Saturday, 25 May 2019

Fellowship Interview


Entry -

जी बैठिए
बताइए अपने बारे में,

जी, CV में जो नहीं लिख पाया, वो बताता हूं।और फिर मैंने वह सब कुछ बताया जो शायद हम CV में नहीं लिख पाते, एक भी फिजूल की बात नहीं की। नाम, स्कूल, कालेज ये सब के बारे में चर्चा ही नहीं की। पूरे 40 मिनट में 38 मिनट तो मैं ही बोलता रहा, कई बार ऐसा हुआ उनके पास सवाल ही नहीं होते और कई बार तो उनके और मेरे विचार मेल खा जाते थे फिर वे चुप हो जाते थे और मैं भी।



Que. - आप इतने साल बाद खुद को कहाँ देखते हैं?

जी इस बारे में मुझे सच में नहीं पता, लेकिन एक बात कहूंगा कि जो शायद पहले ही आपके लिखित पेपर में कह चुका हूं - भारत में दो तरह के लोग हैं एक जिनके लिए रोटी कपड़ा मकान बचपन से बुढ़ापे तक कोई बड़ा मुद्दा नहीं होता है, लेकिन वे आजीवन पूरी हिंसा के साथ इसका रोना रोते हैं। दूसरे वे लोग होते हैं जिनके लिए रोटी कपड़ा मकान और इसकी पूर्ति करना ही पूरा जीवन होता है, वे लोग आजीवन इसके अलावा कोई दूसरा लक्ष्य निर्धारित नहीं कर पाते। असल में मैं पहले कैटेगरी का हूं, और जब जीवन एक बार मिला है, तो कुछ न कुछ तो बेहतर करना ही होगा, इसलिए एक बार मिले इस जीवन को पूरी उपयोगिता के साथ जीने की इच्छा रखता हूं।


Que. - आपको‌ नहीं लगता कि आपके जैसी सोच का व्यक्ति अगर प्रशासन में आ जाए तो लोगों का बहुत भला होगा?

जी, नहीं। तंत्र का हिस्सा बनकर मैं कब तक अपने अंदर इन चीजों को संभाल कर रख पाऊंगा इसकी कोई गारंटी नहीं है। तंत्र में रहकर कहीं न कहीं उसकी खराबी मुझमें आएगी ही‌। हां ये हो सकता है कि बाकी लोगों से थोड़ा बेहतर काम करूंगा, लोग शायद तुलनात्मक रूप से मुझसे कम परेशान हों। लेकिन तंत्र का हिस्सा बनकर इंच मात्र भी मूलभूत सुधार संभव नहीं है। चीजें असंभव तो नहीं लेकिन असंभव की हद तक कठिन जरूर हैं।


Que. - आपने कहा कि लोगों के सहयोग से एक तालाब बना, पुल बना ये सब काम तो सरकार का है? फिर हमारी क्या जरूरत?

मेरी नजर में सरकार एक प्रबंधनकर्ता से ज्यादा और कुछ भी नहीं, और इससे ज्यादा उसे होना भी नहीं चाहिए, विकसित देशों में सरकार का हस्तक्षेप ना के बराबर होता है, जहाँ जनता जागरूक है, अपने मसले खुद निपटा लेती है, सरकार बस उचित प्रबंधन करता है, जहाँ ऐसा नहीं होता, सरकार निरंकुश होने लगती है।


Que. - आपने स्वरोजगार की बात कही, स्वरोजगार को थोड़ा विस्तार से बताइए?

स्वरोजगार, जैसा कि शब्द से ही स्पष्ट है, स्व यानि खुद से रोजगार। और गहरे में कहा जाए तो जहाँ हम हैं, वहीं के उपलब्ध संसाधनों से रोजगार पैदा करना, और उसे विस्तार देना, यही तो स्वरोजगार हुआ।


Que. - समझ लीजिए कि आपको फलां पद दे दिया जाए, आप क्या करना चाहेंगे?

जी, आप जिस पद के बारे में कह रहे हैं, सच कहूं मैं खुद को उसके योग्य नहीं समझता हूं, तो क्या ही करूंगा। बेहतर होगा एक साधारण से कार्यकर्ता की तरह काम करूं। ऐसा नहीं है कि मैंने जिस पहल की बात आपसे मैंने की, उसमें मैं नया हूं। और भी लोग ऐसे काम कर रहे हैं, कोशिश रहेगी कि मैं भी ऐसे किसी काम का हिस्सा बन जाऊं।


Que. - नौकरी और सिक्योर लाइफ क्या आप इसको थोड़ा सा explain करेंगे?

