Monday, 27 February 2017

~ दीपा और मानसी ~

                       दीपा और मानसी दोनों बचपन की सहेलियाँ हैं। एक ही स्कूल में पढ़ती हैं। खास बात ये कि दोनों का जन्म 2035 में हुआ, अभी 2050 आते-आते वो 10th क्लास में पहुंच चुकी हैं। दोनों एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ते हैं, साथ-साथ स्कूल जाते हैं। एक बार दीपा दो दिनों तक स्कूल न आई, मानसी दीपा के घर गई तो पता चला कि उसकी तबियत कुछ ठीक नहीं है, उसे टाइफाइड हो गया है। दीपा ने मानसी से कहा कि बस कल तक ठीक हो जाऊंगी, परसों से साथ में स्कूल जायेंगे।
दोनों सहेलियां आज स्कूल समय पर पहुंच चुकी हैं, आज स्कूल में खेल का आयोजन हो रहा है, दीपा की तो अभी-अभी तबियत ठीक हुई है तो उसने खेल से दूरी बना ली है। मानसी तो वैसे भी कुछ नहीं खेलती तो वे दोनों आज स्कूल के मैदान में बैठे बातें कर रहे हैं---

दीपा - आजकल पानी कितना खराब हो गया है न, इसी कारण मैं जबरन बीमार पड़ गई। देख न मानसी घर के पानी का भी भरोसा नहीं रहा अब।

मानसी - पता है मेरे पापा अभी कुछ दिन पहले काम के सिलसिले में शहर को गये थे, वहां एक लीटर की पानी की बोतल दो सौ रूपये मिल रही है।

दीपा - अरी! दो सौ रुपए,  तुझे पता है मेरे नौनिहाल में आज भी एक झील है, वहां का पानी कोई भी पी सकता है, सबके लिए मुफ्त है, बाहर से आकर बहुत लोग वहां बसने लग गए हैं, और न अब वहां बहुत लोग पानी का धंधा करने लगे हैं, तो गंदगी वहां भी आती जा रही है। अभी तो उस झील का पानी सबके लिए मुफ्त है, शायद कल उसमें भी रूपये चुकाने न पड़ जाएं।
दीपा और मानसी हंसने लगते हैं..

मानसी - हां रे! झील के सभी किनारों पर बाड़ा लगा दिया जाएगा और फिर वहां पर एक आफिस बन जाएगा, हेहे। और, और लाइन से टोकन लेना पड़ेगा फिर पानी मिलेगा।

दीपा - मुझे कभी-कभी लगता है कि लोग न पागल हो गये हैं। कभी-कभी सोचती हूं बड़ी होकर डाक्टर बनूंगी या फिर ऐसे आफिस में बैठने वाली कोई मैडम, जब मैं ऐसा सोचने लगती हूं तो लगता है मैं ही पागल हूं। फिर मैं सोचती हूं मेरे पास अपनी जमीन होती, एक झील सा तालाब उस पर होता तो कितना अच्छा होता।

मानसी - हां फिर हम दोनों मस्त कुर्सी लगा कर लोगों को पानी बेचते, खूब कमाई होती। हमको आगे और पढ़ाई करने की जरूरत ही न पड़ती।

दीपा( माथा पीटते हुए) - हाय राम! मुझसे भी अब ना होती ये पढ़ाई। पढ़-लिख के वैसे भी क्या करेंगे, मुझे तो शहर जाने का वैसे भी मन नहीं करता, मैं तो सोचती हूं यहीं रहकर मां-बाबा के काम में हाथ बटाऊंगी।

मानसी - तू सही कहती है। लेकिन मेरे बाबा 12th के बाद न मुझे शहर भेज देंगे। वे तो अभी से बोलते भी हैं कि मानसी तू अपनी बुआ के यहां रहकर कालेज की पढ़ाई करना। मैं भी कुछ बोल नहीं पाती। पता है दीपा, बुआ जहां रहती हैं वो शहर बहुत गंदा है, जगह-जगह गंदी नालियां हैं, और न वहां पास में कुछ फैक्ट्रियां हैं तो आए दिन छत पर और घर में भी काले धूल की परत चढ़ जाती है। पता है बुआ दिन में तीन से चार बार झाड़ू लगाती है।

दीपा - मानसी तू न जाना मुझे छोड़के। उस शहर में तू कैसे रहेगी। रहने दे पागल कालेज की पढ़ाई, हम अपने इस गांव में ही ठीक हैं। तू काला धूल बता रही है, मुझे तो सुनके ही डर लगने लगा है, लोग तो वहां पानी में भी उतना ही खर्च करते होंगे जितना अपने घर को काले धूल से बचाने में।

मानसी - पता नहीं कैसे रहते होंगे, एक बार मैं छुट्टियों में गयी थी तो जाते ही बीमार पड़ गयी थी, हां तेरे ही जैसा कुछ रोग हो गया था मुझे, पानी से ही होने वाली कोई नई सी बीमारी थी, पता नहीं कुछ अजीब सा नाम था, अभी याद नहीं आ रहा, हेहेहे।

दीपा(हंसते हुए) - तेरे बाबा के पास तो जमीन भी है, एक तालाब खुदवाने को क्यों नहीं कहती। कम से कम तुझे शहर जाना नहीं पड़ेगा।बस एक पानी साफ करने की मशीन लगाएंगे और फिर दोनों बहनें तालाब किनारे बैठकर राज करेंगे।

