेता को मूर्ख समझा जाता है, भाषणबाजी के आधार पर बदतमीज समझा जाता है, जबकि वही एक ऐसे लोग हैं जो बिना किसी चालबाजी के सचमुच हमारी सोच का प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं।
लेकिन वहीं किताबें रटकर परीक्षा पास किया अधिकारी कितने भी घोटाले करे, कितनी भी शादियाँ रचाए, रखैल पाले, घोटाले करे, लंपटगिरी करे,
उनके लिए सब माफ है, इसलिए रिटायरमेंट के बाद भी उनका दूध-भात चल रहा होता है, अब भई वे तो देवता समान हैं, परमेश्वर हैं, नीति-नियंता हैं, तो इतना तो नजर अंदाज किया ही जा सकता है।

एक सर्वे होना चाहिए कि जब एक आम भारतीय किसी तहसील कार्यालय, कलेक्टर आॅफिस या अन्य किसी सरकारी दफ्तर में कुछ काम से जाता है तो उसके साथ कैसा व्यवहार होता है, आखिर उसके मन में कैसे भाव उमड़ते हैं, ठीक ऐसा किसी नेता के चौपाल या सभा में जाने वाले आम व्यक्ति के साथ होना चाहिए। दोनों स्थितियों में फर्क करके देखना चाहिए तब शायद समझ आ जाए कि कौन है जो जनता को अपने पैरों की धूल समझता है, कौन अधिक निरंकुश है, आखिर किसके उपद्रव-मूल्य ज्यादा उफान पर हैं।

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