जी, ऐसा है कि मुझे लगता है जब तक इंसान जीवित है, उसके पास पैसे कमा लेने की ढेरों संभावनाएँ हैं। और लाइफ सिक्योरिटी का क्या है, आज है कल नहीं है। कोई इसकी गारंटी तो नहीं दे सकता, न तो सरकार न ही कोई प्राइवेट संस्था। हाँ, आराम और सहूलियत की गारंटी जरूर देती है। अपनी बात कहूं तो जब तक साँस चल रही है, स्वास्थ्य अच्छा है, तक तब लाइफ सिक्योर है।

Tuesday, 21 May 2019

नेता बनाम‌ अधिकारी

वर्तमान भारत में अगर सचमुच किसी को राजा-प्रजा वाले समय का अहसास लेना हो तो वह तंत्र में एक ऊंचे पद पर अधिकारी बन जाए, एक‌ नेता से कहीं ज्यादा उसे यह अहसास होगा कि वही राजा है।

लेकिन फिर भी अधिकांशत: भारतीय जनमानस दशकों से ब्रम्ह सत्य की तरह इन दो बातों को पूजता चला आया है --

1. " अधिकारी क्या ही करेगा, वह तो नेताओं की कठपुतली बन कर रह गया है। "
2. " ये सारे नेता चोर हैं, भला हो इन पढ़े-लिखे अधिकारियों का, जिनकी वजह से देश बचा हुआ है। "

इस मानसिकता के हिसाब से अगर देखें तो एक व्यक्ति जिस दिन से नेता बनता है, उसके साथ घपलेबाज का टैग जुड़ जाता है, यानि नेताओं का काम ही हुआ तीन-पांच करना, घोटाला करना, प्रेम-प्रसंग में लिप्त रहना, एक से अधिक शादियाँ रचाना और तो और अधिकारियों को काम करने नहीं देना, उन्हें तंग करना, उन्हें प्रताड़ित करना, उनका जीवन नर्क बना देना, जबकि एक अधिकारी तो बेचारा सुशील, विनम्र, कर्तव्य परायण और प्रतिबध्द होता है, सबसे अच्छा व्यवहार करता है, बेईमानी ना के बराबर करता है।

अधिकारियों को पवित्र, निष्पक्ष, सहज, ईमानदार और गाढ़े दूध का धुला हुआ मानने के पीछे सबसे चोखा तर्क यह होता है कि वह बहुत पढ़ा लिखा होता है, संवेदनशील नागरिक होता है, समझदार होता है, तब जाकर ऐड़ी-चोटी की मेहनत से एक अधिकारी का टैग हासिल करता है।
इसके ठीक उलट भारत में एक नेता को मूर्ख समझा जाता है, भाषणबाजी के आधार पर बदतमीज समझा जाता है, जबकि वही एक ऐसे लोग हैं जो बिना किसी चालबाजी के सचमुच हमारी सोच का प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं।
लेकिन वहीं किताबें रटकर परीक्षा पास किया अधिकारी कितने भी घोटाले करे, कितनी भी शादियाँ रचाए, रखैल पाले, घोटाले करे, लंपटगिरी करे,
उनके लिए सब माफ है, इसलिए रिटायरमेंट के बाद भी उनका दूध-भात चल रहा होता है, अब भई वे तो देवता समान हैं, परमेश्वर हैं, नीति-नियंता हैं, तो इतना तो नजर अंदाज किया ही जा सकता है।

एक सर्वे होना चाहिए कि जब एक आम भारतीय किसी तहसील कार्यालय, कलेक्टर आॅफिस या अन्य किसी सरकारी दफ्तर में कुछ काम से जाता है तो उसके साथ कैसा व्यवहार होता है, आखिर उसके मन में कैसे भाव उमड़ते हैं, ठीक ऐसा किसी नेता के चौपाल या सभा में जाने वाले आम व्यक्ति के साथ होना चाहिए। दोनों स्थितियों में फर्क करके देखना चाहिए तब शायद समझ आ जाए कि कौन है जो जनता को अपने पैरों की धूल समझता है, कौन अधिक निरंकुश है, आखिर किसके उपद्रव-मूल्य ज्यादा उफान पर हैं।