मानसी - हां, एक बार बाबा कह रहे थे कि तालाब खुदवाना भी बहुत मुश्किल हो चुका है। अच्छे कारीगर नहीं मिलते आजकल, किसी को तालाब बनाने की समझ नहीं है, और वैसे भी सरकारी दांवपेंच और ये गांव के पंचायत की दखल। और बाबा ये भी कह रहे थे कि बारिश तो उतनी होती नहीं, भू-जल स्तर भी तो दिनों-दिन नीचे जा रहा है।

दीपा - तभी मेरे बाबा कहते हैं कि नया तालाब खुदवाना अपने ही पैर में कुल्हाड़ी से वार करना है। मुझे आज उनकी बात समझ आ रही है।

मानसी - अच्छा ठीक है। तुझे पता है कल बुआ फोन करके कहती है कि उनके पड़ोस में कल निगम से मिलने वाले पानी को लेकर दो लोगों के बीच ऐसे जमकर झगड़ा हुआ, एक ने बंदूक से दूसरे को गोली मार दी। बुआ बता रही थी कि तब से कालोनी में पानी को लेकर दहशत का माहौल है।

दीपा - तू देखते जा मानसी आगे और क्या-क्या होता है। ये तो अभी शुरूआत है। तुझे पता है मेरे छोटे भाई ने एक नयी सनक पकड़ ली है, उसे पता नहीं किसने पट्टी पढ़ा दी है, वो आये रोज घर में प्लास्टिक की थैलियां इकट्ठा करता है और हमारे एक पुराने कमरे में इकट्ठा करता जा रहा है, पूछने पर वो कहता है कि रहस्य है रहस्य।

मानसी - मेरे भैया तो आजकल अखबारों में लिखने लगे हैं, मुझे बताते रहते हैं, कभी-कभी तो बोर कर जाते हैं। पता नहीं शहर जाकर कैसे हो गये हैं।
भैया ने कल कुछ सुनाया था, तुझे वो मैं सुनाती हूं-
"तबाही के मुहाने पर खड़ी है फिर भी ये दुनिया न जाने किस तसव्वुर में मगन मालूम होती है।"
दीपा और मानसी ठहाके मारकर हंसने लगते हैं..!
क्रमशः ........

Friday, 24 February 2017

~ पुत्री का मोह ~

                  शान्तनु अपनी पत्नी विभा को लेकर अस्पताल पहुंच चुके हैं। घर के बाकी लोग भी अस्पताल के लिए निकल गये हैं। विभा के पेट में जोर का दर्द उठा है, शायद बच्चे की डिलीवरी का समय आ चुका है, हर कोई डिलीवरी होने के इंतजार में अस्पताल के बाहर मौजूद हैं। उसी समय डाक्टर ये सूचित करते हैं कि कल डिलीवरी होगी। अगले दिन शाम को डिलीवरी होती है। शान्तनु के सारे दोस्त यार अस्पताल के बाहर जमावड़ा लगा चुके हैं। शान्तनु ने अपने दोस्तों को उसी समय एक छोटी सी पार्टी देने के लिए वहीं पास में एक होटल को चिकन बनाने का आर्डर दे दिया है। शराब की कुछ बोतलें भी आ चुकी है। हर कोई अस्पताल के बाहर इसी इंतजार में है कि बेटा हुआ है कि बेटी। कुछ देर में खबर आती है कि बेटा हुआ है, जच्चा-बच्चा दोनों की हालात सामान्य है। शान्तनु से उनके दोस्त यार अब गले मिल रहे हैं, एक एक कर बधाई देते जा रहे हैं। सब तरफ खुशी और उल्लास है।
                    अब पास के होटल में चिकन तैयार हो चुका है, शान्तनु और उसके दोस्त यार सब लोग जमकर शराब पी रहे हैं, चिकन खा रहे हैं। इसी बीच बेटे के नाम और उसके भविष्य को लेकर बातें चलती रहती है तो शान्तनु उसी समय एक अलग ही अंदाज में कहते हैं कि हटा यार लौंडा हुआ है, मेरी ही तरह आवारागर्दी करेगा, शराब सिगरेट पियेगा। काश बेटी होती तो अपना सारा कुछ उस पर न्यौछावर कर देता, कम से कम ये तो भरोसा रहता कि कल को मेरा नाम रोशन करेगी। शान्तनु चेहरे में हल्की सी हंसी लिए हुए अंदाज में ये सब कह रहे थे। अभी बेटे को इस दुनिया में आए मुश्किल से एक घंटा हुआ है, लेकिन शान्तनु के मन में क्या-क्या नहीं चल रहा है। वे बेटे के आने वाले कल को अभी से देखने लगे हैं, उनके मन में यही है कि मैं तो वैसे उतना पढ़ा-लिखा हूं नहीं और मैं इसके लिए कितना भी कुछ कर लूं बेटा बड़ा होकर कल को अपनी मर्जी का मालिक हो जायेगा, मेरे ही सर पर चढ़ेगा, भरोसा तोड़ेगा।वे यही सोच रहे हैं कि बेटियां हमेशा भरोसे लायक होती हैं, जिम्मेदार होती हैं, जीवन भर पिता का मान रखती हैं। पुत्र प्राप्ति के बाद एक पिता के रूप में शान्तनु की ये एक स्वाभाविक सी प्रतिक्रिया है जो हमारे सामने है। सही ही है कि एक पिता चाहे वो अपने युवावस्था के दिनों में कैसा भी हो, हमेशा पुत्री की अभिलाषा रखता ही है। लेकिन इसके ठीक उलट आज विभा बहुत ज्यादा खुश हो रही होगी, यही सोच रही होगी, कि बेटा हुआ जीवन भर के लिए एक सहारा मिल गया।
                   बाप की इच्छा बेटियों को आगे लाती है, और मां की इच्छा बेटों को। और प्रकृति का साम्य यथाभूत बना रहता है।

