Wednesday, 25 April 2018

Panchachuli peak-3 Unclimbed

Panchachuli-3

Panchachuli - 3
6312 metre
Picture Clicked from chulkotdhar range.

This peak is still not climbed, there have been a few expeditions and attempts. The first attempt was in 1996 via the Dakshini Balati Glacier on the Munsyari side, this attempt ended after an accident and avalanche. The second attempt was in 1998, by a large Army expedition via the Duktu Glacier on the Dhauli Ganga river side, this too was not successful as the team summiting had an accident on the final approach ridge.
Other reports of a successful climb have not been independently verified.

Data source - Wikipedia

Khuliya Top, Munsyari


                          इस तस्वीर को जब आप ध्यान से देखेंगे तो आप पाएंगे कि घास के इन मैदानों में दो आयताकर गड्ढे दिखाई दे रहे हैं। अब जो पहाड़ में रहते हैं उन्हें तो इसके उपयोग और बनाए जाने के कारणों के बारे में अच्छे से पता होगा ही। लेकिन जो पहाड़ बस एक बतौर टूरिस्ट घूमने आते हैं, उन्हें भी हम बताना चाहते हैं कि ये आयताकार खांचे असल में एक तरह के जल‌ स्त्रोत हैं, जो ढलान वाले पहाड़ों में आपात स्थिति के लिए तैयार किए जाते हैं। क्या पता कब किसी को जरूरत पड़ जाए, चाहे वे इंसान‌ हो या मवेशी। पानी की जरूरत तो अभी जीवधारियों को है।
अब पहाड़ में ऐसा है कि कुओं या तालाबों का निर्माण तो नहीं किया जा सकता तो इन‌ तरीकों से, इन छोटे-छोटे जल स्त्रोतों के निर्माण से पहाड़ों में जल एकत्र किया जाता है।
हमारे पूर्वजों की दूरदृष्टि को‌ नमन।

If you clearly watch this picture, you will observe that there are few horizontal holes in the meadows..these hollow blocks are actually small water reseviors which are made just to maintain water availability during any emergency.
It is not possible to create any pond or well in the hills so as a resultant these hollow blocks are made for water storage.
Hats off to our visionary ancestors.

नंदा देवी मंदिर, मुनस्यारी



                   डानाधार के इस मंदिर परिसर में जो यह एक छोटा सा मकान‌ है, वहाँ एक सुंदर सा कैंटीन है, जिसे देवेंद्र सिंह जी संभालते हैं, वे आर्मी से रिटायर्ड हैं, इस पूरे मंदिर परिसर की देखरेख करने का जिम्मा भी उन्हीं के हाथ में है। उनका गांव यहीं डानाधार के नीचे पापड़ी-पैकुती है। वे मंदिर परिसर को अपने घर की तरह समझते हैं, रोज आते हैं और मंदिर परिसर का जायजा लेते हैं और तो और पूरे मंदिर परिसर में दिखने वाली तरह तरह की फूलों की क्यारियां, छोटे-छोटे पौधे और तरह-तरह के पेड़ सब इन्हीं की देन है, इन्होंने ही अपने परिश्रम से इस मंदिर परिसर को पर्यटकों के लिए एक आकर्षण का केन्द्र बना दिया है। जो कोई भी मुनस्यारी आता है, भले ही एक दिन के लिए क्यों न आया हो, वह एक बार डानाधार के इस नंदा देवी मंदिर परिसर में जरुर प्रस्थान करता है।