Friday, 10 May 2019

चुगली -

जहाँ चुगली का जन्म होता है, जहाँ से चुगली नामक कच्चे माल‌ को लोगों में सप्लाई करने के लिए ढोया जाता है,
वहीं से ही उसका हस्तांतरण शुरू हो जाता है,
चुगली एक ऐसा तत्व है जो अनवरत हस्तांतरित होने के बावजूद अपनी मात्रा में गुणोत्तर वृध्दि करता है और वातावरण से नये गुणधर्म शामिल करते जाता है। चुगली में प्रबल आघातवर्धनीयता होती है और साथ ही साथ अपनी तन्यता के कारण यह जितना अधिक हस्तांतरित होता है, उतना ही अपने मूल में परिवर्तन करते हुए आगे बढ़ता चला जाता है।
चुगली नामक यह तत्व जम्बूद्वीप में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।

गोपाल की दुनिया -


                    ये कहानी सिल्थिंग गांव की है। सिल्थिंग गांव, मुनस्यारी तहसील, जिला पिथौरागढ़, उत्तराखंड के अंतर्गत आता है। यह गांव गोरीपार के ठीक पीछे की पहाड़ी में पड़ता है जहाँ तक जाने के लिए मदकोट से ही गाड़ी चलती है। गोपाल जी भी इसी गांव से हैं, गोपाल 35 वर्ष के हैं, वे जन्म से अंधे हैं। कुदरत ने उनसे आंखों की रोशनी तो छीन ली लेकिन बाकी चीजों का ऐसा अनुकूलन कर दिया कि गोपाल बस एक डंडे के सहारे गांव-गांव नाप लेते हैं। उनकी श्रवणशक्ति गजब की है, वे चीजों को बड़ी तेजी से महसूस कर लेते हैं।
                   सिल्थिंग में हमारे एक पहाड़ी साथी की दीदी का ससुराल है, तो उन्हें भिठौली परंपरा का निर्वाह करने जाना था, तो मैं भी उनकी इस पैदल यात्रा में शामिल हो गया। (भिठौली - अप्रैल महीने में पहाड़ में इस परंपरा में मुख्यतः ब्याही बहन/दीदी के घर राशन, आटा, तेल, खाने पीने की वस्तुएं आदि लेकर परिजनों का प्रस्थान होता है, मुख्यतः घर के पुरुष वर्ग भिठौली परंपरा का निर्वहन करते हैं, इसे भिटौली जाना या भिटौला भी कहा जाता है।)
हम मुनस्यारी से मदकोट मैक्स की गाड़ी में गये‌, फिर वहाँ से हमने चुलकोटधार तक जाने के लिए एक दूसरी मैक्स की गाड़ी पकड़ी और लगभग एक‌ किलोमीटर पैदल चलते हुए सिल्थिंग गाँव पहुंच गये। सिल्थिंग से पंचाचूली की चोटियाँ बहुत ही नजदीक दिखाई देती है, ठीक उतनी ही नजदीक जितनी कि दारमा घाटी से। कुछ गिने चुने गड़रिए बकरियों को लेकर यहाँ से भी पंचाचूली ग्लेशियर तक जाते हैं, लेकिन रास्ता अत्यंत दुर्गम‌ होने के कारण कोई टूरिस्ट यहाँ से नहीं जाता। इसलिए हर कोई पंचाचूली पर्वत को नजदीक से देखने के लिए दारमा घाटी ही जाता है। 
सिल्थिंग गांव की वो पहली सुबह, मैं उठा और पास में स्थित नौले से मुंह धोकर आ रहा था, उसी समय मैंने सबसे पहले गोपाल को देखा, वे ढेर सारी बकरियों और गायों को घास चराने ले जा रहे थे, मेरे दोस्त रूककर उनसे बात कर रहे थे, उस समय मुझे उनके बारे में कुछ भी पता नहीं था। मुझे बाद में मेरे दोस्त ने बताया कि यार आज सुबह जो वो मिले थे न वे पूरी तरह से अंधे हैं। फिर भी उनको इस गांव का और आसपास के गांवों का एक-एक रास्ता पता है।
लेकिन गोपाल इन खतरनाक पहाड़ी रास्तों में ये सब कैसे कर लेते हैं, ऐसी पगडंडियां जहां एक कदम फिसला तो या तो गंभीर चोट लग सकती है या फिर जान का खतरा हो सकता है।