Thursday, 23 February 2017

My Letter to Ankita-

प्रिय अंकिता,
सबसे पहले मैं तुम्हारी खुशहाली की मंगलकामना करता हूं कि तुम्हारी चोट जल्दी से ठीक हो जाए और तुम जल्द से जल्द शास्त्रीय नृत्य और संगीत की धारा में वापस लौट आओ। जब तुमने मुझे बताया था कि तुमने भरतनाट्यम, कुचीपुड़ी, मोहिनीअट्टम सीखा हुआ है, मुझे सुनकर यकीन न हुआ। मैं एक पल के लिए अवाक रह गया। आज तुमने बताया कि हिन्दुस्तानी क्लासिकल का कोर्स तुमने पूरा कर लिया है और अब Carnatic Classical सीख रही हो, साथ ही गिटार भी सीख रही हो। तुमने बताया कि अब से तो यही मेरी दुनिया है। तुमने ये भी बताया कि इंडियन क्लासिकल डांस और संगीत पर लोग हंसते हैं, उन्हें बोरियत होती है। हां सेन्सुउल और फूहड़ जो नहीं है भारी कपड़े जो पहनने पड़ते हैं, थोड़ा सभ्य बनना पड़ता है तो अधिकांश लोगों को तो ये बोर ही करेगा  
              "You know the ongoing perception is like,  they have no idea what are the ABC of Indian classics and without knowing the roots they are busy degrading our own great indian classical dance forms and now what they do..they are very curious about learning various forms of western classics like bachata, hiphop, salsa, zumba etc."
                तुम्हें सच कहूं तो ये अब आम बात है, तुम इस पर जरा भी ध्यान मत देना, लोग खोखले होते जा रहे हैं, उन्हें हो जाने दो, वैसे भी ये वैस्टर्न डांस ज्यादा दिन का नहीं है क्योंकि इसका अपना कोई साहित्य, इसकी कोई अपनी संस्कृति नहीं है। और पता है सबसे मजेदार बात क्या है, आजकल हर संडे सरकारें भी सड़कों पर जुंबा डांस कराने लगी हैं, सबको एक तरह का लिबास बांट दिया जाता है और खूब महफिल जमती है। शापिंग माल में तो आये दिन फ्लेश माब(flash mob) का आयोजन होना आम बात हो गई है। लेकिन तुम इन सब से कभी हतोत्साहित न होना, ये मत सोचना कि शास्त्रीय नृत्य और संगीत की महत्ता खत्म हो गई है, बल्कि मैं तो कहता हूं कि तुम पर एक बड़ी जिम्मेदारी आन पड़ी है। तुम्हें आनी वाली पीढ़ियों तक इसे पहुंचाना है, अपनी पुरातन संस्कृति को नये हाथों में सौंपना है।
                तुम्हें पता है भरतनाट्यम को देवदासियों का नृत्य कहा जा रहा है और दक्षिण भारत में बड़े ही सुनियोजित तरीके से इसके मूल(Origination) को नष्ट करने की कोशिश हो रही है। Western Forces बड़ी चालाकी से ये काम कर रही हैं। पता है कुछ समय से ऐसा हुआ है कि चीजें बदली है, लोग विरोध करने लगे हैं, और तो और अपने बच्चों को शास्त्रीय नृत्य सीखाने के लिए आगे भी आ रहे हैं।
                 गुरु-शिष्य परंपरा का निर्वहन तुमने भी किया है, तुमने बताया कि तुम्हें सीखाने वाले गुरू एक लड़का है। पता है Western Forces ने यहां भी अपनी घटिया मानसिकता का परिचय दिया है। किसी एक घटना की तस्वीरें और जानकारी इकट्ठी कर वे इस पूरे गुरु-शिष्य परंपरा को कुछ इस तरीके से पेश करते हैं कि देखने वालों को ये लगेगा कि कोई नृत्यांगना बिना शोषित हुए नृत्य नहीं सीखती। मतलब नृत्य सीखाने के नाम पर देवदासियों की भांति बड़ी मात्रा में शोषण होता है वगैरह वगैरह। मैं ये बात समझ सकता हूं कि सुन के अटपटा लगता है, ऐसी चीजों पर ध्यान नहीं देना चाहिए। पर क्या करें ये साक्षात हमारे सामने हो रहा है, हमारी पुरातन संस्कृति, भाषा, बोली, नृत्य संगीत इन सब में कुछ न कुछ खामी निकालकर, इसे सढ़ा हुआ, पुराना माडल बताकर इसे जड़ से मिटाने का प्रयास किया जा रहा है।
                 सीधा-सीधा ऐसे समझें कि हम भले कितने महंगे प्लेट में खाना खा लें लेकिन एक जो पत्तल या केले के पत्ते में हम कभी-कभी शादी या फेस्टिवल में खाना परोसते हैं, हम अपनी इस संस्कृति को कभी छोड़ नहीं सकते। ये हमारी पहचान है, हमारा सब कुछ है।
खैर तुम समझ गई होगी कि मैं तुम्हें क्या कहना चाहता हूं। पता है मुझे न बहुत खुशी हुई जब तुमने कहा कि निकट भविष्य में तुम अपने बच्चों को शास्त्रीय नृत्य सीखाओगी। सच्चे मन से कहता हूं "अंकिता गर्व है तुम पर"।
जल्दी से पूरी तरह ठीक हो जाओ, खूब आगे बढ़ो, खूब तरक्‍की करो।
मेरी शुभकामनाएं।


Ankita during bharatnatyam performance




Ankita during Krishna leela Dance


Ankita Performing Kuchipudi




Ankita and his Guru


Ankita Got awarded by legendary singer Shri bala Subramanian in Hyderabad



Awarded in all india artist association Shimla for bharatnatyam
Renowned Artist Shri Sudarshan gaur ji standing on the left.