Friday, 20 April 2018

~ कुमाऊं में रहना है, तू-तड़ाक करना है ~

                     ये साढ़े तीन साल का लड़का प्रीतेश, जब इसने मुझसे पहली बार बात की तो इसने कुछ यूं कहा - तू कहां से आया है? तू क्या करता है? मुझे शुरूआत में बड़ा अटपटा लगा कि कैसे ये मुझे तू पे तू बोले जा रहा है। पर वो तो मुझे "तू" ही बोलने वाला हुआ। प्रीतेश की आमा(मां) ने एक बार जब उसे ऐसा बोलते सुना तो उन्होंने प्रीतेश को डांट लगाई कि ऐ! भैया बोला कर। फिर भी प्रीतेश ठहरा ठेठ पहाड़ी वो तो मुझे तू ही कहता, वो जब भी मेरे पास आता, मुझसे बातें करता तो हमेशा मुझे "तू" करके ही संबोधित करता। प्रीतेश मेरे पास सिर्फ दो चीजों के लिए आता एक मैं और मेरा लैपटाॅप, उसे लैपटाॅप से उतना लगाव था ही नहीं जितना कि मुझसे था, मुझसे इसलिए क्योंकि‌ एक बार मैंने उसे पकड़कर ऊंचाई में गेंद जैसा उछाल दिया था, मेरे ख्याल में तो उसे ये भी समझ आ गया था कि मैं लंबा हूं तो सबसे ज्यादा ऊंचाई तक उसे मैं ही उछालूंगा, तभी तो वो मुझे ही इस मामले में वरीयता देने वाला हुआ। अब वो एक चीज उसे इतनी पसंद आई कि रोज उसको गेंद की तरह ऊपर उछलने का शौक हो गया, वो खाल्ली ठहरा मुझ छै फुटिए को ही तंग करने वाला हुआ। जब आता, दरवाजा खटखटाता और हमेशा आकर यही कहता - ऐ! तू मुझे ऊपर उ़छाल दे एक बार।
लेकिन इसके ठीक उलट जो किताब पढ़ने वाले यानि जो स्कूल जाने वाले बच्चे थे वे मुझे आप कहते। फिर भी कुमाऊंनी हिन्दी में तो तू का चलन है‌ ही। बाद में ध्यान दिया तो समझ आया कि संबोधन में "तू" कहना तो कुमाऊंनी हिन्दी का एक जरूरी हिस्सा हुआ, मिठास है बल इसमें भी। तभी तो दीदी, बोज्यू(भाभी) लोग भी मुझे तू ही बोलने वाले हुए। यहां यूपी बिहार टाइप तुम या आप नहीं चलता, यहां की हिन्दी को "तू-तड़ाक" में ही विश्वास है। यहाँ का "तुम" भी "तू" और यहाँ का "आप" भी "तू" है। यहाँ के "तू" में बड़ा अपनापन है रे।


Thursday, 12 April 2018

Trip to Munsyari

                        आखिरकार हमने यह फैसला लिया है कि हम अपने साथियों को मुनस्यारी की ही सैर कराएंगे, कराएंगे तो हिमालय दर्शन ही कराएंगे। समय भी तय है जून का पहला सप्ताह।‌ आने वाले कुछ दिनों में यह भी स्पष्ट कर दिया जाएगा कि आपको किस दिन का रिजर्वेशन कराना है और कब मुनस्यारी आना है। बस अभी मोटा मोटा यह समझिए कि जून का पहला सप्ताह तय है।