मुझे नहीं पता कि गोपाल अपना दैनिक जीवन का सारा काम कैसे करते होंगे, लेकिन गांव वाले कहते हैं कि वो कभी किसी का सहारा नहीं लेते, उनके दिमाग में पूरा उस पहाड़ी गांव का और साथ ही आसपास के कुछ गांवों का एक मानचित्र सा बन गया है। वो कदम-कदम में चल के बता देते हैं कि यहां पर एक स्कूल है, यहां पेड़ है, यहां अस्तबल है, यहां किराने की दुकान है, दाहिने तरफ खेत है, इधर ये बिजली का खंभा है, उधर नौले, यहां फलां व्यक्ति का घर..वगैरह वगैरह।
                    दोस्त की दीदी के घर से जब हम अपने अगले पड़ाव के लिए निकले तो जाने से पहले परंपरा अनुसार गुड़ खाया, माथे में टीका लगाया और दोपहर को हम लोगों ने सिल्थिंग गांव से विदा लिया। हमें सात किलोमीटर दूर पगडंडियों से होकर चलते-चलते रिंग्यू गांव जाना था,  रिंग्यू में पोस्ट आफिस की सुविधा है और आइडिया का नेटवर्क भी मिल जाता है। जबकि सिल्थिंग में आपको किसी कंपनी का नेटवर्क नहीं मिलने वाला, बीसीएनएल का नेटवर्क थोड़ा बहुत बिना मल्टीमीडिया वाले छोटे मोबाइल फोन में मिल सकता है। हम जब अपने दोस्त के साथ रिंग्यू के लिए निकले तो हमारे साथ गोपाल भी आ रहे थे। हम जैसे ही उनके पीछे चलने को होते, वे थोड़ा रूकते और कहते कि चलो आगे चलो मैं पीछे-पीछे आ रहा हूं। रास्ते भर मैं पीछे मुड़-मुड़कर गोपाल की चलाई देखता, हल्का सा सिर को टेढ़ा किए हुए एक डंडे के सहारे मस्त चले आ रहे थे। जैसे ही उस पगडंडी वाले रास्ते में उबड़-खाबड़ वाले पत्थर आते गोपाल की स्थिति वहां कुछ ऐसी हो जाती जैसे एक चलती गाड़ी अचानक गड्ढे आने पर हल्की डोलने लगती है।
                      इन गुजरते सालों में निश्चय ही इस दरम्यान गोपाल को चोटें भी आई। कभी पैर छिल गया, मोच आ गई तो कभी कांटे चुभ गये, कभी बिच्छू घास लग गया लेकिन आजतक उन्हें किसी प्रकार की कोई गंभीर चोट नहीं लगी। जब हम रिंग्यू पहुंचने वाले थे तो उससे पहले एक सरकारी स्कूल आता है, स्कूल तक पहुंचने में लगभग 200 मीटर बचा हुआ था, हमने गोपाल को जांचने के लिए झूठ बोला और कहा कि तुम तो कह रहे थे कि स्कूल आएगा तो बता दूंगा लेकिन स्कूल तो हमने पार कर लिया, तुम्हें पता भी नहीं चला। फिर गोपाल सिर हिलाते हुए एक सौम्य सी मुस्कुराहट फेरते हुए बोले कि अरे नहीं अभी नहीं आया होगा, थोड़ा बाकी है शायद अब आएगा स्कूल इधर। और निस्संदेह गोपाल का अनुमान एकदम सटीक था। हम स्कूल के एकदम करीब थे।
                     आगे फिर रिंग्यू गांव जाने के लिए दो रास्ते आए, एक ऊपर की ओर था और एक ढलान की ओर। हम जब ऊपर की ओर जाने लगे तो पीछे-पीछे आ रहे गोपाल रूक से गये और कहने लगे कि शायद नीचे जाना है यहां से, आसपास किसी से पूछना तो। हम तो एक पल के लिए ताज्जुब रह गये। क्योंकि जो नीचे वाला रास्ता जो था वो काफी छोटा था और उसके बारे में मुझे और मेरे दोस्त को कोई जानकारी नहीं थी। गोपाल की वजह से हम एक लंबी दूरी तय करने से बचे। पता नहीं आप यकीन कर पाएंगे पर यूं समझिए कि गोपाल हमारे लिए किसी गाइड के समान थे। रिंग्यू हम पहली बार जा रहे थे, वैसे तो हम पूछताछ करके रिंग्यू तक पहुंच सकते थे लेकिन गोपाल ने हमारी पैदल यात्रा सरल,सुखद एवं आश्चर्य और रोमांच से भरपूर बना दी।