Singing Hindustani sugam sangeet in all india music and
dance competition conducted by kerala samajam

 

Wednesday, 22 February 2017

~ मितव्ययिता ~

               उस समय 3rd या 4rth क्लास में था। पड़ोस के एक लड़के ने मुझे पत्थर देकर चैलेंज किया कि चल देखता हूं तेरा निशाना कितना अच्छा है, चल इस रिक्शावाले के सिर में मार के बता, मैं ठहरा भोला भंडारी, साथ ही उतना ही सिरफिरा, मैंने उस रिक्शेवाले के सिर में पत्थर दे मारा, मेरा निशाना सटीक था, रिक्शेवाले के माथे पर सूजन आ गई, उसने मुझे पकड़ने को दौड़ाया, मैं दौड़ते घर आया और खाट के नीचे छुप गया। रिक्शेवाले ने मां से शिकायत की। मां बोलती रही, आने दे तेरे पापा को वगैरह। उतने ही समय पापा आफिस से घर आ गए, रिक्शावाला घर के बाहर खड़ा था, वो पापा को बोलने लग गया कि संभालो साहब अपने बेटे को, हम गरीब हैं, कोई भी अपने मजे के लिए मार के चला जाता है,हम सहन कर लेंगे, कोई और नहीं सहेगा, रिक्शावाला कुछ इस तरह सुनाता रहा, पापा सुनते रहे, फिर पापा ने पास की झाड़ी से एक बेशरम का डंडा तोड़ा और मुझे घर से बाहर निकालकर उस रिक्शेवाले के सामने डंडे से पीटना शुरू कर दिया। लेकिन मैं भी निर्लज्ज की तरह मार खाता रहा, क्योंकि मैंने तो बस एक निशाना लगाया था। अब उस उम्र में  क्या सही क्या गलत, किसी को थोड़े न पता रहता है। लगभग 20-30 डंडे पड़ चुके थे, मैं रोने लगा तब जाकर रिक्शेवाले को चैन आया, वो बोला- रहने दो साहब कितना मारोगे, बच्चा है। और फिर पापा शांत हो गये, डंडा टूट चुका था, मेरे दोनों पैर नीले पड़ चुके थे।
उसी दिन शाम को पापा मुझे गाड़ी में बिठाकर घुमाने ले गये। शायद उन्हें दु:ख पहुंचा होगा। मैं चुपचाप गाड़ी में बैठा रहा, कंधे/कमर में हाथ पकड़कर बैठने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी। हल्की-हल्की ठंड थी, हाफ-पैंट पहना हुआ था तो जब भी पास से कोई ट्रक गुजरता, उससे निकलती गर्म हवा से पैर से लेकर जांघ तक गजब का सुकून मिलता।एक पल को लगता कि ये ट्रक कुछ देर हमारे साथ-साथ क्यों नहीं चलता। पापा ने मुझे उस दिन शाम को आइसक्रीम खिलाई, मैं तो आइसक्रीम खाने के बाद एक झटके में सारी मार भूल गया।
                  इस घटना के ठीक एक हफ्ते बाद मैंने एक लड़के के कंधे पर दांतों से काट लिया, और फिर से मेरे लिए डंडा टूटा। खैर ये सिलसिला चलता रहा।
                 मूल बात ये कि उस शाम मैं आइसक्रीम पाकर सब कुछ भूल गया था। वो इसलिए भी क्योंकि उस उम्र में बाहर से कोई चीज खरीद कर खाना बहुत बड़ी बात होती थी। हमारे मन में यही होता था कि सुबह नाश्ता, दोपहर खाना और रात का खाना, यही सब कुछ है। इसके अलावा बाहर कुछ भी खाते हैं तो वो हमें बीमार कर देगा। हम अगर कभी शाम को चोरी-छिपे तेल से तली हुई चीजें खाकर घर पहुंचते तो भी मन में ये रहता कि जैसे हमने कोई गलती की है, कायदा तोड़ा है।
                   शाम को जब पापा आफिस से लौटते तो हमेशा मन में ये रहता कि कुछ लाएं होंगे क्या, मम्मी की साड़ी से लिपटकर कहते कि पूछो तो जरा कि कुछ लाएं हैं कि नहीं। हमारी तो पूछने की हिम्मत कभी न होती। मुझे आज भी समझ नहीं आता कि पापा के आने की  भनक पाते ही खाट, पलंग और दरवाजे के किनारों में आखिर हम क्यों छिपते थे, जबकि कुछ सेकेंड बाद निकलना होता ही था।
                  कभी मामा घर जाते तो मामा-मामी हमें पांच दस रुपए हाथ में थमा देते और कहते कि रखे रहना, फालतू खर्च मत करना। मुझे आज उस पैसे का महत्व समझ आता है, वो पांच दस रुपए जो हमें दिया जाता है,  उससे हमें मितव्ययिता का पाठ पढ़ा दिया जाता था। कि अभी तुम्हारी उम्र और समझ विकसित नहीं हुई इन पैसों को खर्च करने की। और हम उन पैसों को महीनों तक अपने पास रखते भी थे। अगर खर्च करते भी थे तो कुछ जरूरत की ही चीज लेते थे। और अगर उन पैसों से बाहर किसी दुकान से कुछ खरीदकर खा लेते तो थोड़ा गलत सा लगता कि जो दस रुपए अभी हमने खर्च कर दिया वो बहुत कीमती था। हां हम ऐसा करके खर्चीले कहलाते लेकिन हमारी दीदी बहने कितने महीनों तक उन पैसों को संभाल के रख लेती, उनके जमा पैसों को देखकर हमें ऐसा लगता कि हमारे हाथ खाली हैं, हमारे पास कुछ भी तो नहीं है। जब बहुत ज्यादा बुरा लग जाता तो फिर हम मां से पांच रुपए जबरन मांग लेते कि देना तो मैं इसे रखूंगा अपने पास।कभी खर्च नहीं करने की कसम खा लेते।