तो मुनस्यारी आने के लिए आपको ये करना है -
1. आपको ट्रेन से काठगोदाम या हल्द्वानी रेल्वे स्टेशन तक पहुंचना है। इसमें ट्रेन के बारे में और अधिक जानकारी आप मुझसे ले सकते हैं।
2. काठगोदाम और हल्द्वानी रेल्वे स्टेशन आगे-पीछे ही हैं। काठगोदाम इस रूट का सबसे आखिरी रेल्वे स्टेशन है और हल्द्वानी उसके ठीक पहले का स्टेशन है, बस पंद्रह मिनट का फर्क है। तो दोनों‌ से किसी एक जगह जहां भी आप पहुंचे वहां से आपको हम गाड़ी से मुनस्यारी ले जाएंगे। यहाँ से हमारी जिम्मेदारी शुरू होती है।
3. काठगोदाम आपको कैसे भी करके सुबह पहुंचना है। क्योंकि काठगोदाम से सुबह 6-7 बजे मुनस्यारी के लिए आपकी गाड़ी निकलेगी। जो कि शाम 6-7 बजे तक आपको मुनस्यारी पहुंचाएगी।
4. अगर आपकी ट्रेन की टाइमिंग थोड़ी अलग हो रही है और आप सुबह काठगोदाम पहुंचने की स्थिति में नहीं है तो आपको एक दिन पहले यानि शाम‌ को काठगोदाम या हल्द्वानी पहुंचकर एक रात स्टे कर अगली सुबह मुनस्यारी जाने के लिए तैयार रहना होगा। आप सोच रहे होंगे इतनी मेहनत, यार अब हिमालय दर्शन करना है तो इतना तो करना पड़ेगा न। बाकी हमारी तो पूरी कोशिश रहेगी कि आपको‌ किसी प्रकार की कोई असुविधा न हो‌।
5. हां तो काठगोदाम से मुनस्यारी का सफर काफी लंबा और थका देने वाला है, पूरे 12 घंटे का घुमावदार पहाड़ी रास्ता, तो सबसे निवेदन है कि आप अपने साथ उल्टी की गोलियाँ जरूर रखें। गाड़ी भी आपको बता दे रहा हूं, फोर्स की ट्रेवलर में आप‌ मुनस्यारी आएंगे, जिसमें उबड़-खाबड़ पहाड़ी रास्तों में भी आपको बहुत कम‌ जर्क महसूस होगा फिर भी आप उल्टी की गोलियाँ जरूर लेकर चलें।
6. जूते तो आप पहनकर आएंगे ही, साथ ही आवश्यकतानुसार गर्म कपड़े भी रख लीजिएगा, अब मुनस्यारी के जून के महीने की ठंड को यूं समझिए कि मैदानी‌ इलाकों‌ का दिसंबर का महीना, यानि उतना भी नहीं होगा, कहने का अर्थ यह है कि अगर बारिश हुई तो अधिकतम तापमान उतना जा सकता है, नहीं तो दिन में मौसम सामान्य और शाम ढलते गुलाबी ठंड।
7. अगर कोई ऐसा व्यक्ति जो शराब का सेवन करता हो उनके लिए विशेष सूचना है कि आप इस ट्रिप में‌ किसी प्रकार का नशा नहीं कर पाएंगे, हम आपको ऐसा करने ही नहीं देंगे, क्योंकि हो सकता है कि कुछ फैमली वाले भी आएंगे तो हम अपनी इस एक बात को लेकर प्रतिबध्द हैं, तो अगर आप इस यात्रा का हिस्सा बनना चाहते हैं तो इस एक बात का विशेष ध्यान रखना पड़ेगा।
8. आपके ट्रेवलिंग के दिनों को अलग रखें तो मुनस्यारी में आपका ट्रिप दो से तीन दिन का होगा, इससे ज्यादा नहीं। इसमें आपको परंपरागत पहाड़ी व्यंजन खिलाया जाएगा, यहां की संस्कृति से रूबरू कराया जाएगा, रात के वक्त बोन फायर का आनंद भी मिलेगा, साथ ही आपको ट्रैकिंग कराया जाएगा। पहाड़ में 10-15 किलोमीटर की ट्रैकिंग करने के लिए अभी से खुद को तैयार कर लीजिए। क्योंकि इस पूरे ट्रिप की सबसे असली चीज यही है।
9. अब आप सोच रहे होंगे कि ये सब बता दिया वो ठीक, कितना खर्च लगेगा वो बताओ, तो ऐसा है नोमिनल रेट्स ही होगा, आपको एक बार कम लग सकता है पर ज्यादा तो लगेगा ही नहीं। आने वाले कुछ दिनों में जब रिजर्वेशन की तारीख आपको बताएंगे तो उसी के साथ इस ट्रिप के खर्च के बारे में स्थिति स्पष्ट कर दी जाएगी।
10. अब पहाड़ों में बारे में एक बेसिक जानकारी वो ये कि पहाड़ों में भी क्या है, दो तरह के पहाड़ होते हैं, एक गर्म पहाड़ और दूसरा ठंडा पहाड़, तो रास्ते भर आपको यह विरोधाभास देखने को मिल सकता है कि शुरूआत में कम ऊंचाई में ही आपको ठंडी का अहसास होगा और अचानक ऊंचाई में जाने के बाद भी तेज गर्मी का अहसास हो जाए, तो विचलित न होइएगा क्योंकि भाई अपना हिमनगरी मुनस्यारी तो सबसे ठंडा पहाड़ हुआ।
11. एक और जरूरी बात कहना चाहूंगा कि जैसे आप ट्रेन से लंबा सफर करके आएंगे और फिर काठगोदाम से ट्रेवलर की गाड़ी में बैठकर मुनस्यारी के लिए रवाना होंगे तो आपको इस बीच बार-बार ऐसा लगेगा कि क्यों‌ इतनी दूर जा रहे हैं, क्यों इतनी तकलीफ उठा रहे हैं, बस अब नहीं हो पाएगा, भाड़ में जाए ये ट्रिप, मैं यहीं से वापस चला जाता हूं, ऐसा आपको मुनस्यारी आते तक लग सकता है। मैं तो‌ हमेशा अकेले आता हूं तो मैंने इस चीज को गहरे तक‌ महसूस किया है। लेकिन एक बात कहूं जैसे ही आप मुनस्यारी पहुंचने वाले होंगे न, आप सब कुछ एक झटके में भूल जाएंगे, मैं दावे के साथ कहना चाहता हूं कि जब आप ढलती शाम में मुनस्यारी की वादियां देखेंगे, जब आप अपनी आंखों‌ के सामने हिमालय देखेंगे और जब मुनस्यारी की ठंडी हवा आपके शरीर को छुएगी तो देखिएगा आप सफर की सारी थकान एक झटके में भूल जाएंगे। फिर आप सोचेंगे, यार कितना अच्छा हुआ मैं आ गया, न जाने क्यों बेवजह घबरा रहा था।
12. आखिरी बात ये कि मुनस्यारी में पूरे समय मैं आपके साथ रहूंगा, मेरा वादा है कि आपको पहाड़ों की एक अलग ही दुनिया से रूबरू होने का मौका मिलेगा। तो फिलहाल जो भी साथी इच्छुक हैं, आना चाहते हैं, या अपने साथियों को‌ भी लाना‌ चाहते हैं, वे कृपया एक बार मैसेज में, व्हाट्स एप्प में, या कमेंट में सूचित करें।