                   गोपाल ने फिर हमें जो बताया उससे जो थोड़ी बहुत शक की गुंजाइश थी वो भी खत्म हो गई। उन्होंने कहा- जब कोई मुझसे पहली बार मिलते हैं वे हमेशा यही सोचते हैं कि मुझे थोड़ा बहुत तो कम से कम दिखता ही होगा। गोपाल जो कह रहे थे तो मेरे मन में भी था कि इन्हें थोड़ा बहुत तो दिखता ही होगा नहीं तो ऐसे कोई कैसे पैदल चल सकता है। लेकिन सच्चाई तो यही है कि वे पूरी तरह से अंधे हैं। गोपाल कहते हैं कि लोग अड़ जाते हैं कि मुझे दिखता होगा लेकिन मैं तो ठहरा जन्म से अंधा, अब इनको कैसे समझाऊँ। जब हमने उनसे पूछा कि वे ये सब कैसे कर लेते हैं तो वे बोले कि मुझे भी नहीं पता, बस आदत हो गई है।
यात्राओं के दौरान अधिकांशतः यह देखने में आता है कि जब कोई समस्या आ जाती है या हम किसी दुविधा में होते हैं तो अचानक ही कोई अनजान‌ मिल जाता है। ऐसे लोग आते हैं मदद करते हैं और फिर अपने रास्ते निकल जाते हैं, बदले में ना कोई ज्यादा बातचीत, न नाम पता पूछना न कुछ। बस अपना एक काम था वो निभा लिया और चलते बने। कभी कभी लगता है कि सचमुच दुनिया में ऐसे लोग भी होते हैं क्या? मन में आता है कि ऐसे लोगों के बारे में जानकारी इकट्ठा की जाए, इनके साथ फोटो ही खिंचवा लिया जाए। लेकिन कभी कभी मनुष्यता का यह बोध यूं होता है कि ऐसी परिस्थिति में न तो इंसान कुछ सोच विचार करता है, न ही वो कैमरे से तस्वीरें खीचनें की सोच पाता है, वो इस भाव को जीने लगता है।
देखा जाए तो ऐसे तमाम लोग जो हमेशा अदृश्य से रहते हैं। इनकी अपनी एक ऊर्जा होती है, खुद की अपनी एक गति होती है, किसी एक मुक्त अणु या इलेक्ट्रान की तरह। उन्हें किसी खास प्रोत्साहन, बढ़ावा, चढ़ावा, समर्थन, सांगठनिक सहयोग या प्रचार की जरूरत नहीं पड़ती। वे सभी लोग अपनी खुद की गति में गतिमान रहते हैं। ये कहीं दिखाई भी नहीं देना चाहते, हमेशा गुमनाम से रहना चाहते हैं, और अपने कर्मपथ में लगे रहते हैं, यही इनकी मूल प्रकृति है। 
                      गोपाल भी तो इन्हीं लोगों में से एक थे। जब हम रिंग्यू गांव के लिए पैदल निकले थे तो समझिए कि कुल जमा दो घंटे हम गोपाल के साथ थे। इस बीच मेरे मन में बार-बार आया कि इनके साथ फोटो खिंचवा लिया जाए, इन्हें तो वैसे भी दिखाई नहीं देता, रिकार्डिंग कर लिया जाए इनका चलना, बातें करना, मुस्कुराना आदि आदि। पर मैं ऐसा कुछ भी नहीं कर पाया। पता नहीं क्यों किसी चीज ने मुझे रोक लिया। मैंने उनके मूल को नहीं छेड़ा उन्हें जस का तस स्वीकार किया, उनसे आगे आकर उतनी बात भी नहीं की, बस उन्हें बात करने दिया और उनकी बातें सुनता रहा, वो चंद घंटे जो मैं उनके साथ था उसे पूरी तरह से जीने लगा। और फिर मुझे लगा कि गोपाल तो मेरी स्मृति में हमेशा के लिए घर कर गये हैं, इन्हें तो मैं कभी भी आंख मूंदकर याद कर सकता हूं, लिख सकता हूं, देख सकता हूं।