                  लेकिन आज, आज जमाना बदल गया है। पता नहीं आजकल के मां-बाप एवं बच्चों को मितव्ययिता का अर्थ पता भी है या नहीं। आज के बड़े होते बच्चे क्या अपने मां-बाप के घर आने पर इंतजार करते हैं कि वे कुछ लेकर आए होंगे। अरे उन्हें तो पाकेट मनी ही इतनी मिल जाती है कि बस क्या कहने। हमारे मां-बाप हमेशा हमें छोटी-छोटी चीजों से खुश रखते, जिस चीज की जरूरत जिस उम्र में है, उसी उम्र में ही हमें मुहैया कराया जाता। मैं जब समय से पहले घरवालों से छिप-छिपकर दोस्त के साथ उसकी गाड़ी से ड्राइविंग सीखने लगा, तो हमारी बहनों ने पापा से शिकायत कर दी कि देखो लड़का बिगड़ रहा है, संगति देखो इसकी। लेकिन आज, एक दसवीं पास बच्चा पचास हजार का फोन लेकर चलता है, कार चलाना सीख जाता है और लाख रुपए की बाइक में घूमता है, उस दसवीं के बच्चे की जरूरत इतनी है ही नहीं, फिर भी मां-बाप अपनी औलाद को चढ़ा कर रखते हैं, बेटा कहां जा रहा है क्या कर रहा है कैसे लोगो के साथ उठना-बैठना कर रहा है, किसी को नहीं मालूम, फिर एक दिन कोई अनहोनी हो जाती है और मां-बाप सर पकड़ के बैठ जाते हैं।
आज लोगों के पास हर चीज जरूरत से ज्यादा है। और इस आपाधापी में जिंदगी का जो आनंद होता है, वो पूरी तरह से खत्म हो रहा है।
बच्चों को कैसे मूल्य दिये जाएं, कैसे आज के इस बदलते परिदृश्य में उनकी परवरिश की जाए, आज के अधिकतर मां-बाप को इसकी समझ ही नहीं, घूम-घूमकर सेमिनार में भागीदारी निभाते हैं कि बच्चों का विकास कैसे किया जाए, और बच्चों को ढंग से समय ही नहीं दे पाते, समय देते भी हैं तो एक दूसरे के फोन में एप्लीकेशन्ज और बाकी जानकारी मां-बाप अपने बच्चों से ले रहे होते हैं। और ये सोशल मीडिया बच्चों को जितना तबाह कर रहा है उसके कहीं ज्यादा आज के माडर्न मां-बाप को चपेट में ले रहा है, वे इस चक्कर में रोबोट बनते जा रहे हैं और तो और बच्चे अब उन्हें किसी बोझ की तरह भी लगने लगते हैं, वे अब हर नई जिम्मेदारी को बस कैसे भी करके निपटाना चाहते हैं। अरे एक बच्चे के संपूर्ण व्यक्तित्व का जो एक शुरुआती काउंसलिंग होता है, वो एक मां-बाप से बेहतर और कोई नहीं कर सकता, अगर इतनी सी बात नहीं समझ आती तो भेजिए ट्यूशन क्लासेस, फलां क्लासेस आदि आदि।                  
                     शौक तो सबके होते हैं, हम बचपन में किसी चीज की जिद करते, तो हमें हफ्ते महीने बाद वो चीज मिलती, आपने कभी सोचा कि ऐसा क्यों होता था, ऐसा नहीं है कि पैसे का अभाव होता था, बल्कि बात ये थी कि इस पूरी प्रक्रिया से वे हमें धैर्य का पाठ पढ़ा देते थे। और हमें इतने महीनों बाद जब वो चीज मिलती थी तो हम खुशी से झूम उठते थे। लेकिन आज लाखों की गाड़ी खरीदने के बाद भी वो आनंद नहीं है, क्योंकि आप मूल्यहीन हो चुके हैं। आपने धैर्य का पाठ पढ़ा ही नहीं। महंगे गैजेट्स, गाड़ी या और कोई दूसरी चीज हो, आप उसकी खरीददारी इसलिए नहीं कर रहे कि आप रोज उस चीज को पाने का सपना देखते थे या आपको उसका सालों से इंतजार था बल्कि इसलिए करते हैं ताकि आपके ईगो का तुष्टीकरण हो सके।
                   आज के समय में जैसे बच्चा किसी चीज की जिद कर रहा है तो तुरंत उसे पैसे पकड़ा दिया, उम्र से पहले ही एटीएम दे दिया, हां मार्केट सजा हुआ है, हर चीज तैयार है आपकी सुविधा के लिए, जी भर के खर्च करो, सोच के गये थे कि एक हजार की खरीददारी करेंगे, कर आते हैं पांच हजार खर्च। अपार सुविधाएं मिल रही है इस जनरेशन को, जो मांगा तुरंत हाजिर। स्वाइप करो ऐश करो। बिस्तर में लेटे-लेटे खाना आर्डर करो, मनमाने आनलाइन शापिंग करो। लेकिन भाई साहब हर जनरेशन की अपनी कुछ जिम्मेदारियां होती है, अगर आपको ये नहीं दिख रहा कि कल जाके आपके बच्चे मूल्यहीन हो जाएंगे तो इसमें पूरी गलती आपकी है। आपने एकदम टेक्नोलॉजी को गर्दन से चिपका लिया है, अब हिल भी नहीं पा रहे, नया कुछ सोच नहीं पा रहे।  बस एक धुन में बहे जा रहे हैं, बेहिसाब फिजूलखर्च कर रहे हैं, और बच्चों को भी यही सीखा रहे हैं। कंजूसी और मितव्ययिता में थोड़ा सा फर्क होता है, इसे आप इतनी पढ़ाई करने के बाद भी समझ नहीं पा रहे, जीवन में उतार नहीं पा रहे हैं। कम से कम एक पांव रख भी लीजिए जमीन पर। थोड़ा प्रकृति से जुड़िए। प्रकृति में धैर्य है । तकनीकी में अधैर्य । जीवन धैर्य में है। साँस क्या जल्दीबाजी में ले सकते हैं क्या ,बेसब्री के कारण ,हमारे जीवन का आनंद ही गायब हो रहा है ,हमें खबर ही नहीं।
 