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धन्यवाद।

Monday, 2 April 2018

My fist visit to Munsyari

साल 2015,
मुनस्यारी से गोरीपार जिस झूलापुल की सहायता से जाते हैं, उस पुल के निर्माण से संबंधित एक फेसबुक पोस्ट मुझे अचानक किसी एक पेज में दिखाई दिया, वहाँ एक भाईजी ने बड़ी सरल‌ भाषा में अपनी समस्या को सीमित शब्दों में पिरोया था, उस वक्त उन दो-तीन लाइनों को पढ़कर लगा कि कितने सही तरीके से इन्होंने अपनी बात रखी है‌। मेरी उस समय उनसे फेसबुक पेज पर ही कमेंट के माध्यम से बात हुई, फिर हमारी दोस्ती हुई और फिर कुछ यूं मैं सितम्बर 2015 में पहली बार अकेले दिल्ली से मुनस्यारी पहुंचा। मुझे कुछ नहीं पता था कि‌ मैं कहां जा रहा हूं, कब लौटूंगा, क्या करूंगा वहाँ, कैसे लोग होंगे। काठगोदाम से मैक्स की गाड़ी में बैठने के बाद बस मुझे एक ही बात याद आ रही थी जो साल 2014 में हमें एक ड्राइवर ने कहा था जब हम रानीखेत घूमने आए थे,
उस ड्राइवर ने कहा था- भाईजी एक बार मुनस्यारी हो के आओ, वो जगह सपने में आएगा‌। बस यही बात याद करके, वहाँ की तस्वीरें देखके मैं मुनस्यारी पहुँचा। मैं सिर्फ घूमने के लिए ही गया था, वहां जाकर अपने उस फेसबुक के दोस्त से मिला, उनके साथ रहा, और फिर तीन दिन के पश्चात वापस दिल्ली लौट आया।

अब वापसी के समय जो सबसे आश्चर्य की बात थी वो ये कि मैं जब मुनस्यारी से काठगोदाम वापस मैक्स की गाड़ी में लौट रहा था, मेरे आंसू बहने लगे, वैसे तो मैं कभी रोता नहीं हूं, बद से बदतर हालात में भी मेरे आंसू नहीं निकलते, खुद को संभाल लेता हूं। लेकिन उस दिन मैं‌ अपने आंसू रोक नहीं पा रहा था। मैं‌ पीछे किनारे की सीट पर बैठा हुआ था, हल्की बारिश भी हो रही थी, मेरे बाजू में बैठने वाले लोग मुझे छुपी हुई नजरों से बार-बार देख रहे थे, लेकिन वे लोग भी मुझे कोई कुछ बोल नहीं पा रहे थे, उनकी स्थिति ऐसी हो गई थी मानो किसी ने उनकी जुबान सिल दी हो, मुझे भी अटपटा लग रहा था क्योंकि मैं बिना किसी वजह के फूट-फूटकर रो रहा था, मेरे आंसू रूक‌ ही नहीं रहे थे, कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये मेरे साथ क्या हो रहा है। आप यकीन नहीं‌ करेंगे मैं लगभग घंटे भर रोया, मुझे याद है गाड़ी उस वक्त बेरीनाग और अल्मोड़ा के बीच थी। वो एक विशिष्ट अनुभव था, ऐसा लगा मानो मैं कहीं और ही हूं, ऐसा लगा जैसे शरीर के भीतर सब कुछ पिघलता जा रहा हो, एक‌ अलग ही अनुभूति, अजीब तरह का हल्कापन। वो हल्कापन ऐसा था कि जब अल्मोड़ा पहुंचने के बाद मेरा रोना शांत हुआ तो मैं उस चीज को फिर से पाने के लिए ऐसा तड़पा कि मुझे कुछ घंटे और रोने का मन होने लगा, ऐसा लगा कि बस आज ये पूरा दिन‌ रोता रहूं। मुझे बहुत गुस्सा आई कि मैं फिर से क्यों नहीं रो पा रहा हूं, मैं आंखें बंद करके फिर से सोने की कोशिश करता कि फिर से वो मजबूत सा अहसास वापस लौट आए और मुझे और कुछ घंटों के लिए रूला दे। पर फिर ऐसा कभी नहीं हुआ। वो जो भी था, आखिरी था।

कुछ घंटों के पश्चात ये घटना मेरे दिमाग से हट गई, मुझे याद रहा तो सिर्फ अपना रोना। एक ऐसा रोना जिसकी कोई वजह ही नहीं थी, बस मैं रोया। उस दिन के बाद से पता नहीं क्यों मेरा पहाड़ों के प्रति एक अलग ही तरह का ज्यादा लगाव स्थापित हो चुका है।