सिल्थिंग गाँव से हिमालय की पंचचूली चोटियों का दृश्य

सिल्थिंग गाँव से हिमालय की पंचचूली चोटियों का दृश्य


सिल्थिंग गाँव में दीदी का घर, पहाड़ी वास्तुकला का एक बेजोड़ नमूना

मिलम ग्लेशियर से निकलती हुई गोरीगंगा नदी

हिमालय में राजरंभा की चोटियाँ






Thursday, 9 May 2019

तुम्हारे लिए - भाग २

मैं भूलता कम हूं,
जीवन के उन पहलुओं को जो मेरे ह्रदय के किसी कोने को आहिस्ते से अपनी बातों से, अपनी मासूमियत से उसने छू लिया था...
लेकिन मैं भूलता भी बहुत हूं,
जैसे कि मुझे संख्याएँ याद नहीं रहती, लोगों के जन्मदिन तक याद नहीं रहते, इस वजह से लोग मुझे बिल्कुल उसकी तरह बुध्दू, सढू़ कह जाते हैं, लेकिन वे उस अंदाज में नहीं कह पाते, जैसा वो कहती है, इसलिए मैं उनकी बातों को ध्यान नहीं देता हूं...

फिर मुझे वो अहसास याद आ जाता है जो कहीं न कहीं मुझे उससे बात करते हुए मिला, आज भी मिलता है, एक छोटा सा अहसास,
जिसे मैं चाहकर भी भूल नहीं पाता हूं,
जिसे मैं ऐसे लिखकर नहीं बोल पाता हूं,
एक कोई ऐसी चीज, जो शायद हमारी बातों के बीच उस धुंध सी हवा में कहीं घुली तो रहती है,
ठंडक और राहत देने के लिए,
सारी थकान और निराशा मिटा देने के लिए,
चेहरे पर एक भीनी सी मुस्कान भर देने के लिए,
पर वो दिखती नहीं है,
सचमुच उसे ना भूलना एक अलग सुखद अहसास है,
उसे ऐसे स्मृतियों में कैद रखना सूकून देता है,
लगता है जैसे मैंने अपने स्मृतिवन में एक ऐसा नगीना पाया है जिसे मैं सुन सकता हूं, जिससे मैं जी भर के बातें कर सकता हूं, शायद वह भी मुझसे जी भर के बातें करती है।
शायद वह मुझे समझती है, इसलिए भी मुझे उससे जुड़े एक एक पहलू याद रहते हैं।
शायद वह बहुत कीमती है, लेकिन‌ वह खुद को ऐसा कहलाना पसंद ना करती हो, इसलिए भी मैं उसे ऐसा कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता हूं।

Sunday, 5 May 2019

Fani Cyclone Bhubaneswar

असली आफत तूफान थमने के बाद आती है।
इस फनी तूफान ने बिजली के खंबों तक को गिरा दिया है, प्लेटफार्म की मोटे टीन की छत को उड़ा दिया है, बड़े-बड़े पेड़ों को कैसे चींटी की तरह इसने मसला होगा, आप खुद ही अंदाजा लगाइए।
भुवनेश्वर एवं अन्य तटीय इलाके खाली होने लगे हैं, लाखों की संख्या में लोग इधर से उधर। स्थानीय लोग पानी और सुविधाओं की उपलब्धता की वजह से भुवनेश्वर के सभी होटलों में शिफ्ट हो चुके हैं, लगभग सारे एटीएम बंद हैं, बाहरी लोग अपने घरों की ओर पलायन कर रहे हैं, मैं भी।
क्योंकि अब लगता है कि बिजली पानी बहाल होने में एक सप्ताह से अधिक का समय लग जाएगा, भोजन का तो फिलहाल भूल ही जाइए, दूर की कौड़ी है।


04/06/2019

#Fanicyclone

जीवन में पहली बार शायद वे अपने पाॅश कालोनी से स्लम की ओर गये हैं। धन्य भाग्य गरीबों के कि सरकार ने एक हैंडपम्प लगा दिया था। आज इस हैण्डपम्प ने पानी के लिए स्लम और पाॅश दोनों को एक कतार में खड़ा कर दिया है। फनी तूफान क्या आया, कुछ समय के लिए तो इंसान इंसान का भेद ही समाप्त हो गया।







Cyclone fani reached bhubaneswar

https://youtu.be/N5kg_qfK300

After Cyclone Fani

https://youtu.be/tO2h22pks3Q