Monday, 20 February 2017

~ स्वाभिमान की लड़ाई ~

                   देखो न इतनी लड़ाइयों के बाद कितनी थकान महसूस कर रहा हूं मैं, उठ चुका हूं नींद से, फिर भी  थकान बनी हुई है। जिस संस्कृत के मंत्र को सुनते हुए आज मैं सो गया था। तुम सपने में वही संस्कृत का मंत्र दोहरा रही थी। नदी किनारे उस मंदिर के पास, वही तो एक मंदिर था जहां तुम रोज जाती थी अपनी मां के साथ। मैंने सपने में तुम्हें मंत्र का उच्चारण करते सुना, अभी फिर से वही मंत्र सुन रहा हूं तो ये आवाज फीकी लग रही है उस आवाज के सामने जो तुमसे मैंने सपने में सुना था।
पता नहीं तुम सच में मंत्रों का जाप करती हो या नहीं, लेकिन अगर तुम ये पढ़ रही होगी तो इस पर तुम्हारा ध्यान जरूर जाएगा।

मंत्र कुछ इस तरह है--
कराग्रे वसते लक्ष्मि:, करमध्ये सरस्वति।
करमुले तु गोविन्द:, प्रभाते करदर्शनम्।
समुद्रवसने देवि:, पर्वतस्तनमंडलेः,
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं ,पादस्पर्शं क्षमस्वमे।

                क्षमा करना कि मैंने तुम्हें सपने में देखा। सपने में हम दोनों साथ में घूम रहे थे, याद है तुम्हारे शहर से एक नदी होकर जाती है, नदी पर घाट बने हुए हैं, उस नदी के एक ओर मंदिर बना हुआ है, और ठीक उसी नदी के दूसरी ओर एक पुरानी हवेली है, उसके पीछे की गली में आज भी दुकानें सजती है। हम उन गलियारों में महीने में एक या दो बार छुप-छुपाकर घूमने जाया करते थे, मैंने तुम्हारे लिए शायद कुछ खरीदा भी था। याद है तुम अपने भाई के साथ मेले में झूला झूलने गयी थी, तुम्हें शायद झूले से डर नहीं लगता था, एक मैं था जो झूले से दूर भागता था इसलिए तुम अपने भाई के साथ झूला झूलने जाती थी। याद है तुम कितनी चुलबुली हुआ करती थी, एक बार तुमने और मैंने एक तांगे वाले से जिद कर ली और उसी को पीछे बिठाकर उसका तांगा चलाया था और फिर हम तीनों धड़ाम से पास के एक खेत में जा गिरे थे। तुम्हें संस्कृत बहुत पसंद था, तुमने शायद अपने पापा से सीखा था, तुम हमेशा संस्कृत के बारे में मुझे सिखाती और मैं हंसने लगता, क्योंकि मुझे तुम्हारी बात समझ न आती। तुम ये कहती कि संस्कृत लिखा-पढ़ी वाली कोई भाषा नहीं, इसे हमेशा एक कंठ की जरूरत होती है जो इसका सटीक उच्चारण करे और आने वाली पीढ़ी को सौंप दे।
                   पता है सबसे डरावना क्या था, वो ये कि मैंने तुम्हारे बचपन से लेकर आज को उस सपने के शुरुआती क्षणों  में देख लिया, हां मैंने सब देख लिया और अभी मैं इसे संभाल नहीं पा रहा हूं, किसी को उसकी अनुमति के बगैर ऐसे पूरा जान लेना मुझे अंदर से खाये जा रहा है। मैं कुछ भी नहीं जानना चाहता तुम्हारे बारे में, मिटा देना चाहता हूं तुमसे जुड़ी ये स्मृतियां। मैं अब नहीं चाहता कि तुम मेरे चेतन अचेतन में कहीं भी रहो, नहीं अब तुम्हें मेरी स्मृतियों में रहने की इजाजत नहीं है। तुम्हें हमेशा के लिए दूर हो जाना चाहिए। तुम इस तरह से मेरे सपने में क्यों आई, ऐसे गहरे तक झकझोर चुकी हो कि मैं कभी जिंदगी भर तुम्हें इसके बारे में बता नहीं पाऊंगा, मैं ये कभी नहीं बतलाऊंगा कि वो तुम ही थी जिसे मैंने हूबहू सपने में देखा।
                      सपना जब अपने आखिरी पड़ाव में था तो कुछ ऐसी स्थिति थी। उस समय ऐसा लगा कि सिर्फ तुम ही हो जो मेरे सपने में आई थी, तुम ही तो हो जिसके लिए मैंने इतनी मारकाट मचा दी। फिर मुझे ये लगने लगता है कि सिर्फ तुम नहीं हो, तुम्हारे जैसे पता नहीं कितने और हैं जो अपने स्वाभिमान की लड़ाई लड़ रहे हैं, अब मेरे सामने चेहरे झूल रहे हैं, ऐसा लग रहा है जैसे मैंने इन सबके लिए तलवार उठा ली। हां मैं उनका नाम तुम्हें नहीं बता सकता,  मैं तो तुम्हें ये भी नहीं बता सकता कि मैंने सिर्फ तुम्हें देखा था और सिर्फ तुम्हें देखने के एवज में मुझे न जाने कितने लोग याद आने लगे। ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे तुम उन लड़कियों का प्रतिनिधित्व कर रही हो। तुम अपने अस्तित्व को मिटाने के लिए हमेशा तैयार रहती हो, खुद अस्तित्वविहिन होकर दूसरों के अस्तित्व की रक्षा के लिए दुआएं करना कोई तुमसे सीखे।
                    देखो न तुम्हें नुकसान पहुंचाने वाले आज इस दुनिया में नहीं हैं।जो थोड़े बहुत रह गये थे तुम्हें बदनाम करने के लिए मैंने उन्हें भी तुमसे हमेशा के लिए दूर कर दिया, उन्हें मौत की नींद सुला दी।अब उनका साया का भी तुम तक नहीं आ पाएगा। तुम जब लिखोगी तो मेरे नाम सजाएं लिखना। लिख देना कि तुम्हें तुम्हारा सम्मान दिलाने के लिए मैंने हथियार उठाये। लिख देना कि मैंने खून की होलियां खेली।
मैं तुम्हें कभी नहीं बता पाऊंगा कि मैंने तुम्हें सपने में देखा।नहीं बताऊंगा तुम्हें कि मैंने चाकुओं का वार झेला, ये भी नहीं बताऊंगा कि मैंने कितनों को मौत के मुंह में ढकेल दिया।
                हंडियां चपटी हो गई हैं, बर्तन और बाकी सारे सामान बिखरे पड़े हैं, टूटी लकड़ियां बिखरी हुई हैं, धारदार चाकू खून से सने पड़े हुए हैं जमीन पर, उसी जमीन पर जहां आज तुम्हारा अहित चाहने वालों को मैंने अपने तलवार से लहूलूहान कर दिया। पता है सब तरफ मुझे लाल रंग दिखाई दे रहा है। उसी वक्त मुझे पकड़ने के लिए वहां कुछ सैनिक आ जाते हैं,  मेरे एक हाथ में चाकू और दूसरे हाथ में तलवार और कुछ इस तरह मेरा रौद्र रूप  देखकर वे वहां से चले जाते हैं। मैं फिर वहीं खड़ा रहता हूं, शांत पड़ जाता हूं, और फिर घुटनों के बल गिर जाता हूं और फिर कुछ देर बाद मैं अपने खून से सने कपड़ों को वहीं फेंक देता हूं और नये कपड़े पहनकर उस जगह से कहीं दूर चला जाता हूं।रास्ते भर यही सोचते रहता हूं कि तुम्हें तुम्हारा स्वाभिमान लौटाने के लिए मैंने ये क्या कर दिया। करीब दो दिन और दो रात लगातार जंगल के रास्ते चलते चलते मैं एक दूसरे गांव में पहुंच जाता हूं।
                मैं तुम्हें ये कभी नहीं बताऊंगा कि जब तुम्हें किसी ने बदनाम करने की कोशिश की तो मैंने हथियार उठा लिए, मैं लड़ने लग गया, घायल हुआ और लोगों को घायल भी किया। सब कुछ कितनी जल्दी हो रहा था। मैं बिना कुछ सोचे, बिना कुछ समझे बस मारे जा रहा था, मेरे सामने सिर्फ एक ही चीज थी, तुम्हारा स्वाभिमान से जड़ा चेहरा। मैं तुम्हें इस भयावह सपने के बारे में और बताकर डराना नहीं चाहता। मैं तुम्हें अगर अपने सपने के बारे में और बताने लगूंगा तो तुम्हें मेरे विचार सुन समाज के खिलाफ जाना पड़ेगा, अकेलेपन का जीवन जीना पड़ेगा, लड़ाईयां लड़नी पड़ेगी, इसलिए तुम ऐसा कभी मत करना।    
                   पता नहीं तुम्हारा मेरा रिश्ता कितना पुराना है। लेकिन तुम मेरे लिए एक सपना या कल्पना हो ही नहीं सकती, तुम तो एक चेहरा एक व्यक्तित्व लिए इसी जीवन में मौजूद हो मेरे साथ, हां भले तुम मुझसे दूर हो, अपना एक अलग जीवन जी रही हो। लेकिन मुझे ये महसूस होता है कि तुम बराबर मेरे हिस्से का जीवन बांट रही हो।


Friday, 17 February 2017

~ I Travel ~

I travel,
Because soft music/dj songs, coffee etc doesn't work in my case,

I travel,
Because sometimes books can't heal my wounds,

I travel,
Because it's like a process of understand you, and out of that understanding comes love.

I travel,
Because this is the only way i can discover my innerself,

I travel,
Because I really care about myself and I can't digitalize every portion of my life.

I travel,
Because i cant live in a highly infective place(society) for a long time.

I travel,
Because i cant push myself in between those rotten knowledge patterns and sick ideologues.

I travel alone,
Because i cant let my real emotions unfold.

I travel alone,
And by doing this way i dont need hotel rooms and luxury,
I eat according to availability,
I sleep wherever i want, yes My source of relaxation is waiting rooms, treeshades and railway/bus stations.

I travel,
because I thought sources must be preserved, both cultural diversity and biodiversity.

I travel,
i travel a lot, specifically to mountains for fresh air and water, because nowadays technology owes ecology.

I travel,
and i face difficulties, for days like these i have tomorrows,
tomorrow where the promises live,
where the heart get whole and wounds get healed.

I travel,
Because i realize that i am a man of character and i dont let myself down infront of those tamasik people.

I travel,
Because this is how civlizations flourishes.


Tuesday, 14 February 2017

~ मैं लड़की नहीं ~

                  रोज की तरह मैं कालेज जाने के लिए सुबह से तैयार हो गई। कल मेरे सर पर चोट लग गई थी अब इस वजह से मुझे यही लग रहा है कि मैं सब भूल रही हूं। गली से पैदल चलते मैं अपने चौराहे की तरफ जा रही थी। अचानक से मुझे महसूस हुआ कि मुझे चुपके से कोई देख रहा है, शायद वो कोई दुकान वाले अंकल थे, क्या वे लड़कों को भी देखते होंगे या सिर्फ मुझे ही देख रहे हैं, खैर मैंने उन्हें नजरअंदाज किया और मैं आगे बढ़ने लगी। फिर थोड़ी देर बाद मुझे ये लगने लगा कि कोई है जो फिर से देख रहा है, टेढ़ी नजरों से देखा तो ये पाया कि कोई लड़का है जिसकी हल्की सी निगाह मुझ पर पड़ रही है। फिर मैं आगे बढ़ी, मैंने देखा एक बुढ़िया मुझे ऊपर से नीचे ताक रही थी। न जाने कितनों ने मुझे देखा, मैं गिनती न कर पायी, कोई आंखे फाड़कर देखता तो कोई चोरी-छिपे। मुझे नहीं पता कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। एक बार को लगा कि मैंने कपड़े ढंग से पहने हैं कि नहीं, कहीं कुछ ढीला पड़ गया हो शायद, इसलिए भी तो लोग देख रहे होंगे, फिर मैं खुद को जांचने लगी और ये पाया कि सब ठीक तो है।
मैं भला आज इतना क्यों सोच रही हूं, सामान्य सी बात तो है।
हां ये तो मेरे लिए रोजमर्रा की बात थी, रोज इसी रास्ते होकर कालेज के लिए बस पकड़ती हूं, लेकिन आज मुझे ये क्या हो गया है, शायद आज मैं देख पा रही हूं कि एक लड़की होने के नाते मुझे कितनों के द्वारा देखा जा रहा है, ये आज इतना लड़कीपन मुझमें क्यों आ गया है, मेरी खूबसूरती सामान्य सी है, कपड़े भी ज्यादा भड़कीले नहीं हैं, फिर भी मुझे ये पता नहीं कि कौन किस नजरिए से देख रहा है, लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि आज मैं इन सब देखने वालों की गिनती कर रही हूं तो मुझे घबराहट सी हो रही है, डर सा लग रहा है।
                  मेरे घर से चौराहे तक की दूरी लगभग पांच सौ मीटर है, मैं ये दूरी नापकर रोज की तरह अपने कालेज की बस का इंतजार करने लगी। कुछ एक मिनट तक वहां खड़ी रही तो मुझे लगा कि फिर से कुछ लोग मुझे देख रहे हैं, मैं अब पीछे चली जाती हूं, उन लोगों के चेहरों को याद करने लगती हूं जो पहले ही रास्ते में मुझे देख चुके हैं और फिर से घबराने लगती हूं। शायद मेरे मम्मी-पापा को भी कुछ इसी तरह बैचेनी होती होगी मेरे लिए, जब मुझे कभी घर लौटने में देरी हो जाती है।
                   मैं वहां चौराहे में खड़ी मन ही मन सोचती हूं कि जल्दी से मेरी बस आ जाए, अपनी उंगलियाँ मरोड़ने लगती हूं, पैरों को धीमे से जमीन पर पटकने लगती हूं। लेकिन आज मेरी बस का कोई पता नहीं, रोज इस टाइम पर तो आ जाती थी, आज इस बस को क्या हुआ। उतने में ही एक कोई अंकल आते हैं और मुझसे टाइम पूछने लगते हैं, इस भीड़ में मैं ही उन्हें मिली क्या? मैं अचानक से उन्हें अपने सामने देखकर कुछ समझ नहीं पाती कि क्या जवाब दूं, मेरी जुबान सिल जाती है, मैं डर के मारे कांपने लगती हूं, और फिर इसी दौरान घबराहट के मारे मेरी नींद खुल जाती है, उठने के बाद पता चलता है कि 'मैं लड़की नहीं'।